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मध्य प्रदेश: थाली पर सियासत

खेती-किसानी में शानदार प्रदर्शन करने वाला मध्य प्रदेश अब भी अव्वल दर्जे के कुपोषण का शिकार. यह विरोधाभास बताता है कि हमारी खाद्य नीतियां किस कदर गलत हैं.

डिंडोरी में अपने घर पर बैगा जनजाति की एक महिला अपने बेटे के साथ
डिंडोरी में अपने घर पर बैगा जनजाति की एक महिला अपने बेटे के साथ
अपडेटेड 11 सितंबर , 2015

मार्च के मध्य में जब महुआ खिलता है, मध्य प्रदेश की हवाओं में उसकी गंध भर जाती है. देहात के हाट-बाजारों में उसके ढेर के ढेर दिखाई देते हैं और अब वह मोटे तौर पर केवल कच्ची शराब बनाने के काम आता है. उसकी तीखी गंध यहां के मूल बाशिं&आदिवासियों की शोरबों से तेजी से गायब होती जा रही है. राज्य के पश्चिमी छोर पर पेटलावद और अलीराजपुर जाने वाली सड़क पर दूर-दूर तक लहलहाते खेतों के बीच दोनाली बंदूकधारी किसान गाडिय़ों में सवार दिखाई देते हैं. गेहूं उनके सपनों और आकांक्षाओं की नई फसल है, जो उनकी रोटियों का मुख्य आधार रही मकई को लगातार बेदखल करती जा रही है. छिटपुट तौर पर कपास, टमाटर और हरे-भरे छोले या चने भी उगाए जाते हैं. राज्य के 308 लाख हेक्टेयर खेतों में अब सोयाबीन, मक्का, आलू, प्याज, पत्ता गोभी और फूल गोभी ज्यादा बड़े पैमाने पर उगाई जाने लगी हैं. दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून की 875.6 मिमी औसत बारिश के साथ राज्य खासा लहलहाता और खुशहाल दिखाई देता है, जो 8-9 फीसदी की अच्छी-खासी वृद्धि दर से बढ़ रहा है. 1960 के दशक में मध्य प्रदेश को हरित क्रांति के लिए चुना गया था, तब से गेहूं की उपज में 83 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. बीते दशक में भारत में गेहूं की अतिरिक्त पैदावार में एक-चौथाई योगदान इसी राज्य का था. देश का 22 फीसदी दलहन, 54 फीसदी सोयाबीन और 38 फीसदी चना भी इसी राज्य में उगाया जाता है.

ऐसी कोई वजह नहीं है कि मध्य प्रदेश देश में कुपोषण और रक्त की कमी की सबसे ऊंची दरों वाले राज्यों में से एक हो. फिर भी केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय ने अगस्त के मध्य में बच्चों पर जो त्वरित सर्वे (आरएसओसी) 2013-14 जारी किया, वह कुछ अलग ही कहानी कहता है. इस सर्वे से साफ हो जाता है कि अनाज की पैदावार का पोषण से कोई खास रिश्ता नहीं है. राज्य का तीन में से एक बच्चा कम वजन का शिकार है और लगभग 40 फीसदी बच्चे कमजोर या अविकसित हैं. सामान्य से कम वजन वाले बच्चों के राष्ट्रीय औसत 29.4 फीसदी से यह काफी ज्यादा है. इसकी सबसे ज्यादा मार आदिवासी बच्चों पर पड़ी है, जिनमें से 46 फीसदी सामान्य से कम वजन के और 49.7 फीसदी अविकसित हैं. इस रिपोर्ट के ब्योरों को लीक करके पहली बार जुलाई में इकोनॉमिस्ट में छापने वाले एडम रॉबर्ट्स ने लिखा कि भारत में जैसे आंकड़े सामने आए हैं, वैसे केवल अफ्रीका में देखे जाते हैं.

