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जल विवाद: पानी पर चीन की टेढ़ी नजर

तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी को बांधों से पाट देने की चीन की योजना से भारत भयभीत है कि कहीं वह पनबिजली की होड़ में उससे पिछड़ न जाए.

अपडेटेड 17 नवंबर , 2015

चीन ने बीते 13 अक्तूबर को ब्रह्मपुत्र नदी (चीन में यारलुंग जांगबो और अरुणाचल प्रदेश में सियांग) पर बने अपने पहले बड़े बांध का परिचालन शुरू कर दिया. यह ल्हासा से 140 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में जांगमू में नदी के मध्य प्रवाह में बनी 510 मेगावाट की एक पनबिजली परियोजना है, नदी के निचले प्रवाह पर होने वाले जिसके असर को लेकर भारत लगातार चिंतित रहा है. नदी के आक्रामक प्रवाह को सिलसिलेवार कई बांधों के माध्यम से तिब्बत में ही बांध लेने की चीनी योजना की यह महज शुरुआत है.

चीन के एक प्रभावशाली पनबिजली समर्थक सलाहकार समूह चाइनीज सोसाइटी ऑफ हाइड्रोपावर इंजीनियर्स के डिप्टी सेक्रेटरी जनरल झांग बोटिंग का मानना है कि चीन की विशाल ऊर्जा जरूरतों के लिए ब्रह्मपुत्र नदी देश की आखिरी उम्मीद है. झांग कहते हैं, ''यह नदी अकेले दो थ्री गॉर्जेज जैसे बांधों को चलाने की ताकत रखती है.'' थ्री गॉर्जेज दुनिया का सबसे बड़ा बांध है जिसकी ऊर्जा क्षमता 22.5 गीगावॉट है और जिसे चीन ने यांगत्सी नदी पर बनाया है.

झांग की परिकल्पना यदि सही साबित हुई तो आने वाले दशक में चीन अपनी सबसे महत्वाकांक्षी पनबिजली परियोजना को अमल में ला देगा जो क्षमता और आकार में थ्री गॉर्जेज से भी बड़ी होगी. यह 38 गीगावॉट का एक विशाल बांध होगा जिसे ब्रहमपुत्र के ग्रेट बेंड यानी उस हैरतनाक दर्रे में निर्मित किया जाएगा जहां भारत की ओर मुडऩे से पहले यह नदी करीब 1,000 मीटर की ऊंचाई से गरजती हुई गिरती है.

पनबिजली के विशेषज्ञों समेत भारत और चीन के अधिकारियों का कहना है कि जांगमू बांध का नदी के निचले प्रवाह पर न्यूनतम असर होगा, क्योंकि यह परियोजना 'नदी के प्रवाह की दिशा में' बनाई गई है जिसमें विशाल जलाशय नहीं है और इसके प्रवाह को भी मोड़ा नहीं गया है. भारत के लिए चिंता का विषय हालांकि इस नदी पर बनने वाले वे बांध हैं जिनकी योजना चीनी कंपनियों ने तैयार कर ली है. चीनी सरकार और सरकारी पनबिजली कंपनियों की ओर से नए बांधों के संबंध में लाए गए प्रस्ताव तथा बीजिंग के अधिकारियों और विशेषज्ञों के साक्षात्कारों से समझ में आता है कि अब सरकार उन परियोजनाओं पर आगे बढऩे को राजी हो गई है जिन्हें अतीत में भारी लागत वाली या तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण माना जाता था. चीन सरकार अब पनबिजली परियोजनाओं पर ज्यादा से ज्यादा दांव खेलना चाहती है, क्योंकि एक तो निगरानी समीक्षाओं के चलते चीन के परमाणु क्षेत्र में कुछ सुस्ती आई है और दूसरे, उसने कार्बन उत्सर्जन में कटौती का महत्वाकांक्षी लक्ष्य भी रख दिया है, जिसकी घोषणा राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सितंबर में अपने अमेरिकी दौरे पर की थी.

तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र की सरकार की नेशनल पीपल्स कांग्रेस (एनपीसी) की स्थायी समिति ने मार्च में पनबिजली परियोजनाओं को विकसित करने की योजना को मंजूरी दी थी जिसमें यारलुंग जांगबो पर तीन परियोजनाएं शामिल थीः एक, जांगमू से पहले दागू में बनने वाला 640 मेगावॉट का एक बांध, दूसरा बांध जीशू में अनुमानित 500 मेगावॉट का होगा और तीसरा अपेक्षाकृत छोटा बांध 321 मेगावॉट का जियाशा में बनाया जाएगा (देखें ग्राफिक). तीनों परियोजनाओं को 2013 में मंजूरी दी गई थी और एनपीसी ने अपनी रिपोर्ट में इनके काम में तेजी लाने को कहा था ताकि तीन साल में इन्हें शुरू कर दिया जाए.

इनकी जिम्मेदारी मध्य चीन के वुहान में स्थित सरकारी पनबिजली कंपनी गेझूबा समूह को दी गई है. चीन की सर्वोच्च योजनाकार संस्था नेशनल डेवलपमेंट ऐंड रिफॉर्र्म कमिशन के एक पूर्व अधिकारी बताते हैं कि गेझूबा के अधिकारी चीन की उस पर्यावरण नियामक संस्था के मुकाबले कहीं ज्यादा ताकतवर हैं जो बांधों को मंजूरी देती है. अपनी वेबसाइट पर गेझूबा ने तिब्बत में ऐसी परियोजनाओं के संबंध में अपनी महत्वाकांक्षी योजना का जिक्र किया है जिसमें ग्रेट बेंड यानी मोताउ या मेदोग पर बनने वाली परियोजना भी शामिल है. कंपनी का आकलन है कि देश की अगली दो पंचवर्षीय योजनाओं (2016-2020 तक की 13वीं योजना और 2021-2025 तक की 14वीं योजना) में तिब्बत में प्रस्तावित पनबिजली परियोजनाओं पर ज्यादा जोर दिया जाएगा और ऐसा 2020 के बाद विशेष तौर से किया जाएगा. गेझूबा की वेबसाइट पर प्रकाशित नए बांध के विवरण से पता चलता है कि यह कंपनी मोताउ में पनबिजली केंद्र बनाने के प्रति ज्यादा उत्साहित है और इसने मोताउ के इस बांध में पहले ही दो अरब युआन (करीब 2,000 करोड़ रु.) का निवेश किया हुआ है जो कि जांगबो की मुख्यधारा में नहीं बल्कि उससे जुड़ी एक उपधारा पर स्थित है. गेझूबा का अनुमान है कि इस साल के अंत तक सभी चार इकाइयों का परिचालन शुरू किया जा सकेगा.

झांग कहते हैं कि ''समूची यारलुंग जांगबो पर'' बांध बनाने की जरूरत है. इससे ''पानी का बेहतर प्रबंधन करने में मदद मिलेगी, ज्यादा बिजली पैदा की जा सकेगी और जीवाश्म ईंधनों का कम इस्तेमाल करके ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की जा सकेगी'' उनके मुताबिक पनबिजली परियोजनाएं इतनी ऊर्जा दे सकती हैं जितनी 25 करोड़ टन कोयले से मिलती है. वे कहते हैं, ''चीन उत्सर्जन में कटौती करना चाहता है, तो इसका रास्ता पनबिजली ही है. चीन में पवन ऊर्जा का उत्पादन दुनिया में सर्वाधिक है, लेकिन यह पनबिजली से पैदा ऊर्जा का छठवां हिस्सा ही है.'' और प्रस्तावित मोताउ बांध से 10 करोड़ टन कोयले के बराबर ऊर्जा हासिल होगी. निचले प्रवाह पर असर भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य, खासकर असम और अरुणाचल प्रदेश ब्रहमपुत्र पर चीन की प्रस्तावित योजनाओं से चिंतित हैं. असम के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए आलोचना की है कि उनके नेतृत्व वाली केंद्र्र सरकार चीनी बांध को रोकने में विफल रही है जिससे भारत को ''अपूरणीय नुक्सान होगा.'' अरुणाचल में पासीघाट के लोग 2000 में आई बाढ़ को याद करते हैं जो तिब्बत में यिगांग नदी पर बने बांध के टूटने से पैदा हुई थी.

