scorecardresearch

अब सरकार के होंगे बांके बिहारी?

सरकार ने श्री बांके बिहारी मंदिर के अधिग्रहण करने की कवायद क्या शुरू की, वर्षों से मंदिर का काम देख रहे गोस्वामी समुदाय में हलचल मच गई. अब दोनों में छिड़ी है जंग कि बांके बिहारी किसके हैं.

अपडेटेड 21 दिसंबर , 2015

मथुरा के वृंदावन की अलसाई हुई जाड़े की सुबह में आठ बजकर 50 मिनट पर बजने वाला तेज सायरन श्रद्धालुओं में चेतना का संचार कर जाता है. काम-धाम छोड़ श्री बांके बिहारी मंदिर की ओर आरती में शिरकत करने लोग दौड़ पड़ते हैं. इस आरती के बीच कुछ पोस्टर ध्यान खींचते हैं. काली स्याही से लिखे गए ये पोस्टर बताते हैं कि भक्त और श्रद्धालु श्री बांके बिहारी मंदिर के सरकारी अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं.

राज्य की सपा सरकार ने पिछले महीने जैसे ही इस मंदिर के अधिग्रहण के लिए फाइलें दौड़ानी शुरू कीं, वृंदावन का माहौल गर्मा उठा. साधु-संत अनशन पर उतर आए. बहिष्कार, बंदी का दौर शुरू हो गया.

सपा सरकार मंदिर के अधिग्रहण के प्रस्ताव को कैबिनेट से मंजूरी दिलाने की तैयारी में है. सरकार का दावा है कि मंदिर में रोज आने वाले 25,000 से अधिक श्रद्धालुओं को वह बेहतर सुविधाएं मुहैया कराएगी. हालांकि मंदिर के मुख्यद्वार के ऊपर लगे बोर्ड में लिखा है, “यह मंदिर स्वामी हरिदास जी महाराज के वंशजों का निजी मंदिर है.” इसलिए मंदिर को अपनी निजी संपत्ति मानते हुए इससे जुड़े गोस्वामी समाज के लोग सरकार के खिलाफ लामबंद हो गए हैं. बीजेपी और इससे जुड़े हिंदुत्वादी संगठन मंदिर के सेवायतों (गोस्वामी समाज के लोग) के पक्ष में उतर आए हैं. कांग्रेस, बीएसपी जैसी पार्टियां भी इस विवाद से परे नहीं हैं.

गोस्वामियों के प्रभुत्व को चुनौती
सवा एकड़ में फैले “ठाकुर श्री बांके बिहारी मंदिर” में स्थापित भगवान की मूर्ति साढ़े पांच सौ वर्ष पुरानी है. साढ़े पांच सौ साल पहले अलीगढ़ के खैर तहसील के हरिदासपुर गांव में स्वामी हरिदास का जन्म हुआ, जो वैराग्य उत्पन्न होने पर वृंदावन के निधिवन में आकर रहने लगे. स्वामी हरिदास संगीत के महान आचार्य और तानसेन के गुरु थे. कहा जाता है कि उनकी साधना से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण “श्री बांके बिहारी” के मूर्ति रूप में प्रकट हुए. इसी स्वरूप में श्री यानी राधारानी भी समाई हुई थीं. यही वजह है कि  मंदिर में बांके बिहारी की मूर्ति का पुरुष और स्त्री दोनों रूपों में श्रृंगार होता है.

स्वामी हरिदास के बाद की पीढिय़ां गोस्वामी कहलाईं, जो श्री बांके बिहारी भगवान की पूजा-पाठ की अधिकारी थीं. 151 साल पहले वृंदावन में राजा बदन सिंह के बाग में वर्तमान “श्री बांके बिहारी मंदिर” की स्थापना हुई थी. उसके बाद से करीब सवा सौ गोस्वामी परिवार के साढ़े पांच सौ सदस्य यहां पूजा-पाठ करवाते आ रहे हैं. मंदिर में हर साल आठ से दस करोड़ रु. की आय होती है. मंदिर के पास चल-अचल मिलाकर 100 करोड़ रु. की संपत्ति है. इस प्रभावशाली मंदिर पर गोस्वामी परिवार के बढ़ते वर्चस्व को तोडऩे के लिए हिंदू समाज के कई दूसरे प्रभावशाली लोग भी अब सक्रिय हुए हैं, जिन्हें सपा के वरिष्ठ लोगों का समर्थन है.

विवादों ने तैयार की नींव
मंदिर की प्रबंध व्यवस्था 1938 में मथुरा मुंसिफ मजिस्ट्रेट के कोर्ट से डिग्री-स्कीम ऑफ मैनेजमेंट के प्रावधानों के तहत संचालित होती है. इसमें सात सदस्यीय “श्री बांके बिहारी मंदिर प्रबंध समित्यि का प्रावधान है. सभी गोस्वामी समाज के व्यक्ति इस समिति में दो राजभोग सेवाधिकारी और दो शयनभोग सेवाधिकारी का चुनाव करते हैं. राजभोग और शयनभोग के सभी चार निर्वाचित सदस्य तीन अन्य गैर गोस्वामी, लेकिन बांके बिहारी में आस्था रखने वाले सदस्यों को चुनते हैं. इस समिति का कार्यकाल तीन वर्ष का होता है.

