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क्या सीपीएम के नए महासचिव करा पाएंगे वामपंथ की वापसी

वामपंथी राजनीति के सबसे बुरे दौर में सीपीएम की कमान सीताराम येचुरी के हाथ. उन्हें मध्य वर्ग को भी साथ लेने की कोशिशें करनी पड़ेंगी.

अपडेटेड 3 मई , 2015

अप्रैल की 19 तारीख को विशाखापत्तनम में सीपीएम के 21वें महाधिवेशन में पार्टी का नया महासचिव चुने जाने की घोषणा के साथ सीताराम येचुरी ने विशाल लाल मंच पर आगे आकर कम्युनिस्टों की परंपरागत शैली में मुट्ठी भींचकर दायां हाथ उठाकर अभिवादन किया तो खचाखच भरे विशाल सभागार में ''लाल सलाम'' की आवाज गूंज उठी. मुट्ठी भींचकर हाथ उठाकर अभिवादन करने का यह तरीका दुनिया भर में औद्योगिक मजदूरों के संघर्ष का प्रतीक है और खासकर 1917 में रूसी क्रांति में यह अभिवादन की शैली ही बन गया.

उसके अगले दिन येचुरी दिल्ली लौटे तो संसद भवन में साथी सांसदों और संसद भवन के कर्मचारियों से घिर गए. सभी उन्हें आला पद पाने के लिए बधाई दे रहे थे. दोपहर बाद दिल्ली में पार्टी के मुख्यालय ए.के. गोपालन भवन में उनसे मिलने रूस के राजदूत अलेक्जेंडर कदाकिन भी पहुंचे और सीरियाई मार थॉमा चर्च के पादरी भी अपने कॉमरेड को बधाई देने आए.
लेकिन सचाई यह भी है कि 1970 के दशक में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अपने साथी कार्यकर्ता प्रकाश करात से येचुरी को जब सीपीएम की कमान मिली है, तब पार्टी सबसे बुरे दौर में है. करात के पिछले दशक भर के नेतृत्व में पार्टी लगातार गर्त की ओर ही जाती रही. 2011 में पश्चिम बंगाल और केरल में सत्ता गंवाने के बाद राष्ट्रीय मुख्यधारा में उसकी मौजूदगी घटती गई है और 2014 के लोकसभा चुनावों में तो वह महज नौ सांसदों तक सिमट गई है.

येचुरी को भी इसका बखूबी इल्म है कि सीपीएम को इस दुर्दशा से उबारने के लिए उन्हें उन पुराने नारों और जुमलों से आगे बढ़ना होगा, जिन्हें वे विशाखापत्तनम के मंच से मुखर कर रहे थे, ''हमें नव-आर्थिक उदारीकरण, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद की त्रिमूर्ति से लडऩा होगा.'' उन्हें बेशक देश के किसानों और महत्वाकांक्षी मध्य वर्ग से उन्हीं की भाषा में बात करने के तरीके ईजाद करने होंगे.

येचुरी ने इंडिया टुडे से कहा, ''यह निर्णायक साल है, जब भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की ओर मुकम्मल झुकाव हो रहा है. सवाल यह नहीं है कि (प्रधानमंत्री नरेंद्र) मोदी ने 2014 का चुनाव जीतने के लिए क्या तरीके अपनाए, बल्कि स्पष्ट राजनैतिक संदेश यह है कि उदारीकरण की चमक-दमक ने गरीब और अमीर के बीच खाई काफी चैड़ी कर दी है. यह भारी आर्थिक संकट का दौर है लेकिन बीजेपी ने आंख-कान बंद कर लिए हैं. लगभग हर रोज किसान खुदकशी कर रहे हैं...सीपीएम की भूमिका उस भारत के लोगों की आवाज को बुलंद करने की है.''
उनके एजेंडे में सबसे ऊपर पश्चिम बंगाल में पार्टी काडर को हताशा से उबारना और केरल में पार्टी में भारी अंदरूनी कलह से निजात पाना है. पश्चिम बंगाल में 2011 में सत्ता गंवाने के बाद पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता कथित तौर पर तृणमूल कांग्रेस के गुंडों के हाथों अपनी जान गंवा चुके हैं. दोनों ही राज्यों में अगले साल चुनाव होने वाले हैं. इसका मतलब है कि दोनों ही राज्यों में पार्टी को मजबूत करना और सत्ता समीकरण को बदलना आग पर चलने से कम मुश्किल नहीं होगा.

