उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में एक कस्बा है मऊरानीपुर. कभी अपने टेरीकॉट के लिए मशहूर इस कस्बे की पूर्वी सरहद पर दो तालाब हैं-वाजपेयी तालाब और मुनि तला. 2003 में नगर पालिका इसे लेकर एकाएक फिक्रमंद हो उठी. प्रदेश सरकार को एक खत लिखा गया, ‘‘चूंकि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें तालाबों को मजबूत बनाने की इच्छुक हैं और अभी इन तालाबों पर किसी तरह का अवैध कब्जा नहीं है, लिहाजा इन पर काम शुरू किया जाए.’’
पूरे एक दशक बाद 2013 की गर्मियों में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर विकास मंत्री आजम खान एक बार फिर बुंदेलखंड के तालाबों के संरक्षण को लेकर मुस्तैद हुए. 16 तालाबों के लिए 66 करोड़ रु. जारी किए गए. काम बढ़ाने को पालिका ने जब दस्तावेज खंगाले तो पता चला कि मुनि तला उसके रिकॉर्ड से ही गायब है और वाजपेयी तालाब भी अपनी भौगोलिक सरहद का आधा बचा है. सरकारों के ‘‘तालाब प्रेम’’ से तालाबों के अस्तित्व पर बन आई.
उत्तर प्रदेश के तालाब ‘‘चोर’’
यह कहानी अकेले मुनि तला की नहीं है. आजादी के बाद से बड़े बांधों के मोहपाश में जकड़ा देश अब गंगा मैया को बचाने के जुनून से गुजर रहा है. ऐसे में बांदा के आरटीआइ कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग से तालाबों के पूरे आंकड़े हासिल किए. इनसे पता चलता है कि नवंबर 2013 की खतौनी के मुताबिक, प्रदेश में 8,75,345 तालाब, झील, जलाशय और कुएं हैं. इनमें से 1,12,043 यानी कोई 15 फीसदी जल स्रोतों पर अवैध कब्जा किया जा चुका है. राजस्व विभाग का दावा है कि 2012-13 के दौरान 65,536 अवैध कब्जों को हटाया गया.
अवैध कब्जों तले दम तोड़ चुके जल स्रोतों के क्षेत्रफल पर नजर डालें तो यह 19,000 हेक्टेयर से ऊपर बैठता है. बुंदेलखंड क्षेत्र में अहम पदों पर लंबे समय तक तैनात रहे उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के पूर्व इंजीनियर के.के. जैन कहते हैं, ‘‘यह जमीन इतनी तो है ही कि अगर इसे बचा लिया जाता तो यह मझोले आकार के 10 बांधों से ज्यादा पानी उपलब्ध कराती, वह भी करीब-करीब मुफ्त. ऊपर से नहरें बनाने का खर्च बचता सो अलग.’’ बांधों के लिए जमीन अधिग्रहण और विस्थापन की समस्या तो खैर उठती ही नहीं.

(चंदेरी का गिलौआ तालाब, पहाड़ पर किले के ऊपर बना यह तालाब कभी चंदेरी की जीवन रेखा था)
तालाबों की इंजीनियरिंग
लेकिन ये अवैध कब्जे हुए कैसे? इसके बारे में राजस्व विभाग की रटी-रटाई दलीलें हैं, जो आरटीआइ में बताई गईं, ‘‘पुरानी आबादी का होना, पक्का निर्माण, पट्टों का आवंटन और विवादों का अदालत में लंबित होना.’’ लेकिन तालाबों के खत्म होने की वजहें इन सरकारी नुक्तों से कहीं आगे जाती हैं.
