सारी दुनिया में स्मार्ट शहरों की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा भले न हो, लेकिन नरेंद्र मोदी के पास उसकी अपनी परिभाषा हैः एक ऐसा शहर, जो नागरिकों की जरूरतों से दो कदम आगे हो. मौजूदा शहर हमारी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में जिस तरह नाकाम रहे हैं, इस रोशनी में प्रधानमंत्री के आलोचकों ने 100 स्मार्ट शहरों के उनके सपने को एक और आकर्षक जुमला कहकर खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. एक ऐसा जुमला, जो स्वच्छ भारत अभियान और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे सरकारी कार्यक्रमों की तर्ज पर ही है. मोदी इन आशंकाओं से वाकिफ हैं. इसीलिए राजधानी में 25 जून को स्मार्ट सिटीज मिशन का लोकार्पण करते हुए उन्होंने साफ कहा था कि यह परियोजना एक जुमला भर नहीं है.
हालांकि इस परियोजना की अनुदान प्रणाली को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि फिलहाल तो यह जुमला ही है. स्मार्ट सिटीज मिशन को केंद्र प्रायोजित योजना के तौर पर चलाया जाएगा. अगले पांच साल में केंद्र ने 100 स्मार्ट शहरों के लिए 48,000 करोड़ रु. देने का प्रस्ताव किया है यानी हर शहर के लिए यह राशि सालाना 100 करोड़ रु. के आसपास बैठती है. चूंकि राज्यों को भी इतनी ही धनराशि लगानी है, इसलिए स्मार्ट शहरों के लिए मोटे तौर पर कुल एक लाख करोड़ रु. उपलब्ध होंगे. केंद्रीय शहरी विकास मंत्री एम. वेंकैया नायडू कहते हैं कि यह अनुदान परियोजना की कुल लागत का महज एक अंश होगा और मिशन का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य और नगरीय निकाय कितनी सक्रियता से इस जिम्मेदारी को खुद उठा पाते हैं. चूंकि उन्हें केंद्र से आवंटित राशि का कम से कम दोगुना स्वयं जुटाना है. फंड कम है या भरोसा?
सबसे बड़ी चुनौती राज्यों से नहीं, बल्कि नगरीय निकायों की अनुदान जुटाने की क्षमता से आ रही है. मिशन के अंतर्गत कुल फंडिंग का फॉर्मूला केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों के बीच 40, 40 और 20 के अनुपात में है. कई स्थानीय निकायों का कहना है कि उनकी जेब एकदम खाली है, जिसके चलते स्मार्ट शहर परियोजना अपनी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही अटक जाएगी. शिमला नगर निगम के डिप्टी मेयर टिकेंदर पंवार कहते हैं, “यह परिदृश्य जेएनएनयूआरएम (जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन) के मुकाबले कहीं बदतर है. उस मिशन में स्थानीय निकायों को परियोजना विशेष के लिए 10 फीसदी का अनुदान देने को कहा गया था. जब हम 10 फीसदी की जरूरत को पूरा नहीं कर सके तो केंद्र सरकार हमसे 20 फीसदी लागत को पूरा करने की उम्मीद कैसे कर सकती है?” यह बात अलग है कि स्मार्ट शहरों के लिए चुने गए शहरों में हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला नहीं है.
तेरहवें वित्त आयोग के मुताबिक, नगर निकायों का राजस्व 2007-08 में जीडीपी का 0.94 फीसदी था. यह हिस्सा दूसरी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं जैसे ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के मुकाबले काफी कम है, जहां यह आंकड़ा क्रमशः पांच और छह फीसदी है. अब इसे देखेः शहरी विकास मंत्रालय की बनाई एक उच्चाधिकार समिति की रिपोर्ट कहती है कि दो दशकों (2011 से 2031 तक) के दौरान भारतीय शहरों और कस्बों में बुनियादी ढांचे और सेवाओं की अनुमानित लागत 40 लाख करोड़ रु. से ज्यादा रहने वाली है. इस राशि में विकास के लिए भूमि अधिग्रहण की लागत, मुद्रास्फीति के उतार-चढ़ाव और परियोजना लागत में बदलाव को शामिल नहीं किया गया है. इसके उलट शहरी स्थानीय निकायों का कुल राजस्व 1,00,000 से 1,50,000 करोड़ रु. सालाना से ऊपर नहीं रहने वाला है. इसमें से प्रशासनिक और सरकारी खर्चों को निकाल दें तो बुनियादी ढांचे के लिए बेहद मामूली हिस्सा ही उपलब्ध होगा.
