खानपान के क्षेत्र की उलटबांसी यह है कि जहां हिंदुस्तानी जायका बढ़ रहा है, वहीं हिंदुस्तानी रसोई सिकुड़ रही है. विकासशील समाजों की यह स्वाभाविक तरक्की है, ठीक सिंगापुर और हांगकांग की तरह, जहां नए बन रहे मकानों में पूरे लंबे-चौड़े आकार की रसोई की अब कोई जगह ही नहीं रह गई है. फैशन सलाहकार नोनिता कालरा आधे साल हांगकांग में और आधे साल मुंबई में रहती हैं.
वे बताती हैं कि यह रुझान जरूरतों से पैदा हुआ है, क्योंकि मुख्य हांगकांग द्वीप पर अपार्टमेंट इतने छोटे हैं कि विशाल रसोई वाले घर केवल “बेहिसाब दौलतमंद” ही खरीद सकते हैं. घरों में घुलने-मिलने और पार्टी करने लायक जगह नहीं होती, खर्च भी इतना ज्यादा है कि कोई कम ही घर पर बुलाता है, और वक्त की कमी के चलते नोनिता के पार्टनर सरीखे बाशिंदे घर पर खाना पकाते ही नहीं हैं. रसोई का इस्तेमाल केवल नाश्ते के लिए किया जाता है.
डिब्बाबंद खाने के बड़े सप्लायर वीकेएल सीजनिंग्ज के प्रेसीडेंट और एवरस्टोन ग्रुप के फूड डिवीजन तथा मैक्कैन फूड्स के पूर्व प्रमुख के.एस. नारायणन कहते हैं कि उन जगहों पर रसोई का सिकुडऩा लाजमी ही है, जहां औरतें रसोई से बाहर आ चुकी हैं और मां की रसोइए के तौर पर सामाजिक भूमिका कम होती जा रही है. इस तरह रसोई अब गतिविधियों का केंद्र नहीं रह गई है.
लगातार बढ़ती यात्राओं के साथ नागरिकों की जायके की जरूरतें ज्यादा विविधतापूर्ण हो गई हैं, बाहर खाने की जगहें साफ-सफाई के मानकों पर खरी उतरती हैं, आसानी से उपलब्ध हैं और घर के मुकाबले कीमत भी ज्यादा नहीं है. फ्रोजन और डिब्बाबंद खाने की चीजों को स्वीकार्य बनाने के अभियान में अग्रणी भूमिका निभा चुके नारायणन कहते हैं, “दक्षिणपूर्व एशिया में घर में खाना पकाने का तब तो सचमुच कोई मतलब नहीं है, जब वही खाना उसी कीमत और उसी साफ-सफाई के साथ ज्यादा आसानी से मिल सकता है. यह बदलाव लाने के लिए नाश्ते से लेकर रात के खाने तक सभी मुख्य भोजन मुहैया करवाना होगा. फिलहाल भारत में इसकी बराबरी केवल चेन्नै की सरवन भवन या आनंद भवन सरीखी इडली-डोसा की शृंखलाएं ही कर पा रही हैं, जो सुबह 6 बजे से खुल जाती हैं और आपके धन का न्यायसंगत मूल्य अदा करती हैं.”
मुंबई में रहने वाले और इंग्रेडिएंट बॉक्स डिलीवरी सेवा ऑटशेफ डीआइवाइ के संस्थापक विशाल शाह ने यह सेवा शुरू ही इसलिए की कि उन्होंने रसोई का सिकुड़ते जाना पहले ही देख लिया था. शाह ने 11 साल तक वॉलस्ट्रीट पर काम किया और वहां वे बगैर खाना पकाए रहे. वे कहते हैं, “देश भर में पहली और दूसरी श्रेणी के शहरों में बेहद महंगी जमीन-जायदाद को देखते हुए ताज्जुब नहीं होगा अगर हमारी रसोई इस कदर सिकुड़ जाए कि वह लिविंग रूम का विस्तार भर बनकर रह जाए, ठीक न्यूयॉर्क, तोक्यो या लंदन की तरह.” शाह कहते हैं कि हिंदुस्तान इस सुभीते में खलल पडऩे का इंतजार ही कर रहा था.
