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भारत-चीन: बिजनेस को मिलेगा मुकाम

यह धारणा बनने लगी है कि चीन और भारत के साथ संबंध ऐसे मुकाम पर पहुंच सकते हैं जहां रणनीतिक मतभेद आर्थिक संबंधों के आगे गौण हो जाएंगे.

अपडेटेड 22 सितंबर , 2014
वर्ष 2011 में बीजिंग में सर्दियों की एक सुबह सफारी सूट में सजे नरेंद्र मोदी (जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे) चीन की राजधानी में आलीशान लग्जरी होटल रैफल्स के लकदक बैंक्वेट हॉल से होकर दूसरे हॉल में पहुंचे, जहां चीन की बड़ी कंपनियों के लगभग 200 अधिकारी मौजूद थे.

2011 की उस सुबह जैसे ही मोदी रैफल्स के बॉलरूम में आए, उनकी टीम के सदस्यों ने मैंडरिन चीनी लिपि में छपे कार्ड वहां मौजूद लोगों में बांटे. नरेंद्र अब नालन थे—अब इसे संयोग कहिए या जान-बूझकर किया गया प्रयास—नालन 17वीं शताब्दी में क्विंग वंश के लोकप्रिय कवि थे. उस सम्मेलन में व्यावसायिक भाषण के लिए नरेंद्र मोदी ने किसी नौकरशाह नहीं बल्कि चीन की सबसे बड़ी ऊर्जा कंपनी टीबीईए के उपाध्यक्ष लेंग योन को मंच पर आमंत्रित किया.

मोदी सुनते रहे और लेंग ने गुजरात में व्यवसाय करने के अपने अनुभवों का अनूठा पिटारा खोल दिया. लेंग ने चीनी कंपनियों के सामने भारत में आ रही कठिनाइयों को बताया. उन्होंने कहा, “भारत की संस्कृति को समझना कठिन हो सकता है, लेकिन मोदी सरकार ने हमें हर समस्या से निबटने में मदद दी है.” उन्होंने गुजरात की अच्छी सड़कों और निर्बाध बिजली आपूर्ति की प्रशंसा के पुल बांध दिए. उनका कहना था कि सड़कों में गड्ढे और बिजली में कटौती भारत में काम करने की इच्छुक चीनी कंपनियों की सबसे बड़ी चिंता रहती है. लेंग ने अपने भाषण के अंत में बताया कि उनकी कंपनी का इरादा गुजरात में 2,500 करोड़ रु. (40 करोड़ डॉलर) निवेश करने का है.

बदले में मोदी ने चीनी कंपनियों को “सुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही” का वादा किया. उनका कहना था, “हम दो देश मिलकर एशिया को विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्रीय मंच बनाएंगे.” उनका यह भी कहना था कि उन्होंने चीन को उभरते हुए देखा है, विश्व में एशिया की व्यापक भूमिका को “अर्थशास्त्रियों, विश्लेषकों और वित्त विशेषज्ञों से बहुत पहले ही” समझ लिया था.

दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के कर्ताधर्ताओं के लिए दुनिया भर के राज्याध्यक्षों, गवर्नरों और नेताओं से कारोबारी मेलजोल आम बात है. 2020 तक चीन का बाहरी निवेश 10-20 खरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है, जो किसी भी दूसरे देश से ज्यादा होगा. इससे बीजिंग से निवेश की चाहत बढ़ गई है. लेकिन चीन के इस विकास के प्रति भारत की प्रतिक्रिया कुछ धीमी है. 

कई चीनी कंपनियों में यह आम धारणा है कि पिछले दशक में भारत अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में चीन की भागीदारी को लेकर असमंजस में रहा है. केंद्र सरकार के आंकड़ों के हिसाब से ही भारत में कुल प्रत्यक्ष चीनी निवेश 50 करोड़ डॉलर के आसपास है जबकि चीन म्यांमार जैसे देश में इसकी चार गुना रकम निवेश कर चुका है, हालांकि भारत को विदेशी निवेश की बेहद जरूरत है.

