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देसी आतंकवादीः नए आतंक के साए में कश्मीर

कश्मीर में तकनीक के जानकार युवाओं की नई फसल के उग्रवाद की ओर आकर्षित होने से बजने लगी खतरे की घंटी. ऐसे युवाओं की संख्या बढ़ रही है जो असंतुष्ट हैं और खुद ही आतंकवाद की ओर कदम बढ़ा रहे हैं. इनके पाकिस्तानी आतंकी सरगनाओं से ज्यादा संबंध भी नहीं हैं.

अपडेटेड 3 अगस्त , 2015

दक्षिण कश्मीर के एक गांव में रहने वाले अहमद मट्टू 25 जून को धान के हरे-भरे खेतों को तेज कदमों से पार करते हुए श्रीनगर से करीब 50 किमी दूर कुलगांव स्थित एक पुलिस चैकी की तरफ बढ़े जा रहे थे. उन्होंने अपनी मुट्ठी में हाथ से लिखी एक शिकायती अर्जी पकड़ रखी थी. मट्टू का 18 वर्षीय बेटा जुनैद पिछले 20 दिन से लापता था. पुलिस ने अपने सूत्रों को सक्रिय कर दिया और एक दिन के भीतर ही नतीजे पर पहुंच गईः जुनैद पाकिस्तान स्थित लश्कर-ए-तय्यबा (एलईटी) में भर्ती हो गया था और हथियारों से लैस होकर हमला करने के लिए तैयार था.

पुलिस की फाइलों में 'ताजा' मामले के तौर पर दर्ज वह पहले से ही 'बी श्रेणी' का आतंकी है. जुनैद मट्टू उन 30 से ज्यादा युवाओं में से एक है, जो जम्मू-कश्मीर में कमजोर पड़ते आतंकवाद को नई ताकत दे रहे हैं, जबकि दूसरी ओर यह राज्य पिछले साल अक्तूबर में सदी की सबसे विनाशकारी बाढ़ की तबाही से धीरे-धीरे उबरने में लगा है. आतंकवाद में आई यह तेजी दक्षिण कश्मीर के आसपास केंद्रित है. करीब 6,400 वर्ग किमी के इस इलाके में पिछले छह महीने में आतंकवाद का दामन थामने वाले करीब 24 युवकों के मामले सामने आए हैं. दक्षिण कश्मीर में सक्रिय 77 आतंकियों में 70 आतंकी स्थानीय लड़के हैं. सिर्फ सात उग्रवादी ही पाकिस्तानी हैं.

स्थानीय लड़कों की भर्ती में आई यह तेजी उस समय से शुरू हुई है जब पिछले साल अगस्त में पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया रुक गई थी.

इससे पिछले कुछ वर्षों में शांति की दिशा में मिली कामयाबी के विफल होने का खतरा पैदा हो गया है. इस कामयाबी का सबसे बड़ा संकेत पिछले साल के विधानसभा चुनाव थे, जिसमें 62.5 फीसदी रिकॉर्ड मतदान हुआ था. इसका बांध जून में उस वक्त टूट गया जब फेसबुक पर एक पोस्ट कश्मीर में सोशल मीडिया पर काफी चर्चित हो गई. इस पोस्ट में एक तस्वीर दिखाई गई थी, जिसमें हिज्बुल मुजाहिदीन (एचएम) के 11 आतंकी सेब के खूबसूरत बाग में आराम फरमाते फोटो खिंचवा रहे थे. उनमें से सिर्फ एक के चेहरे पर नकाब था, बाकी सभी शांत दिखाई दे रहे थे. एक पुलिसकर्मी ने मजाक उड़ाते हुए कहा, ''वे ऐसे लग रहे थे, जैसे पिकनिक मना रहे हों.'' उसका कहना था कि उसने उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई के दो दशकों में ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा था.