बुंदेलखंड के चंदेल कालीन (9वीं से 14वीं शताब्दी) तालाबों की डिजाइन और इंजीनियरिंग पर 1980 के दशक में शिद्दत से काम करने वाले इनोवेटिव इंडियन फाउंडेशन (आइआइएफ) के डायरेक्टर सुधीर जैन की सुनिए, ‘‘इस इलाके में एक भी प्राकृतिक झील नहीं है. चंदेलों ने 1,300 साल पहले बड़े-बड़े तालाब बनवाए और उन्हें आपस में खूबसूरत अंडरग्राउंड वाटर चैनल्स के जरिए जोड़ा. उस बेहद कम आबादी वाले जमाने में वे यह काम सिर्फ पीने के पानी के इंतजाम के लिए नहीं कर रहे थे, वे तो अपने शहरों को 48 डिग्री तापमान की दोपहर से बचाने के लिए एयर कूल्ड बनाना चाहते थे.’’
मऊरानीपुर से 50 किमी पूर्व में आल्हा-ऊदल के शहर महोबा में आज भी चंदेल कालीन विशाल तालाब दिख जाते हैं. इनमें सबसे प्रमुख मदन सागर तालाब के बीच में भगवान शंकर का विशाल अधबना मंदिर है. तालाब चारों तरफ से पहाडिय़ों से घिरा है. लेकिन अब बरसात का पानी पहाड़ों से सरसराता हुआ तालाब में नहीं आता. बीच में घनी बस्ती, ऊंची सड़कें और पहाड़ों का पानी बह जाने के लिए नए रास्ते हैं.
तालाब के जिस छोर पर मई के आखिरी हफ्ते में यह रिपोर्टर खड़ा था, उस जगह को नगरपालिका कूड़ा फेंकने के लिए इस्तेमाल कर रही है. चारों ओर सूअरों का मल गंधा रहा है और तालाब किनारे के कीचड़ में वे लोट लगा रहे हैं. तालाबों के उद्धार के लिए पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आमंत्रित विशेषज्ञ समिति के सदस्य रहे जैन कहते हैं, ‘‘महोबा के बाकी तालाब भी अपना वैभव खो रहे हैं.’’
तालाबों की इंजीनियरिंग और डिजाइन पर नजर डालें तो यहां तालाबों की लंबी शृंखला है जो एक शहर तक सीमित नहीं बल्कि 100 किमी. के दायरे में पानी की ढाल पर बने कस्बों में फैली है. यानी जब एक शहर के सारे तालाब भर जाएं तो पानी अगले शहर के तालाबों को भरे और इलाके के सारे तालाब भरने के बाद ही बारिश का बचा हुआ पानी किसी नदी में गिरे.

(महोबा का मदन सागर, आल्दा-ऊदल के जमाने से पहले के इस विशाल तालाब का आज यह हाल है)
खात्मे की सुनियोजित साजिश
आशीष सागर याद दिलाते हैं, ‘‘बांदा शहर की परिधि पर 12 तालाब थे. अब एक भी खोजे नहीं मिलता.’’ शहर का बाबू सिंह तालाब तो अब किसी छोटे-से पोखर जैसा दिखता है जो चारों तरफ से पक्के मकानों की बस्ती से जुड़ा है. बांदा के नवाबों की शान रहे नवाब टैंक में भैंसें लोटती दिख जाती हैं. महोबा जिले में ही बेलाताल कस्बे का चंदेल कालीन बेलासागर आज भी भोपाल के बड़े तालाब से टक्कर लेता दिखता है.
यह तालाब इतना बड़ा है कि इसके बीच में बाकायदा जल महल बने हैं और अंग्रेजों ने इससे 3 बड़ी नहरें निकालीं थीं जो आगे जाकर छोटे-छोटे 1,000 तालाबों को पानी देती थीं. लेकिन ब्रिटिश स्थापत्य की निशानी इन नहरों में पिछले साल तक कूड़ा जमा था और नहरों के फौलादी फाटक जाम हो चुके थे.
वजहः पिछले 12 साल से न तो तालाब पूरा भरा था और न कोई नहर चली. पिछले साल जब एक्सपर्ट कमेटी ने इसकी वजह परखी तो पता चला कि गोंची नदी से तालाब में पानी लाने वाले नाले पर सिंचाई विभाग ने फाटक की जगह दीवार बना दी थी. प्रशासन ने दीवार हटाई तो तालाब लबालब हो हो गया, लेकिन इस दौरान इससे जुड़े 1,000 तालाबों पर क्या गुजरी, इसका लेखा-जोखा बाकी है. आधुनिक इंजीनियरिंग ने पुरानी तकनीक के साथ बड़ा भद्दा मजाक किया.
