डर बिजनौर के जंगलों में गहरे तक बैठा हुआ है. बियाबान की कंपकंपाती खामोशी में बाघ की मौजूदगी महसूस की जा सकती हैः कोई चहचहाहट नहीं, कोई हूक तक नहीं, बस कंधे बराबर ऊंची घास के बीच सांय-सांय करती हवा से बजती तेज सीटी की आवाज है और पंजों के निशान हैं. जहां पगडंडियां घने पेड़ों की जड़ों में खो जाती हैं, वहां नारंगी रंग की कोई वस्तु ध्यान खींचती हैः एक कमीज जिस पर मिट्टी के साथ मिला खून सूखकर जम चुका था, जिसमें पंजों और पैने दांतों से किए कई छेद थे. ये एक आदमी के अवशेष थे जिसे बाघ ने अपनी गहरी पकड़ के साथ इधर-उधर घसीटा था.
बाघ की दहाड़ फिर से सुनाई दे रही है. हाल की बाघ गणना (टाइगर सेंसस) के मुताबिक पिछले चार साल में भारत में बाघों की संख्या 30 फीसदी बढ़ी है. देश में 3,78,118 वर्ग किलोमीटर जंगलों में काम कर रहे 44, 000 वन कर्मियों को 2,226 बाघों के सबूत मिले हैं. लुप्तप्राय होने के कगार पर पहुंच चुके बाघ ने वन्यप्राणी संरक्षण के इतिहास में बेहद उल्लेखनीय वापसी की है. लेकिन क्या वाकई इसे देश में बाघ की ताकत के आश्वस्तकारी संकेत के रूप में माना जा सकता है? या फिर यह एक ऐसी अच्छी खबर है जिसे बेहद गहराई से देखा जाए तो एक टिक-टिक करते टाइम बम की तरह नजर आएगी?
जानलेवा कामयाबी
सदी में पहली बार बाघों की संख्या में इजाफा देखने को मिला है लेकिन उनके रहने के ठिकानों में कमी आ रही है. ऐसे में इलाके की यह लड़ाई दोनों पक्षों के लिए जानलेवा है. पिछले सालभर में इनसान और बाघ के बीच टकराव की 50 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें पहली घटना बिजनौर के एक नरभक्षी बाघ की थी जो सात हफ्तों के भीतर दस जानें लीलकर फरवरी 2014 में लापता हो गया. सबसे ताजा घटना जनवरी 2015 में कर्नाटक के बेलागावी की है जहां स्थानीय लोगों ने एक बाघ को मार गिराया. वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया के प्रमुख उल्हास कारंत कहते हैं, “यह संरक्षण की कामयाबी की कीमत है.
इनसानों से टकराव की घटनाएं उन्हीं इलाके में बढ़ रही हैं जहां बाघों की आबादी में इजाफा हुआ है.” जंगल कम होने से बाघ क्षमता से ज्यादा भरे अभयारण्यों से निकलकर इनसानी आबादी वाले इलाकों में घुस रहे हैं. वाइल्डलाइफ एसओएस के सह-संस्थापक कार्तिक सत्यनारायण कहते हैं, “शहरी विस्तार की तेज आवाजों, रोशनी, शोर-शराबे से डरे और भ्रमित बाघ हमला कर देते हैं. खतरे से घिरा कोई भी जानवर ऐसा ही करेगा.” यह एक ऐसी जंग है, जिसमें हर कोई हार रहा हैः इनसान या तो जान गंवाते हैं या बाघों को अंधाधुंध तरीके से मार देते हैं, जख्मी करते हैं या शिकंजे में फंसा लेते हैं. नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी के सदस्य पी.के. सेन कहते हैं, “दोनों का अस्तित्व तभी बच सकता है, जब दोनों को अलग रखा जाए.” क्या भारत अपने बाघों और लोगों को एक-दूसरे से बचा सकता है?
बाघों से डरता कौन है?