इस तस्वीर के कुछ दिन बाद एक वीडियो सामने आया, जिसमें वही आतंकी वह सब कर रहे थे, जो आजकल के ज्यादातर युवा करते हैं, यानी हंसी-मजाक करना, संगीत सुनना और अपने स्मार्टफोन पर सेल्फी खींचना. उस तस्वीर में एक किनारे हिज्बुल मुजाहिदीन का नया चेहरा और दक्षिण कश्मीर का कमांडर बुरहानुद्दीन वानी बैठा था. अब सिर्फ बुरहान के नाम से पहचाना जाने वाला 20 वर्षीय यह युवक ए+श्रेणी का आतंकी है, जिसके सिर पर 10 लाख रु. का इनाम है. आतंकियों के लिए बनाई गई यह सबसे ऊपर की श्रेणी है. इन आतंकियों में ज्यादातर सदस्य उस समय पैदा भी नहीं हुए थे, जब 1987 में विधानसभा चुनावों में गड़बड़ी हुई थी और उस वजह से कश्मीर में पहली बार आतंकवाद की लहर चल पड़ी थी.

विदेशी आतंकियों की दूसरी लहर का इस्तेमाल तब किया गया, जब 1990 और 2000 के दशक में आतंकवाद कमजोर पडऩे लगा था. इन विदेशी आतंकियों में ज्यादातर युवक पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से थे और जिन्हें लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) ने भर्ती किया था. कश्मीर के भीतर विदेशी उग्रवादियों की जगह अब स्थानीय युवक ले रहे हैं. आतंकवाद 3.0 के दौर में अब उन युवाओं की संख्या बढ़ रही है, जो असंतुष्ट हैं और खुद ही आतंकवाद की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं. इनके पाकिस्तान स्थित आतंकी सरगनाओं से ज्यादा संबंध नहीं हैं. दक्षिण कश्मीर में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ''इससे पहले आतंकी संगठन नई भर्तियों की तलाश में रहते थे, पर अब युवाओं को भर्ती होने के लिए आतंकी संगठनों की तलाश रहती है.''

ये नए आतंकी साल भर में छह पुलिसकर्मियों, सेना के एक अधिकारी और पांच लोगों की हत्या कर चुके हैं. 2001 में आतंकवाद से संबंधित वारदातों में 4,507 से ज्यादा मौतों को देखते हुए यह संख्या बहुत मामूली है. आतंकवाद में आ रहा यह नया उभार चिंता पैदा करने वाला है. आतंकी संगठनों में शामिल होने वाले इन युवाओं को स्थानीय लोगों का सहयोग हासिल होता है. ये लड़के इलाके से अच्छी तरह वाकिफ हैं और भयानक बात यह है कि ये दूसरे लड़कों को आतंकवाद की तरफ बहकाने में काफी माहिर हैं.

आतंकवाद 3.0 का उदय
आतंकवाद 2.0 इस समय 740 किमी लंबी नियंत्रण रेखा पर धीरे-धीरे दर्द भरी मौत मर रहा है. 23 जून को सुबह होने से कुछ समय पहले पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के दो आतंकियों ने तार काटने वाले उपकरणों का इस्तेमाल करके तंगधार में 550 किमी लंबी कंटीली तारों की बाड़ को काट दिया. यह जगह उत्तर-पश्चिमी कश्मीर के बेहद दुर्गम इलाके में स्थित है. तार काटने के बाद जैसे ही वे दोनों सेना के एक ठिकाने पर हमला करने के लिए आगे बढ़े, उसी समय सेंसरों ने उनकी इस हरकत की जानकारी दे दी. तीन दिन तक चले ऑपरेशन के अंत में दोनों आतंकी मारे गए और उनके शव गुफा से बरामद किए गए. इस साल घुसपैठ की सिर्फ एक कोशिश ही कामयाब हुई है, जबकि सात कोशिशें नाकाम रही हैं, जिनमें तंगधार की तीन कोशिशें भी शामिल हैं.

घुसपैठ की इन कोशिशों में कुल 12 पाकिस्तानी आतंकी मारे जा चुके हैं. श्रीनगर में सेना के एक अधिकारी कहते हैं, ''यह बहुत ही आसानी से शिकार को निशाना बनाने जैसा है.'' वे बताते हैं कि किस प्रकार घुसपैठ को रोकने वाले ग्रिड को मजबूत किया गया है और उन जगहों की निगरानी बढ़ाई गई है, जहां से घुसपैठ की ज्यादा संभावना हो सकती है. अगर यह ग्रिड मजबूत बना रहा तो सेना को लगता है कि वह घाटी के जरिए आतंकियों की आवाजाही को रोक सकती है और आतंकी संगठनों की घुसपैठ की कोशिशों पर पूरी तरह रोक लगा सकती है. इंटेलिजेंस ब्यूरो के अनुमानों से पता चलता है कि घाटी में अब 150 से कम आतंकी रह गए हैं, जबकि एक दशक पहले वहां 1,500 आतंकी हुआ करते थे. लेकिन चिंता की बात यह है कि ये आतंकी ज्यादातर स्थानीय युवक हैं.