गौर तलब है कि 9 जून, 2000 को सियांग नदी में पानी का स्तर अचानक 30 मीटर तक उठ गया था जिससे तकरीबन समूचा पासीघाट डूब गया. पासीघाट में सियांग नदी के किनारे 21 मील पर खेती करने वाले 51 वर्षीय ओयेन मोयांग बताते हैं, ''मैंने ऐसी तबाही कभी नहीं देखी थी.'' मोयांग की जिंदगी का दूसरा आश्चर्य मार्च 2012 में सामने आया जब उन्होंने पाया कि उनके खेतों के करीब सियांग सूख गई थी. मोयांग के रिश्तेदार ताको दाबी उस वक्त अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री नबाम तुकी के सलाहकार थे. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह बयान दे डाला कि तिब्बत में चीन के बनाए बांधों के चलते अरुणाचल प्रदेश में आने वाले पानी को रोक लिया गया था.
विशेषज्ञों की राय हालांकि इस मामले में भिन्न है कि चीन की व्यापक योजनाओं से नदी के निचले हिस्से में स्थित भारत और बांग्लादेश की खेती पर कैसा असर पड़ेगा. फिलहाल चीन की नदी का पानी मोडऩे की कोई योजना नहीं है जबकि इसे लेकर चिंताएं लगातार जाहिर की जाती रही हैं. चीन के योजनाकार लंबे समय से महत्वाकांक्षी ''साउथ टु नॉर्थ वॉटर डायवर्जन प्रोजेक्ट'' में एक पश्चिमी मार्ग जोडऩे पर बात करते रहे हैं जिससे यांगत्सी नदी का 40 अरब घन मीटर पानी उत्तर के सूखे इलाकों में भेजा जा सकेगा, हालांकि इस योजना में कहीं भी यारलुंग जांगबो को शामिल नहीं किया गया है.

आइआइटी रुड़की में जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन विभाग के प्रोफेसर नयन शर्मा कहते हैं, ''बांध बनाकर ब्रह्मपुत्र नदी को सुखा देने की चीनी योजना वाली बात तब तक सही नहीं होगी जब तक कि इन प्रस्तावित परियोजनाओं का इस्तेमाल पनबिजली जैसे गैर-उपभोग वाले उपयोगों तक सीमित रख जाएगा.'' उनका अनुमान है कि ब्रह्मपुत्र में सालाना प्रवाह का 40 फीसदी चीन में स्थित जल-संग्रहण क्षेत्र से आता है, लेकिन इस आंकड़े पर कोई आम सहमति नहीं है और शर्मा अनुमानों तथा आंकड़ों को ''पर्याप्त प्रमाणित किए जाने'' की जरूरत पर जोर देते हैं ताकि यह तय हो सके कि ''चीन से हो रहे कितने प्रवाह पर हमारी निर्भरता है.'' भारत की सीमा में आने वाली ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियां भी इस प्रवाह में योगदान देती हैं.

बड़े बांध बनाम छोटे बांध
जानकारों का कहना है कि नदी के प्रवाह की दिशा में बनने वाले जांगमू जैसे बांधों का उसके निचले प्रवाह पर न्यूनतम असर होगा, हालांकि चीन अगर कई बांध बनाने की अपनी योजना को अमल में लाता है और खासकर ग्रेट बेंड वाले बांध को, तब बेशक निचले प्रवाह समेत नदी के समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर इसका दीर्घकालिक असर देखा जाएगा. यूनिवर्सिटी ऑफ  ब्रिटिश कोलंबिया में तिब्बती जल संसाधनों के जानकार ताशी सेरिंग कहते हैं कि दागू, जीशू और जियाशा परियोजनाओं के मामले में चीन जैसी तेजी दिखा रहा है, वह 'खतरनाक' है.

