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उत्तर प्रदेश: स्वच्छ भारत के दौर में कूड़े पर शहर

देश के 98 स्मार्ट सिटीज में 13 उत्तर प्रदेश में होंगे. अभी हालत यह है कि 500 करोड़ रु. के सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट लगाने के बाद भी राज्य के विभिन्न शहरों में जहां-तहां मुंह बाए खड़े हैं कूड़े के पहाड़.

लखनऊ में आइआइएम रोड के पास दूर तक फैला कूड़े का ढेर
लखनऊ में आइआइएम रोड के पास दूर तक फैला कूड़े का ढेर
अपडेटेड 31 अगस्त , 2015

अगर समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री भी लाचार हो जाए तो समझ लीजिए कि मसला काफी गंभीर है. वह भी तब, जब मामला खुद उनके अपने विभाग से जुड़ा हो. बात नगर विकास और संसदीय कार्यमंत्री आजम खान की है और मामला कूड़ा निस्तारण से जुड़ा है. 5 दिसंबर, 2013 को कानपुर से 30 किमी दूर पनकी के भौती गांव में चल रहे कूड़ा निस्तारण केंद्र का निरीक्षण करने पहुंचे आजम खान हैरत में पड़ गए. सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट बंद होने के कारण कूड़े का लंबा पहाड़ खड़ा हो गया. इन पर गिरा बरसात का पानी जमीन के भीतर रिस रहा था. हर तरफ गंदगी और बीमारी का आलम था. लेकिन आजम बेबस थे.

अपनी सरकार के मुखिया की बजाए आजम खान ने राष्ट्रपति से गुहार लगाई. और 3 जनवरी, 2014 को एक पत्र लिखकर कानपुर समेत यूपी में कई जगह कूड़ा निस्तारण करने वाली 'ए टू जेड' नाम की कंपनी पर कड़ी कार्रवाई की मांग कर डाली. आजम कहते हैं, ''मैंने तो इस कंपनी को ए टू जेड तक फ्रॉड कहा था. कार्रवाई की थी. यह कोर्ट से स्टे ले आए. मैं न्यायालय के आदेश का सम्मान करता हूं.'' पर आजम खान पर पलटवार करते हुए कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के एक सदस्य कहते हैं, ''आजम खान को कुछ कंपनियों ने समझा दिया कि वे कूड़े से बिजली बना सकती हैं. इसके बाद से हमारे सारे फंड रोक दिए गए.''

बदकिस्मती से कानपुर-आगरा हाइवे के किनारे पनकी में बना एशिया का सबसे बेहतरीन सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट पिछले दो साल में डंपिंग यार्ड में तब्दील हो चुका है. करोड़ों की लागत वाली मशीनें और भारी वाहन कूड़े में बदल गए हैं.

यूपी में कूड़ा निस्तारण की कमोबेश यही असल तस्वीर है. सात साल पहले 2008 में बड़े धूम-धड़ाके के साथ शुरू हुईं कूड़ा प्रबंधन की योजनाएं अब दम तोड़ चुकी हैं. (देखें चार्ट) इन प्रोजेक्ट में सरकारी खजाने से 500 करोड़ रु. से अधिक लगने के बाद भी शहरों को कूड़े से निजात नहीं मिली. प्रदेश में रोज निकलने वाले करीब 10,000 मीट्रिक टन कूड़े ने शहरों की सूरत बिगाड़ रखी है. इसीलिए यूपी के शहर केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के स्वच्छता के मानकों पर कराए गए सर्वे में सबसे निचले पायदानों पर बिसूरते हुए दिखाई दे रहे हैं. लेकिन क्या प्रदेश शर्मसार है?

सरकारी धन की लूट
वर्ष 2008 में केंद्र सरकार के जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूवल मिशन (जेएनएनयूआरएम) के तहत यूपी में एक साथ बड़े पैमाने पर कूड़ा प्रबंधन परियोजनाओं की शुरुआत हुई. जेएनएनयूआरएम की 'अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड गवर्नेंस (यूआइजी) स्कीम', 'अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट स्कीम फॉर स्माल ऐंड मीडियम टाउंस' और 'सैटेलाइट टाउन डेवलपमेंट स्कीम' के तहत कुल 27 सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट की नींव डाली गई. पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के आधार पर चलने वाले इन प्रोजेक्ट के लिए कुल 500 करोड़ रु. से अधिक धन का प्रावधान हुआ, लेकिन आज सात साल बाद केवल आठ शहरों में ही ये सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट चल रहे हैं. लखनऊ को छोड़कर बड़े शहरों में स्थापित सभी नौ प्लांट बंद हो चुके हैं. असल में प्रदेश में ज्यादातर बाहरी कंपनियों ने अधिकारियों से सांठगांठ कर प्रोजेक्ट लगाने का जिम्मा ले लिया, जबकि उन्हें संचालन का अनुभव नहीं था. कूड़ा प्रबंधन परियोजनाओं के लिए नोडल एजेंसी जल निगम की 'कंस्ट्रक्शन ऐंड डिजाइन सर्विसेज' (सीऐंडडीएस) के एक इंजीनियर बताते हैं कि शुरुआती वर्षों में जब तक जेएनएनयूआरएम का पैसा आता रहा, काम होता रहा. जब कंपनियों के काम की बारी आई तो उन्होंने विवाद दिखाकर प्रोजेक्ट बंद कर दिया.

