मशहूर लेखक चेतन भगत का कहना है, ‘‘मेरी टक्कर कैंडी क्रश या व्हॉटसऐप जैसे ऐप्स से है. मैं किसी और लेखक को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं मानता. मैं लोगों के दिलोदिमाग में घर करना चाहता हूं. मैं उन्हें यूट्यूब, फिल्मों और ऐप्स से हटाकर किताबों में उनकी दिलचस्पी जगाना चाहता हूं.’’
भारत में उभरते लोकप्रिय उपन्यास बाजार में जाने-माने प्रकाशक वेस्टलैंड के सीईओ गौतम पद्मनाभन अपने अंदाज में भगत की तारीफ करते हैः जैसे जॉन लेनन ने कहा था कि एल्विस से पहले कोई नहीं था उसी तरह चेतन से पहले कोई नहीं था. सिवाए उस बॉस के जिसने साल 2000 के आसपास नौजवान भगत को अपने हांगकांग वाले बैंक में प्रमोशन नहीं दिया और उसके बाद जो कुछ हुआ, उसने भारत में पब्लिशिंग की तस्वीर हमेशा के लिए बदल दी.
क्या कोई भगत की याददाश्त के उस विलेन को बुलाकर उसका श्रेय उसे देगा? क्या उसे माफ किया जाएगा? या सजा दी जाएगी, अगर कोई जिद में देना चाहे तो? क्योंकि अगर आइआइटी और आइआइएम से पढ़कर निकला नौजवान गोल्डमैन सैक्स में काम करते हुए अपनी अनदेखी पर अपमानित महसूस नहीं करता और उस रात निराशा की वजह से नशे में डूबने की नहीं सोचता, उसकी बजाए खुद को समेटकर कागज-कलम उठाकर अपने अनुभव नहीं लिख मारता तो चेतन से पहले की दुनिया से नाता तोड़कर नया युग नहीं शुरू होता. कम से कम प्रकाशन उद्योग में तो सबका यही मानना है.
भगत उन दिनों की याद में कहते हैं, ‘‘मैं बहुत उदास था, मुझे अपने कॉलेज के दिनों की, अपने दोस्तों की शिद्दत से याद आ रही थी. मैंने कुछ पन्ने लिखे और वही किताब बन गए. अगर उस रात मैं शराब पीने चला जाता तो ऐसा न होता.’’
उनके नए उपन्यास हाफ गर्लफ्रेंड की पहले साल में 30 लाख से ज्यादा प्रतियां बिकने का लक्ष्य चर्चा में है. ऐसे में भगत की पहली किताब आने के बाद के दौर को याद करना उचित लगता है. (2004 में फाइव पॉइंट समवनः व्हॉट नॉट टू डू ऐट आइआइटी, बैंक में उस दिन निराश होने के बाद कागज पर घसीटे गए शब्दों ने ही आगे चलकर हिंदी फिल्म 3 इडियट्स का रूप लिया.)
हमें याद रखना चाहिए कि चेतन से पहले के दौर में जिस किताब की 5,000 प्रतियां बिक जाती थीं वह भारत में बेस्ट सेलर कहलाती थी. आज अगर आप भारत में 10 सबसे ज्यादा बिकने वाले उपन्यास लेखकों के नाम सोचना शुरू करें तो शायद आपको इस मापदंड में ढील देने पर मजबूर होना पड़ेगा. आज भगत के प्रकाशक रूपा इस धुन में लगे हैं कि किस तरह पहली अक्तूबर को देशभर में बिक्री के लिए हाफ गर्लफ्रेंड की लाखों प्रतियां किताबों की दुकानों तक पहुंचाई जाए.
रूपा के मैनेजिंग डायरेक्टर कपीश मेहरा का कहना है कि किताब सब जगह पहुंच सके, इसलिए सात जगह छप रही है, कार्टन का साइज और ट्रकों की क्षमता का सही हिसाब लगाया गया है और किताबें रवाना करने के समय में तालमेल रखा जा रहा है. फ्लिपकार्ट ने रिलीज से एक महीने तक हाफ गर्लफ्रेंड की ऑनलाइन बिक्री के एकाधिकार के विज्ञापन के लिए अखबार में सबसे महंगी जगह बुक कर दी है.
लाखों का फेर
सुर्खियों में आने के एक दशक बाद भी हम भगत की परिवर्तनकारी की भूमिका का सही अंदाजा नहीं लगा पाए हैं. पुस्तक समीक्षा के पन्नों पर तो कतई नहीं. असल में दुविधा यह है कि उनका लेखन इतना जटिल नहीं है कि उसे जांच-परख के स्थापित पैमानों की कसौटी पर कसा जा सके. आप उसे सीधी-सादी किस्सागोई और आसान भाषा कह सकते हैं?
पर यही उनका तरीका है, वे इसी दायरे में काम करते हैं. पहली बार किताब पढऩे और खरीदने वालों को आकर्षित करने के लिए उनके तरकश में यही तीर हैं. आप उनकी अंग्रेजी को कोसते रहिए. उनके पाठकों को साहित्यिक लेखन की आलोचकों की कसौटियों में कोई दिलचस्पी नहीं है.
