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विधानसभा चुनाव: महज वाइ-फाइ, हाइ-फाइ और मोदी

खम, खानदान और खांटी सियासत के देसी घी में तला हुआ चुनावी हरियाणा अपनी अमीरी, गौरव, गुमान और निर्लज्जता का जैसा खुला प्रदर्शन करता है, वह दुर्लभ है.

अपडेटेड 14 अक्टूबर , 2014
राइटिंग्स ऑन द वॉल (दीवारें बोलती हैं) ऐसा जुमला है जो भारत भर में की गई यात्राओं से उभरा है, हालांकि जरूरी नहीं कि ये सारी यात्राएं चुनाव प्रचार के दौरान ही की गई हों. जब आप शहरों और तेजी से शहरीकृत होते गांवों से अपनी आंखें खुली रखकर गुजरते हैं तो वह दीवारों पर लिखी इबारत ही होती है जो बताती है कि क्या बदल रहा है और क्या नहीं. ये इबारतें आपको बताती हैं कि इस देश में बदलाव ही ऐसी चीज है जो कभी फीकी नहीं पड़ती और इसीलिए बदलाव हमेशा आपको चौंकाते हैं. खासकर यह देखकर कि इस देश के लोगों ने शिकवे-शिकायतों से उम्मीद तक और अब अधिकार जताने तक का सफर कितने तार्किक तरीके से पूरा किया है. यही वजह है कि देश के निर्धनतम इलाकों में, मसलन 2005 के बिहार में दीवारें कुछ भी बेचती दिखाई नहीं देतीं क्योंकि या तो किसी के पास खरीदने के लिए नकद नहीं या फिर वहां दीवारें ही नहीं. नीतीश कुमार के शासन में सिर्फ  पांच साल की तीव्र वृद्धि के बाद अब वहां की दीवारें ब्रांडेड अंडरवियर बेचती दिखती हैं.
देश में और जगहों पर हमें अंग्रेजी माध्यम स्कूलों और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग की इबारतें दीवारों पर खुदी दिखाई देती हैं. सोचिए कि जब हरियाणा जैसा राज्य देश में सबसे अमीर बन जाए (छोटे-से गोवा के बाद) तब क्या होगा. यहां की दीवारों पर आपको सबसे ज्यादा बिकने वाली जो चीज दिखाई देगी वह निजी स्वास्थ्य सेवा है. इनकी संख्या बाल काटने वाली दुकानों से भी ज्यादा है. इतनी ज्यादा कि इनके लिए अब नाम कम पडऩे लगे हैं. इसका नतीजा यह है कि सिरसा में एक बाल चिकित्सक ने बच्चों के अस्पताल का नाम बेबीलोन रख डाला है. बेबीलोन का राजा जहां कहीं भी होगा, मुस्करा रहा होगा.


इस सफर की शुरुआत एक पहेली से करते हैं. एक ऐसी दुनिया जहां हम खुद पर हंसने का माद्दा लगातार खोते जा रहे हों, वहां इस पहेली को सिर्फ मेरे गृह राज्य का खांटी निवासी ही जज्ब कर पाएगा. मान लीजिए कि आप आंखों पर बंधी पट्टी के साथ सफर कर रहे हैं. जैसे ही पट्टी हटती है, आपको एक दवा की दुकान का साइनबोर्ड दिखता है जिस पर एक भैंस की तस्वीर लगी हुई है. सवाल है कि आप भारत के किस राज्य में हैं? इसका छोटा-सा जवाब है मेरा हरियाणा और हम हरियाणवी लोगों ने अब भी न तो अपना हास्यबोध पूरी तरह से खोया है और न ही हम अपनी भैंसों को इतने हल्के में लेते हैं कि उनके साथ पहचाने जाने पर बुरा मान बैठें.

