अभी बीते अगस्त की बात है. दिल्ली में मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर सभागार में हमारी अधूरी कहानी नाटक का मंचन शुरू होने को था. युवा रंगकर्मी हैप्पी रंजीत निर्देशित इस प्रस्तुति के मार्गदर्शक, प्रसिद्ध फिल्मकार महेश भट्ट तो वहां थे ही, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के सांस्कृतिक चेहरे कुमार विश्वास ने डेढ़ घंटे से ज्यादा बैठकर पूरा नाटक देखा. सभागार में थिएटर के परंपरागत दर्शकों के अलावा एक अलग तरह के युवा दर्शकों की मौजूदगी और रोमांच साफ देखा जा सकता था. यह नाटक भट्ट कैंप की पिछले दिनों आई इसी नाम की फिल्म की कहानी पर आधारित था, जिसमें इमरान हाशमी और विद्या बालन ने प्रमुख भूमिकाएं की थीं. इसके कुछ दिन पहले ही, तीस साल पुरानी, अनुपम खेर अभिनीत फिल्म सारांश के नाट्य मंचन के वक्त भी प्रमुख शख्सियतों और दर्शकों की कमोबेश इसी तरह की उपस्थिति थी. निर्देशक दानिश इकबाल का हौसला बढ़ाने के लिए भट्ट तब भी मौजूद थे. पांच शो के बाद अब यह नाटक चंडीगढ़, इलाहाबाद, अमृतसर और फिर लाहौर जाने की तैयारी में है.
एक दृश्य इससे थोड़ी दूरी पर. संसद के मानसून सत्र के समापन के बाद 11 अगस्त को उसी परिसर के बालयोगी सभागार में मनोज जोशी अभिनीत-निर्देशित चाणक्य देखने पहुंचे दर्शकों में रंगमंच के नियमित दर्शक कम ही थे. मकसद हालांकि इसे सांसदों को दिखाना था पर वे बमुश्किल 20-25 ही आए. इस पर आयोजन पक्ष के ही एक पदाधिकारी की टिप्पणी थीरू ''वे तो नाटक करते हैं, देखने क्यों आएंगे?'' हां, दक्षिणपंथी खेमे के चाणक्य रहे लालकृष्ण आडवाणी जरूर मौजूद थे.
असल में हिंदी अंचल में रंगमंच अपने लिए एक नई जमीन, नए दर्शक तलाशने की जद्दोजहद में है. इसके लिए तरह-तरह के उपाय और युक्तियां सोची जा रही हैं. दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में नाटकों के लिए उपयुक्त सभागारों का एक दिन का किराया ही 30,000-50,000 रु. के बीच पड़ता है. ऊंची कीमत रखने और सारे टिकट बिकने पर भी वह वसूल कर पाना यहां के रंगकर्मियों के लिए टेढ़ी खीर ही रहा है. इसके अलावा रिहर्सल की जगहों का संकट ऊपर से. हिंदी प्रदेशों के बाकी शहरों में भी स्थितियां बहुत अलग नहीं रही हैं. इन दिक्कतों के अलावा कुछ खतरे भी हैं, जिनकी ओर भट्ट भी इशारा करते हैं, ''थिएटर खासे दबाव में है. सेलफोन, टेक्नोलॉजी और टीवी वगैरह लगातार उसके लिए चुनौती पेश कर रहे हैं. उसे बड़ी प्रेरणा, बड़े इंस्पिरेशन की जरूरत है.''
इन्हीं हालात ने रंगकर्मियों को प्रयोगों के लिए उकसाया है. भले ही उसके लिए रंगमंच के कथित एस्थेटिक्स, उसके सांचे-ढांचे के साथ थोड़ी खींच-तान भी क्यों न करनी पड़े. मसलन, सिनेमा से कहानियां लेकर आना, नए कथानक चुनना, चर्चित, क्लासिक कविताओं, ठेठ जमीनी लोगों की आत्मकथाओं को स्टेज पर लाना, दूसरी तरफ दिल्ली, एनसीआर या दूसरे शहरों में गैर-पारंपरिक स्थानों पर जाकर मंचन करना.