“आप यहां क्या कर रहे हैं? आपको पता नहीं यहां बाघ है?” राइफलों से लैस दो फॉरेस्ट गार्डों ने बड़ी तेजी से अपनी बाइक पर जगह बनाते हुए जंगल में लकड़ी बटोरने अकेले पहुंचे एक व्यक्ति को बीच में बैठाया. लंबे साल और जारुल के पेड़ों से घिरी, छोटी-छोटी धाराओं, खाइयों से युक्त उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड सीमा पर 33,399 हेक्टेयर की यह वनपट्टी बाघों के लिए बेहद मुफीद जगह है. फिर भी वन अधिकारियों को इस खतरनाक जंगल से लोगों को दूर रखने में खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. किसी शॉर्टकट की तलाश में एक युवक बड़ी तेजी से एक पगडंडी पर चला जा रहा था. उससे पूछा, “तुम्हें बाघों से डर नहीं लगता?” उसने चमकभरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया, “मैं भारतीय सेना की गोरखा राइफल्स में हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.”
ऐसी ही किसी अकेली राह पर उस नारंगी रंग की कमीज का मालिक 63 वर्षीय लाल सिंह उस नरभक्षी बाघिन का दसवां शिकार बन गया था, जिसने दिसंबर 2013 से बिजनौर इलाके में आतंक फैला रखा था. यह जानते हुए भी कि इलाके में नरभक्षी घूम रहा है, अगर वह 10 फरवरी 2014 को मवेशियों को चराने के लिए बाघ के इलाके में न गया होता तो उसने अपनी जान न गंवाई होती. उसने उसी सुबह अपने साथियों से पूछा भी था, “अगर बाघ ने मुझे पकड़ लिया तो?” फिर भी उसने अपने मवेशियों को जंगल में इतना भीतर जाने दिया. या हो सकता है, उसे नींद आ गई हो. अगले दिन उसकी लाश के पास से भांग मिली तंबाकू की एक पुडिय़ा मिली थी.
मैंने बाघ को देखा
शाम के पांच बजे हैं. दूर पौड़ी-गढ़वाल के नीले पहाड़ों पर धुंधलका भरा अंधेरा नीचे पसर रहा है. खो नदी की सूखी तलहटी में कांटा घास के बीच से पानी की एक पतली सी धारा बह रही है. बारिश आते ही यह नदी तबाही मचाने लगती है. बरहापुर और साहूवाला रेंज के बीच यही वह धारा है जिसमें रोज शाम को बिजनौर के वन्यप्राणी पानी पीने के लिए आते हैं. यही वह जगह भी है जहां से जंगल के किनारे बसे छोटे-छोटे गांवों के आदमी-औरत अपने रोजमर्रा के कामकाज के लिए गुजरते हैं. इनसानी सभ्यता का प्रकृति की दुनिया से यहीं पर मेल होता है. बरहापुर गांव का 32 साल का लक्ष्मण दास अपनी पुरानी जर्जर बाइक पर रोजाना खेतों की उपज को खो के आसपास के गांवों में लाता-ले जाता है. बीते साल फरवरी में वह इसी वीरान रास्ते पर तेजी से चला जा रहा था. शाम गहरा रही थी और दूर मंदिरों की घंटियों की आवाजें सुनाई दे रही थीं. अचानक उसे गन्ने के खेतों के नजदीक बाघ दिखाई दिया जो उसे घूर रहा था. वह बताता है, “मुझे लगा कि आज मेरी मौत तय है. वह बिल्ली की तरह मेरी तरफ बढऩे लगा.” जैसे ही दास ने अपनी बाइक का एक्सेलरेटर तेज किया, बाघ ने भी दौड़ लगानी शुरू की. ऐन मौके पर उस रास्ते पर किसी वैन की आवाज ने उसे बचा लिया. बाघ पलक झपकते ही गायब हो गया. लक्ष्मण कहता है, “अब मुझे मौत से डर नहीं लगता. मैंने बाघ को देख लिया.”
राष्ट्रीय वन्यप्राणी बोर्ड की सदस्य और बाघ नाम की संस्था की ट्रस्टी प्रेरणा सिंह बिंद्रा के मुताबिक, जहां छोटे-छोटे गांव बाघों की घनी आबादी वाले जंगलों के मुहाने पर बसे होते हैं, वहां एक-दूसरे के इलाके में घुसपैठ की जरा सी भी आशंका खून-खराबे की वजह बन जाती है. कोई हैरत की बात नहीं कि लक्ष्मण दास जैसे कुछ ही लोग अपनी कहानी बताने को जिंदा बचे रह जाते हैं. बिजनौर में साल भर में मारे गए सभी 11 लोग लापरवाही या दुस्साहस के कारण बाघ का शिकार हुए. स्थानीय पत्रकार और बाघ-प्रेमी आबिद रजा का कहना था, “ज्यादातर शिकार बाघ के इलाके में या तो बैठे थे, या नीचे झुके हुए थे. बाघ अक्सर इस स्थिति में ही इनसान पर हमला करता है. या फिर वे घने जंगल में घुस गए थे जहां बाघ दिन में आराम कर रहा होता है.”