मथुरा जिलाधिकारी कार्यालय के एक अधिकारी कहते हैं, “चार सदस्य अगले दो सदस्यों का चुनाव तो सहमति से कर लेते हैं, लेकिन सातवें सदस्य को लेकर हमेशा विवाद हो जाता है.” इसीलिए 2001 में तय समय में प्रबंध समिति का चुनाव नहीं हो पाया और अगले 12 सालों तक मथुरा मुंसिफ मजिस्ट्रेट ने बतौर रिसीवर मंदिर की प्रबंध व्यवस्था संभाली.

हाइकोर्ट के आदेश पर 2013 में नए सिरे से प्रबंध समिति का चुनाव हुआ. इसी साल पहली जुलाई से कार्य शुरू करने वाली नवगठित “श्री बांके बिहारी मंदिर प्रबंध समित्यि के अध्यक्ष गौरव गोस्वामी बने. हालांकि विवाद के चलते कुछ ही महीनों में गौरव ने पद से इस्तीफा दे दिया था. प्रबंध समिति में विवाद के दौरान ही प्रदेश सरकार के धर्मार्थ कार्य विभाग ने मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं को होने वाली दिक्कतों का ब्यौरा जुटाना शुरू कर दिया.

इसी साल पहली जुलाई को मंदिर में दर्शन करने आए मुख्य सचिव आलोक रंजन को यहां के सेवायत आनंद किशोर गोस्वामी और जुगल गोस्वामी ने बाकायदा मंदिर परिसर में कुर्सी-मेज पर बिठाकर प्रसाद ग्रहण करवाया. इसके बाद प्रबंध कमेटी ने इन सेवायतों पर 20,000 रु. प्रति व्यक्ति के हिसाब से साढ़े सात लाख रु. जुर्माना लगाया. अधिग्रहण की कार्रवाई के अचानक तेज होने की पृष्ठभूमि में इस घटना को भी माना जा रहा है.

सरकार की मंशा पर सवाल
धर्मार्थ कार्य विभाग ने “श्री बांके बिहारी मंदिर” के अधिग्रहण के लिए जो प्रस्ताव तैयार किया है उसमें वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर की तर्ज पर व्यवस्था संचालन की रूपरेखा खींची है (देखें बॉक्स). कैबिनेट से इस प्रस्ताव को मंजूरी दिलाने के लिए विभाग ने पिछले तीन वर्षों के दौरान मथुरा के जिलाधिकारियों और पुलिस अधिकारियों की वे रिपोर्ट भी संलग्न की हैं जिनमें श्री बांके बिहारी मंदिर और आसपास की व्यवस्था पर असंतोष जाहिर किया गया है. हालांकि मंदिर प्रबंध समिति के उपाध्यक्ष घनश्याम गोस्वामी सरकार की इस कवायद के पीछे विश्व बैंक के पैसे पर कब्जा करने की रणनीति मान रहे हैं.

गोस्वामी बताते हैं, “मई-जून में विश्व बैंक की एक टीम ने श्री बांके बिहारी मंदिर का निरीक्षण कर यहां के आसपास के क्षेत्र की व्यवस्था सुदृढ़ करने की जानकारी ली थी. विश्व बैंक इसके लिए 500 करोड़ रुपए खर्च करने वाला है. इसी धन पर कब्जा जमाने के लिए सरकार मंदिर का प्रबंधन अपने हाथ में लेना चाहती है.” इससे पहले पिछली बीएसपी सरकार में वृंदावन के विकास के लिए 350 करोड़ रु. जारी हुए थे लेकिन इनसे क्या-क्या काम हुआ, इसकी जानकारी न तो सरकार को है और न ही मथुरा विकास प्राधिकरण को ही. वर्ष 2000 में मंदिर की प्रबंध कमेटी ने मथुरा विकास प्राधिकरण को मंदिर के आसपास की गलियों को सुधारने के लिए 40 लाख रु. दिए थे, लेकिन 15 वर्षों में प्राधिकरण एक ईंट न रखवा सका.

बहरहाल सपा सरकार ने मंदिर के अधिग्रहण की तैयारी शुरू की है तो दूसरी ओर मंदिर प्रबंध समिति ने भी नई व्यवस्थाएं करने का बीड़ा उठाया है. मंदिर परिसर का विस्तार हो रहा है. धर्मशाला, अस्पताल, गौशाला खोलने की तैयारी हो रही है. इसी खींचतान के बीच ब्रज क्षेत्र में बोला जाने वाला एक दोहा प्रासंगिक हो गया है. ‘तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु मंगल मूल. पत्ता तक हिलता नहीं, खिले न कोई फूल.

Advertisement
Advertisement