मरे हुए लोग कभी बोलते नहीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है. उनकी हाथ की लिखी खुदकुशी की चिट्ठी बहुत कुछ बता जाया करती थी. लेकिन आज, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एक्वस) में फॉरेंसिक मेडिसिन विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉ. चित्तरंजन बेहरा के मुताबिक, उन्हें हर महीने मिलने वाली 20-30 खुदकुशी की चिट्ठियों में ज्यादातर ई-सुसाइड नोट ही होते हैं, चाहे ये एसएमएस हों या व्हाट्स ऐप मैसेज, मोबाइल पर वीडियो रिकॉर्डिंग या फिर ई-मेल. लिहाजा, किसी जमाने में बेहरा जैसे फॉरेंसिक विशेषज्ञ पहले कलम की नोक के दबाव और झुकाव से यह बता दिया करते थे कि मरने वाले की दिमागी हालत कैसी रही होगी या क्या उसने किसी दबाव में आकर ऐसा कदम उठाया होगा या क्या वह अपना मृत्यु-लेख लिखते वक्त लेटा हुआ था, वगैरह. लेकिन अब विज्ञान टेक्स्ट मैसेज के तरीकों और कीबोर्ड की आखिरी “की” पर उंगलियों के छाप का विश्लेषण करने की ओर मुड़ रहा है. लेकिन इससे मरने वाले की दिमागी हालत का पता नहीं चलता. बल्कि अब तो किसी को जानने-समझने का मौका भी जाता रहा. और अब तो तकनीक की बाधाएं रास्ता रोक लेती हैं और हमारी उंगलियां हमारी दिमागी हालत का अंदाजा कम दे पाती हैं.
वजह यह है कि तकनीक से हमारी उंगलियां की बोर्ड पर रोबोट की तरह चलती हैं, जबकि कलम और पेंसिल से कागज पर उभरती गोलाइयां दिमाग में चल रहे विचारों की प्रकृति का अंदाजा दे जाती हैं. रमेश अय्यर के मुताबिक, हाथ की लिखावट में भावनाएं भी अभिव्यक्त होती हैं जबकि कीबोर्ड पर दिमाग सिर्फ “की” की पहचान करने और उसे दबाने के अलावा कोई छाप नहीं छोड़ता.
अय्यर का एनजीओ राइट राइटिंग केरल, महाराष्ट्र और कर्नाटक में सरकारी स्कूलों के हजारों बच्चों को प्रशिक्षित कर चुका है. इस साल उसने वर्कशॉप करने का लक्ष्य रखा है. उसने ताजा अभियान में इस साल जुलाई में महाराष्ट्र के पालघर में 150 बच्चों की हाथ की लिखावट सुधारने का कार्यक्रम चलाया. अय्यर ने सर्व शिक्षा अभियान के लिए तिरुवनंतपुरम के चलै में लिखावट के अभ्यास के लिए 20 घंटे का एक मॉड्यूल तैयार किया. दरअसल, यह महसूस किया गया कि सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर के कार्यक्रमों पर जोर देने से कई बच्चे कीबोर्ड पर अक्षरों को पहचानना भूल गए हैं, क्योंकि उनके लिए लिखने का काम और अञ्जयास तेजी से कम होता जा रहा है.
अय्यर के जीवन का मकसद सरकारी कार्यक्रमों के जरिए वंचित तबके के बच्चों की लिखावट सुधारना है लेकिन उनके मुताबिक उनके पास अधिकांश फोन कॉल कानून जैसे विभिन्न पेशेवर पाठ्यक्रमों के बच्चों के आते हैं. वे कहते हैं, “छात्रों को हाथ से लिखने की जरूरत अब बस परीक्षाओं में ही पड़ती है. साल भर तो वे नोट्स की फोटोकॉपी या फोटोग्राफ से ही काम चला लेते हैं. इस वजह से उनके हाथ की मांसपेशियां परीक्षाओं में उतनी तेजी से नहीं चलतीं, इस वजह से वे हमारे पास मदद के लिए आते हैं.”