2000 के दशक के अंतिम वर्षों में भारत सरकार की तंद्रा टूटी और उसने राज्यों को चीन का रुख करने को कहा. लेकिन प्रतिनिधिमंडल के दौरों से कुछ हासिल नहीं हुआ, ज्यादा-से-ज्यादा बस पर्यटन स्थलों के दौरे के रूप में उन्हें जाना गया. ऐसे में नरेंद्र मोदी का 2011 का दौरा उल्लेखनीय ही नहीं, यादगार भी बन गया.

स्वदेश वापसी से पहले मोदी ने माना कि चीनी मेजबानों से मिली प्रतिक्रिया से वे हतप्रभ थे. 2011 में पश्चिमी देशों में नरेंद्र मोदी को सम्माननीय अतिथि के रूप में नहीं देखा जाता था. लेकिन चीन में ग्रेट हॉल ऑफ पीपल में वे सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन (सीपीसी) के पोलितब्यूरो के एक सदस्य के साथ बैठे. वहां आने वाले हर प्रांतीय नेता को यह सम्मान नहीं मिलता. इस संवाददाता को मोदी ने बताया कि उनके लिए सबसे हैरानी की बात यह थी कि उनका स्वागत बेहद गर्मजोशी से किया गया, हर बैठक तय अवधि से अधिक समय तक चली. खास बात यह कि तब मोदी केंद्र में सत्तारूढ़ दल से भी नहीं थे.

अब जब मोदी देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हैं तो चीन की उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2011 के मुख्यमंत्री मोदी से भिन्न नहीं होंगे. वे मोदी जो चीन के दौरे के दौरान देश भर में घूमे थे, गुआंगदोंग—यहीं से चीन के आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी—के विशेष आर्थिक जोन (एसईजेड) का दौरा किया था, साथ ही दूसरे स्थानों पर भी बड़े प्रोजेक्ट का जायजा लिया था. प्रधानमंत्री के करीबी सलाहकारों का कहना है कि उन दौरों ने मोदी पर गहरा असर छोड़ा था. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल कहते हैं, “मोदी ने चीन की उपलब्धियों की तीन शब्दों में व्याख्या की थी—स्पीड, स्केल और स्किल. अब मोदी का मानना है कि भारत को भी निश्चित रूप से इससे भरपूर लाभ उठाना चाहिए.”
भारत-चीन सीमा विवाद
मोदी असर
तो, इसका भारत के चीन से संबंधों के लिए क्या महत्व है? या फिर द्विपक्षीय संबंधों पर इसका क्या असर होगा, जो आर्थिक मामलों की बजाए रणनीतिक सरोकारों—जैसे सीमा विवाद—के बोझ तले दबकर रह गए हैं? चीन से भारत के व्यापार संबंध पिछले दशक में ही शुरू हुए हैं. 1962 के बाद न तो लोगों का, न सामान का आवागमन था. 1988 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के चीन दौरे के बाद हालात सामान्य हो पाए.

लेकिन 2003 में एक अन्य प्रधानमंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी के चीन दौरे के बाद व्यापार संबंध सरपट गति से दौड़े. वाजपेयी चीन के दौरे पर गए तो दोनों देशों के बीच व्यापार 2-3 अरब डॉलर के आसपास था लेकिन वर्ष 2011 में यह 73 अरब डॉलर तक जा पहुंचा था, और चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझीदार था. सो, बीजेपी से मोदी के संबंध की वजह से बीजिंग में यह धारणा पुष्ट हो गई है कि राष्ट्रवादी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी चीन से व्यापार संबंध रखने के खिलाफ नहीं है. जैसा चीन के एक पूर्व राजदूत कहते हैं, “चीन में यह धारणा है कि बीजेपी सरकारें मजबूत होती हैं, इसलिए उनके साथ व्यापार करना आसान है.”