उत्तर भारत में जहां गाय सबसे ज्यादा तेजी से पसंद किया जाने वाला डेयरी पशु है वहीं हरियाणवी अब भी भैंस के प्रति समर्पित हैं. शायद इसलिए कि भैंस के दूध से गाय के मुकाबले ज्यादा घी निकाला जा सकता है. इसलिए भी, कि हमारे संवाद में यह सबसे प्रमुख मुहावरे के रूप में आती है. दस साल तक के लिए सजा पाए, खराब सेहत के बहाने जेल से जमानत पर बाहर निकले और अब दिन में 18 घंटे चुनाव प्रचार कर रहे चौटाला से आप पूछ कर देखें कि क्या वे जमानत का दुरुपयोग नहीं कर रहे, और तुरंत उनका कुछ आहत-सा जवाब आएगा, ‘‘मैंने क्या किसी की भैंस खोल ली थी, भाई?’’ वे कहते हैं कि मैंने तो बस करीब 3,000 लोगों को स्कूली शिक्षक की नौकरी ही दी थी. और फिर वे अपनी चुनावी सभाओं में दोहराया जाने वाला वाक्य बोलते हैं, ‘‘आप मुझे दोबारा सत्ता में लाओ, और मैं इस बार तीन लाख लोगों को नौकरियां दूंगा.’’ 

चौटाला की निर्लज्जता को मात देते हुए सिरसा से जमानत पर चुनाव लड़ रहे गोपाल कांडा (जो अपनी एयरलाइन में काम करने वाली एक परिचारिका को खुदकुशी के लिए उकसाने की सजा काट रहे थे) खुद को शिकार बताते हुए कहते हैं, ‘‘मुझे मीडिया में आप सभी ने रिश्वतखोरी और दबाव के तहत निशाना बनाया था. मैंने एक साल जेल में (भारतीय दंड संहिता की धारा) 306 के तहत गुजारा, लेकिन किसी ने भी पूछने की जुर्रत नहीं की कि सुनंदा थरूर के साथ किसने क्या किया?’’ सवाल उठता है कि मीडिया पर किसका दबाव था? वे कहते हैं जो ताकतें सत्ता में थीं, उन्होंने ऐसा किया. उन्हीं के शब्दों में, ‘‘ये हरियाणा है. जिसकी लाठी उसकी भैंस.’’

यही मुहावरा कहीं ज्यादा शहरी माने जाने वाले मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा कुछ यूं इस्तेमाल करते हैं, ‘‘वो क्या समझेगा, उसको तो काला अक्षर भैंस बराबर.’’

इस मुहावरे पर सोचने के लिए दीवार पर लिखी जिस इबारत ने मुझे मजबूर किया, वह जाटलैंड की राजधानी रोहतक के सबसे बड़े चौराहे पर पाई जाती है. ऐसी होर्डिंग लगाने के पीछे गोदारा मेडिकल हॉल के पास पर्याप्त तर्क भी हैं क्योंकि इस दुकान में इनसानों और पशुओं की दवाएं मिलती हैं. मामला सिर्फ  इतना है कि तस्वीर अकेले भैंस की लगी हुई है. जरा-सा नजर ऊपर करके आप समझ जाएंगे कि आप किस राज्य में हैं और यहां की प्राथमिकताएं क्या हैं.

दो स्तंभों में फिल्मकार विशाल भारद्वाज का जिक्र कुछ ज्यादा ही हो जाएगा, लेकिन संयोग से यह सप्ताह उन्हीं के नाम है क्योंकि बॉलीवुड के तमाम निर्देशकों के बीच अकेले उन्होंने ही अपनी अविस्मरणीय फिल्म मटरू की बिजली का मंडोला में हरियाणा का मनोविश्लेषण करने की कोशिश की है. चौधरी का चित्रण सटीक था, उसके खयालों में आने वाली गुलाबी भैंस भी विलक्षण थी, बस उन्होंने एक गलती की कि चौधरी साहब को सामंत के रूप में दिखा दिया. सामंतवाद को जिस रूप में हम जानते हैं, हरियाणा में वैसा सामंतवाद नहीं है. वर्चस्व वाली जाति यहां जाटों की है जिसे कई राज्यों में मध्य जाति या यहां तक कि ओबीसी भी कहा जाता है. हरियाणा में हालांकि ये सबके ऊपर राज करते हैं. तो, क्या ये अपने खानदान भी बना सकते हैं!

