आठ महीने तक सियासी नफा-नुक्सान का ठोक-बजाकर जायजा लेने के बाद 30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “मन की बात” में नववर्ष की पूर्व संध्या पर देश पर थोपा गया भूमि अधिग्रहण कानून का अपना “तोहफा” वापस ले लिया. कानून वापसी को किसान हितैषी कदम बताने के बावजूद उन्होंने दोहराया कि पिछला कदम भी देशहित में ही था. यही नहीं, मोदी, ने बड़ी खूबसूरती से भूमि अधिग्रहण कानून का जंजाल अपने गले से उतारकर राज्यों की तरफ ठेल दिया. केंद्र चाहता है कि जमीन लेने के मामले में राज्य अपने हिसाब से कानून बनाएं. लेकिन, गेंद केंद्र से राज्य के पाले में जाने का मतलब क्या है? क्या अब किसान को अपनी जमीन यूपीए सरकार के 2013 के कानून के हिसाब से देनी होगी या फिर राज्य जो कानून बनाएंगे, उसके हिसाब से किसान की जमीन जाएगी? या कोई ऐसा रास्ता भी है जो बहुजन हिताय वाला हो.
वैसे, इन सवालों का जवाब आने से पहले ही औद्योगिक जगत ने मोदी के इस फैसले पर तुरंत निराशा जताकर यह संकेत तो दे ही दिया कि मोदी सरकार का कानून कम से कम उसके हित में तो था ही. उधर, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता और यूपीए सरकार के जमीन कानून के सूत्रधार जयराम रमेश सधी प्रतिक्रिया देते हैं, “सत्यमेव जयते.” लेकिन इस सवाल पर कि क्या कांग्रेस इस जीत से संतुष्ट है, रमेश बताते हैं, “नहीं, मोदी सरकार ने जान-बूझकर गेंद राज्यों के पाले में डाली है. ऐसे में अगर राज्य मनमाने कानून बनाने लगे तो 2013 के कानून की मूल भावना खतरे में पड़ जाएगी और किसानों पर फिर से जमीन से बेदखली का संकट खड़ा हो जाएगा.”
यानी सरकार और विपक्ष, दोनों मान रहे हैं कि जमीन की लड़ाई दिल्ली से निकलकर राज्यों की राजधानियों में पहुंचने वाली है. ऐसे में इंडिया टुडे ने कुछ राज्यों के जमीन लेने के मॉडल का अध्ययन किया जहां सरकार को विकास कार्यों के लिए बिना किसी बड़े विरोध के जमीन मिल गई. उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और गुजरात ऐसे राज्यों में सबसे आगे नजर आ रहे हैं, जिन्होंने फिलहाल किसानों से राजी-खुशी जमीन लेने के ढंग खोज लिए हैं.उत्तर प्रदेश का जमीन खरीद मॉडल
नवाबों के शहर लखनऊ में मायावती सरकार के जमाने में दलित नेताओं को गर्वीले अंदाज में पेश करने वाले समतामूलक चैराहे से जरा आगे बढ़ें तो पर्यटन भवन की इमारत नजर आती है. यहां पहली मंजिल पर उत्तर प्रदेश इंडस्ट्रियल एक्सप्रेसवे डेवलपमेंट अथॉरिटी (यूपीडा) के दफ्तर में सीईओ नवनीत सहगल के सामने एक काउंट डाउन केलेंडर पर लिखा है 431 दिन बाकी. सहगल कहते हैं, “एक्सप्रेसवे पूरा करने में इतने ही दिन बचे हैं. इस कैलेंडर में रोज एक दिन घट जाता है और सड़क का काम उसी अनुपात में बढ़ जाता है.” दरअसल आगरा से लखनऊ को जोडऩे वाला यह छह लेन एक्सप्रेसवे नोएडा से आगरा तक आए 165 किमी लंबे यमुना एक्सप्रेसवे का ही विस्तार है. लेकिन दोनों एक्सप्रेस वे में सिर्फ इतना फर्क नहीं है कि एक मायावती के राज में बना था और दूसरा अखिलेश यादव के राज में बन रहा है. असल फर्क यह है कि यमुना एक्सप्रेसवे जब बनना था तब उसके लिए हुआ जमीन अधिग्रहण जबरदस्त विवादों में रहा. किसानों ने जान की बाजी लगाकर इसका विरोध किया और पुलिस ने गोलियां चलाईं. 