जंगल आखिर है कहां
कारंत कहते हैं, “जहां भी बाघों की आबादी बढ़ रही होती है, वहां हर साल बाघ 20 फीसदी ज्यादा हो जाते हैं. इनमें से बूढ़े, जख्मी या उत्साही जवान बाघ इलाके से बाहर आकर इनसानों से भिड़ जाते हैं.” इसकी वजह है जंगलों का घटना. नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी और वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की ओर से 2013 में जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2006 से 2010 के बीच बाघों के इलाके में 12,000 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है—यानी गोवा के आकार का तीन गुना इलाका घट गया है. भारतीय वन सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने पिछले दो साल में लगभग 2 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया है. इसमें भी बिजनौर ने सबसे ज्यादा खोया है—2003 में वहां 12 फीसदी वन क्षेत्र था जो अब कम होकर नौ फीसदी से भी नीचे आ गया है.
ऐसे में हैरत की बात नहीं कि बिजनौर के जंगल सबसे ज्यादा दबाव में हैं. लोग लगातार जंगल में जाते हैं—जलाने के लिए लकड़ी लाने, पेड़, फल, शहद, मवेशियों के लिए चारा, मिट्टी आदि लेने या केवल उस पार जाने के लिए रास्ते के तौर पर ही. फिर गन्ने के खेत हैं जो ठीक जंगल के किनारे तक फैले हैं. जंगल और खेतों के बीच कमजोर-सी बाड़ें हैं. रेंजर कमलेश कुमार कहते हैं, “लोग यह नहीं समझ पाते कि गन्ने के खेत बाघ के लिए जंगल की घास से कोई खास अलग नहीं हैं.” पूरी सर्दी गन्ने की फसल जंगल से लगी खड़ी रहती है.
अपने इलाके से बेघर बाघ वहीं शरण भी लेता है. कटाई का समय आते ही बाघ का सामना इनसानों से होने लगता है. “जब वे लगातार इनसानों के इर्द-गिर्द रहने लगते हैं तो वे उनके इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि इनसानों से स्वाभाविक भय खो देते हैं और मवेशियों को शिकार बनाने की तरफ आकर्षित हो जाते हैं.”
एक जंगल को दूसरे से जोडऩे वाले टाइगर कॉरिडोर की अहमियत यहीं बढ़ जाती है जो बाघों को इधर-उधर आने-जाने, प्रजनन करने, जीन प्रवाह बनाए रखने को सुनिश्चित करते हैं. भारतीय बाघों के डीएनए सैंपल का अध्ययन करने वाली अमेरिका के स्मिथसोनियन कंजर्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट की टीम के प्राणीविज्ञानी संदीप शर्मा कहते हैं, “सड़कें और रेल लाइनें इन कॉरिडोर से होकर गुजर रही हैं, वहां खनन, शहरीकरण और अन्य तरह का ढांचागत विकास हो रहा है, जिसकी वजह से अभयारण्यों के बीच बाघों का आवागमन बाधित होता है.”
बाघों के साथ रहना
दो सौ साल पहले 40,000 बाघों से अब महज 2,000 बाघों से कुछ ज्यादाः यानी जंगलों के आसपास रहने वाले ग्रामीण समुदायों की आठ पीढिय़ां जो धीमे-धीमे बाघों की घटती आबादी की अभ्यस्त हो गईं और यह भूल गईं कि वन्यजीवों के साथ सहअस्तित्व कैसे बनाया जा सकता है. हैदराबाद के टाइगर शूटर नवाब शफाअत अली खान, जिनसे बिजनौर बाघिन को लेकर भी मशविरा किया गया था, कहते हैं, “अतीत में गांव वाले बाघों को फिर से जंगल की तरफ मोडऩे के लिए बेहद कारगर तरीके आजमाया करते थे. वह जानकारी अब लुप्त हो गई है.”