दरअसल, लिखावट का बिगडऩा बचपन में ही शुरू हो जाता है. यह खतरनाक भी है. हाथ की लिखावट इस हद तक बिगड़ती जा रही है कि इस साल जनवरी में भारतीय चिकित्सा परिषद ने राज्य मेडिकल काउंसिलों को निर्देश दिया है कि डॉक्टरों के लिए बड़े अक्षरों में ही लिखने का प्रेस्क्रिप्शन फॉर्मेट तैयार किया जाए और उसे अप्रैल से अनिवार्य बनाया जाए, ताकि डॉक्टरों की भद्दी लिखावट की वजह से मरीजों को जो परेशानी होती है, उसे दूर किया जा सके.
यह पहल कई लोगों की ओर से इस बारे में चिंता जाहिर करने से हुई है. पिछले साल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा संसद में डॉक्टरों के प्रेस्क्रिप्शन में अबूझ किस्म की लिखावट पर चिंता जाहिर कर चुके हैं. मणिपाल के कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज के फॉरेंसिक मेडिसिन विभाग के प्रतीक रस्तोगी और सामुदायिक औषधि के अनिमेश जैन ने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में 2009 में लिखा कि औषधियों के बारे में गलतियां अबूझ लिखावट और लापरवाहियों के कारण होती हैं. 2006 में अमेरिकन नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिसिन ने पाया कि डॉक्टरों की खराब लिखावट की वजह से हर साल दुनिया भर में करीब 7,000 मौत होती हैं.
अब तो बच्चे चार-पांच साल की उम्र से ही लिखना-पढऩा शुरू करने के कहीं पहले, टच स्क्रीन के मोबाइल फोन और टैबलेट पर हाथ चलाने लगते हैं. इस वजह से नर्सरी स्कूल के अध्यापकों को उनके हाथ में कलम-पेंसिल पकड़ाना और कागज पर लिखवाना मुश्किल होता जा रहा है. बच्चों के अभिभावकों, जैसे मुंबई में नौ साल की तीस्ता के पिता शांतनु भट्टाचार्य या नीलगिरि में तीन स्कूली बच्चों की मां कावेरी आहूजा वगैरह ने अपने बच्चों की लिखावट को बेहतर बनाने के लिए विशेष लिखावट कक्षाएं शुरू कर दी हैं. बच्चे अब किताब की नकल उतारना पसंद नहीं करते और न ही ऐसा करने की उन्हें अब जरूरत रह गई है इसलिए लिखाई का अभ्यास कम होता जा रहा है. भट्टाचार्य कहते हैं, “अभ्यास छूटने से लिखने में कमी और खराबी आ रही है. लेकिन मैं चिंता करने के सिवा कर ही क्या सकता हूं?” आहूजा का मानना है कि अच्छी लिखावट से अच्छी परवरिश भी होती है. क्या वाकई इसका इतना ही महत्व है? अमेरिका में तो पब्लिक स्कूलों में सुंदर अक्षरों की लिखावट कब की छोड़ दी गई है. वहां कॉमन कोर स्टेट स्टैड्स नामक पहल के तहत किंडरगार्टेन के बाद ही बच्चों को कीबोर्ड सिखाने पर जोर दिया जाता है.
लेकिन 2012 में अमेरिका के टेक्सास में इंडियाना यूनिवर्सिटी के केरिन जेम्स और यूनिवर्सिटी ऑफ ऑस्टिन की लॉरा एंजेलहार्ट ने पत्रिका एलसेवियर में लिखा कि यह भूल हो सकती है. उन्होंने अपने अध्ययन में दिखाया कि अलग-अलग तरह से लिखावट की वजह से दिमाग यह जान लेता है कि इससे अक्षरों का मूल अर्थ नहीं बदलता. यानी चाहे जैसी लिखावट में “ए” लिखा जाए, वह “ए” ही रहता है. खुलकर हाथ से लिखने वालों में दिमागी सक्रियता कंप्यूटर पर लिखने वालों से ज्यादा तेज हो सकती है.