2011 में तो तत्कालीन केंद्र सरकार के राजकुमार राहुल गांधी खुद इसके विरोध में धरने पर बैठे और कहीं न कहीं इसी विरोध से यूपीए के 2013 वाले भूमि अधिग्रहण कानून को धार मिली. मायावती सरकार ने 165 किमी लंबे एक्सप्रेसवे के लिए कुल 6,600 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहीत की थी. इसमें से 2,500 हेक्टेयर जमीन रियल एस्टेट परियोजनाओं के लिए थी. वहीं इससे तकरीबन दोगुने आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे के लिए सरकार इससे आधी यानी 3,368 हेक्टेयर जमीन ही ले रही है. इस तरह देखा जाए तो यमुना एक्सप्रेसवे की तुलना में आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे में प्रति किलोमीटर सड़क की एवज में एक-चौथाई जमीन ही ली जा रही है.मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहते हैं, “हमें डंडे के जोर पर विकास नहीं थोपना है. इसीलिए सरकार ने जमीन अधिग्रहण करने की बजाए किसानों से महंगे दाम पर जमीन खरीदने का व्यावहारिक रास्ता निकाला.” यूपीडा के लिए प्रशासन के स्थानीय अधिकारी जमीन खरीदेंगे. जिले के डीएम मामले पर सीधी नजर रखेंगे और सहगल खुद दिनभर सारे जिलों की रिपोर्ट पर नजर रखेंगे. एक्सप्रेसवे के लिए यूपीडा ने 10 जिलों में प्रचलित सर्किल रेट से चार गुना कीमत पर जमीन खरीदी है. कुछ एक मामलों में जमीन का अधिग्रहण भी किया गया, लेकिन यहां खरीद से भी ज्यादा रेट दिया गया. अब तक 27,000 से ज्यादा किसान सरकार को अपनी जमीन बेच चुके हैं और किसी के अदालत में जाने की खबर नहीं है. सहगल कहते हैं, “संवाद से सब संभव है, बस एक बार आप लोगों का भरोसा जीत लें. सारी रजिस्ट्रियां ऑनलाइन हुईं और किसान को तुरंत उनके बैंक खाते में पैसा ट्रांसफर किया गया.” 15,000 करोड़ रु. की इस परियोजना में जमीन की खरीद पर यूपीडा अब तक 3,000 करोड़ रु. खर्च कर चुका है. अधिग्रहण की जगह जमीन खरीद का यह मॉडल फिलहाल कामयाब नजर आ रहा है.
आंध्र प्रदेश में लैंड पूलिंग
उधर, दक्षिण में अपनी राजधानी हैदराबाद से बेदखल हो गए आंध्र प्रदेश को नए सिरे से राजधानी बसानी है. इसके लिए मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने गुंटूर जिले में ही दूसरी सदी ईसा पूर्व तक सातवाहन राजाओं की राजधानी रही अमरावती के नाम पर नई राजधानी बनाने का फैसला किया. लेकिन यह कोई महाभारत काल तो है नहीं कि हस्तिनापुर से बेदखल किए गए धर्मराज युधिष्ठिर मनचाही जगह पर इंद्रप्रस्थ बसा लें. नई राजधानी के लिए जमीन चाहिए और वह भी बिना किसी विवाद के. इसीलिए नायडू ने जमीन अधिग्रहण जैसे शब्द से तौबा कर ली, क्योंकि इस शब्द से ही लोग चिढ़ जाते हैं. इसकी जगह लैंड पूलिंग के जरिए काम किया जा रहा है. इसके तहत जमीन देने वाले को आवासीय प्लॉट, कॉमर्शियल प्लॉट और हर साल तय मुआवजा देने का प्रावधान है. लैंड पूलिंग