साफ तौर पर जायके का विस्तार हो रहा है, खासकर तब जब विविधता कई बाजारों को हांक रही है. घर के बजट में खाना सबसे बड़ा खर्च है. फूड ऐंड एग्रीकल्चर सेंटर ऑफ एक्सेलेंस की रिपोर्ट 2015 के मुताबिक, अर्थव्यवस्था को उदार बनाए जाने के बाद से रिटेल रेस्तरांओं के रूपरंग में सुधार हुआ है, दोगुनी आमदनी वाले एकल परिवारों की गिनती तेजी से बढ़ी है, घरेलू बजट में खाने का खर्च 51 फीसदी हो गया है और हिंदुस्तानियों को तरह-तरह के व्यंजनों का चस्का लग गया है, यही वजह है कि बाहर खाने का रुझान बढ़ा है.
हिंदुस्तानियों के सेहत को लेकर ज्यादा सजग होने के साथ ही खाने की आदतों में कार्बोहाइड्रेट की जगह मांस, जैविक चीजों और पोषक आहार की मात्रा बढ़ी है. 13 करोड़ डॉलर की फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री कुल फूड मार्केट की 30-35 फीसदी हो गई है और तुरत सेवा वाले रेस्तरां इस बाजार के 44 फीसदी हैं. इंडिया वैल्यू फंड एजवाइजर्स में पार्टनर और एंजेल निवेशक हर्ष चावला ने हाल ही में डीआइवाइ के फूड-पैक स्टार्ट-अप शेफ्स बास्केट में 60 लाख डॉलर निवेश किए हैं. वे कहते हैं, “भारत में प्रति व्यक्ति बाहर खाना खाने की घटनाएं दुनिया भर में सबसे कम, महज 13 फीसदी हैं. इसके माने है कि इस उद्योग को केवल ऊपर ही ऊपर बढऩा है.” तो आखिर किन वजहों से रसोईघर इस तरह सिकुड़ता जा रहा है?
जगह की कमी
जगह के लिहाज से आज की हिंदुस्तानी रसोई हमारी दादी मां के जमाने की लंबी-चौड़ी रसोइयों से एकदम अलहदा है. मिसाल के लिए, रीयल एस्टेट सर्विस फर्म जेएलएल इंडिया के चेयरमैन अनुज पुरी के मुताबिक मुंबई के शहरी घरों का क्षेत्रफल 26.4 फीसदी-और कुछ मिलाकर 31 फीसदी सिकुड़ गया है और बिल्डर बालकनियों को हटा रहे हैं तथा फर्श का आकार भी चौतरफा घटाते जा रहे हैं. शोध बताते हैं कि अपने हिसाब से बनवाए गए मकानों में एक घर को साझा करने वाले परिवार कमरों को बढ़ाने की बजाए दो बाथरूम को तरजीह देते हैं.
मुंबई में माचिस की डिब्बियों सरीखे मध्यमवर्गीय पारिवारिक घरों के सबसे बड़े बिल्डर दोस्तीग्रुप के चेयरमैन दीपक गोरडिय़ा कहते हैं, “अब 10 में छह परिवार छोटी, मॉड्यूलर, खुली किस्म की रसोई की मांग करते हैं, जिनमें रसोई लिविंग रूम का हिस्सा हो जाती है. इसकी वजह यह है कि गैजेट्स के कारण खाना पकाना ज्यादा आसान हो गया है.”