इसलिए समीक्षक उनकी अनदेखी करते हैं यानी वे बढ़ती तादाद में भगत के पाठकों और उनकी किताब लेने के बाद भेजे जा रहे आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक संदेशों की अनदेखी कर रहे हैं. ये आंकड़े असल में आलोचकों या यूं कहें कि हमारा मखौल उड़ाते हैं क्योंकि हम कुलीन या संरक्षणवादी हुए बिना उनकी भाषा को पाठकों के मन के भीतर जगह बनाते नहीं देख पाते या यह मानकर चलते हैं कि जो भी बिकता है, सब उसे स्वीकार कर लेते हैं.
प्रकाशन उद्योग भी भगत को समझ् नहीं पाया है. हर प्रकाशक बेस्टसेलर चाहता है. मास सेलर्स की पहली पीढ़ी में भगत और उनके आसपास पहुंचे कुछ मुट्ठीभर लेखक अपनी सफलता का ऐलान कर चुके हैं. उनकी इतनी लंबी-चौड़ी पहुंच प्रकाशन घरों की देन नहीं है. प्रकाशक अनजाने में ही भगत के युग की वजह तलाशते हैं.
भगत उस झुंड के नेता हैं जो अपनी किताबों से ऐसा पाठक वर्ग तलाश रहा है जो पहले कभी इतना बड़ा नहीं था. यह वर्ग आबादी के एक नए हिस्से को रोशन कर रहा है. प्रकाशक उनकी परछाई के पीछे चलते हुए उन पाठकों को निशाना बना रहे हैं जो पहले बिकने वाले लेखकों ने खोजे थे और सोच रहे हैं कि अभी और किसे तलाश करना बाकी है.
बदल गए पैमाने
40 साल की उम्र में भगत आज जाना-पहचाना चेहरा हैं और कैसे-न-कैसे आप उन्हें जानते हैं, उनकी किताबों से, अखबारों में छपने वाले उनके लेखों से, टीवी पर उनके कार्यक्रमों से और उनके उपन्यासों पर बनने वाली फिल्मों से, सलमान खान की फिल्म किक के लिए लिखी गई पटकथा से, उनके विज्ञापनों से, सोशल मीडिया से (ट्विटर पर उनके करीब 30 लाख फॉलोअर्स हैं).
दूसरे शब्दों में कहें तो यह माना जा सकता है कि आपने भगत को पढ़ा है या कम से कम उनके बारे में आपकी कोई राय है या शायद दोनों हैं. फिर और क्या बताएं? विरोधी प्रकाशक कहते हैं कि साल में भगत की 10 लाख किताबें बिकती हैं. उनका व्यक्तिगत अनुमान इससे थोड़ा कम है. इस साल नई किताब आने वाली है. शायद अगले 12 महीने में बिकने वाली 30 लाख किताबों (रूपा का लक्ष्य 50 लाख का है) के अलावा पांच उपन्यासों और कॉलमों के संग्रह की उनकी बैकलिस्ट सामान्य से ज्यादा तेजी से बढऩे वाली है.
भगत को यहां तक आने में कुछ साल लगे और इसके लिए उन्होंने भारत में अग्रेजी उपन्यासों के बाजार का रूप बदला. इसके लिए न सिर्फ उन्होंने बेहद कामयाब उपन्यास का मापदंड दोबारा तय किया बल्कि बाजार भी पैदा किया. भगत से पहले यह बाजार किसी को नहीं दिखता था. यह काम उन्होंने टुकड़ों में किया. युवा पाठकों को लुभाने के लिए अपनी पहली किताब का दाम उस समय 95 रु. रखा.
यह सोचा-समझा दांव था क्योंकि सीधा-सा मतलब था कि पहले लागत निकाल लें और फिर मुनाफा कमाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में उपन्यास बिकना जरूरी था. दूसरे उन्होंने भारत में बिकाऊ उपन्यासों की परिभाषा तय कराई. हार्पर कोलिंस में प्रधान संपादक वी.के. कार्तिक का कहना है कि यह परिभाषा ऐसी है, ‘‘जिसकी पहुंच काफी दूर तक है, नए पाठकों को पकड़ता है, समझने में आसान है, प्लॉट है, दिल बहलाता है और रफ्तार है.’’
पुस्तक संपादकों की दिलचस्पी जगाना आसान काम नहीं था. भगत को आज भी याद है कि वे शुरू में कैसे ठुकराए गए. यादों से विद्रोह की भावना जागती है जिसने एक कुलीन वर्ग के इस नियंत्रण को तोड़ा कि किस तरह की कहानियां छपेंगी और किस मुहावरे में छपेंगी.
यही वह भावना है जो भगत को अपने बाद आने वाले सबसे अधिक बिकने वाले उपन्यासकारों से जोड़ती है, ‘‘अक्खड़पन ने इंडस्ट्री को बर्बाद कर रखा था. करीब 20 लोग रहे होंगे जो तय करते थे कि क्या छपेगा. और आज भी वही हर चीज को जज करते हैं और सही-गलत का फैसला करते हैं.