के तहत जमीन देने वाले को 1,000 वर्ग गज का आवासीय प्लॉट, 300 वर्ग गज का कॉमर्शियल प्लॉट दिया जा रहा है. इसके साथ ही असिंचित जमीन पर फसल के नुक्सान की एवज में सालाना 30,000 रु. और सिंचित जमीन पर सालाना 50,000 रु. एक किस्म की पेंशन के तौर पर दिए जाएंगे. इस पेंशन में भी हर साल 10 फीसदी की दर से 10 साल तक इजाफा होता रहेगा. खास बात यह है कि यह सुविधाएं सिर्फ घर और जमीन के मालिकों को नहीं बल्कि किराएदारों और भूमिहीन मजदूरों को भी दी जानी हैं. पहले ही दिन जिस तरह से 540 किसानों ने अपनी 850 एकड़ जमीन लैंड पूलिंग के लिए दी, उससे पताचलता है कि योजना को किस तरह हाथोहाथ लिया जा रहा है. राजस्थान भी राह पर
दिसंबर 2013 में मुख्यमंत्री बनने के बाद वसुंधरा राजे ने पश्चिमी राज्य राजस्थान में नया भूमि अधिग्रहण कानून लाने की तैयारी की. नए कानून के बारे में राजे ने कहा, “हमारा मकसद भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को तेज करना है, भले ही इसके लिए हमें भू-स्वामी को ज्यादा पैसा देना पड़े.” दरअसल, वे चाहती थीं कि भूमि अधिग्रहण में औसतन लगने वाले पांच साल के समय को कम किया जाए. सितंबर 2014 में राजस्थान कैबिनेट से पास विधेयक में भूमि अधिग्रहण के मुआवजे में बंपर उछाल लाने का फैसला किया गया. इसके तहत शहर में सर्किल रेट का दोगुना, शहर से पांच किमी से अधिक दूरी पर दो से साढ़े चार गुना मुआवजा और उससे अधिक दूरी पर नौ गुना तक मुआवजा देने की व्यवस्था की गई. बाद में यह विधेयक विधानसभा की सलेक्ट कमेटी को भेज दिया गया. सरकार इसको लेकर थोड़ी ढीली इसलिए पड़ गई थी कि पहले केंद्र से भूमि अधिग्रहण की स्थिति साफ हो जाए. लेकिन अब जब मोदी ने गेंद वापस राज्यों के पाले में डाल दी है तो भूमि अधिग्रहण के कई कानूनों के साथ इस प्रस्तावित कानून पर भी लोगों की नजर होगी.
छत्तीसगढ़ में परस्पर सहमति
नवंबर 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ जब नए राज्य के रूप में सामने आया तो आदिवासी अस्मिता के नाम पर बने इस राज्य ने भव्य राजधानी बनाने का सपना देखा. तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने 2002 में रायपुर के पास ही नया रायपुर शहर बसाने की पहल शुरू की. लेकिन परियोजना को अमली जामा पहनाने का श्रेय भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की रमन सिंह सरकार को जाता है. नई राजधानी के लिए जमीन हासिल करना यहां भी बड़ी चुनौती थी. सरकार ने 41 गांवों को छूने वाले इलाके में राजधानी बसाने के लिए नया रायपुर विकास प्राधिकरण (एनआरडीए) की स्थापना की. 27 गांवों में 5,500 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करने वाले एनआरडीए के चेयरमैन एन बैजेंद्र कुमार ने इंडिया टुडे को बताया, “हमने 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की बजाए किसानों को परस्पर सहमति से जमीन देने का विकल्प दिया.” नया रायपुर के लिए 2,700 हेक्टेयर जमीन इसी तरह ली गई, जबकि 130 हेक्टेयर जमीन के लिए भूमि अधिग्रहण कानून का उपयोग किया गया.