केरल में तो कन्नूर इकाई के पिनरायी विजयन और तिरुअनंतपुरम के वी.एस. अच्युतानंदन  के धड़ों के बीच रस्साकशी कुछ साल से स्थानीय किस्से-कहानियों का रूप ले चुकी है. सीधे-सीधे कहें तो विजयन और करात एक खेमे में तो अच्युतानंदन और येचुरी दूसरे खेमे में माने जाते हैं. केरल की राजनीति के जानकारों का कहना है कि इस गुटबाजी में विचारधारा का कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह जंग पार्टी और उसके फंड पर कब्जे की है. सचाई जो भी हो, अटकलें ये भी थीं कि करात और विजयन नहीं चाहते थे कि येचुरी पार्टी के महासचिव बनें. उनकी पसंद तो सीधे-सादे और शांत स्वभाव के 77 वर्षीय एस. रामचंद्रन पिल्लै थे. लेकिन पश्चिम बंगाल के बिमान बोस की टोली के ''कड़े रुख'' से मामला बदल गया.

खास बातचीत में येचुरी जोर देकर कहते हैं, ''हमारी मुख्य चुनौती है मजदूरों और किसानों के लिए सीपीएम के संदेश को धारदार बनाना. मोदी लहर लंबी नहीं चलने वाली...हमें कामकाज की अपनी शैली बदलनी होगी. हमें लोगों से संवाद बनाने के बेहतर तरीके खोजने होंगे.''

पार्टी के ट्विटर हैंडल ञ्चष्श्चद्बद्वह्यश्चद्गड्डद्म की शुरुआत तो 2014 के चुनावों में ही हुई थी लेकिन इसमें सक्रियता पार्टी महाधिवेशन के दौरान ही दिखी और आखिरी दिन तो देश भर में इसका ट्रेंड जारी रहा.

येचुरी यह साफ-साफ समझते हैं कि सीपीएम को पहले ''खुद को मजबूत करना होगा'' उसके बाद ही वह कांग्रेस जैसी अपनी तरह की सेकुलर ताकतों के साथ हाथ मिला सकती है. भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ मार्च में राष्ट्रपति भवन तक विपक्षी मोर्चे की अगुआई करने के पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने येचुरी से बातचीत की थी. सीपीएम मई की शुरुआत में राजधानी दिल्ली में विशाल किसान रैली की योजना बना रहा है. इसमें दो राय नहीं कि येचुरी सभी विपक्षी पार्टियों में अपने अच्छे संपर्कों और हर मसले पर मजमून तैयार करने के अपने लाजवाब हुनर की बदौलत सीपीएम को बीजेपी विरोध के केंद्र में खड़ा कर सकते हैं, खासकर राज्यसभा में जिसके वे सदस्य हैं और जहां बीजेपी अल्पमत में है.

हालांकि वे सीपीआइ के साथ विलय के पक्ष में नहीं हैं लेकिन पार्टी महाधिवेशन ने उन्हें सभी वामपंथी पार्टियों को एक मंच पर लाने का अधिकार दे दिया है. वे कहते हैं, ''हम 1964 में विचारधारा के सवाल पर अलग हुए थे, इसलिए फिर एक हो जाने की तो कोई वजह नहीं है.''

जमीन बड़े उद्योगपतियों को देने जैसे मसलों पर बड़ा किसान आंदोलन खड़ा करना तो मुश्किल है, जैसा कुछेक दशक पहले महेंद्र सिंह टिकैत ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में खड़ा किया था. लेकिन सीपीएम के नेताओं का कहना है कि वे कम-से-कम राजस्थान में तो जमीन और किसानों के मुद्दों को गरमाने में कारगर हो ही सकते हैं, जहां 2008 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के तीन विधायक हुआ करते थे.

दिल्ली में संसद भी लोकतांत्रिक जंग के मैदान में लगातार तब्दील होती दिख रही है. लोकसभा में विपक्ष का धारदार औजार आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस नेता राहुल गांधी बनते जा रहे हैं, जिनकी बीजेपी के खिलाफ तीखी टिप्पणियां फिलहाल तो देश भर में चर्चा का विषय बनने लगी हैं. राज्यसभा में संयुक्त विपक्ष, सीपीएम जिसका अभिन्न अंग है, अपने बहुमत से बीजेपी को लगातार परेशानी में डाल रहा है और मोदी के विस्तारवादी मंसूबों पर पानी फेर रहा है.

इस तरह बीजेपी के खिलाफ अभी तक भूमि अधिग्रहण का मसला सबसे तीखे वार का विषय बना हुआ है. लेकिन येचुरी का कहना है कि बीजेपी के श्रम सुधार विधेयकों को भी ऐसा ही विरोध झेलना पड़ सकता है, जिनके पास होने की उम्मीद बीजेपी कर रही है.