सेना का मानना है कि स्थानीय युवकों के भर्ती होने की मुक्चय वजह यह है कि आतंकी संगठन घाटी में आतंकियों की घटती संख्या को फिर से बढ़ाना चाहते हैं. सचाई कहीं ज्यादा जटिल है. राजनैतिक विश्लेषकों की राय में इसकी असली वजह युवाओं में बढ़ता असंतोष और नाउम्मीदी है, जो कश्मीर में धीरे-धीरे बढ़ रही है. सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर नूर अहमद बाबा कहते हैं, ''पाकिस्तान के साथ शांति की कोशिशें रुक गई हैं, यहां किसी तरह की आर्थिक गतिविधि भी नहीं दिखाई देती है, युवकों के लिए कहीं कोई नौकरी नहीं है और सरकार जनता के साथ संवाद करने में विफल रही है.''

बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है, जो घाटी के युवाओं में असंतोष को बढ़ावा दे रही है. घाटी में करीब 40 फीसदी लोग 15 से 30 साल के हैं. 2014 की भीषण बाढ़ के बाद जो राहत पहुंचाई गई, वह भी नाकाफी है. यह भी लोगों की नाराजगी और निराशा की बड़ी वजह है. असंतोष के बीज 2008 में अमरनाथ भूमि के तबादले से जुड़े विवाद के दौरान ही बो दिए गए थे. उससे पैदा असंतोष 2010 में पुलिस पर पत्थरबाजी करती भारी भीड़ के रूप में देखने को मिला. उस समय पुलिस की गोलीबारी में 112 कश्मीरी लोग मारे गए थे. पुलिस अधिकारी बताते हैं, ''2008 से पहले कुलगाम में आतंकवाद का नामोनिशान नहीं था. स्थिति बेहतर होती जा रही थी. फिर आतंकवाद के दौर में पहुंच गए हैं. इलाके में 10 आतंकी हैं—छह हिज्बुल और चार लश्कर के.''

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला स्थानीय आतंकियों की बढ़ती संख्या के लिए बीजेपी और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के गठबंधन को जिम्मेदार मानते हैं. उन्होंने 29 जुलाई को पत्रकारों को बताया, ''ऐसी खबरें मिल रही हैं कि पढ़े-लिखे युवा आतंकवादी बन रहे हैं और यह एक खतरनाक रुझान है. इसकी सारी जिम्मेदारी मौजूदा सरकार पर है. उन्हें सचाई नहीं छिपानी चाहिए.'' पीडीपी के प्रवक्ता नईम अख्तर जवाबी हमला करते हुए कहते हैं कि ज्यादातर युवा पिछले साल तब आतंकवादी बने थे, जब उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी. एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच आतंकवाद के बढऩे की सबसे बड़ी वजह की अनदेखी कर दी जाती है, और वह है ऑनलाइन इस्लामी प्रचार. पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ''इंटरनेट चौबीसों घंटे चलते रहने वाले नल की तरह है, जिसके जरिए लगातार इस्लामी प्रचार किया जाता है. इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है. ये लड़के अपने फोन पर दाबिक (इस्लामी स्टेट की पत्रिका) और अलकायदा की इंसपायर पढ़ते रहते हैं और स्वयं ही आतंकवाद की ओर आकर्षित हो जाते हैं.''

हाल ही में जम्मू-कश्मीर पुलिस ने उन 111 युवाओं के मामलों की जांच की जो इस साल आतंकी संगठनों में शामिल होने के लिए घर से भाग गए थे. उनमें से आधे युवा ऐसे थे, जो इंटरनेट पर इस्लामी प्रचार की वजह से आतंकवाद की तरफ बढ़े थे. बुरहान के 53 वर्षीय पिता मुजफ्फर अहमद वानी जो त्राल में सरकार की ओर से संचालित हायर सेकंडरी स्कूल में प्रिंसिपल हैं, याद करते हैं कि उनका बेटा किस तरह घर से भाग गया था. तब वह सिर्फ 14 साल का था. उस समय उसकी दसवीं की परीक्षा को महज एक हफ्ता ही रह गया था. 2010 में एक चेकपोस्ट पर पुलिस की पिटाई की वजह से उसके मन में सुरक्षा बलों के खिलाफ नफरत पैदा हो गई. वे आतंकवाद की तरफ आकर्षित होने की वजह बताते हैं, ''कुछ खुद्दार लड़के पुलिस की पिटाई और यातना बर्दाश्त नहीं कर पाते और आतंकी बन जाते हैं.''