राज्य इस बात की दुखद मिसाल है कि बाजार को ध्यान में रखकर एकल फसल पर जोर देने की नीति और प्रशासन की दखलअंदाजियां किस तरह खाने और सेहत के गतिशील रिश्ते को तार-तार कर देती हैं. तब तो और भी जब राज्य शाकाहार पर नरम हिंदुत्व के इंतहाई जोर और लोगों तक सही अनाज पहुंचाने में नाकाम सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के बीच फंसकर रह गया हो. मध्य प्रदेश 1959 में गोमांस पर रोक लगाने वाला पहला राज्य था और इसने आंगनबाडिय़ों के मिड-डे मील में अंडों को शामिल करने से इनकार किया है, जबकि एक और बीजेपी शासित राज्य महाराष्ट्र में ऐसा नहीं है, जहां “शाकाहारी” अनिषेचित अंडे परोसे जाते हैं. इतना ही नहीं, राज्य में गौ रक्षा के बावजूद डेयरी उत्पादों की खपत गिरती जा रही है और सोयाबीन स्थानीय उपभोग से ज्यादा निर्यात के लिए उगाया जाता है. गुजरात और महाराष्ट्र में आदिवासी लोगों को शाकाहार की तरफ मोडऩे पर दिए जा रहे जोर के बारे में खाद्य अधिकार अभियान की एक कार्यकर्ता दीपा सिन्हा कहती हैं, “यह धर्म की बलिवेदी पर पोषण का बलिदान देना है.”

दिक्कत वाकई सीधी-सादी है. एक किसान, जो पहले दलहन, प्याज, कंद और साग-भाजी के साथ-साथ कम बारिश में उगने वाला जौ-बाजरा सरीखा मोटा अनाज उगाया करता था, आज बाजार को ध्यान में रखते हुए दूसरे किसानों की तरह केवल एक फसल उगाता है. नतीजतन उन सबके बीच कीमत को लेकर होड़ मच जाती है. बेमौसम बारिश होने पर दबाव और बढ़ जाता है, जैसा इस साल हुआ और राज्य में 20 फीसदी रबी की फसल बर्बाद हो गईं. इसके विपरीत अगर उसने एक से अधिक फसलें उगाई होतीं, तो उसके पास खाने के लिए कम से कम पोषक आहार तो होता. अगुआ वैज्ञानिक आर.एच. रिछारिया ने अब बंद पड़ चुके मध्य प्रदेश राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में धान की 19,000 किस्मों की पहचान की थी. नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज के पूर्व निदेशक आर.एस. राणा ने एक वक्त राज्य में उगाई जा रही 166 फसलों और 320 जंगली किस्मों की पहचान की थी. पर्यावरण पर कार्य समूह कल्पवृक्ष की स्थापना करने वाले आशीष कोठारी का कहना है कि आज की खेती-किसानी महज तीन या चार किस्मों पर जोर देती है. वे कहते हैं, “भारत में फसलों की विविधता के नुक्सान के समग्र आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन देश के 75 फीसदी धान के खेतों और 90 फीसदी गेहूं के खेतों में इन फसलों की जगह ऊंची पैदावार देने वाली किस्में उगाई जाने लगी हैं.” सस्ते गोमांस की बात तो छोड़ ही दें, आदिवासियों को वन कानून के तहत प्रतिबंधित जंगली सूअर सरीखे देसी मांस को छोडऩा पड़ रहा है. इससे खाने के विकल्पों की विविधता और भी सीमित हो गई है.

कुपोषण मामले में अव्वल राज्यसब्जियों का गायब होना

भोपाल में विकास संवाद के सचिन जैन एक एक्टिविस्ट हैं, जिन्होंने मिड-डे मील कार्यक्रम में अंडों को शामिल करने पर जोर दिया है. उनके अभियान के जवाब में कही गई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की यह बात खासी मशहूर हुई थी कि “अंडे का फंडा नहीं चलेगा.” जैन कहते हैं कि कुपोषण, खून की कमी और कमजोरी का मुकाबला करने का अकेला तरीका यह है कि रोजमर्रा के खाने में सूक्ष्म अनाजों, सूक्ष्म पोषक तत्वों, हरी सब्जियों, लौह और कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थों तथा अंडे से लेकर मछली और मांस तक पशु प्रोटीन को शामिल किया जाए. लेकिन ठीक यही वे आहार हैं, जिन्हें नए हरे-भरे मध्य प्रदेश ने बीते दशक में बड़ी मेहनत से हटा दिया है. जैन कहते हैं, “अगर एक राज्य संगठित तौर पर समाधान से ही दूर चला जाएगा, तो समस्या को क्या, कभी हल किया जा सकता है?

मध्य प्रदेश में सत्ता पर काबिज बीजेपी के प्रवक्ता हितेश वाजपेयी कहते हैं कि राज्य सरकार को यह एहसास हो चुका है कि खानपान के देसी तरीकों और फसलों की विभिन्न किस्मों के खत्म होने से अहम सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है. इसलिए आदिवासी इलाकों के किसानों को कोदो और कुटकी जैसे मोटे अनाज उगाना शुरू करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की पेशकश की जा रही है. लेकिन कुछ खास नतीजा सामने नहीं आया क्योंकि किसान बनिस्बत ज्यादा मांग वाली फसलों को तरजीह देते हैं. दूसरा तरीका उन्होंने आंगनबाडिय़ों और गांव-गांव में जागरूकता कार्यक्रमों के जरिए खपत को बढ़ावा देने का अपनाया है.