महज ढाई करोड़ की आबादी वाला हरियाणा दो क्षेत्रों में देश में शीर्ष पर है. यहां हर लाख की आबादी पर सबसे ज्यादा संख्या में राष्ट्रीय स्तर के पहलवान और मुक्केबाज हैं और प्रति वर्ग किलोमीटर पर राजनैतिक खानदान मौजूद हैं. यहां की सियासत भी किसी कुश्ती के खेल की तरह खेली जाती है. देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल ने सबसे बड़े तीन खानदानों की स्थापना की और हालिया उभरा खानदान हुड्डा का है. देवीलाल के चहेते बेटे ओमप्रकाश चौटाला और उनकी आंखों के तारे अजय चौटाला एक ही भ्रष्टाचार के मामले में दोषी हैं इसलिए वे चुनाव नहीं लड़ सकते लेकिन अजय की पत्नी, दूसरे बेटे अभय और पोते दुष्यंत के लिए पिता प्रचार कर रहे हैं ताकि वे सत्ता में बने रह सकें. उनके भाई रंजीत कांग्रेस पार्टी से उनके सियासी प्रतिद्वंद्वी हैं.

भजनलाल की विरासत अब ढलान पर है. कुलदीप, उनकी पत्नी और यहां तक कि भाई चंदर मोहन (जो फिजा से दूसरी शादी रचाने के लिए चांद मोहम्मद बनकर कुछ समय के लिए विख्यात हो चुके हैं), तीनों लड़ रहे हैं. भिवानी में बंसीलाल की बहू किरण चौधरी चुनावी मैदान में हैं और उनके बड़े बेटे रणबीर सिंह महिंद्रा भी चुनाव लड़ रहे हैं, जिन्हें बंसीलाल ने ज्यादा महत्व नहीं दिया. हुड्डा लड़ाई में हैं ही और उनके बेटे दीपेंदर सांसद हैं. आप हरियाणा की सियासत में कोई भी परिचित नाम लें और मैं उसके माता-पिता के बारे में आपको बता दूंगा. जैसा कि हम हरियाणवी अंग्रेजी में कहते हैं कि हर कोई अपने परिवार की राह पर चलता है.
हरियाणा में लोगों की देह ही उनकी असली ताकत है
आप नजर उठा कर देख लें, आपको खानदान ही दिखेंगे. अहिरवालों के दक्षिणी इलाके में कभी राव बीरेंद्र सिंह का राज था और आज उनके बेटे राव इंदरजीत सिंह राज कर रहे हैं, जो केंद्रीय मंत्री हैं. कांग्रेस के एक अन्य बागी, जो कभी हुड्डा के मित्र हुआ करते थे, विनोद शर्मा हैं जिन्होंने अपनी पार्टी बना ली है जिससे वे खुद और उनकी पत्नी चुनाव लड़ रहे हैं. कौन जाने कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में हमें इनकी ताकत का अंदाजा लगे. दिल्ली से 85 किलोमीटर दूर मेवात के केंद्र नूह में मैं हुड्डा की रैली में भीड़ के पीछे खड़ा अकील अहमद से उम्मीदवारों के बारे में बात कर रहा था. 38 वर्षीय अकील प्रॉपर्टी एजेंट हैं. कांग्रेस के आफताब अहमद और आइएनएलडी के जाकिर हुसैन मरहूम खुर्शीद अहमद और तय्यब हुसैन के बेटे हैं जिन्होंने करीब आधी सदी तक इस क्षेत्र पर राज किया, यानी तब से जब से मैंने स्कूल जाना शुरू किया था. मैंने अकील से पूछा, ‘‘इतने बरसों से एक ही परिवार आपके यहां राज कर रहा है?’’ वे शोले के असरानी से डायलॉग उधार लेकर हंसते हुए बोले, ‘‘यहां सब अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं.’’