साहित्य का मकसद क्या है, समाज को आईना दिखाना. मुझे नहीं पता कि वे क्या चाहते हैं. वे भारत की आत्मा से कटे हुए हैं. वे अपने जैसे लोगों को अपना रहे थे. ये एक छोटा क्लब जैसा हो गया था. कभी-कभी बुकर प्राइज जैसी कामयाबी मिल जाती थी जिससे उनकी बात सही सिद्ध हो जाती थी.’’

निकल पड़ी
भगत ने बताया कि फाइव पॉइंट समवन हांगकांग वाले दफ्तर में इधर-उधर से समय मिलने पर लिखा गयाः ‘‘उसे लिखने में मुझे 3-4 साल लग गए. कोई पैमाना तो था नहीं. उस युग में कोई पैमाना मौजूद नहीं था.’’ 2004 में छपने के बाद तीन साल के भीतर कैंपस के इस उपन्यास की 10 लाख प्रतियां बिक चुकी थीं. उन्होंने बताया कि इसे समझें, ‘‘यह अंग्रेजी का पहला उपन्यास था जिसकी भारत में 10 लाख प्रतियां बिकी थीं. आप इसे मास मार्केट कहते हैं.
लेकिन अंग्रेजी और मास मार्केट तब तक एक साथ नहीं चलते थे. शायद आज चलते हैं.’’ इसका मतलब क्या घुसपैठिया होने का एहसास है? ‘‘नहीं.’’ पहले? ‘‘पहले था, लेकिन अब मैं बहुत सुरक्षित हूं. फिर मुझे कुछ साबित भी करना था. मेरे बारे में लोगों ने बहुत राय बनाई और वह कुलीन तंत्र भी था. उन दिनों ब्लॉग बहुत लिखे जाते थे और उन्होंने मेरी किताबों की धज्जियां उड़ा दी थीं.
मेरा भी ब्लॉग था और मैं मान्यता पाने की कोशिश करता था. जब पाठकों से राय मिलने लगी तो वह खत्म हो गया. मैं ठीक महसूस करने लगा. उसमें कुछ समय लगा क्योंकि मैं पहले से आत्मसम्मान के सवालों में घिरा हुआ था. मैं सोचता था कि मैं इतना अच्छा नहीं हूं और शायद इसका असर मेरे दूसरे उपन्यास पर पड़ा क्योंकि मैं कुछ ज्यादा ही कोशिश कर रहा था.’’
दूसरा उपन्यास वन नाईटञ्चद कॉल सेंटर (2005 में फिल्म बनी हेलो) बीपीओ वाली पीढ़ी पर छा गया जो उसी समय एक नए वर्ग के रूप में उभर रही थी. लेकिन उसमें बहुत सारे प्लॉट जबरन थोपे गए थे. कुछ नौजवान एक बंद जगह में फंस गए थे, भगवान उनसे बात कर रहे थे. यह भगत का सबसे धीरे-धीरे 10 लाख तक बिकने वाला उपन्यास है. एक अखबार की सुर्खी थी ‘‘भगतजी बोरिया बिस्तर बांध लो.’’
लेकिन तीसरे उपन्यास ने फिर धूम मचा दी, 3 मिस्टेक्स ऑफ माइ लाइफ (फिल्म काइ पो चे) 2008 में गुजरात दंगों पर आधारित था. दूसरे उपन्यास की निराशा के बाद इसे लिखने के लिए भगत को किस्सागोई का अपना पहले वाला संतुलन वापस लाना पड़ा, ‘‘मैंने खुद से सवाल किया कि मैं क्या लिखना चाहता हूं?
मैं अहमदाबाद में पढ़ा था और उन दिनों वह बहुत शांत शहर था. मैंने 1997 में पास किया और तीन-चार साल बाद जबरदस्त भूकंप आया और फिर उसी शहर में दंगे हुए जहां मुझे मेरी पत्नी मिली थी. इसका मुझ पर बहुत असर हुआ. मैंने उस पर सोचे बिना कहानी लिख दी कि लोग खरीदेंगे या नहीं तब मैंने सुधरना शुरू किया.’’
नई राह
वैसे भी वह बहुत अहम साल था. 2008 में भगत पूरी तरह लेखन में उतर आए और उन्होंने अपने पिता के साथ तनाव से भरे और टूट चुके संबंध को भुला दिया. ‘‘उस समय मैं अपनी नौकरी से चिपका हुआ था. फिर एक दिन एक फ्रेंच पत्रकार ने मुझसे कहा कि चेतन, तुम्हारे सारे उपन्यासों में पिता से झगड़ा चलता रहता है. तुम अब भी यह कर रहे हो, हालांकि तुम सफल लेखक हो चुके हो क्योंकि तुम स्थिरता चाहते हो.
फादर फीगर बनना चाहते हो. इसे जाने दो, उन्हें माफ करने के लिए कुछ लिखो. बस मैंने नौकरी छोड़ दी और सोच लिया कि एक पॉपुलर उपन्यास लिखना है क्योंकि मैंने नौकरी छोड़ दी है और अब मैं गलती नहीं कर सकता. मैं ऐसा उपन्यास लिखना चाहता था जिसमें मैं अपने पिता को माफ कर दूंगा. मैंने उपन्यास लिखा 2 स्टेट्सः द स्टोरी ऑफ माइ मैरेज (जिस पर फिल्म बनी 2 स्टेट्स). मेरे लिए यह उत्तर-दक्षिण की कहानी नहीं थी.