दिल्ली में मिट गया नामो-निशां
यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी इसी तरह जारी है. इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं. इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं. 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती. 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है. 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं.
तालाबों की दुनिया में लंबे समय से काम करने वाले अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘‘शहर को पानी चाहिए, तालाब नहीं. जमीन की कीमत आसमान पर है. इसी शहर ने तो 10 तालाबों को मिटाकर एयरपोर्ट का टी-3 टर्मिनल बनाया है.’’ यह वही शहर है जहां एक घंटे की बारिश में जल प्रलय जैसा दृश्य उभर आता है और टीवी पर हाहाकार मच जाता है. मिश्र कहते हैं, ‘‘तालाब इस बाढ़ को रोकते हैं और ग्राउंड वाटर रीचार्ज करते हैं.’’ अब आप तालाब नहीं बना सकते तो कम से कम पानी रिचार्ज के नए तरीके ही अपनाओ.

(मऊरानीपुर का मुनि तालाब, झांसी जिले में यह तालाब तो है लेकिन नगर पालिका के रिकॉर्ड से गायब)
मध्य प्रदेश में अजब तमाशा
अगर दिल्ली में पानी के पुराने स्रोतों के प्रति ऐसी लापरवाही है तो उज्जैन की शिप्रा नदी में पाइपलाइन के जरिए नर्मदा का पानी लाने वाला मध्य प्रदेश भी पीछे नहीं है. भोपाल की बड़ी झील में आज भी पानी हिलोरें मार रहा है, लेकिन 50 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाबों में अधिकांश गायब हैं.
शाहपुरा झील के इतने करीब तक मकान बन गए हैं, जैसे वे कोई हाउसबोट हों. छोटे तालाब का पानी जरा-सा ऊपर उठता है तो प्रोफेसर कॉलोनी में घुस जाता है. भव्य ताजुल मस्जिद के पास सिद्दीक हसन खां झील में तो यह खोजना मुश्किल है कि यह झील है या पोखर. पर्यावरण कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, ‘‘शहर के ज्यादातर तालाब भूमाफिया की भेंट चढ़ चुके हैं.’’ पहले सरकार इन तालाबों तक आने वाले पानी के रास्ते बंद होने देती है, जिससे तालाब की बहुत-सी जमीन सूखी रह जाती है. बाद में इस पर अतिक्रमण होता जाता है.
यही हाल अशोक नगर जिले के ऐतिहासिक चंदेरी कस्बे का है. पहाड़ पर बने किले में महान संगीतकार बैजू बावरा के स्मारक और जौहर करने वाली वीरांगनाओं के स्मारक की बगल में गिलौआ तालाब है. ऐसा ही एक और तालाब इस किले पर था. पहाड़ पर ही महल में कुएं हैं जिनमें पानी की आपूर्ति इन्हीं तालाबों की रिसन से होती थी.
पहाड़ के नीचे भी लोहार तालाब और कई शृंखलाबद्ध तालाब हैं. लेकिन इस कस्बे ने वे दिन भी देखे जब पानी की किल्लत के कारण यहां लोगों ने अपनी बेटियां ब्याहना बंद कर दिया था. अब राजघाट बांध बनने के बाद कस्बे को वहां से पानी की सप्लाई हो रही है. जो चीज सहज उपलब्ध थी उसकी भरपाई अरबों रु. की लागत से बना बांध कर रहा है.
शहर दर शहर बदहाली से दो चार होते हुए गंगा बेसिन को पहले जैसा बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार कर रहे आइआइटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे की बाद याद आती है, ‘‘गंगा का मतलब गोमुख से निकली जलधारा नहीं है. इससे जुड़े सारे ग्लेशियर, सारी नदियां, बेसिन का पूरा भूजल और सारे जल स्रोत मिलकर गंगा बनाते हैं. इनमें से एक भी मरा तो गंगा मर जाएगी.’’ गंगा रक्षकों को याद रखना होगा कि कहीं कोई मुनि तला उनका इंतजार कर रहा है और कोई मदन सागर अपनी किस्मत पर रो रहा है. इनके बिना गंगा नहीं तरेगी.
