नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब वे विलक्षण समझ का प्रदर्शन करते दिखाई देते थे कि राज्य के लोगों को किस किस्म की तालीम की जरूरत है. उन्होंने 'गुणोत्सव' यानी गुणों का उत्सव शुरू किया था, जो इस बात पर ध्यान देने वाली अभिनव पहल थी कि बच्चे आखिर कितना और क्या सीख रहे हैं. ये वही वक्त था, जब शिक्षा के अधिकार (आरटीई) की बदौलत लोगों का ध्यान स्कूलों में मौजूद क्लासरूम और खेल के मैदानों जैसे मुद्दों पर जा रहा था. इससे कम बजट के निजी स्कूलों का वजूद खतरे में पड़ गया था. 25 फीसदी आरक्षण का विवादास्पद नियम लागू करवाया जा रहा था (जिसे लागू करने की रूपरेखा तय नहीं की गई थी). 'गुणोत्सव' के दौरान मुख्यमंत्री और उनके तमाम मंत्री, आइएएस और अन्य वरिष्ठ अधिकारी हर साल बगैर ऐलान किए तीन दिनों तक राज्य के एक-चौथाई स्कूलों का दौरा करते, उनके हालात का मुआयना करते और यह भी देखते कि बच्चों को जो पढ़ाया जा रहा है, उसका क्या नतीजा निकला. जब मोदी ने देखा कि कच्छ के एक गांव में सातवीं कक्षा के छात्र ठीक से पढ़ भी नहीं पा रहे हैं, तब उन्होंने उनके माता-पिता को हल्की-सी झिड़की भी दी थी कि वे खुद बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं लेते और शिक्षकों से ऊंची उम्मीदें लगाते हैं. तकरीबन 10 राज्यों ने तालीम के नतीजों पर ध्यान देने के लिए 'गुणोत्सव' कार्यक्रम की प्रमुख बातों को अपनाया था. यह तब की बात है, जब मोदी के प्रधानमंत्री बनने की कोई चर्चा तक नहीं थी.
इसी तरह बच्चों में पढऩे की आदत डालने के लिए 'वांचे गुजरात' नामक कार्यक्रम शुरू किया गया था, जबकि प्रतिस्पर्धात्मक खेलों में प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए खेल महोत्सव की शुरुआत की गई थी. इनमें से कुछ पहल बेशक मौलिक नहीं थीं, लेकिन अमल की गुणवत्ता और नतीजों पर ध्यान देने की वजह से ये राज्य की आम योजनाओं से अलग दिखाई देती थीं. उच्च शिक्षा विभाग ने कॉलेजों में तेज रफ्तार इंटरनेट पहुंचाने और अनुसंधान के नतीजों की बेहतरी पर ध्यान दिया था.
बहुत कम नेताओं में यह दूरदर्शिता दिखाई देती है कि शिक्षा के जरिए क्या हासिल किया जा सकता है. ऐसे में मोदी की शुरू की गई नीतियां बिल्कुल अलग नजर आती थीं. फिर इस बात में भला क्या ताज्जुब कि उनके प्रधानमंत्री बनने पर कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगाई जा रही थीं?
एक साल पहले मैंने इसी मैगजीन में लिखा था कि सरकार को एक ऐसा एचआरडी मंत्री बनाना चाहिए, जो तालीम के नतीजों की अहमियत को समझता हो. जो दूसरों के साथ मिलकर बदलाव का नक्शा बना सके. साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता और नवाचारों पर भी ध्यान दे सके. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि ये काम नहीं किए गए हैं. कम-से-कम अभी तक तो नहीं किए गए हैं. जो नेता योजनाओं पर बहुत तेजी से अमल करवाने की अपनी धुन के लिए जाना जाता हो, उसके शासन में शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढऩे की रफ्तार दुर्भाग्य से बहुत धीमी है.
कुछ लोग कह सकते हैं कि तालीम के मामले में संभलकर चलना बेहतर है. पूर्व शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने यूपीए-2 के 100 दिनों के भीतर शिक्षा का अधिकार कानून पारित करवा दिया था और सीबीएसई की 10वीं बोर्ड की परीक्षा को ऐच्छिक बना दिया था. दोनों ही फैसले न सिर्फ विवादास्पद थे, बल्कि अब बेकार और उलटे नुक्सानदायक माने जा रहे हैं. सो हो सकता है कि धीरे चलना ही सही हो. मोदी सरकार के पहले साल में शिक्षा के क्षेत्र में पूर्ववर्ती सरकार की अपेक्षा निष्क्रियता का इससे उदार मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. दूसरी सफाई यह है कि आर्थिक मुद्दों पर अपने शुरुआती फोकस के बाद जब मोदी शिक्षा पर ध्यान देंगे, तब सरकार को कुछ ठोस कदम उठाते देखा जाएगा.
तो सरकार ने शिक्षा के मामले में आखिर किया क्या है? आइए, यहां हम सरकार की कुछ कामयाबियों और साथ ही कुछ सबसे बड़ी चूकों की पड़ताल करें.