तंत्रिका विज्ञान (न्यूरोलॉजी) के क्षेत्र में हाथ की लिखावट के तरीके से अंदाजा लगाया जाता है. हैदराबाद के गुरुनानक इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के अशोक जम्मी के, जो अब इथियोपिया की हवासा यूनिवर्सिटी में हैं, शोध में मरीज की हाथ की लिखावट और तंत्रिका रोग की मात्रा या उसके लक्षण के बीच संबंध तलाशा जाता है. इस शोध में टैबलेट में ऑनलाइन और कलम से ऑफलाइन, दोनों लिखावटों का अध्ययन किया गया. शोधकर्ताओं ने पाया, “हाथ से लिखने में मांसपेशियों पर अधिकतम नियंत्रण की जरूरत होती है इसलिए लिखावट की कमियों से तंत्रिका रोग की अवस्था का पता चल जाता है.”
अल्जाइमर और पार्किंसन रोग की पहचान में भी हाथ की लिखावट का इस्तेमाल किया जाता है. अब इसका इस्तेमाल दूसरे रोगों जैसे एप्राक्सिया और एबोलिया में भी किया जाने लगा है. एप्राक्सिया तंत्रिकाओं के कमजोर होने से जुड़ी समस्या है तो एबूलिया निर्णायक कार्रवाई करने में दिक्कत की बीमारी है.
हैदराबाद के पाटिना इंटरनेशनल इनक्लूसिव स्कूल में सीखने में कमजोर छात्रों को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत बजाकर लिखने की कला सिखाने के उपचार पर शोध चल रहा है. विशेषज्ञ शिक्षक राजेश रामचंद्रन और अनुरागिनी सिंह ने पाया है कि लिखावट सुधारने के लिए संगीत के इस्तेमाल से उच्चारण, हिज्जे और वाक्यों के बीच में अंतर का ज्ञान पाया जा सकता है.
अब इस पर शोध हो रहा है कि हाथ से लिखना छोड़कर हम क्या कुछ गंवा बैठते हैं. मैथ्यू बैटल्स की नई किताब पलिम्पसेस्ट में यह दिखाया गया कि लिखे गए शब्द से हमारा रिश्ता क्या है और लिखना कैसे हमें ज्यादा जीवंत और सक्रिय बनाए रखता है. मसलन, मुहावरों के साथ और रुचिकर लेखन ट्विटर जैसा नहीं हो सकता. उनके मुताबिक, आदमी की बोलचाल की कला से पहले लिखने की कला के दर्शन पॉम्पी (इटली में नेपल्स के पास प्राचीन शहर) में होते हैं. वे यह भी बताते हैं कि लेखन की औपचारिकता बोलचाल में भी आती है और समय-समय पर उसी से कहावतें बनती हैं.
हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू के ताजा अंक में मैगी मैकग्लोइन कहती हैं कि जो लोग लैपटॉप में नोट लेते हैं, उनसे ज्यादा नई सूचनाएं कागज-कलम से नोट लेने वालों को मिलती हैं. वे प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की पैम मुलर और लॉस एंजेलिस के कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के डैनियल ओपनहाइमर के अध्ययन का हवाला देती हैं. मैकग्लोइन टाइपिंग को बेदिमाग लिखावट मानती हैं, जिस ओर समाज बढ़ता जा रहा है.
बिलासपुर के श्री सिद्धिविनायक एजुकेशनल ग्रुप ऑफ इंस्टीटयूशंस के संदीप डांग और महेश कुमार ने 2014 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एडवांस्ड रिसर्च ऐंड कंप्यूटर साइंस ऐंड सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में यह बताया है कि विज्ञान और तकनीक चाहे जितनी भी प्रगति क्यों न कर ले, आधुनिक गणना विधियां कोई ऐसा सूत्र नहीं निकाल सकी हैं जिनसे यह बताया जा सके कि मनुष्य किसमें सक्षम है.
बहरहाल, जब तक कंप्यूटर मानव दिमाग का कोई मॉडल नहीं बना लेता, तब तक केवल हाथ की लिखावट ही है जो यह पता लगा सकती है कि कौन-सा व्यक्ति कितना काबिल है.
मिट गई हैंडराइटिंग
हम हाथ से लिखना छोड़कर क्या कुछ गंवाने वाले हैं? विज्ञान की नई खोजों ने साबित किया कि हम उससे कहीं ज्यादा खोने वाले हैं, जितने का हमें अंदाजा है.

अपडेटेड 11 सितंबर , 2015
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