पूरे एक दशक बाद 2013 की गर्मियों में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर विकास मंत्री आजम खान एक बार फिर बुंदेलखंड के तालाबों के संरक्षण को लेकर मुस्तैद हुए. 16 तालाबों के लिए 66 करोड़ रु. जारी किए गए. काम बढ़ाने को पालिका ने जब दस्तावेज खंगाले तो पता चला कि मुनि तला उसके रिकॉर्ड से ही गायब है और वाजपेयी तालाब भी अपनी भौगोलिक सरहद का आधा बचा है. सरकारों के ‘‘तालाब प्रेम’’ से तालाबों के अस्तित्व पर बन आई.
उत्तर प्रदेश के तालाब ‘‘चोर’’
यह कहानी अकेले मुनि तला की नहीं है. आजादी के बाद से बड़े बांधों के मोहपाश में जकड़ा देश अब गंगा मैया को बचाने के जुनून से गुजर रहा है. ऐसे में बांदा के आरटीआइ कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग से तालाबों के पूरे आंकड़े हासिल किए. इनसे पता चलता है कि नवंबर 2013 की खतौनी के मुताबिक, प्रदेश में 8,75,345 तालाब, झील, जलाशय और कुएं हैं. इनमें से 1,12,043 यानी कोई 15 फीसदी जल स्रोतों पर अवैध कब्जा किया जा चुका है. राजस्व विभाग का दावा है कि 2012-13 के दौरान 65,536 अवैध कब्जों को हटाया गया.
अवैध कब्जों तले दम तोड़ चुके जल स्रोतों के क्षेत्रफल पर नजर डालें तो यह 19,000 हेक्टेयर से ऊपर बैठता है. बुंदेलखंड क्षेत्र में अहम पदों पर लंबे समय तक तैनात रहे उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के पूर्व इंजीनियर के.के. जैन कहते हैं, ‘‘यह जमीन इतनी तो है ही कि अगर इसे बचा लिया जाता तो यह मझोले आकार के 10 बांधों से ज्यादा पानी उपलब्ध कराती, वह भी करीब-करीब मुफ्त. ऊपर से नहरें बनाने का खर्च बचता सो अलग.’’ बांधों के लिए जमीन अधिग्रहण और विस्थापन की समस्या तो खैर उठती ही नहीं.

(चंदेरी का गिलौआ तालाब, पहाड़ पर किले के ऊपर बना यह तालाब कभी चंदेरी की जीवन रेखा था)
तालाबों की इंजीनियरिंग
लेकिन ये अवैध कब्जे हुए कैसे? इसके बारे में राजस्व विभाग की रटी-रटाई दलीलें हैं, जो आरटीआइ में बताई गईं, ‘‘पुरानी आबादी का होना, पक्का निर्माण, पट्टों का आवंटन और विवादों का अदालत में लंबित होना.’’ लेकिन तालाबों के खत्म होने की वजहें इन सरकारी नुक्तों से कहीं आगे जाती हैं.
बुंदेलखंड के चंदेल कालीन (9वीं से 14वीं शताब्दी) तालाबों की डिजाइन और इंजीनियरिंग पर 1980 के दशक में शिद्दत से काम करने वाले इनोवेटिव इंडियन फाउंडेशन (आइआइएफ) के डायरेक्टर सुधीर जैन की सुनिए, ‘‘इस इलाके में एक भी प्राकृतिक झील नहीं है. चंदेलों ने 1,300 साल पहले बड़े-बड़े तालाब बनवाए और उन्हें आपस में खूबसूरत अंडरग्राउंड वाटर चैनल्स के जरिए जोड़ा. उस बेहद कम आबादी वाले जमाने में वे यह काम सिर्फ पीने के पानी के इंतजाम के लिए नहीं कर रहे थे, वे तो अपने शहरों को 48 डिग्री तापमान की दोपहर से बचाने के लिए एयर कूल्ड बनाना चाहते थे.’’
