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राजनीति के मध्य में मांझी

बिहार में कोई भी पार्टी मांझी पर पैनी नजर रखे बिना अपनी चुनावी रणनीति बनाने की स्थिति में नहीं.

अपने कार्यकाल में लिए गए फैसलों को पलटे जाने के विरोध में पटना में धरना देते मांझी (बीच में)
अपने कार्यकाल में लिए गए फैसलों को पलटे जाने के विरोध में पटना में धरना देते मांझी (बीच में)
अपडेटेड 16 मार्च , 2015
2014 के लोकसभा चुनावों में जेडी(यू) के खराब प्रदर्शन के बाद 17 मई को नीतीश कुमार के इस्तीफा दे देने के बाद उनकी जगह लेने के लिए जब जीतन राम मांझी को 19 मई को मुख्यमंत्री के सरकारी निवास 1 अणे मार्ग बुलाया गया तो वे एकदम विनम्र और दब्बू नेता की प्रतिमूर्ति बने हुए थे. फिर भी उन्होंने अपने सरपरस्त से एक सवाल पूछने की हिम्मत जुटा ही ली थी, ''क्या यह दशरथ बाबा की तरह ही होगा?" उनके पूछने का आशय यह था कि उन्हें मुख्यमंत्री का पद कितने समय के लिए सौंपा जा रहा है. उनकी इच्छा पहाड़ काटने वाले दशरथ मांझी बनने की कतई नहीं थी, जिन्हें 2007 में नीतीश ने सम्मानस्वरूप मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पांच मिनट के लिए बैठा दिया था.

कई सियासी विश्लेषक अब भी इस बात पर हैरानी जताते हैं कि कैसे नीतीश जैसे कद्दावर और अनुभवी नेता ने मांझी को आज्ञाकारी व्यक्ति तो मान लिया लेकिन यह भांपने में भूल कर बैठे कि वे केवल खड़ाऊं लेकर बैठने की बजाए अपने कार्यकाल में सुनिश्चितता के इच्छुक थे. नीतीश को इसका एहसास नौ माह बाद 7 फरवरी, 2015 को हुआ जब मांझी विचार-विमर्श के लिए उनके नए आवास 7 सर्कुलर रोड पर तो पहुंचे लेकिन उन्होंने नीतीश के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करने से इनकार कर दिया. नीतीश ने उन्हें विधायक दल की बैठक में शामिल होने के लिए कहा जो मांझी की मंजूरी के बगैर बुलाई गई थी. जाहिर था, बातचीत नाकाम रही.

अपने 35 साल के सियासी करियर में कुछ माह छोड़कर हमेशा अपने नेताओं की छत्रछाया में रहना पसंद करने वाले मांझी को अचानक दुस्साहसी होकर बागी बन जाने में ज्यादा मौका नजर आया जबकि ज्यादातर लोग 70 साल के इस महादलित नेता से अर्ध-सेवानिवृत्ति स्वीकार कर लेने की उम्मीद लगाए बैठे थे. मांझी में इस बदलाव का श्रेय भी नीतीश को ही जाता है जिन्होंने इस महादलित नेता को अपनी दबी-पड़ी आकांक्षाएं खोज निकालने का मौका दिया. जब नीतीश ने मांझी को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुना तो उसे तुरुप की चाल माना गया था और तार्किक भी. आखिर नीतीश ने ही महादलितों को एक अलग वर्ग के रूप में जगह दी थी. लेकिन भावनाओं और आकांक्षाओं ने तर्क तथा आंकड़ों की जगह ले ली. मांझी को इस बात का एहसास होने में देर न लगी कि राज्य में आबादी का करीब 20 फीसदी हिस्सा होने की वजह से महादलित किसी दूसरे सबसे बड़े जाति समूह यानी यादवों से भी कहीं ज्यादा हैं, लिहाजा राज्य का मुख्यमंत्री होना तो हमेशा से उनका हक था.