मेरे लिए यह तमिल-पंजाबी शादी की कहानी नहीं थी (इशारा साफ तौर पर आइआइएम की अपनी तमिल प्रेमिका से हुई शादी की तरफ था) यह बाप-बेटे की कहानी है, असल में मेरे पिता मेरी शादी में कभी नहीं आए. लेकिन इस उपन्यास में पिता जाते हैं और सब ठीक कर देते हैं. मेरे लिए यह माफ करना है. 2 स्टेट्स बहुत सफल रही.’’
उसके बाद 2011 में पांचवां उपन्यास आया जिन दिनों अण्णा-केजरीवाल की भ्रष्टाचार विरोधी बयार बह रही थी. ‘‘मैं जगह-जगह भाषण देने लगा था. शिक्षा के क्षेत्र में मैंने बहुत भ्रष्टाचार देखा, तमाम तरह के कॉलेज, मिठाई वालों के खुलते कॉलेज. मैं सोचने लगा कि हो क्या रहा है? फिर मैंने लिखा रेवोल्यूशन 2020.’’
निर्णायक मोड़?
हाफ गर्लफ्रेंड में स्पष्ट महत्वाकांक्षा को भगत की सार्वजनिक छवि से जोड़कर देखा जा सकता है. वे कहते हैं, ‘‘मेरे उपन्यास व्यापक परिभाषा में राजनैतिक हैं, दलीय राजनीति नहीं. हाफ गर्लफ्रेंड में हीरो अंग्रेजी जानता है पर अच्छी तरह बोल नहीं पाता. खुलकर बोलने वाले और खुलकर न बोलने वाले वक्ताओं में फर्क-जो हमें भारत बनाम इंडिया में दिखता है.
यह है कि वे सोचते हिंदी में हैं फिर शब्दशः अनुवाद करते हैं. इसलिए वे कहेंगे गुड नेम, शुभ नाम और इस लड़की को यह लड़का पसंद है. लेकिन खुद को इसके साथ डेट के लिए तैयार नहीं कर पाती क्योंकि वह अंग्रेजी ठीक से नहीं बोलता. दिल्ली में अधिकतर लड़कियां उस लड़के के साथ डेट नहीं करती जो अच्छी अंग्रेजी नहीं बोलता. वह भले ही गजब का लड़का हो पर.... अंग्रेजी नहीं बोलता. और वह अंग्रेजी की पूरी दुनिया से वंचित कर दिया जाता है-नौकरी, कल्चर, कला, कूलनेस.’’
जाहिर है कि हीरो उस वर्ग का प्रतिनिधि है जिसे भगत ने अपने लेखन का लक्ष्य बनाया हैः ‘‘लोगों में बहुत आक्रोश है. वे मेरे उपन्यास पढ़ते हैं और कहते हैं हमने भी अंग्रेजी बुक पढ़ी है यार. तो मैंने सोचा कि क्यों न उनकी बात कही जाए. यह उपन्यास लिखना बहुत मुश्किल था क्योंकि नायक अच्छी अंग्रेजी नहीं बोलता और उपन्यास अंग्रेजी में है.
वह सेंट स्टीफंस में पढ़ता है और उसके जैसे लड़के को स्टीफंस में दाखिला इसलिए मिल सका कि वह बास्केट बॉल अच्छा खेलता है. वहां जाकर उसने देखा कि वहां तो घास भी इंग्लिश में उगती है. वहीं उसे ये लड़की मिली. किसी ने इस तरह की कहानी नहीं लिखी, क्यों? अब तक इस बारे में भला क्यों नहीं लिखा गया?’’
सीमाओं को तोड़ा
तो वह किस बाधा को तोडऩे की कोशिश कर रहा था? ‘‘क्लास, यह क्लास का उपन्यास है. 2 स्टेट्स कम्युनिटी का था, थ्री मिस्टेक्स धर्म का था. मेरी किस्मत अच्छी है कि अब यूपीएससी का मामला उछला है. यह बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है और यह हिंदी बनाम अंग्रेजी जैसा नहीं है.’’ कोई और बाधा? जेंडर?
‘‘यह कहना मुश्किल है क्योंकि मुझे नारी के नजरिए से इसे लिखना होगा या नारी का नजरिया रखना होगा. अभी मुझे उसके लिए सही भाषा चुननी है. मैं अच्छा महिलावादी उपन्यास लिखना चाहता हूं लेकिन उसे पहले खुद समझना होगा. मुझे उसे सीखना होगा और मैं उसे सीख लूंगा. मैं इसे अपने ढंग से करूंगा. मेरे मूल पाठक अब तक नारी को एक खास नजरिए से देखते रहे हैं. मुझे उन्हें यहां लाना होगा.’’
कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन के सवाल में उनका जिक्र है. ‘‘फिल्म 2 स्टेट्स में पंजाबी लड़का-लड़की से प्यार करता है. ‘‘वे कहते हैं कि यह 10,000 रु. का सवाल था. मतलब यह आसान सवाल था, जिसका सही जवाब दर्शकों को आना चाहिए. उनसे अपेक्षा है कि वे भगत की रचनाओं के बारे में जानते हैं.