वे कहते हैं, ''इन परियोजनाओं को शुरू हुए कुछ ही वर्ष हुए हैं और वे मध्य धारा तक पहुंच चुकी हैं. धीरे-धीरे ये और नीचे जाएंगी और आखिकार ग्रेट बेंड तक पहुंच जाएंगी.'' वे कहते हैं कि ग्रेट बेंड पर नदी के प्रवाह की दिशा में बांध बनाने का भी ''भारी असर होगा''. उनके मुताबिक, ''ग्रेट बेंड पर बांध बनाने का कुल मकसद यह है कि कम दूरी में नदी की ऊंचाई में आने वाले तीव्र ढलान का दोहन किया जा सके. जाहिर है इसके लिए पानी को रोकना होगा और जलाशय बनाना होगा. ऐसे में बांध के टूटने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता.'' असम में अरुणाचल की सीमा पर ब्रह्मड्ढपुत्र के किनारे बसे जिले उत्तरी लखीमपुर स्थित लखीमपुर गल्र्स कॉलेज में वनस्पति विज्ञान पढ़ाने वाले देवजीत बरुआ कहते हैं, ''बांध के जरिए गाद को अवरोधित करने का मतलब उसके पोषक तत्वों को भी बाधित करना होगा जिसका असर खेती पर पड़ेगा. बांधों से मछली और अन्य जलीय प्रजातियों का रास्ता भी बाधित होता है.''

बीजिंग के योजनाकारों का दावा है कि ये बांध बिजली उत्पादन के लिए बनाए जा रहे हैं न कि पानी की धारा को मोडऩे या उसे इकट्ठा करने के लिए, लिहाजा निचले प्रवाह पर इनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होगा. झांग कहते हैं, ''ये बांध भारत के लिए लाभकारी साबित होंगे. इससे पानी की मात्रा में संतुलन पैदा होगा जिससे बाढ़ के महीनों में प्रवाह कम होगा जबकि सूखे के महीनों में बढ़ जाएगा.'' अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वे अमेरिका का उदाहरण देते हैं जिसने कनाडा को अपने हितों के चलते कोलंबिया नदी के ऊपरी हिस्से में बांध बनाने को कहा था.

भारत के जल संसाधन मंत्रालय के अधिकारी भी दावा करते हैं कि असम में बाढ़ से होने वाली तबाही को रोकने का इकलौता रास्ता ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाया जाना ही है. गुवाहाटी के करीब पांडु में की जाने वाली गणना के मुताबिक, सामान्य मौसम में ब्रह्मपुत्र में जल का प्रवाह 40,000 क्यूमेक रहता है. बाढ़ के दौरान यह 69,000 क्यूमेक तक पहुंच जाता है. मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, ''यदि हम सियांग पर बड़ा-सा बांध बना देते हैं तो इससे न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पाने में मदद मिलेगी बल्कि सूखे मौसम में अतिरिक्त पानी भी मिल सकेगा.'' स्वतंत्र जानकारों का कहना है कि भारत को अपनी ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए पनबिजली की संभावना को तलाशना चाहिए लेकिन उत्तर-पूर्व जैसे पर्यावरणीय रूप से नाजुक इलाके में इसका सबसे बढिय़ा तरीका यह है कि वहां बहुउद्देश्यीय छोटे बांध बनाए जाएं. बांध विशेषज्ञ श्याम कानु महंत कहते हैं, ''उत्तर-पूर्व चूंकि भूकंप-संवेदी पैमाने पर जोन-5 में आता है, इसलिए बड़े बांधों को लेकर चिंता बनी रहेगी क्योंकि उनमें टूट से विनाशकारी असर हो सकता है. उत्तर-पूर्व को बिजली चाहिए और पनबिजली एक स्वच्छ स्रोत है. पर्यावरणीय असर कम से कम हो, इसके लिए बड़े बांध बनाएं जाने की जगह कई छोटे बांधों का निर्माण समाधान दे सकता है.''