इस कमी को पाटा जा सकता है, जैसा कि एशियाई विकास बैंक की फरवरी, 2013 की एक रिपोर्ट कहती है. इसके मुताबिक, संपत्ति मूल्यों या कर ढांचे में कोई बुनियादी बदलाव किए बगैर नगर निकायों के पास अपने राजस्व को 110 फीसदी बढ़ाने की क्षमता है. इसी को साकार करना सरकार के सामने चुनौती है. शहरी निकायों में केंद्रीय अनुदान को लेकर अविश्वास केंद्रीय बजट के विरोधाभासी संकेतों से भी पैदा हो रहा है. आम बजट 2014-15 में स्मार्ट शहरों के लिए 7,016 करोड़ रु. आवंटित किए गए थे. इसके उलट इस साल के बजट में यह धनराशि मात्र 143.05 करोड़ रु. है. हालांकि परियोजना लागू करने की जिम्मेदारी निभा रहे शहरी विकास मंत्रालय के बजटीय आवंटन में 2015-16 में 53 फीसदी का इजाफा भी हुआ है. पिछले बजट में यह 11,013 करोड़ रु. था, जिसे इस बार बढ़ाकर 16,832 करोड़ रु. कर दिया गया है. दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो पार्थ मुखोपाध्याय मानते हैं कि स्मार्ट शहरों के बजट में कटौती एक समझदार फैसला है. वे कहते हैं, “पैसा खर्च करने के लिए समय पर्याप्त नहीं होगा. इसलिए 143 करोड़ रु. वास्तविक आंकड़ा जान पड़ता है.”
राज्यों के लिए फंडिंग के एक स्रोत के रूप में नायडू 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को मंजूर किए जाने के बाद उन्हें “दिए गए अतिरिक्त संसाधनों” का जिक्र करते हैं. उनका इशारा केंद्र की एनडीए सरकार की केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी को 32 फीसदी से बढ़ाकर 42 फीसदी किए जाने की ओर है, जिसके चलते राज्यों को 2015-16 में 1.78 लाख करोड़ रु. की अतिरिक्त धनराशि मिलेगी. सरकार ने आयोग की इस सिफारिश को भी मंजूर किया है कि पांच साल के लिए पंचायतों को दो लाख करोड़ रु. और नगरपालिकाओं को 87,143 करोड़ रु. का अनुदान दिया जाए. हालांकि अधिकतर गैर-एनडीए शासित राज्यों का दावा है कि राजस्व बंटवारे के नए ढांचे में राज्यों को मामूली लाभ हुआ है क्योंकि केंद्र प्रायोजित 24 योजनाओं के अनुदान में कटौती कर दी गई है.
फंडिंग में कमी को पूरा करने के लिए नायडू बाहरी एजेंसियों से उधार लेने की बात भी कहते हैं. केंद्र सरकार ने पैसा जुटाने के लिए स्थानीय निकायों को बॉन्ड जारी करने का सुझाव भी दिया है, लेकिन यहां विश्वसनीयता का संकट है. भारत के अधिकतर स्थानीय निकायों के पास क्रेडिट रेटिंग उपलब्ध नहीं है, जिसके चलते वे न तो बाहर की एजेंसियों से उधार ले सकते हैं और न ही बॉन्ड जारी कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं मिलेगा.
