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26/11 प्रतिशोध: भारत पाकिस्तान पर हमले  को तैयार था

पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री कसूरी का दावा है कि 26/11 के हमले के बाद भारत ने बदले की कार्रवाई करने की योजना बनाई थी. फिर युद्ध की बजाए भारत ने कूटनीतिक राह क्यों चुनी?

26 नवंबर 2008 को मुंबई में  आतंकवादी हमले के बाद जलता हुआ ताज महल होटल
26 नवंबर 2008 को मुंबई में आतंकवादी हमले के बाद जलता हुआ ताज महल होटल
अपडेटेड 16 अक्टूबर , 2015

साउथ ब्लॉक में प्रधानमंत्री कार्यालय के भीतर दो दिसंबर को देश के सैन्य, सियासी और गुप्तचर विभाग के प्रमुखों की अहम बैठक हो रही थी. बैठक का एजेंडा बेहद गंभीर था. कमरे में करीब दर्जन भर लोगों ने जो विकल्प सुझाए, उनसे भारत और पाकिस्तान के बीच पांचवां युद्ध छिड़ सकता था. यह बैठक उस घटना के सिर्फ एक हफ्ते बाद चल रही थी, जिसमें 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों ने मुंबई को निशाना बनाकर 165 निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. उस हमले के बाद पूरा देश गुस्से में था और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बदले की कार्रवाई करने के लिए जनता का जबरदस्त दबाव बन गया था.

सेना और खुफिया विभाग के प्रमुखों की ओर से रखे गए लगभग सभी विकल्पों में बस एक ही बात कही जा रही थी—लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) को मजा चखाना, इसी संगठन ने मुंबई हमले की साजिश रची थी. सुझाए गए विकल्पों में विशेष बलों के मिशन, गुप्त हमले, वायु सेना की ओर से आतंकवादियों को ट्रेनिंग देने वाले कैंपों पर हमले के अलावा पाकिस्तान के साथ सीमित दायरे में युद्ध छेडऩा तक शामिल था.

बदले की कार्रवाई के विकल्पों की जानकारी अमेरिका को भी थी. पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी के संस्मरण नाइदर ए हॉक नॉर ए डव, जिसे 9 अक्तूबर को नई दिल्ली में रिलीज किया गया, में बताया गया है कि बुश प्रशासन ने 26 नवंबर, 2008 को हुए हमले के कुछ समय बाद सीनेटर जॉन मैन्नकेन, लिंडसे ग्राहम और अफगानिस्तान में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि रिचर्ड होलब्रुक को इस्लामाबाद भेजा ताकि वे जनता के मूड का अंदाजा लगा सकें.

कोल्ड स्टार्ट मंजूर नहीं
भारतीय जांचकर्ताओं ने मार्च 1993 में मुंबई सीरियल बम धमाकों और जुलाई 2006 में लोकल ट्रेन धमाकों में पाकिस्तान का हाथ होने का पता लगा लिया था. इन दोनों हमलों में कहीं ज्यादा क्रमश: 257 और 187 लोग मारे गए थे. लेकिन 26/11 का हमला अलग किस्म का था. पाकिस्तानी आतंकियों की ओर से किया गया यह पहला हमला था जिसमें सोची-समझी क्रूरता के साथ आम नागरिकों और विदेशियों को निशाना बनाया गया था.

भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान की पहली बैठक हमला शुरू होने के सिर्फ 48 घंटे के बाद 28 नवंबर को पीएमओ में रखी गई थी और उस समय तक भारतीय कमांडो ताज होटल के हेरिटेज विंग में छिपे आखिरी चार आतंकवादियों का सफाया करने के करीब थे. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में होने वाली उस बैठक में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन, रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) और रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुखों के अलावा नौसेना और वायु सेना के प्रमुख भी मौजूद थे. सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर उस समय दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर होने के कारण देश से बाहर थे. उनकी जगह सेना के उपाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल मिलन नायडू बैठक में शिरकत कर रहे थे. प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान से निबटने के लिए गुप्ïतचर विभाग के प्रमुखों से उनकी राय मांगी. उस बैठक में मौजूद अधिकारियों का कहना है कि उस समय तक सेना का विकल्प अब भी विचारणीय था.

एक विकल्प कोल्ड स्टार्ट का था, जिसमें भारतीय सेना की यह योजना थी कि अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पूरी तैयारी का इंतजार किए बिना त्वरित हमला किया जाए. दिसंबर 2001 में जब संसद पर हमला हुआ था तो पाकिस्तानी सीमा पर सेना को पूरी तैयारी करने में एक महीने से ज्यादा का समय लग गया था. तब तक दंडात्मक हमले करने का अवसर निकल चुका था. सेना ने उससे सबक सीख लिया था और कोल्ड स्टार्ट विकसित किया था, जिसके तहत कुछ दिन नहीं, बल्कि कुछ ही घंटों के भीतर आपातकालीन सैनिक कार्रवाई की जा सकती है.