लेकिन शोध से पता चलता है कि आधुनिक उपभोग पलटी न जा सकने वाली प्रक्रिया है और इस तरीके से खाने में सूक्ष्म पोषक तत्वों को शामिल कर पाना मुश्किल काम है. वाजपेयी जोर देकर कहते हैं, “सूक्ष्म पोषक तत्वों के नुक्सान की भरपाई के लिए अंडा पश्चिम का जवाब है, लेकिन यह अकेला जवाब नहीं है. जहां तक शाकाहार पर जोर देने की बात है, तो सरकार केवल कमी को पूरा करने वाला पोषक आहार मुहैया करवा रही है और परिवारों के प्राथमिक पोषण को कम नहीं कर रही है. प्रदेश में हिंदू आबादी के बहुत सारे लोग मांसाहारी हैं और उनमें कोई बदलाव नहीं आया है. खानपान और खेती-किसानी के तरीकों को बदलकर बदलाव लाया जा सकता है. यह धीमी प्रक्रिया है, पर हम इस पर काम कर रहे हैं.”
लेकिन इस प्रक्रिया में हो रहे नुक्सान की सीमा नहीं. नीलेश देसाई पेटलावद में 200 आदिवासी बच्चों के लिए छोटा-सा स्कूल चलाते हैं. उनका संगठन संपर्क  ग्राम फसल उगाने की देसी तकनीकों पर जोर देने की पुरजोर कोशिश कर रहा है. कुद्र, कांगनी और रागी सरीखे गायब होते जा रहे अनाज उनके गोदाम में रखे गए हैं. घर के पिछवाड़े तुअर दाल, प्याज और लहसुन की कतारों के बीच जैविक रूप से रोपी गई मकई उग रही है. मकई पर लगने वाले कीटों को तुअर पर लगने वाले कीट खा जाते हैं और इस तरह यह चक्र लगातार चलता रहता है और कीटनाशकों की कतई जरूरत नहीं पड़ती. स्कूल का खाना इन्हीं उपजों से बनाया जाता है.

देसाई ने गायब होती जा रही सब्जियों का लेखा-जोखा भी तैयार किया है. इस इलाके में कभी सब्जियों की अनगिनत स्थानीय किस्में हुआ करती थीं&फांग, लम्डा, चांदलोई, खट्टी भाजी, चील, छोटा करेला, कचनार, टिंडोरी, कचरी, चना पाला उनमें से महज कुछ किस्मों के नाम हैं. किसी जमाने में खून की कमी से लडऩे में कचनार जैसी हरी सब्जी का खासा योगदान हुआ करता था, टिंडोरी में विटामिन बी भरपूर मात्रा में होता था. ये फसलें स्थानीय मालूमात और खेती दोनों से गायब हो गई हैं, जो बताता है कि एकल-फसल की संस्कृति इलाके में किस कदर काबिज हो गई है. उन्हें घास-फूस मानकर खारिज कर दिया गया है या उनकी जगह ज्यादा “फैशनेबल” सब्जियां आ गई है&स्थानीय हाट-बाजार अब टमाटर, आलू, बैंगन और फूल गोभी से भरे पड़े हैं. मक्के की रोटियों की जगह गेहूं की रोटियां ले रही हैं.

गलत किस्म का खाना
इस इलाके में पशुओं की गिनती तो बढ़ी है, मगर दूध के लिए स्थानीय पशुओं पर निर्भरता में कमी आई है. प्रदेश में 60 लाख से ज्यादा मवेशी हैं. लेकिन झाबुआ जिले के स्थानीय लोगों को नोवा का मिल्क पाउडर खरीदना पड़ रहा है, जिसे 20 रुपये प्रति पैकेट में खुला बेचा जाता है. देसाई कहते हैं, “यहां कुपोषण गरीबी की वजह से नहीं खानपान की आदतों की वजह से है.”