चीन का माल, भारत में बिके
दोनों देशों के बीच व्यापार संबंध फलने-फूलने के दो कारक थे—चीन में कच्चे माल की भारी मांग, क्योंकि तब वह 2008 के ओलंपिक खेलों की तैयारी में जुटा था और बुनियादी संरचना के लिए कच्चे माल की उसे सख्त जरूरत थी. दूसरे, भारत की मशीनरी और बिजली उपकरणों की फौरी जरूरत. आज भारत के हर चार बिजली संयंत्रों में से एक किसी-न-किसी चीनी कंपनी का होता है, तो चीन की हुआवी और जेडटीई जैसी बड़ी टेलीकॉम कंपनियों ने भारत की संचार क्रांति में सहयोगी उपकरण उपलब्ध कराए हैं. लेकिन दोनों देशों के बीच परस्पर निवेश बहुत कम हुआ है जो आर्थिक संबंधों को लेन-देन से आगे ले जा सके.

अधिकतर व्यापार गुआंगदोंग के जरिए ही हुआ है, वही दक्षिणी समृद्ध प्रांत, जिसने 2011 के दौरे के दौरान मोदी के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी थी. चीन के साथ भारत का लौह अयस्क व्यापार जब शीर्ष पर था तो लगभग 1 करोड़ टन अस्यक हर महीने दक्षिण चीन सागर के जरिए भेजा जाता था. वहां से इसे गुआंगझेऊ के विशाल बंदरगाह में भेजा जाता, फिर सीलिंक कॉर्पोरेशन जैसी बड़ी कंपनियों में भेज दिया जाता. गुआंगझेऊ के बाहर सीलिंक की असेंबली लाइंस भारत-चीन व्यापार संबंधों की दास्तान बयान  करती हैं. भारत से आए अयस्क को यहां एस्केलेटर्स, दरवाजों के हैंडल, कैबिनेट, स्टेयरकेस, रेलिंग और दूसरे सामान का आकार दिया जाता है. सीलिंक के उत्पाद पूरे भारत में गोदरेज लेबल के तहत बेचे जाते हैं. आज बंगलुरू, हैदराबाद और चेन्नै के नए हवाई अड्डों के लिए अधिकतर सामान की आपूर्ति सीलिंक के जरिए ही होती है. भारत से संसाधन प्राप्त करने वाली गुआंगदोंग की हर फैक्ट्रियां तैयार माल—ट्रांसफार्मर से लेकर टेलीकॉम उपकरण और सेलफोन से लेकर प्लास्टिक की बाल्टी और फर्नीचर तक—भारत को निर्यात कर देती है.
भारत-चीन के व्यापार संबंधों में उफान के बाद आई गिरावट
असंतुलित समीकरण
यदि गुआंगदोंग चीन की राष्ट्रीय फैक्ट्री है तो पड़ोस का झेझियांग प्रांत चीन का बाजार है. हर साल यहां 3.6 लाख से अधिक भारतीय व्यवसायी यीवू आते हैं और भारी संख्या में सामान—बिजली उपकरण से लेकर देवी-देवताओं के चित्र तक-खरीदते हैं. यीवू में आने वाले हर चार विदेशी व्यापारियों में एक भारतीय होता है. पिछले साल, यीवू से तकरीबन 80 करोड़ डॉलर का सामान भारत भेजा गया. भारत की सस्ते सामान की भूख ने चीन में एक लघु अर्थव्यवस्था तैयार कर दी है, जो भारत की ही जरूरतें पूरी करती है.