इस साल 13 अप्रैल को सेना ने त्राल में हुई एक मुठभेड़ में बुरहान के बड़े भाई खालिद को मार गिराया. पुलिस का कहना है कि 25 वर्षीय खालिद बाहर से सहयोग देने वाला कार्यकर्ता था और वह तीन लड़कों को आतंकी बनाने के लिए बुरहान से मिलाने ले जा रहा था. सेना ने उनके छिपने की जगह को घेर लिया तो सभी आतंकी भाग गए और खालिद मारा गया. वानी इस विचार से जरा भी विचलित नहीं हैं कि उनके दूसरे बेटे को भी गोली से उड़ाया जा सकता है. वे कहते हैं, ''वह इंसाफ की लड़ाई लड़ रहा है. वह अपनी जिंदगी अपने हाथ में लेकर घूम रहा है.''

कुलगाम के करीब कैमोह गांव की रहने वाली 45 वर्षीया नसीमा सलाम शेख अपने दो मंजिला मकान के बरामदे में बैठकर अपने बेटे तौसीफ अहमद शेख के साथ आखिरी मुलाकात को याद करती हैं. दसवीं की पढ़ाई छोड़ देने वाला तौसीफ आतंकी संगठन में शामिल होने से पहले पड़ोस में सेबों के एक बाग में मजदूरी करता था. पिछले साल वह यह कहकर घर छोड़कर चला गया कि वह दो दिन के लिए अपने किसी रिश्तेदार से मिलने जा रहा है. उसके बाद से वह नहीं लौटा. फिर पिछले साल रमजान के दौरान वह लौट आया और अपनी मां को बताया कि आखिरकार उसे अपनी जिंदगी का मकसद मिल गया है. उसने कहा, ''मैं वापस नहीं आ सकता. मैं यह काम करके खुश हूं.'' नसीमा, जिसके दो भाई आतंकी बन गए थे और पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे, कहती हैं कि उसे अपने बेटे पर नाज है, ''वह खुदा की राह पर चल रहा है.''

नए लड़कों को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में लश्कर-ए-तय्यबा की ओर से दी जा रही चार महीने की ट्रेनिंग दौरा-ए-आम और दौरा-ए-खास का फायदा नहीं मिल पाता है, जिसमें ऐसे आतंकी तैयार किए जाते हैं जिन्होंने 27 जुलाई को पंजाब के गुरदासपुर में हमले को अंजाम दिया. इस तरह की ट्रेनिंग की कमी को वे छल-कपट और स्थानीय जगह की जानकारी से पूरा कर लेते हैं. वे जंगलों में रहते हैं और कभी-कभी खुद से सहानुभूति रखने वालों के घरों में भी पनाह लेते हैं. वे इंटरनेट से डाउनलोड किए गए चैटिंग के टूल्स का इस्तेमाल करते हैं ताकि सुरक्षा एजेंसियों की निगाह से बच सकें. वे सेना और पुलिस से दो कदम आगे रहने के लिए उधार में लिए गए हैंडसेटों का इस्तेमाल करते हैं.

यह नया उभार अगर व्यापक रूप नहीं ले पा रहा है तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि नियंत्रण रेखा पर कड़ी निगरानी से हथियारों की आवाजाही पर काफी हद तक अंकुश लग गया है. एके-47 राइफलों की आपूर्ति में इस कदर कमी आ गई है कि नए आतंकियों को सुरक्षा बलों से उनके हथियार छीनने पड़ रहे हैं. गोली-बारूद की आपूर्ति भी भारी समस्या बन गई है, जिसके कारण उग्रवादी लंबे समय तक गोलीबारी नहीं कर सकते हैं. उनका जोर खुद को बचाए रहने पर मालूम होता है—सेना की वर्दी पहनने के कारण वे जंगलों में आ-जा सकते हैं और किसी को उन पर शक नहीं हो पाता है.

