महाभारत के मिथकीय पात्र पांडवों की प्रसिद्ध नगरी इंद्रप्रस्थ के खंडहरों से करीब 300 किमी. दूर वह भूला-बिसरा नगर है, जहां से उनकी रानी आई थी. कथा के मुताबिक पांचों पांडवों से ब्याही द्रौपदी का जन्म एक यज्ञकुंड से हुआ था, जो दौपदी कुंड के नाम से जाना जाता है और गंगा के किनारे कांपिल्य में है.
द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद के पांचाल प्रदेश की राजधानी कांपिल्य अब उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में स्थित है. यह धूल-धूसरित कस्बा अब कंपिल के नाम से जाता है. आधुनिक संसार की नगरीय समस्याओं से पस्त यह कस्बा महाभारत में वर्णित अपनी भव्यता की छाया भी नहीं है. हालांकि गौर से देखने पर इधर-उधर बिखरे उसके नमूने जरूर दिख जाते हैं. कुषाण पूर्व काल के टूटे-फूटे मूर्तिशिल्प यहां-वहां बिखरे हुए हैं और द्रुपद के महल के खंडहरों से द्रौपदी कुंड भी दिख जाता है.
कांपिल्य के मिथकीय अतीत के प्रमुख अवशेषों पर कुछ लोग पूजा-अर्चना करने जुट आते हैं और हवन कुंड पर सालाना मेले में तो हजारों की भीड़ जुटती है. किंवदंती के अनुसार इसी हवन कुंड में ज्ञान की अग्नि से द्रौपदी और उनके जुड़वा भाई धृष्टद्युम्न का जन्म हुआ था. महाभारत की कथा के मुताबिक राजा द्रुपद ने गुरु द्रोणाचार्य के हाथों अपनी हार का बदला लेने के लिए इस यज्ञ का आयोजन किया था. द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य अर्जुन की मदद से द्रुपद का आधा राज्य छीन लिया था. अर्जुन बाद में स्वयंवर में द्रौपदी को जीत लाए थे. जहां अर्जुन ने यह करिश्मा कर दिखाया था, वह जगह भी कंपिल शहर के आस-पास ही कहीं है.
हालांकि जहां फौलादी इरादों वाली द्रौपदी का जन्म हुआ, अब ऐसा लगता है कि वह उसे भुला चुका है. आज द्रौपदी कुंड गंदे पानी का तालाब भर है और अग्निहोत्र वाला हवन कुंड दलदल बना हुआ है. इससे कुछ दूरी पर ही एक खुला नाला बहता है, जिससे कुंड देखने वालों के नथुने बदबू से भर उठते हैं.
कभी अपनी भव्यता से चकाचौंध करने वाला महल अब खंडहर और टीले में तब्दील हो गया है. यह टीला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) का संरक्षित क्षेत्र है. जहां महाभारतकालीन महल बताया जाता है, उस पर अतिक्रमण हो चुका है और लगभग पूरे इलाके में तंबाकू की खेती होती है. पांडवों का मिथकीय नगर इंद्रप्रस्थ तो प्राचीन स्थलों में सबसे प्रमुख माना जाता है और इसकी सुरक्षा एएसआइ के जिम्मे है जबकि महारानी की कथित जन्मस्थली उपेक्षा का शिकार है. एएसआइ की आगरा शाखा अपने अनगिनत ऐतिहासिक और प्राचीन भवनों और स्थलों की सूची में इसे ‘‘बियाबान टीलों के पूरबी ढूह्य’’ के रूप में दर्ज किया गया है. कहा जाता है कि इसी के नीचे द्रुपद के नगर के अवशेष स्थित हैं. हालांकि ऐसे अनेक उपेक्षित स्थलों की तरह कंपिल को भी लगता है कि भुला दिया गया है. कांपिल्य के स्थलों के ऐतिहासिक या पुरातात्विक महत्व को दर्शाने के लिए न कोई बोर्ड लगाया गया है, न कोई बाउंड्री खींची गई है.
एएसआइ की आगरा शाखा के मुताबिक कंपिल की खुदाई 1975-76 में हुई थी. इस इलाके में खुदाई इसके पहले भी हो चुकी है लेकिन एएसआइ के अधिकारियों के मुताबिक इस स्थल की सुरक्षा या संरक्षण के लिए काफी कुछ नहीं किया गया. पहली बार इसका सर्वेक्षण 1878 में एएसआइ के पहले महानिदेशक (डीजी) अलेक्जेंडर कनिंघम के आदेश से हुआ था. फिर एक अन्य डीजी बी.बी. लाल के दौर में भी खुदाई हुई. उन्होंने 1954-55 में उस स्थल से भूरे रंग और उत्तरी काले रंग से पुते मिट्टी के बर्तन-भांडे मिलने की बात कही थी. फिर 1960 के दशक में पुणे के डेक्कन कॉलेज के वी.एन. मिश्र ने खुदाई की और बड़े पैमाने पर भूरे रंग से पुते बर्तन मिलने की रिपोर्ट की. इसके बाद 1976 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व विभाग के के.के. सिन्हा ने टीले के छह अलग-अलग हिस्से में खुदाई की और प्राकृतिक मिट्टी के ऊपर 2.4 मीटर ऊंचे भूरे रंग से पुते बर्तनों का पता लगाया.