बिजनौर में दो बच्चों की मां रेशा कहती हैं, “जब भी हम बाघ के बारे में सुनते हैं तो हम कई लोग साथ चलते हैं, जोर-जोर से गाना गाते हैं और बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते हैं.” जबसे रेशा ने बाघों का शिकार हुए लोगों की लाशों को देखा है तब से हर रात उसे बुखार चढ़ जाता है. अब कभी भी फिर से बाघ के हमले होते हैं, जैसे कि अक्तूबर 2014 में हुए थे, तो गांव वाले बवाल काटने लगते हैं, जंगलों की चौकियों को घेर लेते हैं और मामला अपने हाथों में लेने की धमकी लेने लगते हैं. रेशा कहती हैं, “लाल सिंह के मारे जाने के बाद लोग चिल्ला रहे थे, हमें बंदूकें दे दो, हम बाघिन को मार डालते हैं.” खान कहते हैं, “बाघ अपने पीछे दुश्मन इनसानों को छोड़ जाते हैं.” किसी गरीब गांव वाले के लिए अपने मवेशी खोना अपनी जिंदगी खोने जैसा है. अगर कोई मर जाए तो सरकार से मुआवजा वसूलना और भी कठिन है. वे कहते हैं, “ऐसे में ही फिर लोग जानवर को खुद ठिकाने लगाने की कोशिश करने लगते हैं, कभी वे बाघ को फांसने के लिए जहर लगी किसी मवेशी की लाश रख देंगे तो कभी तालाबों या नदियों में कीटनाशक मिला देंगे. जंगल के करीब रहने वाला हर भारतीय जंगल-विरोधी हो जाता है.”
बिजनौर में फिलहाल हालात सामान्य हो गए हैं. लाल सिंह को “संत्य” घोषित कर दिया गया है, जिसने गांव वालों को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. पंचायत ने ईश्वर से सुरक्षा की कामना में एक हवन भी किया था. गांव के बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि बाघिन को किसी सर्कस पार्टी ने ही छोड़ दिया होगा, वरना वह अचानक कहां गायब हो जाती? गांव वाले फिर से बेखौफ होकर जंगल में जा रहे हैं और अपनी मनमर्जी से उसका इस्तेमाल भी कर रहे हैं.
खुदा खैर करे. अगला बाघ सामने आने तक सबकी जिंदगी सुकून से चलती रहे.
बाघ की दहाड़ फिर से सुनाई दे रही है. हाल की बाघ गणना (टाइगर सेंसस) के मुताबिक पिछले चार साल में भारत में बाघों की संख्या 30 फीसदी बढ़ी है. देश में 3,78,118 वर्ग किलोमीटर जंगलों में काम कर रहे 44, 000 वन कर्मियों को 2,226 बाघों के सबूत मिले हैं. लुप्तप्राय होने के कगार पर पहुंच चुके बाघ ने वन्यप्राणी संरक्षण के इतिहास में बेहद उल्लेखनीय वापसी की है. लेकिन क्या वाकई इसे देश में बाघ की ताकत के आश्वस्तकारी संकेत के रूप में माना जा सकता है? या फिर यह एक ऐसी अच्छी खबर है जिसे बेहद गहराई से देखा जाए तो एक टिक-टिक करते टाइम बम की तरह नजर आएगी?
जानलेवा कामयाबी
सदी में पहली बार बाघों की संख्या में इजाफा देखने को मिला है लेकिन उनके रहने के ठिकानों में कमी आ रही है. ऐसे में इलाके की यह लड़ाई दोनों पक्षों के लिए जानलेवा है. पिछले सालभर में इनसान और बाघ के बीच टकराव की 50 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें पहली घटना बिजनौर के एक नरभक्षी बाघ की थी जो सात हफ्तों के भीतर दस जानें लीलकर फरवरी 2014 में लापता हो गया. सबसे ताजा घटना जनवरी 2015 में कर्नाटक के बेलागावी की है जहां स्थानीय लोगों ने एक बाघ को मार गिराया. वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया के प्रमुख उल्हास कारंत कहते हैं, “यह संरक्षण की कामयाबी की कीमत है.