दिल्ली से दूर वाराणसी में बैठे कवि-रंगकर्मी, 35 वर्षीय व्योमेश शुक्ल निराला की कालजयी कविता राम की शक्ति पूजा को बनारसी रंग के संगीत, क्लासिक और समसामयिक नृत्य के साथ एक नए ढंग के नैरेटिव में पेश कर रहे हैं. हरियाणा के रंगकर्मी कुलदीप कुणाल ने मुक्तिबोध की 2-3 कविताओं को स्थितियों में ढालकर मुक्ति नाम की प्रस्तुति में खूबसूरती से पेश किया है. बिहार के कुछ रंगकर्मी दिनकर की कविताओं को दिलचस्प मंचीय युक्ति के साथ पेश कर रहे हैं. युवा रंगकर्मी गोविंद यादव ने पिछले दिनों अदम गोंडवी की कविताओं को उठाया हालांकि वे ज्यादा कामयाब नहीं रहे.
दिल्ली के ही रंगकर्मी लोकेश जैन दलित मराठी लेखक शरण कुमार लिंबाले के त्रासद अनुभव वाले आत्मकथात्मक टेक्स्ट अक्रमाशी को दसियों साल से छोटे-छोटे थिएटर स्पेस में करते आ रहे हैं. दलित लेखकों का घना यथार्थबोध उन्हें शुरू से प्रेरित करता रहा है. तभी तो वे डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया को भी मंच पर लाने की सोच रहे हैं. फिलहाल वे भी अगले हक्रते मुक्तिबोध की कविताओं को लेकर आ रहे हैं.
ये युक्तियां दर्शकों को खींचकर लाने में कितनी कारगर होंगी, पता नहीं, पर अभी तो ये अपने समय से मुठभेड़ करते हुए रंगकर्मियों को रचनात्मक संतोष दे पा रही हैं. वरिष्ठ नाट्य समीक्षक संगम पांडेय मंच पर सिनेमा वाले प्रयोग को ज्यादा दिलचस्प मानते हैं. ''थोड़े समय बाद हिंदी थिएटर में यह एक अलग जानर बन सकता है. टेक्नोलॉजी के नए दौर में गहराई में जाने के लिए दर्शकों के पास वक्त नहीं है. ये नए समय के बनाए दर्शक हैं. कुछ रंगकर्मियों ने इस बदले मूड को पकड़ा है. खास तौर पर हैप्पी रंजीत ने इसमें ज्यादा कल्पनाशीलता दिखाई है.''
इसके अलावा कुछ और भी आयाम हैं रंजीत की रचनात्मकता के. समलैंगिकता जैसे संवेदनशील विषय को वे अपने नाटक स्ट्रेट प्रोपोजल में खंगाल चुके हैं. इस ओर उनका ध्यान गया जब एक चर्चित मराठी रंगकर्मी की अधेड़ उम्र में मृत्यु हो गई और कथित रूप से उनके समलैंगिक होने का पता चला. फिर धारा 377 पर सप्रीम कोर्ट का फैसला भी आया. और अब रंजीत स्त्री-पुरुष संबंधों को नए ढंग से जेनुइन लायर में टटोल रहे हैं. उन्हीं के शब्दों में, ''पाब्लो पिकासो कहते थे कि मर्द सांड जैसा और औरत घोड़ी जैसी होती है. ये दोनों कभी एक-दूसरे को समझ नहीं पाते और इसमें बलि चढ़ती है मनुष्य शरीर की. मैं उन्हीं की 6-7 पेंटिंग्स को आधार बनाकर यह नाटक कर रहा हूं. ''
जाहिर है, इन सबके पीछे थिएटर के लिए नए दर्शक, उसके संरक्षक खोजने-तलाशने की भी एक मंशा है. और इसके लिए अलग-अलग जगहों पर अपने-अपने ढंग से कोशिशें जारी हैं. रंजीत को अगर अपनी युक्तियों से नए दर्शक मिले हैं तो व्योमेश रंगमंच के अलावा साहित्य और नृत्य प्रेमियों को भी नजदीक ला रहे हैं. उनके काम में एक तरह की गुस्ताखी दिखती है. उन तक आने वाले दर्शकों को एक अलग कलात्मक सुख देने के लिए उन्होंने एक तरह का जोखिम उठाया है. खासी लोक व्याप्ति वाली ठेठ साहित्यिक कविताओं को एक नाटय अनुभव में ढालने के लिए उन्होंने बनारसी अंग का संगीत, वैसी ही गायिकी, शास्त्रीय और समकालीन नृत्य भंगिमाएं सभी का समावेश किया है. उन्हीं के शभ्दों में, ''मैं डर रहा था कि रंगमंच के पारंपरिक दर्शक-समालोचक कहीं मेरे काम को नाटक मानने से ही इनकार न कर दें. लेकिन बनारस और दूसरे शहरों में भी मिली प्रतिक्रियाओं ने हौसला बढ़ाया.''