भारतीय बाजार की बदौलत ही चीन में झाओ क्विंगफेंग जैसे उद्यमियों का उदय हुआ है जिन्होंने अपनी फैक्ट्रियों में भारतीय देवी-देवताओं के चित्र तैयार कर उनके निर्यात से ही तगड़ा व्यवसाय खड़ा कर लिया है. यीवू के ही उद्यमियों का मानना है कि लगभग तीन दर्जन कंपनियां भारतीय देवी-देवताओं के चित्र तैयार करती हैं, उनमें से आधी चीन के ई-बे, ताओबाओ पर सूचीबद्ध हैं जो सीधे भारतीय व्यवसायियों को चित्र या मूर्तियां भेजती हैं. झाओ कहते हैं, “हमारा व्यवसाय भारत के बाजार पर ही टिका है.”

लेकिन यह फलता-फूलता और प्रतीकात्मक व्यापार संबंध अब घटने लगा है. वर्ष 2011 से ही जब पहली बार व्यापार 70 अरब डॉलर के पार पहुंच गया था, लगातार दो साल से गिरावट ही आती रही. पिछले साल यह 65 अरब डॉलर तक आ गिरा था. चिंता की बात यह कि व्यापार असंतुलन बढ़ता ही गया. भारत का चीन को निर्यात भी लुढ़कने लगा. वर्ष 2013-14 में होने वाले 65.8 अरब डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार में भारत का निर्यात 15 अरब डॉलर से कम ही रहा.

इस मंदी की वजह है, भारत से लौह अयस्क निर्यात में गिरावट, जो 2009 में 11 करोड़ टन से घटकर 2013 में सिर्फ 1.2 करोड़ टन रह गई. इसकी फौरी वजह थी, गोवा और कर्नाटक में खनन पर प्रतिबंध. लेकिन यह गिरावट ढांचागत भी है; एक दशक तक इन्फ्रास्ट्रक्चर पर भारी खर्च करने के बाद क्षमता से अधिक उत्पादन की वजह से चीन का स्टील उद्योग अब गिरावट पर है. जैसा यीवू के व्यवसायी शिकायत करते हैं कि फैक्ट्री मॉडल भी तेजी से खत्म हो रहा है.

गुआंगदोंग से गुजरात
मोदी के सलाहकार बताते हैं कि उनकी योजना दोनों देशों के बीच असंतुलित और लडख़ड़ाते व्यापार मॉडल में सुधार और आमूल परिवर्तन करने की है. वे चीन से माल खरीदने की भारत की निर्भरता को खत्म करना चाहते हैं और चाहते हैं कि चीन की कंपनियां भारत में निवेश कर यहीं उत्पादन करें. इस तरह भारत-चीन संबंधों का बुनियादी स्वरूप बदल जाएगा. यह संबंध सिर्फ लेन-देन का ही नहीं रहेगा बल्कि चीन की कंपनियां भारत के डेडिकेटेड इंडस्ट्रियल पार्कों में उत्पादन करेंगी. ऐसे पहले पार्क का खुलासा राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 16-17 सितंबर को नई दिल्ली और गुजरात यात्रा के दौरान हो सकता है.

संक्षेप में, मोदी चीन के गुआंगदोंग मॉडल को गुजरात और देश में दूसरी जगहों पर आजमाना चाहते हैं. बीजिंग में तो यही राय है कि दोनों देशों के संबंध जल्द ही ऐसे बिंदु पर पहुंच सकते हैं जहां आर्थिक संबंध रणनीतिक मतभेदों पर भारी पड़ेंगे और भारत का पश्चिमी सीमा विवाद भले ही सुलझ न पाए लेकिन संबंध तनावपूर्ण नहीं रहेंगे.