हरियाणा की दीवार पर इस बार सबसे अहम सियासी इबारत जो नजर आ रही है वह यह है कि खानदानों का दौर अब जा रहा है. कुछ तो मोहभंग का शिकार हो रहे हैं, तो कुछ कानून के सताए हैं जबकि अन्य के साथ सत्ता विरोधी दोहरी लहर काम कर रही है, लेकिन ज्यादातर मामलों में बीजेपी के रूप में एक नई सत्ता के उभार के चलते ऐसा हो रहा है. अब तक बीजेपी का सबसे बढिय़ा प्रदर्शन 1967 में जनसंघ के दौर में रहा जब उसने 90 में से 13 सीटों पर जीत हासिल की थी. आज यह सबसे आगे है तो इसलिए क्योंकि नौजवान पीढ़ी जाति की पुरानी लकीरों को तोड़ रही है और मोदी की ओर उमड़ रही है. बीजेपी ने सारे सियासी खानदानों की नाक में दम कर दिया है.

हो सकता है कि बीजेपी के पास कोई स्थानीय चेहरा न हो लेकिन उसके पास जो स्पष्टता है, वह बाकी प्रतिद्वंद्वियों के पास नहीं है. एक राजनैतिक पत्रकार की दृष्टि से आप हरियाणा की दीवारों को देखें तो आपको बमुश्किल ही किसी पोस्टर या होर्डिंग पर कोई एक चेहरा दिखाई देगा. कम से कम तीन चेहरे तो होते ही हैं-दादा, पिता और बेटे का. बीजेपी में ऐसी भीड़ नहीं है. वहां सिर्फ  और सिर्फ मोदी है. कांग्रेस के प्रचारक चुपचाप ‘‘ऊपर नरेंदर (नरेंद्र मोदी) नीचे भूपेंदर (हुड्डा)’’ की बात कर रहे हैं.

आप अगर जानना चाहते हैं कि आखिर ‘‘बाहरी’’ मोदी की अपील स्थानीय खानदानों से ज्यादा क्यों है तो रोहतक, महम, हांसी, हिसार, भिवानी, फतेहाबाद और सिरसा के जाटलैंड को चीरते हुए दिल्ली से डबवाली तक 400 किलोमीटर का सफर तय कर लें. दीवारें आपके सवाल का जवाब दे देंगी. हरियाणा के युवा, जो उतने ही महत्वाकांक्षी हैं जितने देश में अन्य कहीं के युवा, अब पहचान के पुराने प्रतीकों को त्याग रहे हैं. उन्हें कामयाबी की लत लग चुकी है और उनकी भूख बढ़ती जा रही है. हम हरियाणवी लोगों का हमेशा इस बात के लिए मजाक उड़ाया गया है कि हमारे पास दिमाग से ज्यादा देह होती है, लेकिन यही हमारी असल ताकत भी है. इसी में गौरव भी है और स्वर्ण भी. यहां देह की अहमियत वही है जो सॉफ्टवेयर वालों के दक्षिण में दिमाग की है. हाल के वर्षों में हरियाणा ने ओलंपिक खेलों में भारत पर राज किया है, खासकर मुक्केबाजी और कुश्ती में, और अब एथलेटिक्स के उन क्षेत्रों में भी यह आगे आ रहा है जहां ज्यादा दमखम की जरूरत होती है (जैसे थ्रो और हीव). एक पदक के बदले 5 करोड़ रु. देने वाले हुड्डा अब खेलों में राज्य की कामयाबी को चुनावी मुद्दा बना रहे हैं. इसके अलावा पुरुष मॉडलों के बाजार पर भी हरियाणा के लड़कों का राज है.
हरियाणा के ढाबे तक वाइ फाई सुविधा मुहैया कराते हैंरोहतक में मैं आर्यन प्रोटीन वर्ल्ड नाम की दुकान पर रुका जो दिल्ली रोड पर मुख्य बाजार में स्थित है. इसकी आलमारियों में मांसपेशियों को गढऩे वाले सप्लीमेंट भरे हुए थे. प्रदीप सिंह उर्फ लाला इसके मालिक हैं. बिना बांह की गंजी में उनकी मांसपेशियां फड़क रही हैं. वे राष्ट्रीय स्तर के गोलाफेंक एथलीट रह चुके हैं (और सीमा पुनिया के मित्र व समकालीन भी हैं जिन्होंने हाल ही में एशियाड में स्वर्ण जीता है). वे बॉक्सिंग अकादमी चलाते हैं (जिसे हरियाणवी में हमेशा बोक्सिंग कहते हैं) और हमेशा उनके पास 40 से 45 लड़के प्रशिक्षण के लिए होते हैं. इस कोर्स का एक शुल्क होता है. कभी बॉक्सिंग पर सेना का कब्जा होता था. हरियाणा ने आज उसे अपने नाम कर लिया है. इसका सबूत देखना चाहेंगे? लाला की अकादमी में 2, राजपूताना राइफल्स की एक टीम अपना प्रशिक्षण पूरा करने वाली है. उनके मुक्केबाजी के साथी संजू हैं जो पूर्व राष्ट्रीय चैंपियन रह चुके हैं और यहां सारी बातचीत सिर्फ मुक्केबाजी, कुश्ती और एथलीटों के बारे में ही होती है. लाला के छोटे भाई कुलदीप 48 किलो वर्ग में राज्य में स्वर्ण पदक विजेता हैं और उनके सबसे अच्छे दोस्त मनदीप जांगड़ा पूर्व राष्ट्रीय वेल्टरवेट चौंपियन रह चुके हैं (भाई साहब एफबी पर उनका प्रोफाइल पेज देखें). यह गौरव की तलाश में उभर रहा नया हरियाणा है-देश की आबादी के दो फीसदी लोगों ने 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में भारत के 38 में से 22 स्वर्ण जीते थे और लंदन ओलंपिक में जीते 6 में 4 मेडल भी हरियाणा के नाम रहे थे. याद रहे, साइना नेहवाल भी हरियाणवी जाट ही हैं!