किसानों को 2006 से 2012 के बीच प्रति एकड़ 6 से 12 लाख रु. तक मुआवजा दिया गया. अक्तूबर 2012 में विधिवत उद्घाटन देखने वाले इस शहर के लिए भूमि हासिल करने के लचीले तरीके के बारे में बैजेंद्र कुमार ने कहा, “मुआवजे के अलावा किसानों को विकसित प्लॉट, 15,000 रु. प्रति एकड़ प्रति वर्ष पेंशन, मुआवजे की रकम से अन्य जगह जमीन खरीदने पर रजिस्ट्रेशन चार्ज में भारी छूट जैसी सुविधाएं दी गईं.” इसके अलावा जमीन देने वालों के लिए स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग और नया रायपुर में दुकान चलाने पर दो साल तक किराए में पूरी छूट जैसी सहूलियतें हाल में जोड़ दी गईं. हालांकि इन सारे प्रयासों के बावजूद नया रायपुर को लेकर किसानों की ओर से कुछ विरोध देखने में आया, लेकिन परियोजना के आकार की तुलना में यह विरोध बहुत उग्र नहीं रहा. कुछ मामलों में किसान अदालत भी गए. इस मामले में नया रायपुर अमरावती के मॉडल से थोड़ा पीछे नजर आता है.गुजरात का बिजनेस फ्रेंड्ली मॉडल
बात भूमि अधिग्रहण की हो और गुजरात का जिक्र न आए, यह कैसे संभव है. यहां बात करेंगे गुजरात सरकार के उस जमीन अधिग्रहण मॉडल की जिसकी तारीफ मनमोहन सिंह सरकार ने भी की थी. केंद्र सरकार के औद्योगिक नीति और प्रोत्साहन विभाग ने एक्सेंचर कंपनी को “भारत में कारोबारी माहौल को बेहतर बनाना्य विषय पर रिपोर्ट तैयार करने को कहा था. मई 2014 में आई इस रिपोर्ट में भूमि प्रबंधन के मामले में गुजरात को सर्वश्रेष्ठ राज्य बताया गया. गुजरात सरकार ने इस काम के लिए गुजराज औद्योगिक विकास निगम (जीआइडीसी) की स्थापना की और उसे विशेष अधिकार दिए.
इसमें जमीन के सौदे पर उचित मोल-भाव और जमीन की एवज में विकसित प्लॉट देने की पेशकश जैसे अधिकार शामिल थे. जमीन अधिग्रहण में सबसे बड़ी दिक्कत असल बाजार भाव की आती है. ऐसे में बाजार भाव तय करने के लिए सेंटर फॉर एनवायरनमेंट प्लानिंग ऐंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी की सेवाएं ली गईं. इसके अलावा जीआइडीसी ने जहां-जहां भूमि अधिग्रहण किया वहां 50 स्किल डेवलपमेंट सेंटर्स बनाए गए और जमीन देने वाले परिवार के एक-एक व्यक्ति को रोजगार देने का भी प्रावधान किया गया. जनता की दिक्कतों को सुनने के लिए जीआइडीसी मित्र नाम से शिकायत निबटाने के लिए ऑनलाइन प्रक्रिया भी शुरू की गई. रिपोर्ट के मुताबिक, यह प्रक्रिया शुरू होने के बाद भूमि अधिग्रहण की दर में चार गुना की वृद्धि हुई.
वैसे अगर वृद्धि की बात है तो इस समय देश की वृद्धि दर झुकी जा रही है, शेयर मार्केट बगलें झांक रहा है, रुपए का मान मर्दन हो रहा है और प्रॉपर्टी के दाम दो साल से ऊंघ रहे हैं. ऐसे में अर्थव्यवस्था का पहिया चलाने के लिए निवेश और औद्योगिक रफ्तार की दरकार है. यह सारा मामला अंत में फिर भूमि अधिग्रहण के डेल्टा पर छितरा जाएगा. सरकारें कठिन कानून चाहेंगी और जनता विरोध करेगी. हो सकता है, ऐसे में देश के इन पांच राज्यों का तजुर्बा बाकी राज्यों और मोदी सरकार के लिए भी किसी तरह काम आ जाए.
भूमि अधिग्रहण: सलीके से मांगो, मिलेगी जमीन
सियासी आफत बन चुका भूमि अधिग्रहण कानून केंद्र से निकलकर राज्यों की ओर रुख कर रहा है, ऐसे में जमीन लेने के अपेक्षाकृत बेहतर मॉडल अपनाने वाले राज्यों का जायजा लिया.

अपडेटेड 14 सितंबर , 2015
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