इनसानों से टकराव की घटनाएं उन्हीं इलाके में बढ़ रही हैं जहां बाघों की आबादी में इजाफा हुआ है.” जंगल कम होने से बाघ क्षमता से ज्यादा भरे अभयारण्यों से निकलकर इनसानी आबादी वाले इलाकों में घुस रहे हैं. वाइल्डलाइफ एसओएस के सह-संस्थापक कार्तिक सत्यनारायण कहते हैं, “शहरी विस्तार की तेज आवाजों, रोशनी, शोर-शराबे से डरे और भ्रमित बाघ हमला कर देते हैं. खतरे से घिरा कोई भी जानवर ऐसा ही करेगा.” यह एक ऐसी जंग है, जिसमें हर कोई हार रहा हैः इनसान या तो जान गंवाते हैं या बाघों को अंधाधुंध तरीके से मार देते हैं, जख्मी करते हैं या शिकंजे में फंसा लेते हैं. नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी के सदस्य पी.के. सेन कहते हैं, “दोनों का अस्तित्व तभी बच सकता है, जब दोनों को अलग रखा जाए.” क्या भारत अपने बाघों और लोगों को एक-दूसरे से बचा सकता है?
बाघों से डरता कौन है?
“आप यहां क्या कर रहे हैं? आपको पता नहीं यहां बाघ है?” राइफलों से लैस दो फॉरेस्ट गार्डों ने बड़ी तेजी से अपनी बाइक पर जगह बनाते हुए जंगल में लकड़ी बटोरने अकेले पहुंचे एक व्यक्ति को बीच में बैठाया. लंबे साल और जारुल के पेड़ों से घिरी, छोटी-छोटी धाराओं, खाइयों से युक्त उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड सीमा पर 33,399 हेक्टेयर की यह वनपट्टी बाघों के लिए बेहद मुफीद जगह है. फिर भी वन अधिकारियों को इस खतरनाक जंगल से लोगों को दूर रखने में खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. किसी शॉर्टकट की तलाश में एक युवक बड़ी तेजी से एक पगडंडी पर चला जा रहा था. उससे पूछा, “तुम्हें बाघों से डर नहीं लगता?” उसने चमकभरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया, “मैं भारतीय सेना की गोरखा राइफल्स में हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.”
ऐसी ही किसी अकेली राह पर उस नारंगी रंग की कमीज का मालिक 63 वर्षीय लाल सिंह उस नरभक्षी बाघिन का दसवां शिकार बन गया था, जिसने दिसंबर 2013 से बिजनौर इलाके में आतंक फैला रखा था. यह जानते हुए भी कि इलाके में नरभक्षी घूम रहा है, अगर वह 10 फरवरी 2014 को मवेशियों को चराने के लिए बाघ के इलाके में न गया होता तो उसने अपनी जान न गंवाई होती. उसने उसी सुबह अपने साथियों से पूछा भी था, “अगर बाघ ने मुझे पकड़ लिया तो?” फिर भी उसने अपने मवेशियों को जंगल में इतना भीतर जाने दिया. या हो सकता है, उसे नींद आ गई हो. अगले दिन उसकी लाश के पास से भांग मिली तंबाकू की एक पुडिय़ा मिली थी.