वापसी की कोशिश
बांदीपुरा के पांच स्कूली लड़के 5 जून को अपने घरों से गायब हो गए. स्थानीय बिजली विभाग में कर्मचारी गुलाम रसूल लोन, जिनका बेटा हनान रसूल लोन भागने वाले लड़कों में शामिल था, कहते हैं, ''मैंने सोचा कि सुरक्षा बलों ने उन्हें अगवा कर लिया है.'' वे अपने लड़के के बारे में पता लगाने के लिए सुरक्षा बलों के पास गए थे. अगले दिन उन लड़कों को नियंत्रण रेखा के पास एक चौकी पर पकड़ा गया. वे सरहद पार करके पाकिस्तान जाना चाहते थे. स्पाइक हेयरकट रखने वाला 16 साल का हनान कहता है, ''मैंने गाजा में बच्चों पर इज्राएली जुल्म को देखा. जज्बा आ गया.'' वह शहर में सेना की एक इकाई के स्कूल में लौट आया है.

श्रीनगर स्थित 15 कोर के जनरल कमांडिंग अफसर लेफ्टिनेंट जनरल सुब्रत साहा कहते हैं, ''स्थानीय लड़कों को उकसाने के लिए धार्मिक कट्टरता का इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन महत्वपूर्ण चीज यह है कि इसे रोकने के लिए बहुत-सी अच्छी बातें भी हैं.'' सेना के अधिकारी बताते हैं कि अच्छी बात यह है कि माता-पिता अपने बच्चों के गायब होने की खबर तुरंत सेना और पुलिस को देते हैं. सुरक्षा बलों के मुताबिक, एक उत्साहजनक बात यह है कि घर छोड़कर जाने वाले 111 युवकों में से 58 लड़के घर वापस आ गए हैं. सिर्फ 36 लड़के ही आतंकी बनने के लिए तैयार हुए, बाकी 17 लड़कों के बारे में अभी जानकारी नहीं मिल सकी है.

मुठभेड़ को आखिरी विकल्प के तौर पर रखा जाता है और इसे पाकिस्तानी आतंकियों के खिलाफ अपनाया जाता है. कई बार इसका नतीजा बहुत दुखद होता है. 27 जनवरी को कर्नल एम.एन. राय को हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी आबिद खान ने मार डाला था. खान के चाचा ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि वे खान का आत्मसमर्पण करा देंगे. आतंकी ने इस पेशकश को ठुकरा दिया और हिज्बुल के एक अन्य आतंकी शिराज डार के साथ सुरक्षा बलों पर हमला कर दिया. पुलिस अधिकारी भी मानते हैं कि वे आतंकवादियों को तभी गोली मारते हैं, जब उनके पास कोई विकल्प नहीं रह जाता. पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस्लामिक स्टेट के झंडों को श्रीनगर में लहराना गहरी मानसिकता का संकेत है. पीडीपी की युवा शाखा के नेता वहीदुर्रहमान पारा कहते हैं, ''आतंकवाद सिर्फ भारत के प्रति विरोध को लेकर नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के विचार को भी चुनौती देता है. इसका हल यह है कि कश्मीरी युवाओं की आस्था लोकतंत्र में बनाई जाए.'' पीडीपी को उम्मीद है कि यह काम युवाओं को चुनावों में उतार कर किया जा सकता है.

कश्मीर के लिए प्रधानमंत्री का प्रस्तावित राहत पैकेज, जो करीब 70,000 करोड़ रु. से एक लाख करोड़ रु. के बीच का हो सकता है और जिसकी घोषणा 15 अगस्त के दिन की जा सकती है, इस राज्य को संकट से उबार सकता है. उम्मीद है कि कश्मीर के युवाओं को प्रेरणा के नए प्रतिमान मिलेंगे और वे गुमराह होने से बच सकेंगे.

कौन हैं और किस तरह के हैं नए आतंकी संगठन

आतंकी संगठनों का हिस्सा बनने गए 111 युवाओं का जम्मू और कश्मीर पुलिस ने किया अध्ययन

आयु समूह
15 वर्ष से कम 6
15-30 वर्ष के बीच के 88
30 वर्ष से ज्यादा  17
 
शिक्षा
हाइ स्कूल ड्रॉपआउट 45
दसवीं 29
बारहवीं  18
ग्रेजुएट 3
पोस्ट ग्रेजुएट 2

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