लाला अपने प्रोटीन सप्लीमेंट की मांग के बारे में विस्तार से बताते हैं (भले ही उनके बिजनेस कार्ड पर छपा है ‘‘प्रोटीन्स’’). वे कहते हैं, ‘‘सरजी, हरियाणा में सारे लड़के ‘‘टड (स्टड) बनना चाहते हैं. जो जमीन पहले दस मन पैदा करती थी अब 50 पैदा करती है. आप सोच सकते हैं कि कितना रसायन इस्तेमाल होता है. अब ऐसा अनाज आपमें मांसपेशियां कैसे पैदा कर पाएगा? हम भैंसें पालते हैं लेकिन दूध पर्याप्त नहीं होता. आपको सप्लीमेंट चाहिए, लेकिन मैं जो कुछ भी बेचता हूं वह डोप-परीक्षित है, इसमें कोई स्टेरॉयड नहीं है.’’ संयोग से उनके बगल वाली दुकान पशुओं का आहार और सामान बेचती है और वहां पशु सेवा निःशुल्क की जाती है.

हरियाणवी लोगों ने अपनी देह के रूप में नए खजाने की ईजाद कर डाली है. हिसार के रास्ते में पडऩे वाले खाप पंचायतों के गढ़ महम में मांसपेशियां बनाने वाली सामग्री बेचने वाली दुकान का नाम है ‘‘आरडीएक्स’’. मैंने लाला से पूछा कि अगर कोई लड़का अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता नहीं बन पाता तो क्या होता है. उसने कहा, ‘‘उसके साथ बुरी होती है, सरजी. या तो वह बाउंसर बन जाता है या फिर घर पर उसे लात पड़ती है.’’ लाला के मुताबिक एक बाउंसर की नौकरी हालांकि उतनी बुरी नहीं है, अगर उसे कोई नेता या रईस बनिया अपने यहां रख ले. अगर आपके पास हथियार का लाइसेंस है तो वहां खड़े-खड़े आप लाखों कमा सकते हैं. यानी देहयष्टि बनाने से दूसरे रास्ते भी खुल जाते हैं. शहरों और बड़े गांवों में महू डिफेंस अकादमी जैसे कुछ संस्थान भी खुल गए हैं जो सेना में अफसर बनने का प्रशिक्षण देते हैं. इसके अलावा डांस और डीजे अकेडमी जैसे शिक्षा के उच्च हरियाणवी केंद्र भी यहां खुल चुके हैं. ऐसा ही एक सेंटर पिछड़े जिले सिरसा में है जिसका बोर्ड कहता हैं, ‘‘वान्ना बी अ डीजे... गेट इन’’, और इस अकादमी में जो सेवाएं दी जाती हैं उनमें एक ‘‘साइकेडेलिक ट्रांस पार्टी’’ (मनोविकार पैदा करने वाली पार्टियां) भी है. फिर इसमें क्या आश्वर्य कि गोपाल कांडा सिरसा की ही पैदाइश हैं!