भगत का कहना है कि वे इस जिम्मेदारी से परिचित हैं. यह चेतन भगत का जमाना है.
भारत में उभरते लोकप्रिय उपन्यास बाजार में जाने-माने प्रकाशक वेस्टलैंड के सीईओ गौतम पद्मनाभन अपने अंदाज में भगत की तारीफ करते हैः जैसे जॉन लेनन ने कहा था कि एल्विस से पहले कोई नहीं था उसी तरह चेतन से पहले कोई नहीं था. सिवाए उस बॉस के जिसने साल 2000 के आसपास नौजवान भगत को अपने हांगकांग वाले बैंक में प्रमोशन नहीं दिया और उसके बाद जो कुछ हुआ, उसने भारत में पब्लिशिंग की तस्वीर हमेशा के लिए बदल दी.
क्या कोई भगत की याददाश्त के उस विलेन को बुलाकर उसका श्रेय उसे देगा? क्या उसे माफ किया जाएगा? या सजा दी जाएगी, अगर कोई जिद में देना चाहे तो? क्योंकि अगर आइआइटी और आइआइएम से पढ़कर निकला नौजवान गोल्डमैन सैक्स में काम करते हुए अपनी अनदेखी पर अपमानित महसूस नहीं करता और उस रात निराशा की वजह से नशे में डूबने की नहीं सोचता, उसकी बजाए खुद को समेटकर कागज-कलम उठाकर अपने अनुभव नहीं लिख मारता तो चेतन से पहले की दुनिया से नाता तोड़कर नया युग नहीं शुरू होता. कम से कम प्रकाशन उद्योग में तो सबका यही मानना है.
भगत उन दिनों की याद में कहते हैं, ‘‘मैं बहुत उदास था, मुझे अपने कॉलेज के दिनों की, अपने दोस्तों की शिद्दत से याद आ रही थी. मैंने कुछ पन्ने लिखे और वही किताब बन गए. अगर उस रात मैं शराब पीने चला जाता तो ऐसा न होता.’’
उनके नए उपन्यास हाफ गर्लफ्रेंड की पहले साल में 30 लाख से ज्यादा प्रतियां बिकने का लक्ष्य चर्चा में है. ऐसे में भगत की पहली किताब आने के बाद के दौर को याद करना उचित लगता है. (2004 में फाइव पॉइंट समवनः व्हॉट नॉट टू डू ऐट आइआइटी, बैंक में उस दिन निराश होने के बाद कागज पर घसीटे गए शब्दों ने ही आगे चलकर हिंदी फिल्म 3 इडियट्स का रूप लिया.)
हमें याद रखना चाहिए कि चेतन से पहले के दौर में जिस किताब की 5,000 प्रतियां बिक जाती थीं वह भारत में बेस्ट सेलर कहलाती थी. आज अगर आप भारत में 10 सबसे ज्यादा बिकने वाले उपन्यास लेखकों के नाम सोचना शुरू करें तो शायद आपको इस मापदंड में ढील देने पर मजबूर होना पड़ेगा. आज भगत के प्रकाशक रूपा इस धुन में लगे हैं कि किस तरह पहली अक्तूबर को देशभर में बिक्री के लिए हाफ गर्लफ्रेंड की लाखों प्रतियां किताबों की दुकानों तक पहुंचाई जाए.
रूपा के मैनेजिंग डायरेक्टर कपीश मेहरा का कहना है कि किताब सब जगह पहुंच सके, इसलिए सात जगह छप रही है, कार्टन का साइज और ट्रकों की क्षमता का सही हिसाब लगाया गया है और किताबें रवाना करने के समय में तालमेल रखा जा रहा है. फ्लिपकार्ट ने रिलीज से एक महीने तक हाफ गर्लफ्रेंड की ऑनलाइन बिक्री के एकाधिकार के विज्ञापन के लिए अखबार में सबसे महंगी जगह बुक कर दी है.
लाखों का फेर
सुर्खियों में आने के एक दशक बाद भी हम भगत की परिवर्तनकारी की भूमिका का सही अंदाजा नहीं लगा पाए हैं. पुस्तक समीक्षा के पन्नों पर तो कतई नहीं. असल में दुविधा यह है कि उनका लेखन इतना जटिल नहीं है कि उसे जांच-परख के स्थापित पैमानों की कसौटी पर कसा जा सके. आप उसे सीधी-सादी किस्सागोई और आसान भाषा कह सकते हैं?
पर यही उनका तरीका है, वे इसी दायरे में काम करते हैं. पहली बार किताब पढऩे और खरीदने वालों को आकर्षित करने के लिए उनके तरकश में यही तीर हैं. आप उनकी अंग्रेजी को कोसते रहिए. उनके पाठकों को साहित्यिक लेखन की आलोचकों की कसौटियों में कोई दिलचस्पी नहीं है.