हरित क्रांति के पुरोधाओं में से एक एम.एस. स्वामीनाथन बताते हैं कि 2004 से 2006 के दौरान, जब वे राष्ट्रीय किसान आयोग के मुखिया थे, उन्होंने मोटे अनाज और बहु-फसलों की खेती को दोबारा शुरू करवाने के जरिए पीडीएस को दुरुस्त करने की कोशिश की थी. वे कहते हैं, “दिक्कत यह नहीं है कि खाना मौजूद नहीं है, बल्कि यह है कि सही किस्म का खाना सुलभ नहीं है.” इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के पीटर हैजेल भी बताते हैं कि गांवों और शहरों में अनाज की खपत गिर रही है. दूध, मांस, सब्जियों तथा फलों का उपभोग बढ़ रहा है.
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद पोषण के आदर्श मानदंड तय करती है, वहीं राष्ट्रीय पोषण संस्थान की पूर्व प्रमुख वीना शत्रुघ्न कहती हैं कि इन मानदंडों को उन लोगों के लिए जमीन पर उतारना नामुमकिन है जो प्याज, मिर्ची और पानीदार दाल के साथ एक रोटी खाकर पेट भर लेते हैं. वे कहती हैं, “प्रयोगशाला के मानदंड उन अमीर शाकाहारियों पर खरे उतरते हैं, जो दही, पनीर, दूध के साथ गाढ़ी दाल से अपने हिस्से का पशु प्रोटीन हासिल कर लेते हैं.”

महत्वाकांक्षी खानपान
विश्लेषक कहते हैं कि हरित क्रांति की नीतियां कुलीन नीति निर्माताओं की जानकारियों के आधार पर बनाई गईं, जिन्होंने पूरे देश को उच्च तबकों के आहार की तरफ धकेल दिया. इससे न सिर्फ पारंपरिक खेती-किसानी के तरीके पीछे छूट गए, बल्कि कुछ निश्चित फसलों को उगाना महत्वाकांक्षा की बात हो गई. 1980 के दशक के बाद के खानपान के तरीकों पर वैश्वीकरण के प्रभाव का अध्ययन करने वाले प्रभु पिंगाली और यास्मीन क्चवाजा का कहना है कि “महत्वाकांक्षी खानपान” ने भोजन को कम पोषक लेकिन वैश्विक रूप से ज्यादा विविधतापूर्ण आहारों की तरफ धकेल दिया है. स्वामीनाथन ने 2012 में पीडीएस में मोटे अनाजों को शामिल करने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून में संशोधन पर जोर दिया था, लेकिन उनकी यह मुहिम परवान नहीं चढ़ सकी. सेहत को लेकर बढ़ती जागरूकता की वजह से मोटा अनाज जिम जाने वाले उच्च तबकों में बीच लोकप्रिय हो चुके है लेकिन दलित एक्टिविस्ट चंद्रभान प्रसाद के मुताबिक, “कोई भी दलित मोटे अनाज की तरफ कभी नहीं लौटेगा,” क्योंकि किसी जमाने में इनका घोड़ों के चारे और दलित खेतिहर मजदूरों को मेहनताना देने के लिए बराबरी से इस्तेमाल किया जाता था. इस तरह खाने की राजनीति के चलते अमीर सेहतमंद हैं और गरीब पोषक आहार से पहले से भी ज्यादा दूर होते जा रहे हैं.

थाली पर राजनीति कई स्तरों पर काम करती है. मध्य प्रदेश में डिंडोरी से 60 किमी दूर अजकंद गांव में बैगा आदिवासी रहते हैं. वे अपनी जरूरतों के लिए सहज ही जंगल की तरफ दौड़ पड़ते हैं, लेकिन वन कानून ने उनके पैरों में बेडिय़ां डाल दी हैं. प्याज की किस्मों से लेकर कंद और हरी पत्तियों, सब्जियों और मांस तक गांव वाले जानते हैं कि कब क्या खाना है. जब जंगली सूअर उनके खेतों को उजाडऩे आते हैं, तब वे समझ जाते हैं कि खेड़ा का मौसम आ गया है. खेड़ा शिकार का सामुदायिक पर्व है, जिसमें वे इन जंगली सूअरों का शिकार करते हैं. उन चीजों को खरीदना बैगाओं की शान और आनबान के खिलाफ है, जो उन्हें परंपरा के मुताबिक शिकार और खेती के जरिए मिलनी चाहिए.

बैगा दूध नहीं पीते, क्योंकि वे मानते हैं कि इंसानों को किसी दूसरे स्तनपायी बच्चे के आहार से खुराक हासिल नहीं करनी चाहिए. वे अपनी जीवनशैली, खानपान, अपनी शिकारगाहों और मान्यताओं को कायम रखना चाहते हैं. उनकी दलील हैः जो इंसान सब्जियों के साथ गेहूं की रोटी और चावल नहीं खाता, उसका खानपान असभ्य या तहजीब के खिलाफ नहीं है. और जो ऐसा कर रहा है, वह सेहतमंद नहीं है.

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