शिक्षा पर खर्च में राज्यों का हिस्सा
शिक्षा की चुनौतियों का मुकाबला करना एक पेचीदा मसला है और इसका हमेशा दो-टूक जवाब नहीं मिलता. सरकार ने एक अच्छा कदम उठाया, जिसे ठीक तरह से समझा नहीं गया है. शिक्षा पर खर्च का ज्यादा बड़ा वित्तीय हिस्सा राज्यों को सौंप दिया गया है. यह अच्छा कदम है क्योंकि तालीम के मामले में सरकार की प्रमुख योजनाओं पर अमल की जिम्मेदारी राज्यों की है. अक्सर यह आशंका जताई जाती है कि राजनैतिक इच्छाशक्ति और अमल की क्षमता, दोनों के कमजोर होने की वजह से राज्यों को केंद्र के दबाव की जरूरत होती है. लेकिन इसका स्थायी समाधान यही है कि राज्यों को ताकतवर बनाया जाए और उन्हें योजनाओं पर अमल के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए. राज्य की क्षमताएं विकसित करने का यह एकमात्र तरीका भी है.
तालीम के मामले में सरकार आज जिस सबसे बड़ी पहल का जिक्र करती है, वह है नई शिक्षा नीति. लगता है जमीनी स्तर पर राजनैतिक जागरूकता पैदा करने की और लोगों को ज्यादा बड़े पैमाने पर शामिल करने की कोशिश की जा रही है. मगर इतनी विशाल युवा आबादी वाले इस देश में, जहां तालीम वाकई देश का भविष्य बना या बिगाड़ सकती है, मैं 18 महीने पहले मोदी के कहे गए नीतिवाक्य को तवज्जो दूंगा: ''देश को कानूनों की नहीं, कार्रवाइयों की जरूरत है.'' नई शिक्षा नीति का स्वागत तभी किया जाएगा, जब उसके साथ उसे लागू करने के लिए कदम भी उठाए जाएंगे. उसके बगैर अकेली नीति कुछ नहीं कर पाएगी.
कुछ छोटे-छोटे कदम
लड़कियों के लिए आर्थिक प्रोत्साहन, स्वच्छ विद्यालय अभियान, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, स्कूल मूल्यांकन का ढांचा, शाला दर्पण, ईशान विकास और विद्वानों के साथ विद्यार्थियों का संवाद आदि सरकार की कुछ नई पहल हैं. इनका मकसद लड़कियों की शिक्षा में सुधार लाना, छात्रों में गणित, विज्ञान और नवाचार को बढ़ावा देना, स्कूलों को जवाबदेह बनाना और मोबाइल जैसे साधनों के जरिए माता-पिता को बच्चे की तालीम का जायजा लेने का मौका देना है.
जाहिर है कि दूरगामी असर डालने वाले बड़े बुनियादी कदम उठाने की बजाए इस सरकार ने प्रतीकवाद को तरजीह दी है. प्रतीकवाद अपने आप में बुरा नहीं है, मगर उसके साथ ठोस कदम न उठाए जाएं तो वह काफी हद तक बेअसर रहता है. शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री का स्कूलों और शिक्षकों से जुडऩा एक अच्छा कदम था.
गौर करना चाहिए कि इनमें से कुछ पिछली सरकार की पहलकदमियां थीं, जिन्हें सिर्फ जारी रखा गया है. इनमें से कइयों का वैसा असर नहीं हुआ था, जैसी उम्मीद की गई थी (मिसाल के लिए: पूर्वोत्तर के राज्यों में स्कूलों को बेहतर तरीके से जोडऩे और विकसित करने के लिए ईशान विकास पहल).
नई सरकार ने मूलत: यूपीए-1 के दौरान घोषित 6,000 मॉडल स्कूलों को मिलने वाली केंद्र सरकार की सहायता बंद करने का भी फैसला किया. मैं इसे अच्छा कदम मानता हूं क्योंकि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि विकासखंड मुख्यालय पर विभेदक फीस के साथ प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप का मॉडल अच्छी तरह काम कर पाता.
गैर-जरूरी विवाद
केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा की जगह संस्कृत को लाने का विवाद, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के प्रमुखों से जुड़े मुद्दे और पाठ्य पुस्तकों के भगवाकरण के आरोप—इन सबका सरकार की छवि पर बुरा प्रभाव पड़ा. भले ही मीडिया ने इन्हें कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो. सरकार की चूकों की फेहरिस्त बदकिस्मती से ज्यादा बड़ी है.
शिक्षा के क्षेत्र में कदम बढ़ाने के लिए एक साफ नक्शे की जरूरत है, मगर वह नहीं बनाया गया. दूसरे, लगता है, शिक्षा विभाग को यह सुध ही नहीं आई है कि 'मेक इन इंडिया' पहल का वास्ता जितना दूसरी चीजों से है, उतना ही शिक्षा और कौशल विकास से भी है. ये स्वर्णिम मौके हो सकते थे, जिन्हें संभवत: गवां दिया गया.