विधान परिषद में बीएसपी के नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी कहते हैं, ''बीएसपी सरकार में चल रहे कूड़ा निस्तारण प्रोजेक्ट सपा सरकार में अचानक बंद क्यों हो गए? यह बड़े भ्रष्टाचार का संकेत है.''

सरकारी सुस्ती का आलम यह है कि 2008 से फिरोजाबाद, लोनी और बस्ती में लगने वाले सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट के लिए अधिकारी जगह तक नहीं ढूंढ पाए हैं. बस्ती का प्लांट नगर पालिका और सीऐंडडीएस के बीच झगड़े में फंस गया है. उधर फिरोजाबाद में किसान जमीन देने को तैयार नहीं हैं.
 
वेस्ट मैनेजमेंट में फेल यूपीदांव-पेच में उलझी योजना
दरअसल यूपी में कूड़ा प्रबंधन परियोजनाओं की शुरुआत 2004 में हुई, जब केंद्र सरकार ने 'एयर फील्ड टाउन' श्रेणी में प्रदेश को दो सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट सौंपे. ये प्रोजेक्ट बरेली और गाजियाबाद में शुरू हुए. बरेली में इस प्रोजेक्ट के पास एक निजी विश्वविद्यालय भी निर्माणाधीन था. 2013 में जब बरेली का सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट बनकर तैयार हुआ तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने इससे छात्रों को नुक्सान होने की बात कहकर हाइकोर्ट में याचिका दायर कर दी. कोर्ट से राहत न मिलने पर विश्वविद्यालय ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में अर्जी लगाई और एनजीटी ने इस पर रोक लगा दी. अब यह प्रोजेक्ट बनने के बाद दो साल से बंद पड़ा है.

गाजियाबाद की कहानी भी अलग नहीं थी. 2004 में यहां के डूंडाहेड़ा गांव में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट के लिए जमीन आवंटित की गई. प्रोजेक्ट का निर्माण शुरू होते ही गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने इसके आसपास की जमीन निजी बिल्डरों को आवंटित कर दी. दो साल के भीतर प्रोजेक्ट के आसपास बड़ी संख्या में हाउसिंग सोसाइटी के टावर खड़े हो गए. उधर बिल्डरों ने सेहत की दुहाई देते हुए रिहाइशी इलाके से इस प्रोजेक्ट को हटाने के लिए हाइकोर्ट में याचिका दायर कर दी. हाइकोर्ट से फटकार मिलने पर बिल्डरों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. अदालत ने प्रोजेक्ट निर्माण पर ही रोक लगा दी. मामले की सुनवाई जारी है.

ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए सीऐंडडीएस ने सभी स्थानीय निकायों को आदेश दिए हैं कि वे कूड़ा प्रबंधन प्रोजेक्ट के चारों तरफ 500 मीटर वाले क्षेत्र को 'नो डेवलपमेंट जोन' घोषित कर दें.

सरकार की गड़बड़ नीति
सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट बंद होने के लिए सरकारी नीतियां भी जिम्मेदार हैं. ज्यादातर प्रोजेक्ट 'कंपोस्टिंग टेक्नोलॉजी' पर आधारित थे, जिसमें कूड़े से खाद बनाई जाती है. सपा सरकार बनने के बाद इन पर कूड़े से बिजली बनाने का दबाव डाला गया. यह इनके दायित्व में नहीं था और प्रोजेक्ट यहीं से एक-एक करके बंद होते चले गए. इतना ही नहीं कंपनियों ने अधिकारियों से मिलकर टेंडर में काफी कम कीमत का दावा कर प्रोजेक्ट पर कब्जा कर लिया. मसलन, कूड़ा उठाने के लिए 'टिपिंग फीस' कंपनियों ने 500 से 600 रु. के बीच रखी, जबकि यूपी के बाहर सभी शहरों में यह कम से कम 1500 रु. थी. जल निगम के एक अधिकारी कहते हैं, ''सरकारी मदद से प्रोजेक्ट लगाने के बाद जब इन्हें चलाने की बारी आई तो कंपनियों को घाटा महसूस होने लगा और उन्होंने हाथ खड़े कर दिए.''

लखनऊ में नगर आयुक्त उदय राज सिंह ने टिपिंग फीस में तीन गुने का इजाफा कर शिवरी में बंद पड़े प्रोजेक्ट को दोबारा चालू करवाने में सफलता हासिल की है. अब नगर विकास विभाग ने दूसरे जिलों को भी लखनऊ की तर्ज पर प्लांट शुरू करवाने का निर्देश दिया है.

कूड़े से बनने वाली खाद खरीदने और इससे निकलने वाले 'रप्यूज्ड ड्राइव फ्यूल' यानी कूड़े से उत्पन्न ईंधन के लिए भी सरकार कोई योजना नहीं बना पाई. खरीदार न होने से प्लांट को उत्पाद बेचने में दिक्कत हुई. वे घाटे में आ गए. आजम खान कहते हैं, ''सरकार नए सिरे से कूड़े के प्रबंधन पर काम कर रही है. जल्द ही सभी वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट शुरू हो जाएंगे.''