मैंने बाघ को देखा
शाम के पांच बजे हैं. दूर पौड़ी-गढ़वाल के नीले पहाड़ों पर धुंधलका भरा अंधेरा नीचे पसर रहा है. खो नदी की सूखी तलहटी में कांटा घास के बीच से पानी की एक पतली सी धारा बह रही है. बारिश आते ही यह नदी तबाही मचाने लगती है. बरहापुर और साहूवाला रेंज के बीच यही वह धारा है जिसमें रोज शाम को बिजनौर के वन्यप्राणी पानी पीने के लिए आते हैं. यही वह जगह भी है जहां से जंगल के किनारे बसे छोटे-छोटे गांवों के आदमी-औरत अपने रोजमर्रा के कामकाज के लिए गुजरते हैं. इनसानी सभ्यता का प्रकृति की दुनिया से यहीं पर मेल होता है. बरहापुर गांव का 32 साल का लक्ष्मण दास अपनी पुरानी जर्जर बाइक पर रोजाना खेतों की उपज को खो के आसपास के गांवों में लाता-ले जाता है. बीते साल फरवरी में वह इसी वीरान रास्ते पर तेजी से चला जा रहा था. शाम गहरा रही थी और दूर मंदिरों की घंटियों की आवाजें सुनाई दे रही थीं. अचानक उसे गन्ने के खेतों के नजदीक बाघ दिखाई दिया जो उसे घूर रहा था. वह बताता है, “मुझे लगा कि आज मेरी मौत तय है. वह बिल्ली की तरह मेरी तरफ बढऩे लगा.” जैसे ही दास ने अपनी बाइक का एक्सेलरेटर तेज किया, बाघ ने भी दौड़ लगानी शुरू की. ऐन मौके पर उस रास्ते पर किसी वैन की आवाज ने उसे बचा लिया. बाघ पलक झपकते ही गायब हो गया. लक्ष्मण कहता है, “अब मुझे मौत से डर नहीं लगता. मैंने बाघ को देख लिया.”
राष्ट्रीय वन्यप्राणी बोर्ड की सदस्य और बाघ नाम की संस्था की ट्रस्टी प्रेरणा सिंह बिंद्रा के मुताबिक, जहां छोटे-छोटे गांव बाघों की घनी आबादी वाले जंगलों के मुहाने पर बसे होते हैं, वहां एक-दूसरे के इलाके में घुसपैठ की जरा सी भी आशंका खून-खराबे की वजह बन जाती है. कोई हैरत की बात नहीं कि लक्ष्मण दास जैसे कुछ ही लोग अपनी कहानी बताने को जिंदा बचे रह जाते हैं. बिजनौर में साल भर में मारे गए सभी 11 लोग लापरवाही या दुस्साहस के कारण बाघ का शिकार हुए. स्थानीय पत्रकार और बाघ-प्रेमी आबिद रजा का कहना था, “ज्यादातर शिकार बाघ के इलाके में या तो बैठे थे, या नीचे झुके हुए थे. बाघ अक्सर इस स्थिति में ही इनसान पर हमला करता है. या फिर वे घने जंगल में घुस गए थे जहां बाघ दिन में आराम कर रहा होता है.”
जंगल आखिर है कहां
कारंत कहते हैं, “जहां भी बाघों की आबादी बढ़ रही होती है, वहां हर साल बाघ 20 फीसदी ज्यादा हो जाते हैं. इनमें से बूढ़े, जख्मी या उत्साही जवान बाघ इलाके से बाहर आकर इनसानों से भिड़ जाते हैं.” इसकी वजह है जंगलों का घटना. नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी और वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की ओर से 2013 में जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2006 से 2010 के बीच बाघों के इलाके में 12,000 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है—यानी गोवा के आकार का तीन गुना इलाका घट गया है. भारतीय वन सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने पिछले दो साल में लगभग 2 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया है. इसमें भी बिजनौर ने सबसे ज्यादा खोया है—2003 में वहां 12 फीसदी वन क्षेत्र था जो अब कम होकर नौ फीसदी से भी नीचे आ गया है.
ऐसे में हैरत की बात नहीं कि बिजनौर के जंगल सबसे ज्यादा दबाव में हैं. लोग लगातार जंगल में जाते हैं—जलाने के लिए लकड़ी लाने, पेड़, फल, शहद, मवेशियों के लिए चारा, मिट्टी आदि लेने या केवल उस पार जाने के लिए रास्ते के तौर पर ही. फिर गन्ने के खेत हैं जो ठीक जंगल के किनारे तक फैले हैं. जंगल और खेतों के बीच कमजोर-सी बाड़ें हैं. रेंजर कमलेश कुमार कहते हैं, “लोग यह नहीं समझ पाते कि गन्ने के खेत बाघ के लिए जंगल की घास से कोई खास अलग नहीं हैं.” पूरी सर्दी गन्ने की फसल जंगल से लगी खड़ी रहती है.
अपने इलाके से बेघर बाघ वहीं शरण भी लेता है. कटाई का समय आते ही बाघ का सामना इनसानों से होने लगता है. “जब वे लगातार इनसानों के इर्द-गिर्द रहने लगते हैं तो वे उनके इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि इनसानों से स्वाभाविक भय खो देते हैं और मवेशियों को शिकार बनाने की तरफ आकर्षित हो जाते हैं.”