अब मॉड्यूलर रसोई के साजो-सामान कहीं ज्यादा छोटे और पकाने के बर्तन काफी कम हो गए हैं. दादी मां के जमाने में रोज के खाने से लेकर त्योहारों पर ज्यादा मात्रा में व्यंजन बनाने तक अलग-अलग मौकों के लिए सिरेमिक, पत्थर, एलुमिनियम, स्टेनलेस स्टील, कांसे और तांबे के ढेर सारे बर्तन हुआ करते थे. इनकी जगह प्लास्टिक के बर्तनों, गैजेट्स और क्रूसेट्स सरीखे डिजाइनर तवों और देगचियों ने ले ली है. ये इतने महंगे और बहुपयोगी हैं कि लोग तो एक या दो चीजों से ही तमाम काम कर लेते हैं.
सामाजिक खलल
हैदराबाद की डीआइवाइ इंग्रेडिएंट बॉक्स डिलीवरी सर्विस बिल्ट2कुक के संस्थापक अल्ताफ सईद कहते हैं कि अभी भी सिंगापुर और हांगकांग की मिसाल तो बहुत दूर की बात है, जहां लोग महीने में भारत के 12 बार की तुलना में 55 बार बाहर खाते हैं. हम अब भी पकाते जरूर हैं, मगर मिल-जुलकर खाने-पकाने के वे दिन लद गए, जब विशाल रसोईघरों में किस्म-किस्म के खाने पकाए जाते थे, थाली में हर तरह के व्यंजन का एक टुकड़ा होता था, चकली और सेवइयों पर जोर दिया जाता था, धीमी आंच में चटनियां घंटों बुलबुलों के साथ पकती रहती थीं और उनकी गंध से पूरा घर महकता था. सईद की डिलीवरी सर्विस के पीछे उसी जादू को कुछ हद तक जगाने की प्रेरणा थी.
वे कहते हैं, “मैं हर गुरुवार और शुक्रवार की रात अपनी मां को कुछ न कुछ शानदार पकाते देखते हुए दमन में पला-बढ़ा. जिन पकवानों को बनाने में तीन से चार घंटे लगा करते थे, उनकी तो अब कोशिश भी नहीं की जाती. मेरे परिवार में भी नहीं. लोगों के पास वक्त होता भी है, तो वे आराम करना, टीवी देखना और परिवार के साथ वक्त गुजारना पसंद करते हैं. खाना पकाने को निजी जिंदगियों में दखलंदाजी करने वाला मान लिया गया है.”बिल्ट2कुक
संस्थापक अल्ताफ सैयद.
शुरुआत मई 2015 में.
शुरुआती निवेश 1.5 करोड़ रु.
तरीका डीआइवाइ इनग्रेडिऐंट बॉन्न्स, रेडी-टू-ईट माइक्रोवेवेबल पैक लाने जा रहे हैं
“जिन
व्यंजनों को बनाने में तीन से चार घंटे का वक्त लगता है, आजकल उन्हें कोई
नहीं बनाता. यहां तक कि मेरे परिवार में भी यह बंद हो चुका है.”
सईद कहते हैं कि उनके अंदरूनी सर्वे के मुताबिक “दोहरी आमदनी और कोई बच्चा नहीं” (डीआइएनकेएस) वाले जोड़े अब नया कायदा हैं, जो खाना बनाने का काम नौकरानी को सौंप देते हैं और घर आने पर गरम करके खा लेते हैं. फिर सप्ताहांत में वे बाहर खाने चले जाते हैं. डीआइवाइ इंग्रेडिएंट बॉक्स एक तरह का हस्तक्षेप है, जिसका मतलब है कि हो सकता है कभी-कभार, सप्ताह के व्यस्त दिन में भी, वे खाना पकाने की कोशिश करें और वह भी साथ मिलकर.