इसलिए समीक्षक उनकी अनदेखी करते हैं यानी वे बढ़ती तादाद में भगत के पाठकों और उनकी किताब लेने के बाद भेजे जा रहे आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक संदेशों की अनदेखी कर रहे हैं. ये आंकड़े असल में आलोचकों या यूं कहें कि हमारा मखौल उड़ाते हैं क्योंकि हम कुलीन या संरक्षणवादी हुए बिना उनकी भाषा को पाठकों के मन के भीतर जगह बनाते नहीं देख पाते या यह मानकर चलते हैं कि जो भी बिकता है, सब उसे स्वीकार कर लेते हैं.
प्रकाशन उद्योग भी भगत को समझ् नहीं पाया है. हर प्रकाशक बेस्टसेलर चाहता है. मास सेलर्स की पहली पीढ़ी में भगत और उनके आसपास पहुंचे कुछ मुट्ठीभर लेखक अपनी सफलता का ऐलान कर चुके हैं. उनकी इतनी लंबी-चौड़ी पहुंच प्रकाशन घरों की देन नहीं है. प्रकाशक अनजाने में ही भगत के युग की वजह तलाशते हैं.
भगत उस झुंड के नेता हैं जो अपनी किताबों से ऐसा पाठक वर्ग तलाश रहा है जो पहले कभी इतना बड़ा नहीं था. यह वर्ग आबादी के एक नए हिस्से को रोशन कर रहा है. प्रकाशक उनकी परछाई के पीछे चलते हुए उन पाठकों को निशाना बना रहे हैं जो पहले बिकने वाले लेखकों ने खोजे थे और सोच रहे हैं कि अभी और किसे तलाश करना बाकी है.
बदल गए पैमाने
40 साल की उम्र में भगत आज जाना-पहचाना चेहरा हैं और कैसे-न-कैसे आप उन्हें जानते हैं, उनकी किताबों से, अखबारों में छपने वाले उनके लेखों से, टीवी पर उनके कार्यक्रमों से और उनके उपन्यासों पर बनने वाली फिल्मों से, सलमान खान की फिल्म किक के लिए लिखी गई पटकथा से, उनके विज्ञापनों से, सोशल मीडिया से (ट्विटर पर उनके करीब 30 लाख फॉलोअर्स हैं).
दूसरे शब्दों में कहें तो यह माना जा सकता है कि आपने भगत को पढ़ा है या कम से कम उनके बारे में आपकी कोई राय है या शायद दोनों हैं. फिर और क्या बताएं? विरोधी प्रकाशक कहते हैं कि साल में भगत की 10 लाख किताबें बिकती हैं. उनका व्यक्तिगत अनुमान इससे थोड़ा कम है. इस साल नई किताब आने वाली है. शायद अगले 12 महीने में बिकने वाली 30 लाख किताबों (रूपा का लक्ष्य 50 लाख का है) के अलावा पांच उपन्यासों और कॉलमों के संग्रह की उनकी बैकलिस्ट सामान्य से ज्यादा तेजी से बढऩे वाली है.
भगत को यहां तक आने में कुछ साल लगे और इसके लिए उन्होंने भारत में अग्रेजी उपन्यासों के बाजार का रूप बदला. इसके लिए न सिर्फ उन्होंने बेहद कामयाब उपन्यास का मापदंड दोबारा तय किया बल्कि बाजार भी पैदा किया. भगत से पहले यह बाजार किसी को नहीं दिखता था. यह काम उन्होंने टुकड़ों में किया. युवा पाठकों को लुभाने के लिए अपनी पहली किताब का दाम उस समय 95 रु. रखा.
यह सोचा-समझा दांव था क्योंकि सीधा-सा मतलब था कि पहले लागत निकाल लें और फिर मुनाफा कमाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में उपन्यास बिकना जरूरी था. दूसरे उन्होंने भारत में बिकाऊ उपन्यासों की परिभाषा तय कराई. हार्पर कोलिंस में प्रधान संपादक वी.के. कार्तिक का कहना है कि यह परिभाषा ऐसी है, ‘‘जिसकी पहुंच काफी दूर तक है, नए पाठकों को पकड़ता है, समझने में आसान है, प्लॉट है, दिल बहलाता है और रफ्तार है.’’
पुस्तक संपादकों की दिलचस्पी जगाना आसान काम नहीं था. भगत को आज भी याद है कि वे शुरू में कैसे ठुकराए गए. यादों से विद्रोह की भावना जागती है जिसने एक कुलीन वर्ग के इस नियंत्रण को तोड़ा कि किस तरह की कहानियां छपेंगी और किस मुहावरे में छपेंगी.
यही वह भावना है जो भगत को अपने बाद आने वाले सबसे अधिक बिकने वाले उपन्यासकारों से जोड़ती है, ‘‘अक्खड़पन ने इंडस्ट्री को बर्बाद कर रखा था. करीब 20 लोग रहे होंगे जो तय करते थे कि क्या छपेगा. और आज भी वही हर चीज को जज करते हैं और सही-गलत का फैसला करते हैं.
साहित्य का मकसद क्या है, समाज को आईना दिखाना. मुझे नहीं पता कि वे क्या चाहते हैं. वे भारत की आत्मा से कटे हुए हैं. वे अपने जैसे लोगों को अपना रहे थे. ये एक छोटा क्लब जैसा हो गया था. कभी-कभी बुकर प्राइज जैसी कामयाबी मिल जाती थी जिससे उनकी बात सही सिद्ध हो जाती थी.’’