लेकिन लेफ्टिंनेंट जनरल नायडू ने कहा कि वे सेनाध्यक्ष के 28 नवंबर को दक्षिण अफ्रीका के दौरे से लौटने का इंतजार करना चाहेंगे. उधर नौसेना के पास भी तेजी से बदले की कार्रवाई का कोई विकल्प नहीं था. नौसेना प्रमुख एडमिरल सुरीश मेहता ने कहा कि उनकी सेना अभी हमले के लिए तैयार नहीं थी और उसके पास 'कोल्ड स्टार्ट' जैसी कोई रणनीति नहीं थी.

गुप्तचर एजेंसियां इस बात पर नौसेना से खफा थीं कि उसने उस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिसमें भारत में घुसने का इंतजार कर रही लश्कर-ए-तैयबा की नौका के लोकेशन की ठीक-ठीक जानकारी दी गई थी. 2013 में पूर्व खुफिया कॉन्ट्रैक्टर एडवर्ड स्नोडेन के खुलासों से पता चला कि सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआइए) ने लश्कर की नौका और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में स्थित लश्कर-ए-तैयबा मुख्यालय के बीच बातचीत को पकड़ लिया था और 18 नवंबर को रॉ को उसकी जानकारी दे दी थी. यह मुंबई पर आतंकवादियों के हमले से आठ दिन पहले की बात है.

एयर चीफ मार्शल फाली होमी मेजर त्वरित कार्रवाई के पक्ष में थे. उन्होंने कहा कि वायु सेना 16 घंटों के भीतर हवाई हमला करने के लिए तैयार है. लेकिन हमले को सफल बनाने और नागरिकों को नुक्सान होने से बचाने के लिए उन्हें आतंकवादी ट्रेनिंग कैंपों के ठिकानों की सही जानकारी होनी चाहिए. लेकिन खुफिया एजेंसियों के पास इस तरह की सटीक जानकारी नहीं थी. इसलिए सैन्य विकल्प को टाल दिया गया.

हमले के विकल्प
भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान की दूसरी बैठक, जो 2 दिसंबर को हुई थी, पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई के विकल्प पर ज्यादा केंद्रित थी. उस वक्त तक मनमोहन सिंह सरकार स्पष्ट तौर पर ऑपरेशन पराक्रम की तरह की युद्ध की तैयारी या कोल्ड स्टार्ट के विकल्प को खारिज कर चुकी थी. अब सिर्फ एलईटी के खिलाफ दंडात्मक हमले के विकल्पों पर ही विचार किया जाना था. हमले के ठीक एक सप्ताह के बाद भारतीय खुफिया एजेंसियों ने मुंबई हमले में लश्कर का हाथ होने की पूरी तस्वीर तैयार कर ली थी. इस पुक्चता जानकारी के पीछे हमले में पकड़े गए आतंकवादी अजमल कसाब की ओर से दिया गया इकबालिया बयान, कराची के कंट्रोल रूम में बैठे एलईटी के आदमी और मुंबई हमलावरों के बीच पकड़ी गई कई घंटों की बातचीत थी.

सशस्त्र बल, खासकर सेना और नौसेना, अब भी एलईटी के ठिकानों पर हमला करने के विकल्पों के लिए तैयार नहीं थे. जनरल कपूर का कहना था कि पाकिस्तान भी हमले का जवाब दे सकता है, जिसके बाद भारत को भी जैसे को तैसा वाला जवाब देना होगा.

सेना के विकल्पों का सुझाव एक अनपेक्षित पक्ष की ओर से आया था—एम.के. नारायणन, जिन्होंने विस्तार से पांच विकल्प सामने रखे थे. हाल के दिनों में शायद यह पहली बार था जब भारत सरकार के सामने कई तरह के सैनिक विकल्प रखे गए थे और सभी में पूरे पैमाने पर युद्ध से बचने की बात कही गई हो. इन विकल्पों में सर्जिकल हवाई हमलों से लेकर गुप्त कार्रवाई और सुरक्षा बलों के छापे तक शामिल थे. पहला विकल्प पाकिस्तान में एलईटी नेतृत्व के खिलाफ गुप्त कार्रवाई का था. तीन अन्य विकल्पों में एलईटी के ट्रेनिंग कैंपों और पीओके में उसके मुख्यालय पर हवाई हमला करने के सुझाव दिए गए थे. भारतीय वायु सेना के लड़ाकू जेट एलईटी के ठिकानों पर सर्जिकल (सटीक) हमले करते या हेलिकॉप्टर से विशेष बलों के कमांडो कैंपों पर हमला करते ताकि आम नागरिकों को किसी तरह का नुक्सान न होने पाए. अंतिम विकल्प के तौर पर सीमित युद्ध शुरू करने की बात थी, जिसमें हवाई हमलों को सिर्फ पीओके तक ही सीमित रखना था ताकि लड़ाई पूरी पाकिस्तानी सीमा पर न फैलने पाए. यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इन विकल्पों को भारतीय सेना से सलाह-मशविरे के बाद तैयार किया गया था, लेकिन तीनों सेना प्रमुख चर्चा में शामिल थे और उन्होंने सभी विकल्पों पर गहन विचार किया था. हर सैनिक विकल्प को बारीकी से पेश किया गया था और भारत की हर कार्रवाई पर पाकिस्तान की ओर से होने वाली संभावित प्रतिक्रिया को भी ध्यान में रखा गया था. नारायणन की ओर से रखे गए सभी पांच विकल्पों में कार्रवाई को पीओके तक ही सीमित रखा गया था. भारत इस हिस्से पर अपना दावा जताता आया है.