मुख्यमंत्री के रूप में नौ महीने के कार्यकाल के दौरान अपने दलित-समर्थक फैसलों और दलितों के मुद्दों पर अपने घोषित रुझान के चलते अब मांझी राज्य में दलितों के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं. उन्होंने अपने सपनों को अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया है और खुद को हटाए जाने के परिणामस्वरूप दलितों में पनपते गुस्से में उन्हें अपने लिए मौका नजर आ रहा है. उन्होंने इस साल अक्तूबर-नवंबर में होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव में कुल 243 सीटों में से कम से कम 125 पर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है. उन्होंने अपने इरादे यह कहकर जाहिर भी कर दिए हैं कि उनके हिंदुस्तानी अवाम मोर्चे (हम) को एक पूर्ण सियासी पार्टी के रूप में बदल दिया जाएगा. मांझी का कहना था, ''अगर मुझे लगा कि हमारे लिए समर्थन बढ़ रहा है तो हम अकेले भी लड़ सकते हैं." वैसे उन्होंने इस बात पर साफ जोर दिया कि वे बीजेपी के साथ ''चुनाव-बाद समझौते" के लिए राजी हैं.

यकीनन, वे अपने साथ हाथ मिलाने के लिए तैयार बीजेपी और विरोधी नीतीश, दोनों के लिए कड़ी चुनौती पेश करेंगे. बीजेपी को उनकी आकांक्षाओं पर लगाम लगाए रखने के लिए उन्हें राजी करना होगा तो नीतीश को अपना महादलित वोट बैंक सुरक्षित रखने के लिए जूझना होगा. नीतीश की सरकार ने ही अगस्त 2007 में राज्य महादलित आयोग का गठन किया था ताकि अनुसूचित जातियों में भी उन जातियों की पहचान की जा सके जो विकास प्रक्रिया में पीछे छूट गई हैं. महादलित आयोग की सिफारिशों पर ही नीतीश सरकार ने अप्रैल 2008 में अनुसूचित जातियों में से 18 जातियों को ''महादलित" के रूप में चिह्नित किया था. सरकार ने फिर उनके शैक्षणिक और सामाजिक उत्थान के लिए कई कदम उठाए. जिन चार जातियों को महादलित वर्ग से बाहर छोड़ दिया गया वे हैं-धोबी, रविदास, पासी और दुसाध (पासवान). हालांकि नीतीश सरकार ने 28 जुलाई, 2009 को पासी और धोबी जातियों को तथा 17 नवंबर, 2009 को रविदास जाति को भी महादलित की श्रेणी में शामिल कर लिया. सिर्फ एक जाति दुसाध को महादलित श्रेणी से बाहर रखा गया था जो कि अनुसूचित जातियों में थोड़े ज्यादा शिक्षित और प्रभाव वाले हैं. 

इस तरह 2010 के विधानसभा चुनावों से एक साल पहले 2009 के अंत तक नीतीश ने 22 अनुसूचित जातियों में से दुसाध को छोड़कर बाकी 21 को महादलितों की श्रेणी में शामिल कर लिया था. इससे यह भी आरोप लगे कि नीतीश ने केवल दुसाध को महादलित श्रेणी से इसलिए बाहर रखा क्योंकि वे उनकी बजाए उनके सियासी प्रतिद्वंद्वी रामविलास पासवान के प्रति निष्ठावान थे. लेकिन नीतीश के प्रशासनिक फैसलों ने उन्हें इसके कई सियासी लाभ दिए. उनके नेतृत्व में एनडीए ने राज्य में 2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल की.
महादलित मुख्यमंत्री होने की वजह से मांझी के पास दलितों को एकजुट करने का मौका भी था. उन्होंने दुसाधों तक पहुंच बनाकर ठीक यही किया. उस विश्वास मत से ऐन पहले जिसका उन्होंने सामना किए बिना पद से इस्तीफा दे दिया, मांझी ने दुसाधों को भी महादलितों की श्रेणी में शामिल कर लिया. इससे दुसाधों भी राज्य में महादलितों के विकास के लिए बनी स्कीमों के तहत फायदों के हकदार हो गए. यह कदम मांझी की उस सियासी सोच के अनुरूप ही था कि अनुसूचित जातियों को 22 अलग-अलग जातियों में बांटने की बजाए एक दायरे में बांध लिया जाए. वे अक्सर अनुसूचित जातियों से यह अपील करते रहे हैं कि वे सब ''एक परिवार" हैं और अगर वे ऐसे ही बने रहे तो ''सत्ता उनके हाथों में होगी."