मैकिंजे ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि कुल कार्यबल में महिलाओं की संख्या जीडीपी की 17 फीसदी और वैतनिक कार्यबल में 24 फीसदी है, जिसका और बढऩा तय है. इसके अलावा, लैंगिक बराबरी के मुद्दों पर खासा जोर होने की वजह से भी डीआइवाइ बॉक्स में आदमियों और किशोरों को भी रसोई में काम करते हुए देखा जा सकता है. मास्टरशेफ सरीखे विभिन्न कुकरी शोज की लोकप्रियता और असर के मद्देनजर खाना पकाना रोजमर्रा की नीरस कवायद की बजाए नए प्रयोगों से लबरेज प्रदर्शनकारी कला बनती जा रही है. झुकाव गैजेट्स और एप्लाइंसेज पर है, जो पकाने को ज्यादा आसान और मजेदार बना देते हैं.
अमेजन इंडिया पर पाक कला की 50,000 किताबें ऑनलाइन उपलब्ध हैं. वेबसाइट के मुताबिक इन किताबों की बिक्री पिछले छह महीनों में 90 फीसदी बढ़ गई है. इनमें सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबें हैं विकास खन्ना की एवरीवन कैन कुक, गीता देवी की द जेवेल्स ऑफ द निजाम और कृष्ण अरोड़ा की थ्योरी ऑफ कुकरी. अमेजन इंडिया के कैटेगरी मैनेजमेंट के डायरेक्टर नूर पटेल बताते हैं कि इसी दौरान रसोईघर के एप्लाइंसेज की बिक्री में भी 85 फीसदी का इजाफा हुआ है. वे कहते हैं, “यह मुख्य तौर पर माइक्रोवेव, एयर फ्रायर, टोस्टर, फूड प्रोसेसर और ब्लेंडर सरीखी चीजों के ज्यादा बिकने की वजह से हुआ है.” इन्हीं छह महीनों के दौरान गैर-एप्लाइंसेज (खाना पकाने के बर्तन) की बिक्री 200 फीसदी बढ़ गई.
मास्टरशेफ के पूर्व होस्ट और बरगंडी बॉक्स के संचालक शेफ अजय चोपड़ा कहते हैं, “हम ऐसे मुल्क हैं जहां राज्यों की गिनती से ज्यादा पाक कला की शैलियां हैं. टेलीविजन और यात्रा के तजुर्बों ने हमें बदल दिया है. अब हम महज एक किस्म के खाने का ऑर्डर देने या बनाने वाले लोग नहीं रह गए हैं. हम ऐसे लोग बन गए हैं जो ढेरों नई चीजों को कम से कम आजमाना तो चाहते ही हैं. बरगंडी बॉक्स
संस्थापक विवेक मेहरा, अजय चोपड़ा, संदीप सिंह, शबनम मेहरा
शुरुआत जून 2015 में
शुरुआती निवेश 67 लाख रु.
तरीका तैयार भोजन, डीआइवाइ बॉक्स.
“शो में यह दस मिनट की रेसिपी है
और बॉक्स के जरिए आप इसे 15
मिनट में बना सकते हैं.”
अजय चोपड़ा, विवेक मेहरा, अजय चोपड़ा, शबनम मेहरा और संदीप सिंह (बाएं से)
कभी-कभी आप किसी क्षेत्रीय या विदेशी व्यंजन को हूबहू नहीं बना पाते क्योंकि वह एक मसाला गायब होता है. डीआइवाइ बॉक्स इसी गुत्थी को आपके लिए सुलझाते हैं.” बॉक्स ने पाक कला के प्रदर्शन का समाधान कर दिया है, जिसमें इंस्टाग्राम और फेसबुक पर डाली गई पोस्ट और अपनी पकाई तथा खाई गई चीजों को दिखाने के संगी-साथियों के दबाव की वजह से खासा उछाल आया है. वे कहते हैं, “एडिट्स के साथ आप शो में 10 मिनट में एक व्यंजन बना सकते हैं. बॉक्स के साथ हमारा इरादा है कि हम यही काम 15 में मिनट में कर सकें.”