मऊरानीपुर से 50 किमी पूर्व में आल्हा-ऊदल के शहर महोबा में आज भी चंदेल कालीन विशाल तालाब दिख जाते हैं. इनमें सबसे प्रमुख मदन सागर तालाब के बीच में भगवान शंकर का विशाल अधबना मंदिर है. तालाब चारों तरफ से पहाडिय़ों से घिरा है. लेकिन अब बरसात का पानी पहाड़ों से सरसराता हुआ तालाब में नहीं आता. बीच में घनी बस्ती, ऊंची सड़कें और पहाड़ों का पानी बह जाने के लिए नए रास्ते हैं.
तालाब के जिस छोर पर मई के आखिरी हफ्ते में यह रिपोर्टर खड़ा था, उस जगह को नगरपालिका कूड़ा फेंकने के लिए इस्तेमाल कर रही है. चारों ओर सूअरों का मल गंधा रहा है और तालाब किनारे के कीचड़ में वे लोट लगा रहे हैं. तालाबों के उद्धार के लिए पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आमंत्रित विशेषज्ञ समिति के सदस्य रहे जैन कहते हैं, ‘‘महोबा के बाकी तालाब भी अपना वैभव खो रहे हैं.’’
तालाबों की इंजीनियरिंग और डिजाइन पर नजर डालें तो यहां तालाबों की लंबी शृंखला है जो एक शहर तक सीमित नहीं बल्कि 100 किमी. के दायरे में पानी की ढाल पर बने कस्बों में फैली है. यानी जब एक शहर के सारे तालाब भर जाएं तो पानी अगले शहर के तालाबों को भरे और इलाके के सारे तालाब भरने के बाद ही बारिश का बचा हुआ पानी किसी नदी में गिरे.

(महोबा का मदन सागर, आल्दा-ऊदल के जमाने से पहले के इस विशाल तालाब का आज यह हाल है)
खात्मे की सुनियोजित साजिश
आशीष सागर याद दिलाते हैं, ‘‘बांदा शहर की परिधि पर 12 तालाब थे. अब एक भी खोजे नहीं मिलता.’’ शहर का बाबू सिंह तालाब तो अब किसी छोटे-से पोखर जैसा दिखता है जो चारों तरफ से पक्के मकानों की बस्ती से जुड़ा है. बांदा के नवाबों की शान रहे नवाब टैंक में भैंसें लोटती दिख जाती हैं. महोबा जिले में ही बेलाताल कस्बे का चंदेल कालीन बेलासागर आज भी भोपाल के बड़े तालाब से टक्कर लेता दिखता है.
यह तालाब इतना बड़ा है कि इसके बीच में बाकायदा जल महल बने हैं और अंग्रेजों ने इससे 3 बड़ी नहरें निकालीं थीं जो आगे जाकर छोटे-छोटे 1,000 तालाबों को पानी देती थीं. लेकिन ब्रिटिश स्थापत्य की निशानी इन नहरों में पिछले साल तक कूड़ा जमा था और नहरों के फौलादी फाटक जाम हो चुके थे.
वजहः पिछले 12 साल से न तो तालाब पूरा भरा था और न कोई नहर चली. पिछले साल जब एक्सपर्ट कमेटी ने इसकी वजह परखी तो पता चला कि गोंची नदी से तालाब में पानी लाने वाले नाले पर सिंचाई विभाग ने फाटक की जगह दीवार बना दी थी. प्रशासन ने दीवार हटाई तो तालाब लबालब हो हो गया, लेकिन इस दौरान इससे जुड़े 1,000 तालाबों पर क्या गुजरी, इसका लेखा-जोखा बाकी है. आधुनिक इंजीनियरिंग ने पुरानी तकनीक के साथ बड़ा भद्दा मजाक किया.
दिल्ली में मिट गया नामो-निशां
यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी इसी तरह जारी है. इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं. इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं. 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती. 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है. 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं.