चीनी अधिकारियों और उद्योग जगत के कर्ताधर्ताओं का मानना है कि पहले रणनीतिक सरोकारों ने आर्थिक संबंधों की संभावना को सीमित किया हुआ था. भारत कुछ क्षेत्रों—जैसे टेलीकॉम में रणनीतिक वजहों से चीन को प्रवेश नहीं करने दे सकता तो चीन के सामने भी बाधाएं हैं—चीनी व्यवसायी वीजा मिलने में कठिनाइयों की शिकायत हमेशा करते रहते हैं. भारतीय आइटी कंपनियों को चीन के सरकारी उद्यम वाले उपक्रमों से ठेका लेने के लिए हमेशा संघर्ष करना पड़ा है. 2011 में मोदी के साथ एक बैठक में भाग लेने वाले एक चीनी अधिकारी का कहना है, “हम उम्मीद करते हैं कि मोदी के गुजरात की तरह शेष भारत भी निवेशकों के लिए अनुकूल साबित होगा. आम धारणा यह है कि पिछले एक दशक में भारत निवेश के इच्छुक देशों के लिए ‘दिक्कतों से भरा देश’ रहा है. इसकी पुष्टि एक उदाहरण से हो जाती है. चीन के अरबपति कंस्ट्रक्शन व्यवसायी लियांग वेनजेन ने एक बार भारतीय अधिकारियों से शिकायत की थी कि उनकी निर्माण कंपनी, सानी ने पुणे में एक निर्माण कार्य में करोड़ों डॉलर निवेश किया है लेकिन उन्हें सुरक्षा कारणों से अपने निजी जेट से पुणे आने की इजाजत नहीं दी गई.

बीजिंग निवासी तांग लू चीन की न्यूज एजेंसी शिनहुआ में संपादक हैं. वे कहती हैं कि चीन में मोदी को ‘निवेश समर्थक’ और ‘आर्थिक सुधार लाने वाला’ नेता समझ जाता है. यही नहीं, मोदी को ताकतवर नेता भी माना जाता है जो सीमा विवाद और तिब्बत जैसे मसलों पर यूपीए सरकार की तुलना में मजबूत कदम उठा सकते हैं. “लेकिन आर्थिक मसलों पर उन्हें अधिक व्यावहारिक नेता समझ जाता है.”
लेकिन सबसे बड़ा, संभवतः सबसे जटिल कारक जो मोदी की चीन परियोजनाओं की सफलता तय कर सकता है, वह है दोनों देशों में एक जैसे मजबूत नेताओं का अप्रत्याशित और समांतर उदय.

मोदी की तरह ही शी जिनपिंग को भी चीन में ताकतवर नेता के रूप में देखा जाता है, जो आर्थिक मामलों में यथार्थवादी दृष्टिकोण रखते हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते. शी जिनपिंग सुधारवादी नेता शी झेंगझुन के पुत्र हैं, जिन्होंने गुआंगदोंग और एसईजेड की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. बीजिंग के इतिहासकार जिनांग लिफान की राय है कि 1970 के दशक में देंग जियाओ पिंग के बाद झेंगझुन सबसे ताकवर नेता के रूप में उभरे. वे दिन लद गए जब एक बड़ा कूटनीतिक फैसला लेने के लिए नौ सदस्यीय पोलितब्यूरो स्टैंडिंग कमेटी की आम सहमति लेनी पड़ती थी, इसके अलावा पीपल्स लिबरेशन आर्मी की भी स्वीकृति जरूरी हुआ करती थी. झांग कहते हैं, “पूर्व नेता हू जिंताओ के विपरीत शी के पास सेना समेत अधिक सत्ता है.” वे नेशनल सिक्योरिटी कमिशन के भी अध्यक्ष हैं और उनके पास फैसला लेने का पूर्ण अधिकार है, जिसे पहले की स्थिति में दूसरे शीर्ष के नेताओं के साथ साझा करना पड़ता था.

ये दो ताकतवर नेता एक-दूसरे से कैसे जुड़ेंगे यह अनिश्चित है. डोभाल का कहना है कि दोनों नेता जब जुलाई में ब्राजील में मिले तो ‘अंतरंग’ नजर आए थे. शी ने तो कहा था कि दोनों की राजनैतिक यात्रा में एक समानता दिखती है. डोभाल कहते हैं, “मुझे लगता है कि दोनों महसूस करते हैं कि वे साथ काम कर सकते हैं.”
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