अपराधबोध की मौत
मुंबई में पवई की रहने वाली 55 वर्षीया नीता अहलूवालिया एक स्थानीय एनजीओ में काम करती हैं. जब उनके और पति सतबीर के लिए गर्मियों में रसोई में काम करना मुश्किल हो जाता है तो वे होलाशेफ सरीखी सेवाओं से पहले से पका खाना मंगवा लेते हैं. नीता कहती हैं कि उन्होंने स्थायीन ढाबों को भी आजमाया, मगर उनसे जल्दी ही ऊब गए, ठीक उसी तरह जैसे वे अपने इलाके के एक रसोइये के बनाए खाने से ऊब गए थे. अब वे इन कैटरिंग सेवाओं के खाने की विविधता को तरजीह देते हैं. नीता कहती हैं, “खाना अच्छे डिब्बों में आता है, तेल रहित, गरमागरम और जायकेदार होता है और मेरे समय के हिसाब से आता है. यह बेशक ज्यादा व्यावहारिक है. मेरी सास जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों को भी यह मंजूर है, बस यह तैलीय न हो.”
ऑटशेफ सरीखी सेवाएं पहले से बना खाना नहीं बल्कि मसालों और नपे-तुले तेल का एक डिब्बा देती हैं. उनके ज्यादातर ग्राहक गृहणियां या कामकाजी महिलाएं हैं जो अपनी रसोई में अलग-अलग चीजें आजमाना चाहती हैं, बच्चों की जरूरतें पूरी करने की कोशिश कर रही हैं या डिनर की मेज पर अपनी बनाई तरह-तरह की चीजों को जोडऩा चाहती हैं.
यह बदलाव हाल ही में आया है. पुणे की 31 वर्षीय रूपा कोरडे कहती हैं कि बहनों की तीन पीढिय़ों में भी आप फर्क पहचान सकते हैं. वे कहती हैं, “मेरी बड़ी बहन 39 साल की हैं और बाहर से खाना नहीं मंगवातीं, मेरी मझली बहन को इसमें कोई दिक्कत नहीं है, और मुझे खाना पकाना सख्त नापंसद है.” वे कीमत, तैलीय होने और साफ-सफाई के संकोच की वजह से हक्रते में एक या दो बार खाना ऑर्डर करती हैं और अगर ज्यादा व्यावहारिक विकल्प मौजूद हों तो पूरा खाना बाहर से मंगवाने को तैयार हैं.
पूरे खाने को या उसका एक हिस्सा बाहर से बनवाने में हिंदुस्तानी महिलाओं को अब अपराध बोध महसूस नहीं होता. नारायणन कहते हैं, “हम उस सबसे काफी आगे आ चुके हैं.” दुनिया-जमाना घूम चुके और तरह-तरह के जायके चख चुके लोगों के लिए खाना अब बोझ नहीं रह गया है, इसकी बजाए वह आनंद की खोज है.
इन दिनों खाना पकाने की प्रक्रिया को आसान बनाने वाली सेवाएं खूब फल-फूल रही हैं. बाजार में ताजा पका हुआ भोजन ही नहीं डीआइवाइ (यानी खुद बनाओ) भोजन किट भी उपलब्ध हैं. जिन लोगों के पास खाना पकाने के लिए जरूरी सामग्री की खरीदारी करने का समय नहीं है, वे इसका लाभ उठाकर आसानी से खाना तैयार कर सकते हैं. पहले से ही जरूरी मात्रा में सामग्री दी गई होती है और साथ में उसे पकाने की विधि बताने के लिए एक कार्ड भी होता है. जो पुरुष खाना बनाने से बचते हैं, उनके लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहा है और खूब लोकप्रिय हो रहा है.