25 जून के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने फंडिंग के दो अन्य स्रोतों का उल्लेख किया था-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप-पीपीपी) मॉडल. अगस्त, 2014 में अपनी जापान यात्रा के दौरान उन्होंने वाराणसी को स्मार्ट शहर बनाने के लिए भारत की राजदूत दीपा वाधवा और क्योटो के मेयर दाइसाकू कोदोकावा के बीच एक समझौते (एमओयू) पर दस्तखत भी करवाए थे. एनडीए ने इसके अलावा आवास और रियल एस्टेट क्षेत्र में 100 फीसदी एफडीआइ को भी मंजूरी दे दी है.
नायडू के अनुसार, स्मार्ट शहरों की परियोजना में 15 देश दिलचस्पी ले रहे हैं. इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन, सिंगापुर, इज्राएल और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं. लेकिन भारत स्थित अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा के अप्रैल में दिए बयान पर गौर करें तो कह सकते हैं कि महज एफडीआइ के भरोसे उक्वमीद बनाए रखना सबसे बढिय़ा विकल्प नहीं होगा. उन्होंने कहा था, “भारतीय राज्यों और केंद्र सरकार समेत उद्योगों को भी स्मार्ट शहरों का वित्तपोषण करने में अगुआ बनना होगा. भूमि अधिग्रहण, एफडीआइ और अन्य सवाल अब भी अनसुलझे हैं. निजी क्षेत्र से भारी मात्रा में वित्तपोषण चुनौती बना रहेगा, चाहे वह घरेलू हो या विदेशी.”
शहरी विकास मंत्रालय ने स्मार्ट शहरों पर जो मिशन वक्तव्य जारी किया है, उसमें मोदी के बताए पीपीपी मॉडल का जिक्र है. उसके दिशा-निर्देशों के मुताबिक, प्रत्येक नगर निगम को स्मार्ट शहरों की स्थापना के लिए एक स्पेशल परपज वेहिकल (एसपीवी) का गठन करना होगा, जिसे कंपनी कानून, 2013 के अंतर्गत एक लिमिटेड कंपनी की तरह बनाया जाएगा. इसके प्रवर्तक खुद राज्य और नगर निकाय होंगे, जिनकी इसमें आधी-आधी हिस्सेदारी होगी. निजी क्षेत्र या वित्तीय संस्थानों को इस एसपीवी में हिस्सा देने के बारे में विचार किया जा सकता है, बशर्ते राज्य और नगर निकाय का हिस्सा एसपीवी में बराबर बना रहे. नायडू नैसकॉम की एक रिपोर्ट का उद्धरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि स्मार्ट शहरों में प्रौद्योगिकी आधारित स्मार्ट समाधानों की जरूरत को पूरा करने के लिए आइटी कंपनियों के पास करीब 30 अरब डॉलर का निवेश करने के अवसर मौजूद हैं.
ताकि मिशन टिका रहे
मोदी भले ही इस आरोप को खारिज करें कि यह परियोजना एक चमकदार जुमला है, लेकिन केंद्र एक हकीकत से वाकिफ है. वह यह कि नगर निकाय कितनी ताकत से इसे बनाए रखने के लिए काम कर पाते हैं. इसी पर स्मार्ट सिटीज मिशन का भविष्य टिका हुआ है. इसीलिए मिशन वक्तव्य में यह साफ कहा गया है कि “इस प्रयास की कामयाबी एसपीवी के राजस्व मॉडल की ताकत पर निर्भर करेगी.” शायद यही वह अस्थिरता है, जिसके चलते प्रधानमंत्री को यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि यदि परियोजना नाकाम हुई तो उसका दोष वे खुद अपने ऊपर ले लेंगे. क्या राज्य और नगर निकाय इस चुनौती को गले लगाने के लिए तैयार हैं?
(साथ में राकेश दीक्षित और मनजीत सहगल)
मोदी के स्मार्ट शहरों की योजना में बड़ा लोचा है
100 स्मार्ट शहर विकसित करने की प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी परियोजना अपने प्रस्तावित फंडिंग फॉर्मूले के कारण पटरी से उतर सकती है.

अपडेटेड 11 सितंबर , 2015
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