जाहिर है, जिस राज्य ने हमेशा दूध और दही से संपन्न होने में गौरव का अनुभव किया है, वहां मुक्केबाजी, कुश्ती और फौज के प्रति प्रेम अपेक्षित चीजें होंगी. इसी वजह से यहां की सियासत भी कुश्ती के खेल की तरह ही विकसित हुई है. जब यह राज्य 1966 में बना और मेरे पिता का हमेशा की तरह यहां दंड के बतौर स्थानांतरण हुआ, तब हमारी छठवीं की पाठ्य-पुस्तकों के पीछे राज्य का एक गीत छपा होता था. मुझे शब्दशः तो याद नहीं लेकिन वह कुछ ऐसे था, ‘‘म्हारा देस हरियाणा, जहां दूध-दही का खाना.’’ जल्द ही सूबे की राजनीति में दल-बदल, खरीद-फरोख्त और विधायकों को अगवा किए जाने का खेल शुरू हो गया और इस खेल में एक चैंपियन का उभार हुआ. उनका नाम था गया लाल. पता नहीं उनके माता-पिता को यह नाम रखते हुए कैसे पता था कि वे भारत के सबसे कुख्यात दलबदलू के रूप में अमर हो जाएंगे और उनके नाम से कहावत ही चल निकलेगी, ‘‘आया राम, गया राम’’. यहां के लोगों ने ऐसी सियासत पर राज्य के गीत को अपने हिसाब से बदल डाला जो बाद में कुछ यूं बना, ‘‘म्हारा देस हरियाणा, जहां दूध-दही का खाना, आटा मिले ना दाना, म्हारा काम आना जाना.’’

हरियाणा इस किस्म की खुरदरी और अस्थिर सियासत का गढ़ कैसे बना, इसका विश्लेषण करने के लिए योगेंद्र यादव जैसा काबिल शख्स चाहिए. संभवतः ऐसा इसलिए हुआ होगा कि पंजाब से उलट इसने राज्य के अधिकार के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी. इसीलिए यहां राज्यस्तरीय अपील के लोकप्रिय नेता भी नहीं हुए. यहां कई जातियां और स्थानीय नेता रहे. इसीलिए वैचारिक और राजनैतिक वफादारी का कोई खास अर्थ नहीं था जबकि संख्या के मामले में किसी भी जाति का वैसे वर्चस्व नहीं था लेकिन सिर्फ 20 फीसदी से कुछ ऊपर रहते हुए जाट सबसे ताकतवर बिरादरी बन गई. जाटों के भीतर भी हालांकि कई प्रतिद्वंद्वी नेता थे जिन्होंने अपने-अपने कुनबे बना लिए. कुनबापरस्त सियासत का सबसे बेहतरीन उदाहरण ताऊ देवीलाल के रूप में देखने को मिला, जिन्हें एक बार किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब किसी रिपोर्टर ने अपने बेटे (चौटाला) को आगे बढ़ाने के बारे में सवाल किया तो उनका जवाब था, ‘‘तो मैं किसके बेटे को आगे बढ़ाऊं, तुम्हारे?’’
अगर किसी दुकान के साइनबोर्ड पर अगर भैंस की तस्वीर हो तो समझिए आप हरियाणा में हैं
प्रतिद्वंद्वी जाट कुनबे जहां सियासत और ताकत के लिए लड़ते रहे, वहीं दूसरे समुदायों ने खुद को शहरों तक महदूद कर लिया और रईस होते गए. मसलन, विनोद शर्मा और उनके पिता के.एन. शर्मा के रूप में एक नए ब्राह्मण परिवार का उदय हुआ जो शराब, रियल एस्टेट और होटल कारोबार का बादशाह बनकर उभरा. इसी तरह सिरसा में एक असामान्य किस्म के स्थानीय नेता का उभार हुआ जिसका जन्म तो आरएसएस कार्यकर्ता के घर में हुआ था लेकिन जिसने बाद में गुडग़ांव के रियल एस्टेट कारोबार में अपनी किस्मत चमका ली. मोदी की यह टिप्पणी कि हरियाणा कौन बनेगा करोड़पति के खेल में फंसा हुआ है, उसका यह शख्स जीता-जागता उदाहरण है. इसका नाम गोपाल गोयल कांडा है, जिसे खुद को ‘‘बनिये का छोकरा’’ कहने में गर्व महसूस होता है और जो अपनी शुरुआत के तौर पर बार-बार ‘‘ग्लोरियस शूज’’ नाम की दुकान का जिक्र करता है. निर्दलीय विधायक के तौर पर चुने जाने के बाद इसने हुड्डा की सरकार को 2010 में गिरने से बचाया और मंत्री बना. उसके बाद उसके एयर होस्टेस की खुदकुशी वाली कहानी का इतिहास सबको पता है. आज वह जमानत पर है और शहर के निर्धनतम इलाकों में भारी भीड़ जुटा रहा है. उसने हजारों लोगों पर अपना पैसा लुटाया है लेकिन आप अगर उसे रॉबिनहुड कह देंगे तो उसके समर्थक नाराज हो जाएंगे. आखिरकार, उसने भी तो हरियाणा की राजनीति के तमाम दूसरे चेहरों की तरह जमीन बेच और खरीदकर ही पैसा बनाया है, कोई अफीम की तस्करी थोड़े की है! अपनी सभाओं में जुटने वाली भीड़ को कांडा इस तरह उपहार बांटते हैं कि जयललिता भी शरमा जाएं. औरतें उनके पास आशीर्वाद के लिए अपने बच्चों को लेकर उनके पास आती हैं. हरियाणा में आपराधिक आरोप का होना वफादारों के बीच कोई मुद्दा नहीं है, चाहे वे चौटाला हों या कांडा.