अकेले मुंबई में होलाशेफ नाम की एक फर्म है, जिसे सौरभ सक्सेना ने स्थापित किया है. यह फर्म क्षेत्रीय पकवानों पर विशेष जोर देती है जैसे लिट्टी चोखा या दाल बाटी या दक्षिण भारतीय लेमन राइस. इसी तरह डीआइवाइ सामग्री डब्बे भी बाजार में मिल रहे हैं, जैसे कि विशाल शाह का हॉटशेफ, जो खास तरह की सामग्री के इस्तेमाल से व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाने पर जोर देता है. अजय चोपड़ा, शबनम मेहरा, विवेक मेहरा और संदीप सिंह ने मिलकर बरगंडी बॉक्स की स्थापना की है, जो ग्राहकों को पहले से तैयार व्यंजन उपलब्ध कराती है, जैसे मीट का ग्रिल किया हुआ टुकड़ा या तैयार किया हुआ सॉस. इसी तरह शुभम माहेश्वरी का बीइंग शेफ, चिराग आर्य और स्नेहा आर्य का आइशेफ भी लोकप्रिय हो रहा है.होलाशेफ
संस्थापक आइआइटी किए हुए सौरभ सक्सेना और अनिल गेलरा.
शुरुआत सितंबर 2014. शुरुआती निवेश 51 लाख रु.
तरीका एक व्यक्ति का पहले से तैयार खाना.
“बाहर से खाना मंगवाने का मतलब है कि किसी को समझौता नहीं करना पड़ता.”
यह चलन दूसरे शहरों में भी पैर पसारने लगा है. दिल्ली में राघव कोहली और अंशुल नारंग का कुकफ्रेश, बेंगलूरू में तनुल मिश्र और शिप्रा भंसाली का ईटोपिया और सुयश शंकर और हाशी कुशलप्पा का यूजस्टकुक.कॉम, हैदराबाद में अल्ताफ सैयद का बिल्ट2कुक इसके उदाहरण हैं. सुपरबाजारों में आपको शेफ्स बास्केट के बनाए डीआइवाइ किट आसानी से मिल जाएंगे.
इनकी सहायता से आप तमाम इतालवी और मेक्सिकन मजेदार व्यंजनों को घर में आसानी से तैयार कर सकते हैं. इतना ही नहीं, रेस्टोरेंट अब आपके घरों पर भोजन भी पहुंचाने की सुविधा दे रहे हैं. विभिन्न ऐप्स के जरिए यह सुविधा हर शहर में मिल रही है और यह कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है.
एंजेल निवेशक हर्ष चावला कहते हैं कि पूंजीनिवेश का पैसा इसमें बदलाव लाएगा और कुछ स्टार्ट-अप कंपनियां खराब बिजनेस मॉडलों के कारण विफल भी रहेंगी लेकिन उद्योग पर इसका ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा. होलाशेफ के सीईओ सौरभ सक्सेना कहते हैं कि भोजन की पसंद के मामले में कई तरह के कारक काम करते हैं. कैशलेस अर्थव्यवस्था या दूसरे शब्दों में नकद रुपए के बिना ही खरीदारी की सुविधा, जिसमें आप ऑनलाइन या फोन पर ऑर्डर दे सकते हैं, के कारण नियमित व्यंजनों की मांग के अलावा क्षेत्रीय पकवानों की भी मांग देखने को मिलती है.
क्षेत्रीय व्यंजनों की मांग खास तौर पर मणिपुर, असम, राजस्थान या बिहार के लोगों में ज्यादा देखी जा रही है. अलग-अलग तरह का स्वाद पसंद करने वाले लोग होते हैं, लेकिन यह भी सही है कि अब परिवारों का स्वभाव बदल रहा है. सक्सेना कहते हैं, “अलग-अलग समुदायों के बीच शादियों के मामले बढऩे के कारण लोगों के लिए यह सहमति बनाना मुश्किल होता है कि क्या खाया जाए. रेस्टोरेंट से खाना मंगाने का मतलब है कि किसी को भी समझौता नहीं करना पड़ेगा.” जो लोग अकेले रहते हैं, उनके लिए भी यह बहुत उपयोगी है, क्योंकि इससे सही मात्रा में भोजन मिल जाता है और सामान की बरबादी भी नहीं होती है, क्योंकि ज्यादातर सामान एक निश्चित मात्रा में मिलते हैं जबकि हमें उतनी मात्रा की जरूरत भी नहीं होती है. इसके अलावा खरीदारी के झंझट से भी छुटकारा मिल जाता है.