निकल पड़ी
भगत ने बताया कि फाइव पॉइंट समवन हांगकांग वाले दफ्तर में इधर-उधर से समय मिलने पर लिखा गयाः ‘‘उसे लिखने में मुझे 3-4 साल लग गए. कोई पैमाना तो था नहीं. उस युग में कोई पैमाना मौजूद नहीं था.’’ 2004 में छपने के बाद तीन साल के भीतर कैंपस के इस उपन्यास की 10 लाख प्रतियां बिक चुकी थीं. उन्होंने बताया कि इसे समझें, ‘‘यह अंग्रेजी का पहला उपन्यास था जिसकी भारत में 10 लाख प्रतियां बिकी थीं. आप इसे मास मार्केट कहते हैं.
लेकिन अंग्रेजी और मास मार्केट तब तक एक साथ नहीं चलते थे. शायद आज चलते हैं.’’ इसका मतलब क्या घुसपैठिया होने का एहसास है? ‘‘नहीं.’’ पहले? ‘‘पहले था, लेकिन अब मैं बहुत सुरक्षित हूं. फिर मुझे कुछ साबित भी करना था. मेरे बारे में लोगों ने बहुत राय बनाई और वह कुलीन तंत्र भी था. उन दिनों ब्लॉग बहुत लिखे जाते थे और उन्होंने मेरी किताबों की धज्जियां उड़ा दी थीं.
मेरा भी ब्लॉग था और मैं मान्यता पाने की कोशिश करता था. जब पाठकों से राय मिलने लगी तो वह खत्म हो गया. मैं ठीक महसूस करने लगा. उसमें कुछ समय लगा क्योंकि मैं पहले से आत्मसम्मान के सवालों में घिरा हुआ था. मैं सोचता था कि मैं इतना अच्छा नहीं हूं और शायद इसका असर मेरे दूसरे उपन्यास पर पड़ा क्योंकि मैं कुछ ज्यादा ही कोशिश कर रहा था.’’
दूसरा उपन्यास वन नाईटञ्चद कॉल सेंटर (2005 में फिल्म बनी हेलो) बीपीओ वाली पीढ़ी पर छा गया जो उसी समय एक नए वर्ग के रूप में उभर रही थी. लेकिन उसमें बहुत सारे प्लॉट जबरन थोपे गए थे. कुछ नौजवान एक बंद जगह में फंस गए थे, भगवान उनसे बात कर रहे थे. यह भगत का सबसे धीरे-धीरे 10 लाख तक बिकने वाला उपन्यास है. एक अखबार की सुर्खी थी ‘‘भगतजी बोरिया बिस्तर बांध लो.’’
लेकिन तीसरे उपन्यास ने फिर धूम मचा दी, 3 मिस्टेक्स ऑफ माइ लाइफ (फिल्म काइ पो चे) 2008 में गुजरात दंगों पर आधारित था. दूसरे उपन्यास की निराशा के बाद इसे लिखने के लिए भगत को किस्सागोई का अपना पहले वाला संतुलन वापस लाना पड़ा, ‘‘मैंने खुद से सवाल किया कि मैं क्या लिखना चाहता हूं?
मैं अहमदाबाद में पढ़ा था और उन दिनों वह बहुत शांत शहर था. मैंने 1997 में पास किया और तीन-चार साल बाद जबरदस्त भूकंप आया और फिर उसी शहर में दंगे हुए जहां मुझे मेरी पत्नी मिली थी. इसका मुझ पर बहुत असर हुआ. मैंने उस पर सोचे बिना कहानी लिख दी कि लोग खरीदेंगे या नहीं तब मैंने सुधरना शुरू किया.’’
नई राह
वैसे भी वह बहुत अहम साल था. 2008 में भगत पूरी तरह लेखन में उतर आए और उन्होंने अपने पिता के साथ तनाव से भरे और टूट चुके संबंध को भुला दिया. ‘‘उस समय मैं अपनी नौकरी से चिपका हुआ था. फिर एक दिन एक फ्रेंच पत्रकार ने मुझसे कहा कि चेतन, तुम्हारे सारे उपन्यासों में पिता से झगड़ा चलता रहता है. तुम अब भी यह कर रहे हो, हालांकि तुम सफल लेखक हो चुके हो क्योंकि तुम स्थिरता चाहते हो.
फादर फीगर बनना चाहते हो. इसे जाने दो, उन्हें माफ करने के लिए कुछ लिखो. बस मैंने नौकरी छोड़ दी और सोच लिया कि एक पॉपुलर उपन्यास लिखना है क्योंकि मैंने नौकरी छोड़ दी है और अब मैं गलती नहीं कर सकता. मैं ऐसा उपन्यास लिखना चाहता था जिसमें मैं अपने पिता को माफ कर दूंगा. मैंने उपन्यास लिखा 2 स्टेट्सः द स्टोरी ऑफ माइ मैरेज (जिस पर फिल्म बनी 2 स्टेट्स). मेरे लिए यह उत्तर-दक्षिण की कहानी नहीं थी.