कूड़ा हुआ अटल का सपना
अगर आप बाइपास से भारतीय प्रबंधन संस्थान (आइआइएम), लखनऊ से हरदोई रोड की ओर आ रहे हैं तो गोमती नदी का पुल पार करते ही सड़क के दोनों ओर लगे कूड़े के पहाड़ एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट की बदहाली की दास्तान बयान करते हैं. यहीं से तकरीबन आधा किमी की दूरी पर बरावनखुर्द इलाके में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कूड़े से बिजली बनाने की महत्वाकांक्षी योजना खुद कूड़े में दब चुकी है. जनवरी, 2001 में अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत मंत्रालय ने वाजपेयी के संसदीय क्षेत्र लखनऊ में करीब 100 करोड़ रु. की इस योजना को हरी झंडी दिखाई थी. इसके बाद नगर निगम सदन ने सात एकड़ जमीन 30 वर्ष के  लिए परियोजना को दे दी. दो वर्ष बाद जून, 2003 में निर्माण कार्य पूरा हुआ और कूड़े से बिजली बनाने का काम शुरू हुआ. नवंबर, 2003 में प्रोजेक्ट का काम देख रही कंपनी एशिया बायो एनर्जी ने प्लांट को मिलने वाले कूड़े में से 25 फीसदी को अनुपयोगी बताकर वापस कर दिया. एक साल के भीतर अनुपयोगी कूड़ा 90 फीसदी से ज्यादा हो गया और प्लांट पर ताला लग गया.

वाजपेयी के इस ड्रीम प्रोजेक्ट की निगरानी करने वाले एक अधिकारी बताते हैं, ''कूड़े से बिजली बनाने का यह प्रोजेक्ट बायोमीथेनेशन तकनीक पर चलना था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बायोमीथेनेशन पर चलने वाले प्रोजेक्ट पर बैंक से ऋण मिलने पर तब तक के लिए रोक लगा दी, जब तक सरकार इस तकनीकी से कम से कम पांच प्रोजेक्ट सफलतापूर्वक चलाकर नहीं दिखा देती.'' हालांकि दो साल पहले यह रोक हट गई, लेकिन कूड़े से बिजली बनाने वाले प्रोजेक्ट की बदहाली बरकरार है.

आजम के सपने को पंख
पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी का कूड़े से बिजली बनाने का प्रोजेक्ट भले ही हकीकत में न उतर पाया हो, लेकिन आजम खान के सपने को पंख लग गए हैं. उनके शहर रामपुर में कूड़े से बिजली बनाने की देश की एक अनोखी परियोजना की नींव पड़ी है. कैबिनेट से 'मॉडल प्रोजेक्ट' के रूप में अनुमति मिलने के बाद मैसूर, कर्नाटक की कंपनी रामपुर में 'प्लाज्मा गैसिफिकेशन
टेक्नोलॉजी' पर देश का पहला 'वेस्ट टू एनर्जी प्लांट' लगाने जा रही है.

इस प्रोजेक्ट में रामपुर, टांडा, बाड़, बिलासपुर समेत पांच नगर पंचायतों से निकलने वाले कुल 150 मीट्रिक टन कूड़े से बिजली बनाई जाएगी. 130 करोड़ रु. की लागत से बनने वाले इस प्लांट के लिए सरकार कोई आर्थिक मदद नहीं देगी. 12 महीने के भीतर इस प्रोजेक्ट का पहला चरण शुरू होगा जब कूड़े से 15 मेगावॉट बिजली पैदा होगी. धीरे-धीरे इसकी क्षमता बढ़ाकर 50 मेगावॉट कर दी जाएगी. इस प्रोजेक्ट से बनने वाली बिजली यूपी पावर कॉर्पोरेशन खरीदेगा. सीऐंडडीएस के निदेशक ए.के. सक्सेना कहते हैं, ''सरकार से गाइडलाइंस जारी करवाने का प्रयास किया जा रहा है कि सोलर एनर्जी की तरह पावर कॉर्पोरेशन द्वारा खरीदी जाने वाली बिजली में 'वेस्ट टू एनर्जी' का कोटा भी तय हो जाए.'' ऐसा होने से यूपी में कूड़े के प्रबंधन को गति मिलेगी और बंद प्रोजेक्ट दोबारा शुरू हो सकेंगे. केंद्र सरकार भी कूड़ा प्रबंधन के तौर-तरीकों में आमूलचूल बदलाव करने के लिए दंतविहीन हो चुके 'म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (मैनेजमेंट एंड हैंडिलिंग) रूल्स-2000' में संशोधन करने की तैयारी में है.

'संवर रहा है उत्तर प्रदेश' का नारा देने वाली सपा सरकार के लिए कूड़े का प्रबंधन एक चुनौती बनकर उभरा है. इससे पार पाए बगैर प्रदेश को संवारने की बात बेमानी ही साबित होगी.

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