एक जंगल को दूसरे से जोडऩे वाले टाइगर कॉरिडोर की अहमियत यहीं बढ़ जाती है जो बाघों को इधर-उधर आने-जाने, प्रजनन करने, जीन प्रवाह बनाए रखने को सुनिश्चित करते हैं. भारतीय बाघों के डीएनए सैंपल का अध्ययन करने वाली अमेरिका के स्मिथसोनियन कंजर्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट की टीम के प्राणीविज्ञानी संदीप शर्मा कहते हैं, “सड़कें और रेल लाइनें इन कॉरिडोर से होकर गुजर रही हैं, वहां खनन, शहरीकरण और अन्य तरह का ढांचागत विकास हो रहा है, जिसकी वजह से अभयारण्यों के बीच बाघों का आवागमन बाधित होता है.”
बाघों के साथ रहना
दो सौ साल पहले 40,000 बाघों से अब महज 2,000 बाघों से कुछ ज्यादाः यानी जंगलों के आसपास रहने वाले ग्रामीण समुदायों की आठ पीढिय़ां जो धीमे-धीमे बाघों की घटती आबादी की अभ्यस्त हो गईं और यह भूल गईं कि वन्यजीवों के साथ सहअस्तित्व कैसे बनाया जा सकता है. हैदराबाद के टाइगर शूटर नवाब शफाअत अली खान, जिनसे बिजनौर बाघिन को लेकर भी मशविरा किया गया था, कहते हैं, “अतीत में गांव वाले बाघों को फिर से जंगल की तरफ मोडऩे के लिए बेहद कारगर तरीके आजमाया करते थे. वह जानकारी अब लुप्त हो गई है.”
बिजनौर में दो बच्चों की मां रेशा कहती हैं, “जब भी हम बाघ के बारे में सुनते हैं तो हम कई लोग साथ चलते हैं, जोर-जोर से गाना गाते हैं और बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते हैं.” जबसे रेशा ने बाघों का शिकार हुए लोगों की लाशों को देखा है तब से हर रात उसे बुखार चढ़ जाता है. अब कभी भी फिर से बाघ के हमले होते हैं, जैसे कि अक्तूबर 2014 में हुए थे, तो गांव वाले बवाल काटने लगते हैं, जंगलों की चौकियों को घेर लेते हैं और मामला अपने हाथों में लेने की धमकी लेने लगते हैं. रेशा कहती हैं, “लाल सिंह के मारे जाने के बाद लोग चिल्ला रहे थे, हमें बंदूकें दे दो, हम बाघिन को मार डालते हैं.” खान कहते हैं, “बाघ अपने पीछे दुश्मन इनसानों को छोड़ जाते हैं.” किसी गरीब गांव वाले के लिए अपने मवेशी खोना अपनी जिंदगी खोने जैसा है. अगर कोई मर जाए तो सरकार से मुआवजा वसूलना और भी कठिन है. वे कहते हैं, “ऐसे में ही फिर लोग जानवर को खुद ठिकाने लगाने की कोशिश करने लगते हैं, कभी वे बाघ को फांसने के लिए जहर लगी किसी मवेशी की लाश रख देंगे तो कभी तालाबों या नदियों में कीटनाशक मिला देंगे. जंगल के करीब रहने वाला हर भारतीय जंगल-विरोधी हो जाता है.”
बिजनौर में फिलहाल हालात सामान्य हो गए हैं. लाल सिंह को “संत्य” घोषित कर दिया गया है, जिसने गांव वालों को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. पंचायत ने ईश्वर से सुरक्षा की कामना में एक हवन भी किया था. गांव के बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि बाघिन को किसी सर्कस पार्टी ने ही छोड़ दिया होगा, वरना वह अचानक कहां गायब हो जाती? गांव वाले फिर से बेखौफ होकर जंगल में जा रहे हैं और अपनी मनमर्जी से उसका इस्तेमाल भी कर रहे हैं.
खुदा खैर करे. अगला बाघ सामने आने तक सबकी जिंदगी सुकून से चलती रहे.