पहले विकल्प, जिसमें एलईटी नेतृत्व पर बदला लेने वाला हमला करना था, पर गहन विचार किया गया, लेकिन बाद में उसे खारिज कर दिया गया. पता चला कि भारत के पास गुप्त कार्रवाई की क्षमता नहीं थी. उसके पास पाकिस्तान में अपने आदमी नहीं थे. पूर्व प्रधानमंत्री आइ.के. गुजराल ने 1997 में पाकिस्तान के भीतर रॉ के गुप्त ऑपरेशनों को बंद कर दिया था और उनके बाद आने वाले प्रधानमंत्रियों ने अपने खुफिया प्रमुखों के उन अनुरोधों को खारिज कर दिया था, जिनमें पाकिस्तान के भीतर रॉ के ऑपरेशन को फिर से शुरू करने की बात कही गई थी. अगर अपने कमांडो को घुसपैठ के जरिए भेजकर कार्रवाई की जाती तो कसाब की तरह उनके पकड़े जाने का खतरा हो सकता था. बैठक में शामिल अधिकारियों को डर था कि ऐसा करने पर भारत को भी पाकिस्तान की श्रेणी में रख दिया जाएगा.

भारतीय खुफिया एजेंसियों के अधिकारी सेना को एलईटी के नेताओं और ट्रेनिंग कैंपों के ठिकानों की सही जानकारी देने में समर्थ नहीं थे. उनके पास पाकिस्तान में गुप्त ऑपरेशन करने वाले ऐसे आदमी नहीं थे जो ठिकानों को तबाह कर सकें. और न ही वे कम समय में जरूरी खुफिया जानकारी उपलब्ध करा सकते थे. आखिरकार हवाई हमले के विकल्प को त्याग दिया गया. आखिरी विकल्प सीमित युद्ध का था, जिसे सिर्फ पीओके तक ही सीमित रखना था. इस के तहत सेना अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पूरी तैयारी के साथ जमा होती ताकि पाकिस्तान युद्ध को पीओके से बाहर न ले जा सके.

भारतीय सेना की कार्रवाई को जटिल बनाने वाला एक कारण यह भी था कि पाकिस्तान में तीन हवाई अड्डों और उनके एयरस्पेस में अमेरिकी सेना मौजूद थी. भारतीय वायु सेना को अपने हमले में अरब सागर से होकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आने-जाने वाले अमेरिकी लड़ाकू विमानों, बमवर्षकों, ड्रोनों और ट्रांसपोर्ट विमानों को भी बचाना होता.

सैन्य प्रमुखों ने विचार किया कि अगर युद्ध छिड़ता है तो पाकिस्तान अपनी सीमित सैन्य क्षमता और भारत की जीत की संभावना को देखते हुए परमाणु क्षमता का इस्तेमाल कर सकता है. अगर लड़ाई शुरू हो जाती तो जरूरी नहीं है कि पाकिस्तान भी खुद को सीमित युद्ध के दायरे में रखता. वह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी दे सकता था जिससे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को तुरंत दखल देना पड़ता. एक अधिकारी के मुताबिक—अगर भारत को अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण युद्ध रोकना पड़ता तो यह भारत के लिए ठीक नहीं होता. इस तरह आखिरी विकल्प को भी खारिज कर दिया गया. पाया गया कि भारतीय सैनिक मशीन जो वर्षों की उपेक्षा के कारण खोखली हो चुकी थी, पारंपरिक युद्ध के नजरिए से निर्णायक नतीजा नहीं दे सकती थी.

दिसंबर 1986 में ऑपरेशन ब्रासटैक्स और दिसंबर 2001 में ऑपरेशन पराक्रम के विपरीत दिसंबर 2008 में पाकिस्तान की सीमा पर युद्ध के लिए सशस्त्र बलों की तैनाती नहीं हुई थी. लेकिन एक बार फिर यह साफ हो गया कि लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठन परमाणु क्षमता वाले दो पड़ोसियों को एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध में झोंकने की क्षमता रखते हैं.

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