उनके जेहन में कहीं गहरे बैठा एक बगावती तेवर उनके लिए बड़ी प्रेरणा का काम कर रहा था. बनारस की रामलीलाओं में लड़के ही हमेशा से सीता और दूसरे स्त्री पात्रों का रोल करते आए हैं, जिसके लिए कई बार वे चिढ़ाए भी जाते हैं. व्योमेश खुद एक बार जब लीला में राम बने तो 'चिढ़ी हुई सीता ने बीच-बीच में कंधे में दांत काटकर उन्हें रुला डाला. अपने समय के शीर्ष हिंदी कवियों और गद्यकारों मंत शुमार व्योमेश ने इन अनुभवों का रचनात्मक इस्तेमाल किया. अपने नाटकों में उन्होंने अभिनेत्रियों को ही पुरुष पात्र भी सौंपे.
राम की शक्ति पूजा हो, रामधारी सिंह दिनकर की रश्मिरथी या जयशंकर प्रसाद की कामायिनी, उन्होंने कद में नन्हीं-मासूम दिखने वालीं लेकिन प्रतिभावान-परिपक्व अभिनेत्रियों को ही कर्ण, कृष्ण, दुर्योधन और मनु बनाया. यही क्यों, आगे भी मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में और फिर रामचरित मानस पर अपनी महत्वाकांक्षी प्रस्तुति में भी वे ऐसा ही करने वाले हैं. उनका एक और काव्यात्मक तर्क हैः ''अभिनेत्रियों की देह में एक तरह का लालित्य होता है.''
जबलपुर (मध्य प्रदेश) में 2008 से नियमित काम कर रहे युवा रंगकर्मी 36 वर्षीय आशीष पाठक ने तो कुछ और भी तरकीबें निकाली हैं. दिलचस्प कथानक वाले नाटक चुनने के अलावा उन्होंने दर्शकों का एक डाटा बैंक तैयार किया है. वे बताते हैं, ''इस वक्त मेरे पास 3,200 दर्शकों के मोबाइल नंबर हैं. इनमें जबलपुर और आसपास के गांवों के अलावा नरसिंहपुर, सतना और कटनी तक के लोग जुड़े हैं, जुड़ रहे हैं. एक एसएमएस से सभी को संदेश चला जाता है.'' दर्शकों की रुचियों का ध्यान रखते हुए वे नाटक के बारे में खुद उन्हीं से सुझाव लेते रहते हैं. विजयदान देथा की एक कहानी पर तैयार सराय नाम के उनके ताजा नाटक को जबलपुर के अलावा अहमदाबाद, जयपुर और हाल ही पटना में भी पसंद किया गया.
प्रयोगों का यह सिलसिला हर जगह जारी हैः दिल्ली हो या पटना, बनारस हो या बेगूसराय, जबलपुर हो या लखनऊ. हिंदी क्षेत्र के नए दर्शक भी मंच पर रोमांच के लिए तैयार रहें.
रंगमंच: सब ओर से नए की तलाश
हिंदी रंगमंच नए दर्शक खोजने की जद्दोजहद में कर रहा नए प्रयोग. सिनेमा से आ रहीं आजमाई हुई कहानियां, साथ-साथ संरक्षक-प्रमोटर भी. क्लासिक कविताओं को मिल रहीं नई व्याख्याएं.

अपडेटेड 29 सितंबर , 2015
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