सेहत की सनक
32 वर्षीय हर्ष बत्रा की फर्म सुपरमीलएक्स, जो अमेरिकी फूड फर्म सोलयेंट की तर्ज पर बनी है, अभी हाल ही में बाजार में उतरी है. वे अकेले रहते थे इसलिए उन्होंने इसकी शुरुआत की और सेहत का ध्यान रखने का शौकीन होने के कारण हल्का खाना पसंद करते थे. बत्रा कहते हैं, “मुझे बार-बार बाहर से खाना मंगाना पड़ता था, क्योंकि मुझे खाना बनाना नहीं आता है. फिर भी खाने की मेरी पसंद स्वास्थ्यपरक होती थी, लेकिन खाने की क्वालिटी और पकाने का तरीका सेहत के लिए अच्छा नहीं होता था. सुपरमीलएक्स
संस्थापक हर्ष बत्रा
शुरूआत की मार्च 2013 में
तरीका भोजन की जगह शेक, 125 ग्राम के दस पैक का सब्सक्रिप्शन पैकेज देते हैं.
“सप्ताह में सभी 21 भोजन बहुत तले-भुने और मसालेदार नहीं होने चाहिए.”
इसके बावजूद सुगम होने के कारण मुझे ऐसा करना पड़ता था, क्योंकि मुझमे खाना पकाने का न तो धैर्य था, न तरीका आता था और न ही दुकान पर जाकर सामान खरीदने की दिलचस्पी थी. इसके अलावा मेरे पास समय भी नहीं था. इस वजह से कई बार मुझे ऐसा खाना खाने के लिए मजबूर होना पड़ता था जो सेहत के लिए नुक्सानदेह था और मैं जानता था कि यह मेरे लिए सही भोजन नहीं था.”
यह समझते हुए कि हर जगह सेहत के लिए हानिकारक खाना ही मिलता है, बत्रा ने खुद ही सेहतमंद खाना उपलब्ध कराने का फैसला किया, जिसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सके. वे 2013 से ही इस काम पर लगे हैं और अब हाल ही में जाकर उन्हें भारत में मार्केटिंग की शुरुआत करने का लाइसेंस मिला है.
वे खाने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन कहते हैं, “सप्ताह में सभी 21 समय के भोजन बहुत तले-भुने और मसालेदार नहीं होने चाहिए. इसीलिए मैंने इसकी शुरुआत की. दरअसल मैं अपनी ही समस्या का समाधान कर रहा था.” हालांकि तरल भोजन के कई लोग विरोधी हैं, यहां तक कि सोलयेंट की भी आलोचना होती है कि यह बहुत ज्यादा स्वास्थ्यपरक है, फिर भी यह काफी सुविधाजनक, निश्चित कैलोरी वाला और संतुलित आहार है जिसमें ऑर्गेनिक खेती वाली उपज का उपयोग किया जाता है.
पहले से तैयार सलाद और डिब्बे, जहां तैयारी से पहले सामग्री देखी जा सकती है, जहां तेल और नमक को अपनी जरूरत के हिसाब से नियंत्रित किया जा सकता है. इन सब वजहों से ये व्यंजन सेहत के लिए बहुत अच्छे हैं. कोल्ड प्रेस्ड सब्जियां और फलों के जूस बनाने वाली कंपनियां जैसे कि मुंबई की रॉप्रेसरी या नई दिल्ली में ऐंटीडॉट और जूसीफिक्स या चेन्नै में रेलिश ऑनलाइन ऑर्डर लेती हैं. आप इन्हें अपने घर पर मंगा सकते हैं और सेहत का ध्यान रख सकते हैं.