प्रचार के बीच मेरे साथ घूमते हुए कांडा अपने अतीत के बारे में मुझे बताते हैं कि कैसे 13 साल की उम्र में उनके पिता का निधन हो गया और उन्हें पूछने आरएसएस/जनसंघ से कोई नहीं आया, बावजूद इसके कि उनके पिता सिरसा से दो बार लोकसभा के उम्मीदवार रह चुके थे. कांडा का घर 12 एकड़ में फैला एक किला है जिसकी दीवारें मध्यकालीन लाल बालूपत्थर से बनी हैं और उनके ऊपर ऊंचे परकोटे बने हैं. अपने गुरु तारा बाबा के लिए उन्होंने सौ एकड़ से ज्यादा जमीन पर एक मंदिर परिसर बनाया है जिसमें स्थापित शिव की मूर्ति दिल्ली हवाई अड्डे के पास लगी मूर्ति से भी विशाल है. वे कहते हैं, ‘‘अपनी जिंदगी के बारे में मैं आपको क्या बताऊं, सिवाय इसके कि वह एक परीकथा जैसी है.’’ उन्हें पूरा भरोसा है कि वे जीतेंगे और फिर उन्हें जेल में वापस नहीं जाना पड़ेगा.

चौटाला को ऐसा कोई भ्रम नहीं है क्योंकि वे जानते हैं कि जल्द ही तिहाड़ में उनकी वापसी होने वाली है. स्कूली शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में एक कठोर न्यायाधीश ने उन्हें इस बात का दोषी ठहराया था कि अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने 3,000 शिक्षकों की भ्रष्ट तरीके से भर्ती की थी. उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता. उनके समर्थक पूछते हैं कि क्या हर कोई अपने लोगों को नौकरी नहीं देता. हरियाणा भारत का सबसे भ्रष्ट राज्य भले न हो, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि सियासी भ्रष्टाचार के प्रति उसकी सहिष्णुता की हद तमिलनाडु को पानी पिलाती है.