मेरे लिए यह तमिल-पंजाबी शादी की कहानी नहीं थी (इशारा साफ तौर पर आइआइएम की अपनी तमिल प्रेमिका से हुई शादी की तरफ था) यह बाप-बेटे की कहानी है, असल में मेरे पिता मेरी शादी में कभी नहीं आए. लेकिन इस उपन्यास में पिता जाते हैं और सब ठीक कर देते हैं. मेरे लिए यह माफ करना है. 2 स्टेट्स बहुत सफल रही.’’
उसके बाद 2011 में पांचवां उपन्यास आया जिन दिनों अण्णा-केजरीवाल की भ्रष्टाचार विरोधी बयार बह रही थी. ‘‘मैं जगह-जगह भाषण देने लगा था. शिक्षा के क्षेत्र में मैंने बहुत भ्रष्टाचार देखा, तमाम तरह के कॉलेज, मिठाई वालों के खुलते कॉलेज. मैं सोचने लगा कि हो क्या रहा है? फिर मैंने लिखा रेवोल्यूशन 2020.’’
निर्णायक मोड़?
हाफ गर्लफ्रेंड में स्पष्ट महत्वाकांक्षा को भगत की सार्वजनिक छवि से जोड़कर देखा जा सकता है. वे कहते हैं, ‘‘मेरे उपन्यास व्यापक परिभाषा में राजनैतिक हैं, दलीय राजनीति नहीं. हाफ गर्लफ्रेंड में हीरो अंग्रेजी जानता है पर अच्छी तरह बोल नहीं पाता. खुलकर बोलने वाले और खुलकर न बोलने वाले वक्ताओं में फर्क-जो हमें भारत बनाम इंडिया में दिखता है.
यह है कि वे सोचते हिंदी में हैं फिर शब्दशः अनुवाद करते हैं. इसलिए वे कहेंगे गुड नेम, शुभ नाम और इस लड़की को यह लड़का पसंद है. लेकिन खुद को इसके साथ डेट के लिए तैयार नहीं कर पाती क्योंकि वह अंग्रेजी ठीक से नहीं बोलता. दिल्ली में अधिकतर लड़कियां उस लड़के के साथ डेट नहीं करती जो अच्छी अंग्रेजी नहीं बोलता. वह भले ही गजब का लड़का हो पर.... अंग्रेजी नहीं बोलता. और वह अंग्रेजी की पूरी दुनिया से वंचित कर दिया जाता है-नौकरी, कल्चर, कला, कूलनेस.’’
जाहिर है कि हीरो उस वर्ग का प्रतिनिधि है जिसे भगत ने अपने लेखन का लक्ष्य बनाया हैः ‘‘लोगों में बहुत आक्रोश है. वे मेरे उपन्यास पढ़ते हैं और कहते हैं हमने भी अंग्रेजी बुक पढ़ी है यार. तो मैंने सोचा कि क्यों न उनकी बात कही जाए. यह उपन्यास लिखना बहुत मुश्किल था क्योंकि नायक अच्छी अंग्रेजी नहीं बोलता और उपन्यास अंग्रेजी में है.
वह सेंट स्टीफंस में पढ़ता है और उसके जैसे लड़के को स्टीफंस में दाखिला इसलिए मिल सका कि वह बास्केट बॉल अच्छा खेलता है. वहां जाकर उसने देखा कि वहां तो घास भी इंग्लिश में उगती है. वहीं उसे ये लड़की मिली. किसी ने इस तरह की कहानी नहीं लिखी, क्यों? अब तक इस बारे में भला क्यों नहीं लिखा गया?’’
सीमाओं को तोड़ा
तो वह किस बाधा को तोडऩे की कोशिश कर रहा था? ‘‘क्लास, यह क्लास का उपन्यास है. 2 स्टेट्स कम्युनिटी का था, थ्री मिस्टेक्स धर्म का था. मेरी किस्मत अच्छी है कि अब यूपीएससी का मामला उछला है. यह बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है और यह हिंदी बनाम अंग्रेजी जैसा नहीं है.’’ कोई और बाधा? जेंडर?
‘‘यह कहना मुश्किल है क्योंकि मुझे नारी के नजरिए से इसे लिखना होगा या नारी का नजरिया रखना होगा. अभी मुझे उसके लिए सही भाषा चुननी है. मैं अच्छा महिलावादी उपन्यास लिखना चाहता हूं लेकिन उसे पहले खुद समझना होगा. मुझे उसे सीखना होगा और मैं उसे सीख लूंगा. मैं इसे अपने ढंग से करूंगा. मेरे मूल पाठक अब तक नारी को एक खास नजरिए से देखते रहे हैं. मुझे उन्हें यहां लाना होगा.’’
कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन के सवाल में उनका जिक्र है. ‘‘फिल्म 2 स्टेट्स में पंजाबी लड़का-लड़की से प्यार करता है. ‘‘वे कहते हैं कि यह 10,000 रु. का सवाल था. मतलब यह आसान सवाल था, जिसका सही जवाब दर्शकों को आना चाहिए. उनसे अपेक्षा है कि वे भगत की रचनाओं के बारे में जानते हैं.
भगत का कहना है कि वे इस जिम्मेदारी से परिचित हैं. यह चेतन भगत का जमाना है.