अब मांझी ने पहले तो मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देने के आठ दिन के भीतर 28 फरवरी को हिंदुस्तान अवाम मोर्चा बनाकर अपनी मंशा जाहिर कर दी है. जाहिर है कि वे राज्य में राजनैतिक ताकत के रूप में उभरने के लिए सोची-समझी योजना पर चल रहे हैं. मांझी और उनके समर्थकों ने, जिनमें जेडी(यू) के कुछ बागी विधायक भी शामिल हैं, 20 अप्रैल को एक रैली बुलाई है. रैली से पहले लोगों का समर्थन जुटाने की कोशिश में मांझी प्रदेश भर में कई कार्यक्रम आयोजित करेंगे.

साफ तौर पर बिहार इस साल बड़े रोचक चुनाव के लिए तैयार हो रहा है. मांझी की तैयारी और उनकी संभावित भूमिका ने राज्य की सियासी पटकथा में नया मोड़ ला दिया है. राज्य में दलितों की तादाद हमेशा ज्यादा रही है पर उन्होंने कभी नेतृत्वकारी भूमिका के लिए दावेदारी नहीं जताई. क्या अब इसमें बदलाव होगा? क्या अब बिहार भी उत्तर प्रदेश के रास्ते पर चलेगा?
बीजेपी की रणनीति मांझी की पीठ पर सवारी करके महादलितों का समर्थन हासिल करने की है. इससे भगवा खेमे के आधार में खासा इजाफा होगा और उसे लालू, नीतीश तथा कांग्रेस के साझे विपक्ष का सामना करने में मदद मिलेगी. लेकिन अगर उसे मांझी का साथ नहीं मिल पाता है तो उसके पास अगड़ी जातियों के कुछ वोटों के अलावा अत्यधिक पिछड़ी जातियां (ईबीसी) और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के ही कुछ वोट रह जाएंगे. रामविलास पासवान की एलजेपी के जरिए उसके पास कुछ दलित वोट जरूर हैं.

दूसरी ओर नीतीश, लालू और कांग्रेस की मिली-जुली ताकत को यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटों का अच्छा-खासा हिस्सा मिल जाएगा और ईबीसी तथा ओबीसी का भी तगड़ा हिस्सा. यह लड़ाई इतनी करीबी हो सकती है कि किसी को राहत की सांस नहीं मिलने वाली. अगर मांझी अपने और बीजेपी के लिए दलित वोटों में सेंध लगाने में कामयाब न हुए तो कागजों पर नीतीश-लालू गठबंधन बेहतर स्थिति में दिखाई देता है.

दूसरा पहलू यह है कि मांझी सख्त सौदेबाजी पर उतर सकते हैं और बीजेपी के लिए उनके सियासी कौशल को नजरअंदाज करना खामियाजे वाला ही होगा. इसलिए बीजेपी बेहद सतर्क है. पड़ोसी उत्तर प्रदेश में वह तीन बार दलित नेता मायावती की अल्पमत सरकार को समर्थन दे चुकी है पर हर बार इसकी परिणति मायावती की मजबूती और उसके कमजोर होने के रूप में ही हुई है. लिहाजा बीजेपी के मन में मांझी को लेकर उम्मीद भी है और डर भी. उन्होंने उसके लिए मौका और संकट, दोनों खड़े कर दिए हैं. मौका इसलिए कि उन्हें साथ लेकर बीजेपी नीतीश और लालू की मिली-जुली ताकत का मुकाबला कर सकती है और संकट इसलिए कि मांझी मायावती की तरह नहीं हैं. उन्हें बीजेपी का पिछलग्गू होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. आखिरकार, मांझी ने पहले ही बागियों वाले तेवर दिखा दिए हैं.

यह बिहार में मांझी युग की शुरुआत है. कोई भी पार्टी-चाहे वह उनके साथ खड़ी हो या उनके खिलाफ, उन पर पैनी निगाहें रखे बिना अपनी चुनावी रणनीति बनाने की स्थिति में नहीं है.

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