भारत की कूटनीतिक कसरत
भारतीय अधिकारियों का कहना है कि वे चीनी परियोजनाओं पर निगाह रखे हुए हैं और इस मसले पर बीजिंग के साथ संपर्क  में हैं. चीन में भारत के राजदूत अशेाक कंठ के मुताबिक, ''हम विभिन्न स्तरों पर चीन के साथ संपर्क में हैं. हमारा लक्ष्य अंतरराज्यीय नदियों के मामले में विस्तारित सहयोग के एक ढांचे की ओर बढऩा है. हमारे पास विशेषज्ञ स्तरीय एक प्रणाली है जिसमें लगातार बैठकें होती हैं और पानी से संबंधित आंकड़े साझा किए जाते हैं.'' मई में प्रधानमंत्री मोदी के चीन के दौरे के समय दोनों पक्ष इस प्रणाली को विस्तारित करने तथा आंकड़ों के पार जाकर दोनों देशों की चिंताओं से जुड़े विचारों को साझा करने पर राजी हुए थे. एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी बताते हैं कि दशक भर पहले के मुकाबले आज चीन के लिए नदी पर किए जा रहे कार्यों को छिपाना उतना आसान नहीं है क्योंकि उपग्रह की तस्वीरों से इसका पता लग ही जाता है.

अपनी विशेषज्ञ-स्तरीय प्रणाली के माध्यम से जहां भारत कूटनीतिक स्तर पर चीन को ज्यादा सूचनाएं प्रदान करने के लिए लगातार प्रेरित कर रहा है, वहीं एक हकीकत यह भी है कि जल बंटवारे से संबंधित किसी संधि के अभाव में भारत के पास भविष्य की परियोजनाओं को रोकने के रास्ते भी सीमित हैं. चीन उन तीन देशों में था जिन्होंने 1997 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के कनवेंशन ऑन द लॉ ऑफ द नॉन-नैविगेशनल यूसेज ऑफ  इंटरनेशनल वाटरकोर्स को अंगीकार किए जाने के खिलाफ वोट दिया था, जिसका उद्देश्य नदी के ऊपरी और निचले प्रवाह से जुड़े हितों के बीच संतुलन कायम करना था. भारत ने इस संधि पर वोट नहीं दिया था.

जल संसाधन मंत्रालय के अधिकारी मानते हैं कि भारत जानता है कि वह चीन को जांगबो पर और बांध बनाने से रोक नहीं सकता. इसीलिए अब उसकी योजना चीन के बांधों के मुकाबले अरुणाचल प्रदेश में अपने बांध बनाना है, जिसके बारे में भारत का आकलन है कि वहां कुल 54 गीगावॉट की क्षमता मौजूद है. अधिकारियों के मुताबिक ऐसा करने से भारत को दक्षिण-पूर्वी एशिया में भू-राजनैतिक लाभ भी मिल जाएगा. मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, ''भारत म्यांमार और बांग्लादेश को बिजली बेच सकेगा. इससे दोनों देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक रिश्तों के संदर्भ में चीन के मुकाबले उसे बढ़त मिल सकेगी.''

लेकिन भारत को ऐसी परियोजनाएं शुरू करने के लिए कम से कम 2016 के असम विधानसभा चुनाव तक प्रतीक्षा करनी होगी. यहां अतीत में बांध विरोधी प्रदर्शन हो चुके हैं जिनके चलते असम-अरुणाचल की सीमा पर सुबनसिरी नदी पर बन रहे 2,000 मेगावॉट के बांध का काम पूरी तरह ठप हो चुका है. पिछले लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने बांध निर्माण का विरोध किया था. हालांकि पिछले साल जब केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि बांध का निर्माण कार्य पूरा होना केंद्र सरकार खुद सुनिश्चित करेगी तो राज्य में बीजेपी का नेतृत्व असंतुष्ट हो गया था. बीजेपी इस मसले को दोबारा उछालना नहीं चाहेगी क्योंकि नदियों पर बनाए जा रहे बांधों के पर्यावरणीय प्रभाव पर यहां लोग दो हिस्सों में बंट चुके हैं. असम बीजेपी के एक शीर्ष नेता कहते हैं, ''2016 के चुनाव के बाद सत्ता में आने पर हम बांधों के पक्ष में जनता की राय कायम करेंगे. तब तक इस नाजुक मसले को हम नहीं छुएंगे.''