रसोई खोई तो क्या कुछ खोया
न्यूट्रीशनिस्ट कविता देवगन कहती हैं कि उच्च वर्ग वाले घरों में, जहां महिलाएं ज्यादा कुकिंग नहीं करती हैं और जहां या तो बाहर से खाना मंगाया जाता है या रसोइया खाना बनाता है, जैसे तीन-चौथाई घरों में अब रसोइयों को रखने की जगह बाहर से स्वास्थ्यपरक भोजन मंगाया जाने लगा है क्योंकि घर में कुकिंग में वैसी स्वच्छता नहीं अपनाई जा सकती है जैसी इन कंपनियों में अपनाई जाती है, न ही सामग्री उतनी उच्च क्वालिटी की होती है. देवगन के मुताबिक, समय और मेहनत से ज्यादा आसानी से इसकी उपलब्धता भी इस बदलाव का बड़ा कारण है. वे कहती हैं, “इस बदलाव की वजहें साफ हैः आसानी से उपलब्धता, ज्यादा विविधता, मजेदार व्यंजन, स्वाद की बदलती आदतें और अच्छा घरेलू नौकर मिलने में कठिनाई.”
मनोवैज्ञानिक रूप से इन सब कारकों ने भारत में बदलाव की लहर ला दी है और बाहर के भोजन को खराब माने जाने की सोच खत्म हो गई है. वे कहती हैं, “यह सुविधाजनक है और स्वादिष्ट है. अब बाहर के खाने को लेकर किसी तरह की हिचक नहीं रही है. लेकिन इस मानसिक बदलाव को रोकने के लिहाज से अभी ज्यादा देरी भी नहीं हुई है.”
देवगन कहती हैं, “वैराइटी तभी तक ठीक है जब तक ग्राहक के तौर पर मात्रा और क्वालिटी पर हमारा नियंत्रण है. भोजन को आपस में बांटने का भारतीय तरीका कई मायनों में फायदेमंद है.” बेल्जियम में ऐंटवर्प यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि “परिवार की शैली में” भोजन परोसे जाने का असर यह होता है कि बच्चे बड़े होकर ज्यादा उदार और दानशील बन जाते हैं. वे उन लोगों की अपेक्षा ज्यादा मददगार स्वभाव वाले होते हैं जो अकेले भोजन करते हैं और अकेले ही सारा हिस्सा खा जाते हैं (और हम आजकल इसी तरह का ऑर्डर दे रहे हैं- बच्चे के लिए बर्गर, अपने लिए नूडल्स के साथ थाई करी, और पति के लिए राजमा चावल).”
सिकुड़ती रसाई हमें घोर निजीपन की ओर ले जा रही है. हम अपनी अलग-अलग पसंद का भोजन मंगाने लगे हैं. हम भोजन के मामले में अपना-पराया करने लगे हैं. इंडियन फूड में के.टी. अचाया ने लिखा कि 30,000 साल पहले की भीमबेटका पेंटिंग दिखाती हैं कि महिलाएं साथ मिलकर मसाले पीसती थीं. सिकुड़ती रसोई यह दिखाती है कि एक समाज के तौर पर हमारी मानसिकता भी सिकुड़ती जा रही है. हम साथ मिलकर खाने की जगह व्यक्तिगत थाली को महत्व देने लगे हैं, भले ही हमारे घरों में मॉड्यूलर किचेन बन गए हों.
घर में रसोई का भला अब क्या काम
तेजी से सिकुड़ रही है भारतीय रसोई. इस वजह से खाना बनाने में लगने वाला समय, ऊर्जा और मेहनत भी कम हो रही है. लेकिन रसोई बदलने के साथ और भी तो बहुत कुछ बदल जाता है.

अपडेटेड 23 दिसंबर , 2015
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