सिर्फ यही नहीं, वह बेहयाई भी जिसकी प्रतिमूर्ति खुद चौटाला हैं. वे कहते हैं कि वे जेल लौट जाएंगे लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वे तिहाड़ जेल के भीतर से ही मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे और इस मामले में अम्मा से तो एक कदम आगे ही होंगे जो जेल से अपनी सरकार चला रही हैं. चौटाला कहते हैं कि त्याग उनकी रगों में भरा हुआ है. उनके पिता देवीलाल ने भगवान राम जैसा त्याग किया था जब उन्होंने 1989 में छोटे भाई विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए गद्दी छोड़ दी थी. वे पूछते हैं कि जेल से भला उन्हें डर क्यों लगने लगा? आखिर वे अपने मामा के यहां पैदा हुए थे जब देवीलाल अंग्रेजों की जेल में थे, बिल्कुल भगवान कृष्ण की तरह जो मामा कंस की जेल में जन्मे थे. इसीलिए उनका कुनबा दैवीय भी है और जेल जाना गर्व की बात है. इसे बेहयाई कहना बेहयाई का अपमान होगा. बेहतर हो कि हम विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर से इसके लिए शब्द उधार लें-यह दुस्साहस के ज्यादा करीब है!

निजी स्तर पर चौटाला उतने रूखे नहीं हैं. कई बार मेरी उनसे खुलकर बातचीत हुई है. ऐसी ही एक शाम शाकाहारी भोजन के दौरान उन्होंने मुझे बताया था कि सत्ता के लिए एक व्यक्ति भूखा क्यों होता है. उन्होंने कहा था, ‘‘आपके पास जब सत्ता होती है तो आप न सिर्फ अपने विरोधियों को बल्कि उसके लोगों को, उसके सबसे निचले चमचों को भी प्रताड़ित करते हैं.’’ फिर वे अपने आकाओं के पास जाते हैं और वहां गुहार लगाते हैं कि उन्हें बचा लिया जाए, लेकिन वहां से भी उन्हें राहत नहीं मिल पाती. उन्होंने कहा था, ‘‘फिर कितना मजा आता है उनको तड़पते देखने में.’’ उन्होंने कहा कि यही वजह है कि उनके इस धंधे में बरसों इंतजार करना भी बेहतर है, यहां तक कि सत्ता पाने के लिए जेल जाने में भी कोई दिक्कत नहीं, ताकि बाद में इसका सुख लिया जा सके. वे पूरे यकीन के साथ मानते हैं कि भूपेंद्र हुड्डा ने अपना दौर पूरा कर लिया और राज्य की उलटफेर वाली सियासत में अब उनकी बारी है.

यह बात वास्तव में ठीक हो सकती थी क्योंकि जाट वोटों के बुनियादी दावेदार वे ही हैं और उनकी पार्टी भी सक्षम और चुस्त-दुरुस्त है. लेकिन एक जाट के बदले दूसरे जाट के कुनबे वाली हरियाणा की परंपरागत सियासत में इस बार एक बाहरी ने सेंध लगा दी है. वह नरेंद्र मोदी है. हरियाणा के अपने चुनाव प्रचार में मोदी ने कहा था कि यहां के लोग हाइ-फाइ या वाइ-फाइ चाहते हैं लेकिन उनका जोर सिर्फ सफाई पर है. यह सुनकर आपको आश्चर्य तो हुआ होगा, लेकिन क्या वे सिर्फ शब्दों से खेल रहे थे?

एक बार आप हरियाणा में चारों ओर नजर दौड़ाकर देखिए. यहां के ढाबे तक निःशुल्क वाइ-फाइ की सुविधा देते हैं और ‘‘डीजे एकेडमीज’’ आदि हाइ-फाइ का एहसास कराते हैं. क्या आपको अब भी याद दिलाए जाने की जरूरत है कि हमारा हरियाणा देश का सबसे अमीर प्रांत है? अब खेलों के मामले में हमारी देहाती पसंद, खुरदरी सियासत, देसी घी, दूध और भैंसों को एक तरफ रख दें और दीवारों पर लिखी इबारतों को फिर से पढ़ें. आप तय पाएंगे कि मोदी इन्हें पढऩे में चूक नहीं कर रहे हैं.
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