संस्थाओं को मजबूत बनाना
एनसीईआरटी के निदेशक का पद कई महीनों से खाली पड़ा है, लेकिन इसे भरने की प्रक्रिया तक शुरू नहीं हुई है. सैकड़ों- हजारों नौजवानों का भविष्य तय करने वाली केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) सरीखी संस्थाएं गुणवत्ता और क्षमता के गंभीर संकट से जूझ रही हैं. इन मुद्दों को सुलझाने और हालात को बदलने के लिए नई शिक्षा नीति की जरूरत है. हर बार जितने शिक्षक अध्यापक पात्रता परीक्षा देते हैं, उनमें से केवल 1-10 फीसदी ही इसमें पास हो पाते हैं. इससे साफ पता चलता है कि हमारी शिक्षण व्यवस्था और इस परीक्षा के बीच कितनी गंभीर खाई है. इन मुद्दों को अकादमिक और प्रशासनिक उपायों से हल किया जा सकता है. यह काम बहुत तेजी से किए जाने की जरूरत है. सरकार का एक सबसे बड़ा योगदान यह हो सकता है कि वह भारत की विशालतम शैक्षिक चुनौतियों का जवाब खोजने के लिए (आइआइटी, आइआइएम, एक्वस और एनसीईआरटी इसी काम के लिए बनाई गई हैं) केंद्रीय अध्ययन अनुसंधान संस्थान सरीखी संस्थाओं के गठन में मदद करे. इस पर न कोई विवाद होगा और न ही अपेक्षाकृत ज्यादा खर्च आएगा.
अहम नीतिगत बदलाव जो हुए ही नहीं
हरेक घर से एक किलोमीटर के दायरे में स्कूल खोलने की पुरानी नीति का नतीजा चरम विघटन के रूप में सामने आया है. इस नीति में बदलाव की जरूरत है ताकि जहां जरूरत हो, वहां मुक्रत परिवहन सुविधा के साथ स्कूलों को मजबूत बनाया जा सके. इससे माता-पिता के लिए बच्चों को स्कूल भेजना अनिवार्य बनाने में आसानी होगी. भारत को 'समस्या को दृश्य बनानेÓ के लिए पीआइएसए सरीखे अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकनों में हिस्सा लेना चाहिए. पीआइएसए 2010 में जब शंघाई दुनिया भर में शिखर पर था, हम 74 देशों में 73वीं पायदान पर थे. इसका जवाब हमने इस फैसले से दिया कि भविष्य में हम इसमें हिस्सा ही नहीं लेंगे. आरटीई में भी संशोधनों और स्पष्टता की बहुत जरूरत है, लेकिन वहां भी कोई प्रगति नहीं हुई है.
एक और बड़ी कमी यह है कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आइसीटी) पर ज्यादा मजबूती से जोर नहीं दिया जा रहा है. यहां पांच बड़ी पहलों का जिक्र किया जा रहा है, जिन पर अभी कोई शुरुआत भी नहीं हुई है :
(1) प्रत्येक स्कूल के डाटाबेस (जिला शिक्षा सूचना प्रणाली) को नवीनतम बनाना ताकि प्रत्येक छात्र, शिक्षक और उनके शिक्षण स्तर पर निगाह रखी जा सके और हर वक्त इसका नवीनतम आंकड़ा उपलब्ध करवाया जा सके.
(2) भागीदारी के जरिए शिक्षा के लिए प्रभावी सॉफ्टवेयर बनाने पर ध्यान देना.
(3) आइसीटी आधारित प्रणालियों पर शोध ताकि भारत में अध्ययन और मूलभूत गणित सरीखी शिक्षण की बुनियादी कमियों को दूर किया जा सके.
(4) शिक्षकों के इस्तेमाल के लिए उच्च गुणवत्ता की ऑनलाइन शिक्षक सहायता प्रणाली विकसित करना, जिसमें वीडियो और अन्य संसाधन शामिल हों.
(5) सस्ते (आकाश की तरह) लेकिन उच्च गुणवत्ता वाले (आकाश की तरह नहीं) टैबलेट का विकास करना, लेकिन साथ ही इसके सॉफ्टवेयर को स्कूलों के लिए उपयोगी बनाना.
कुल मिलाकर छोटे-मोटे कार्यक्रमों और योजनाओं से महज ठोक-पीट करने की बजाए सरकार को चाहिए कि वह उन क्षेत्रों में ठोस कदम उठाने पर ध्यान दे, जिनसे सचमुच फर्क पड़ेगा. शिक्षा को बदलना पेचीदा मसला है, मगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ेगी तो दूसरे भी इस प्रक्रिया में हिस्सेदारी के लिए आगे आएंगे.
(श्रीधर राजागोपालन एजुकेशनल इनीशिएटिव्ज प्रा. लि., अहमदाबाद के मैनेङ्क्षजग डायरेक्टर हैं)
मोदी का एक साल: शिक्षा के क्षेत्र में बस गिनती के सबक सीखे गए
मोदी खुद बहुत तेजी से चीजों पर अमल के लिए जाने जाते हैं, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सरकार ने अभी तक बहुत कम और बहुत धीमी गति से काम किया है.

अपडेटेड 25 मई , 2015
Advertisement
Advertisement