शर्मा कहते हैं कि उत्तर-पूर्व के बिजली संकट से जूझ रहे राज्यों को होने वाले जाहिर लाभ के अलावा भारत ''अंतरराष्ट्रीय कानून के अंतर्गत इस प्रावधान से भी अवगत है कि दूसरे देश के साथ साझा कुदरती संसाधनों पर एक देश का हक ज्यादा मजबूत माना जाता है यदि वह पहले ही इन संसाधनों का इस्तेमाल कर रहा हो. ब्रह्मपुत्र के पानी का इस्तेमाल चीन ने पहले शुरू किया. अगर भारत ने इसके पानी के उपयोग पर अपना दावा ठोकने में तेजी नहीं दिखाई, तो वह अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत जल बंटवारे पर बाद में होने वाली बहसों में पिछड़ जाएगा.'' सेरिंग कहते हैं कि ऐसी पहल में एक खतरा जरूर है. भारत अगर बांध बनाने लगा तो चीन अपनी परियोजनाओं की गति और तेज कर देगा. चीन में ऐसी परियोजनाओं को निपटाने के पिछले रिकॉर्ड के मद्देनजर भारत पीछे रह जाएगा. वे कहते हैं कि ऐसा करने से बांग्लादेश को भी हम नाराज कर देंगे और चीन के साथ ब्रह्मपुत्र घाटी के संबंध में यदि हम एक संयुक्त प्रबंधन प्रणाली विकसित करना चाहते हैं तो उसमें बांग्लादेश का समर्थन बेहद अहम होगा.

भारत के पास बेहतर तरीका यह है कि वह अंतरराष्ट्रीय नदियों के ज्यादा सक्षम प्रबंधन के लिए चीन को राजी करे. शर्मा कहते हैं, ''आम धारणा यह है कि चीन जल बंटवारे की संधियां नहीं करता है. लेकिन उसने मंगोलिया, उत्तरी कोरिया, रूस और सबसे हाल में 2011 में कजाकिस्तान के साथ संधिया की हैं. ऐसी संधियों के निष्पादन में किसी अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की जरूरत नहीं पड़ी थी.''

विवाद निबटारा प्रणाली
अंतरराष्ट्रीय नदियों के जानकार और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली में स्ट्रेटजिक स्टडीज के प्रोफेसर ब्रह्मड्ढ चेलानी बताते हैं कि चीन के अलावा भारत की अपने सारे पड़ोसियों के साथ जल संधि है. पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ संधियों में विवाद निपटारा प्रणाली भी शामिल है. अकेले भारत ही चीन की योजनाओं से चिंतित नहीं है. मेकांग नदी पर यूनान में बन रहे बांधों से थाइलैंड, लाओस, कंबोडिया और वियतनाम भी परेशान हैं. इन देशों ने नदी के प्रबंधन के लिए संयुक्त अंतरसरकारी मेकांग नदी आयोग का गठन किया हुआ है.
पश्चिमी सीमा पर कजाकिस्तान के साथ चीन का विवाद तो दशक भर से ज्यादा पुराना है जब इली और अल्तिश नदियों पर चीन की परियोजनाओं के चलते निचली धारा में पानी कम हो गया और प्रदूषण की समस्या पैदा हो गई थी. शुरुआत में तो चीन ने कजाकिस्तान की चिंताओं की उपेक्षा की, लेकिन बाद में 2011 में उसने एक संधि पर दस्तखत कर दिए. यह स्थिति दोनों देशों के बीच करीबी रिश्ते के कारण आई क्योंकि एक तो ऊर्जा के आयात के लिए और दूसरे, शिनशियांग के सीमांत प्रांत में बढ़ती आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए उसे कजाखस्तान का मुंह देखना पड़ा. इससे यह पता चलता है कि चीन तभी हरकत में आता है जब मामला उसके हितों से जुड़ा होता है.

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