लेकिन बाद के वर्षों में एएसआइ ने इस प्राचीन स्थल में दिलचस्पी खो दी. दिल्ली की सामाजिक उद्यमी नीरा मिश्र को कांपिल्य में अपनी जड़ों का पता चला. उन्होंने तय किया कि मिथकीय महारानी की जन्मस्थली पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए. द्रौपदी कुंड और पांचाल महल की दुर्दशा से दुखी होकर नीरा सक्रिय हुईं. उन्होंने 2003 में द्रौपदी ट्रस्ट बनाया और उसके दो मकसद तय किए. ‘‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने वाली सच्ची नारीवादी नायिका द्रौपदी के जन्म से जुड़े स्थल का संरक्षण करना, और दूसरे, उस दौर में द्रौपदी ने जो हासिल किया यानी स्वतंत्र सोच-समझ उसे दूसरी महिलाओं में विकसित करना.’’
नीरा ने इंडिया टुडे को बताया कि द्रौपदी ट्रस्ट कंपिल की महिलाओं और लड़कियों के बीच काम करता है, उन्हें रोजगारपरक और कंप्यूटर का प्रशिक्षण देता है, ताकि वे अपनी रोजी-रोटी चला सकें. वे ट्रस्ट के शैक्षणिक और सामाजिक कार्य को कंपिल की एक धर्मशाला से चलाती हैं. उनकी कोशिशें केंद्र सरकार और उसकी एजेंसियों के दरवाजों पर भी दस्तक देने लगी हैं. उन्होंने एएसआइ से बार-बार इस स्थल के संरक्षण की बात की है पर अभी तक भाग्य ने साथ नहीं दिया.
2012 में द्रौपदी ट्रस्ट को जमीन के भीतर रडार जांच के लिए आइआइटी कानपुर के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की मदद मिली. वे बताती हैं कि आइआइटी की रिपोर्ट में कई तरह के ढांचों की मौजूदगी का संकेत मिला है. मसलन, पत्थर बिछी सड़कें, संकरी नहरें-नालियां और टूटी-फूटी दीवारें वगैरह. एएसआइ की इजाजत से ट्रस्ट ने लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विभाग से 2010-12 में यहां पर खुदाई भी करवाई.
खुदाई की अगुआई करने वाले प्रोफेसर डी.पी. तिवारी बताते हैं कि उनकी टीम कांपिल्य का कालक्रम स्थापित करने में सफल हुई है. तिवारी कहते हैं, ‘‘हमने उस क्षेत्र में तीस खंदकें खोदीं और आखिरकार टीले में पांच विभिन्न सांस्कृतिक कालखंडों की पुरातात्विक सामग्री मिली, जहां द्रुपद महल के होने की बात कही जाती है. भूरे रंग पुते भांडों के अलावा उन भांडों के सांस्कृतिक अवशेष, काले रंग के बरतनों की संस्कृति, कुषाण और गुप्त काल के साथ मध्ययुग की सामग्रियां भी मिलीं. दिलचस्प है कि गेरुआ रंग के मिट्टी के बरतन भी मिले, जिनका काल ईसा पूर्व 370 हो सकता है. द्रौपदी कुंड तो महज स्मारक जैसा ही हो सकता है लेकिन द्रुपद किला कहे जाने वाले टीले में शायद और अधिक पुरातात्विक सामग्रियां मिलें.’’
बकौल तिवारी, समस्या वही है जो कई ऐतिहासिक स्थलों के साथ है. टीले के अधिकांश हिस्से पर बसावट हो गई है तो बाकी हिस्सों में खेती हो रही है. इससे पुरातात्विक स्थल नष्ट ही नहीं होता, बल्कि खुदाई करने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं है. तिवारी का कहना है कि यही नहीं, शोध एजेंसियों की घटती दिलचस्पी और भी बड़ी समस्या पैदा कर देती है. वे कहते हैं, ‘‘द्रौपदी ट्रस्ट तो स्थल की खुदाई में गहरी रुचि ले रहा था लेकिन उसके अलावा जिला या राज्य प्रशासन ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.’’
ऐसे उपेक्षा के नजारे में कोई आश्चर्य नहीं कि स्थानीय लोग मूर्तिशिल्पों को उखाड़कर घरों में सजा लेते हैं और किले की ईंटों को भी अपने मकान वगैरह में इस्तेमाल कर लेते हैं. नीरा के ट्रस्ट ने कुछ मूर्तियों को बचाने की कोशिश की और इनमें से कुछ को शहर के एक मंदिर परिसर में रखने में कामयाबी पाई है.
लेकिन द्रौपदी ट्रस्ट का मकसद पौराणिक पांडवों की महारानी को महत्ता दिलाने के लिए बस पुरातात्विक खुदाई कराना ही नहीं है. नीरा ने पांच पतियों वाली द्रौपदी के प्रति अधिक जागरूकता और संवेदनशीलता जगाने के लिए कार्यक्रम भी किए हैं. नीरा कहती हैं, ‘‘द्रौपदी इसकी प्रतीक हैं कि अगर औरत दिमाग से ताकतवर हो तो वह अपनी शर्तों पर जीवन जी सकती है. पांडवों या द्रोणाचार्य से जुड़े अहिछत्र या हस्तिनापुर सभी संरक्षित स्थल हैं जबकि द्रौपदी से जुड़े स्थल की दुर्दशा देखकर मुझे काफी दुख होता है. मुझे इसकी बेहतरी के लिए कुछ करना है और मैं अपनी कोशिश जारी रखूंगी.’’
जहां से जुड़े हैं द्रौपदी के तार
उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद के कंपिल को द्रौपदी का जन्मस्थान माना जाता है. द्रौपदी ट्रस्ट ने कंपिल के जीर्ण-शीर्ण अवशेषों के संरक्षण का बीड़ा उठाया.

अपडेटेड 27 जनवरी , 2015
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