बकौल इतिहासकार हरबंस मुखिया, ''मुद्दा यह है कि कांग्रेस उन्हीं मसलों को उठा रही है, जो कभी सीपीएम के औजार हुआ करते थे.'' वे कहते हैं, ''जिस जमीन के मुद्दे को अब कांग्रेस हथियाना चाहती है, वह दरअसल वामपंथियों का पसंदीदा मुद्दा रहा है. इसी तरह महंगाई और सांप्रदायिकता के मसले भी हैं...सीपीएम के फायदे में यह है कि कांग्रेस बहु-सामुदायिक पार्टी है, उसे ''हिंदू-मुसलमान भाई-भाई'' का नारा लगाने में कोई परहेज नहीं है जबकि सीपीएम की विचाराधारा धार्मिक पहचान पर कतई केंद्रित नहीं है.''

मुखिया का कहना है कि आम आदमी पार्टी (आप) ने उस नैतिक जमीन को हथिया लिया है, जिस पर सीपीएम का एकाधिकार-सा हुआ करता था. इस बात को येचुरी भी कबूल करते हैं. येचुरी को जेएनयू के उनके छात्र-जीवन के दौर से ही जानने वाले मुखिया कहते हैं, ''आप ने दिल्ली का चुनाव भारी बहुमत से जीतने के लिए सीधे लोगों से संपर्क और संवादों को आधार बनाया, जिसे सीपीएम को सीखने की जरूरत है. मैं सीताराम को मार्क्स का वह सिद्धांत याद दिलाना चाहूंगा कि हर रणनीति मौजूद ठोस स्थितियों के आधार पर बनाई जानी चाहिए...इसका मतलब है कि सीपीएम को हरदम नया कुछ सीखने को तैयार रहना होगा.''

येचुरी भी यह स्वीकार करते हैं, ''हमने दिल्ली के चुनावों में आप का समर्थन किया था. वह पार्टी उन्हीं मुद्दों को उठा रही है जो कभी सीपीएम उठाया करती थी और वह दिल्ली के लोगों में ज्यादा बेहतर आधार बना पाई है. हमें आप से बहुत कुछ सीखने की दरकार है.'' लेकिन वे फौरन यह भी कहते हैं, ''यह याद रखना चाहिए कि अब भी उनसे वामपंथी राजनीति की जमीन पर काबिज हो जाने का कोई खतरा नहीं है.''

सीपीएम नेतृत्व का शुद्धतावादी रवैया अतीत में पार्टी के लिए काफी महंगा पड़ा है. करात ने 2008 में कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए के साथ ''साम्राज्यवादी'' अमेरिका से एटमी करार के मुद्दे पर नाता तोड़ लिया था, जबकि सीपीआइ के सूत्रों का दावा है कि पार्टी के पूर्व महासचिव ए.बी. वर्धन ने उनसे ''सैकड़ों बार'' आग्रह किया था कि ऐसा न करें.

विशाखापत्तनम में सीपीएम महाधिवेशन में पंजाब, बिहार और छत्तीसगढ़ से आए प्रतिनिधियों ने कहा कि येचुरी की सबसे बड़ी चुनौती ''पूर्व महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत'' की तरह पार्टी को मजबूत करना और समान सोच वाली पार्टियों के साथ हाथ मिलाकर बीजेपी से लोहा लेना है. पंजाब के प्रतिनिधि चाहते हैं कि नए महासचिव राज्य में मादक पदार्थों की समस्या पर ध्यान केंद्रित करें. वहीं छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधियों की चिंता माओवादी समस्या है जबकि बिहार के प्रतिनिधियों को इस साल के आखिर में बिहार विधानसभा चुनावों में समाजवादी जनता दल के साथ तालमेल की संभावनाओं पर बात करनी है.

पंजाब के एक प्रतिनिधि ने याद किया कि सुरजीत ''सभी पार्टियों में सभी से मिला करते थे.'' इसके विपरीत पिछले दशक में करात के दौर में दिल्ली के पार्टी दफ्तर में बैठकर विचारधारा को धार देने पर ही जोर होता था.

मुखिया कहते हैं, ''सुरजीत यह समझ गए थे कि मार्क्सवादी राजनीति सिर्फ दास कैपिटल पढऩे से ही नहीं निकलेगी. यह भी कि सोवियत रूस, विएतनाम और क्यूबा के नेताओं ने अपनी स्थितियों के मुताबिक मार्क्स की व्याख्या की. सुरजीत सबको साथ लेकर चलने में माहिर थे. अपनी इसी खासियत से वे सीपीएम को यूपीए-1 के समर्थन के लिए राजी कर सके, जिससे पार्टी का असर काफी व्यापक हो गया.''

नरेंद्र मोदी सरकार जब अपनी पहली सालगिरह के करीब पहुंच रही है तो येचुरी के पास सीपीएम की छवि को निखारने के कई मौके मिल सकते हैं. अब से नौ साल बाद जब वे अपने उत्तराधिकारी को कमान सौपेंगे तो उनकी उपलब्धि इसी से नापी जाएगी कि उन्होंने देश को किस कदर लाल रंग में रंगने में कामयाबी पाई. उनका वक्त शुरू हो चुका है.

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