तालाबों की दुनिया में लंबे समय से काम करने वाले अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘‘शहर को पानी चाहिए, तालाब नहीं. जमीन की कीमत आसमान पर है. इसी शहर ने तो 10 तालाबों को मिटाकर एयरपोर्ट का टी-3 टर्मिनल बनाया है.’’ यह वही शहर है जहां एक घंटे की बारिश में जल प्रलय जैसा दृश्य उभर आता है और टीवी पर हाहाकार मच जाता है. मिश्र कहते हैं, ‘‘तालाब इस बाढ़ को रोकते हैं और ग्राउंड वाटर रीचार्ज करते हैं.’’ अब आप तालाब नहीं बना सकते तो कम से कम पानी रिचार्ज के नए तरीके ही अपनाओ.

(मऊरानीपुर का मुनि तालाब, झांसी जिले में यह तालाब तो है लेकिन नगर पालिका के रिकॉर्ड से गायब)
मध्य प्रदेश में अजब तमाशा
अगर दिल्ली में पानी के पुराने स्रोतों के प्रति ऐसी लापरवाही है तो उज्जैन की शिप्रा नदी में पाइपलाइन के जरिए नर्मदा का पानी लाने वाला मध्य प्रदेश भी पीछे नहीं है. भोपाल की बड़ी झील में आज भी पानी हिलोरें मार रहा है, लेकिन 50 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाबों में अधिकांश गायब हैं.
शाहपुरा झील के इतने करीब तक मकान बन गए हैं, जैसे वे कोई हाउसबोट हों. छोटे तालाब का पानी जरा-सा ऊपर उठता है तो प्रोफेसर कॉलोनी में घुस जाता है. भव्य ताजुल मस्जिद के पास सिद्दीक हसन खां झील में तो यह खोजना मुश्किल है कि यह झील है या पोखर. पर्यावरण कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, ‘‘शहर के ज्यादातर तालाब भूमाफिया की भेंट चढ़ चुके हैं.’’ पहले सरकार इन तालाबों तक आने वाले पानी के रास्ते बंद होने देती है, जिससे तालाब की बहुत-सी जमीन सूखी रह जाती है. बाद में इस पर अतिक्रमण होता जाता है.
यही हाल अशोक नगर जिले के ऐतिहासिक चंदेरी कस्बे का है. पहाड़ पर बने किले में महान संगीतकार बैजू बावरा के स्मारक और जौहर करने वाली वीरांगनाओं के स्मारक की बगल में गिलौआ तालाब है. ऐसा ही एक और तालाब इस किले पर था. पहाड़ पर ही महल में कुएं हैं जिनमें पानी की आपूर्ति इन्हीं तालाबों की रिसन से होती थी.
पहाड़ के नीचे भी लोहार तालाब और कई शृंखलाबद्ध तालाब हैं. लेकिन इस कस्बे ने वे दिन भी देखे जब पानी की किल्लत के कारण यहां लोगों ने अपनी बेटियां ब्याहना बंद कर दिया था. अब राजघाट बांध बनने के बाद कस्बे को वहां से पानी की सप्लाई हो रही है. जो चीज सहज उपलब्ध थी उसकी भरपाई अरबों रु. की लागत से बना बांध कर रहा है.
शहर दर शहर बदहाली से दो चार होते हुए गंगा बेसिन को पहले जैसा बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार कर रहे आइआइटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे की बाद याद आती है, ‘‘गंगा का मतलब गोमुख से निकली जलधारा नहीं है. इससे जुड़े सारे ग्लेशियर, सारी नदियां, बेसिन का पूरा भूजल और सारे जल स्रोत मिलकर गंगा बनाते हैं. इनमें से एक भी मरा तो गंगा मर जाएगी.’’ गंगा रक्षकों को याद रखना होगा कि कहीं कोई मुनि तला उनका इंतजार कर रहा है और कोई मदन सागर अपनी किस्मत पर रो रहा है. इनके बिना गंगा नहीं तरेगी.