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बड़े खेल के लिए लालू-नीतीश के बांके दांव

बीजेपी को पटखनी देने के लिए सियासी दुश्मनी छोड़कर लालू-नीतीश साथ आए. लेकिन उनके वोटरों का एकजुट होना क्या इतना  आसान है?

अपडेटेड 25 अगस्त , 2014
आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव और जेडी (यू) नेता नीतीश कुमार ने 11 अगस्त को पटना से 45 किमी दूर वैशाली के एक गुमनाम गांव सुबाही में जब सार्वजनिक तौर पर एक-दूसरे को गले लगाया तो यह घटना सुर्खियां बनी. लेकिन इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि धुर विरोधी रहे इन नेताओं को मई में हुई रणनीतिक साझेदारी के बाद भी एक-दूसरे से मिलने में करीब तीन माह लग गए. बिहार में 10 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव नहीं होता तो शायद इस मिलन में और समय लगता. इन सीटों पर 21 अगस्त को मतदान होना है और ये प्रदेश के करीब सभी जनसांख्यिकीय, राजनैतिक और भौगोलिक इलाकों में फैली हैं. मई में लालू के जीतन राम मांझी की सरकार को समर्थन देने के तत्काल बाद यदि दोनों नेता एक-दूसरे से नहीं मिले थे तो इसके पीछे कई वजहें हैं.

जेडी (यू) के कुछ नेताओं की बातों पर विश्वास करें तो नीतीश लालू के साथ संयुक्त प्रचार करने से हिचक रहे थे. लेकिन लालू के जोर देने की वजह से उन्हें तैयार होना पड़ा. माना जा रहा है कि नीतीश उपचुनाव को अपने गठबंधन के प्रयोग की सफलता को जमीनी स्तर पर आंकने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “नीतीश जिस तरह के विधिवत काम करने वाले आदमी हैं, उन्होंने लालू यादव के साथ मंच साझा करने का फैसला कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की प्रतिक्रिया का अंदाजा लगाने के बाद ही किया होता पर प्रत्यक्ष तौर पर तो ऐसा ही लगता है कि उन्होंने लालू के जोर देने से यह फैसला लिया.”

दोनों नेताओं का मिलन साफ तौर से लोकसभा चुनाव के बाद उनके हाशिए पर चले जाने की वजह से उनकी मजबूरी है. 16 मई को चुनाव नतीजे आने के दिन ही जेडी (यू ) अध्यक्ष शरद यादव ने लालू से फोन पर लगातार संपर्क रखा. शरद ने दोनों को समझाया कि एक-दूसरे से हाथ मिलाकर अपनी ताकत को व्यापक बुनियाद देना ही अस्तित्व बचाने का एकमात्र रास्ता है. इसके बाद ही लालू और नीतीश ने एक-दूसरे की आलोचना बंद कर दी, पर वे खुलकर एक-दूसरे की प्रशंसा भी नहीं कर पाए. पिछले वर्षों में दोनों के बीच खाई इतनी गहरी हो चुकी है जो रणनीतिक बैसाखी से दूर नहीं हो सकती. जब नीतीश ने इस्तीफा दिया और मांझी सरकार बनवाई, तब लालू ने इसे ‘बिना शर्त समर्थन’ देने में देर नहीं की. वैसे नीतीश ने इसका प्रत्युत्तर देने में करीब एक माह लगा दिया. उन्होंने 13 जून को पहली बार लालू को फोन किया और राज्यसभा उपचुनाव के लिए समर्थन मांगा. लालू ने हामी भर दी और राज्यसभा चुनावों में जेडी (यू) की जीत हुई.

आरजेडी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि दोनों रणनीतिक साझीदार तो हो सकते हैं पर दोस्त कभी नहीं. उन्होंने कहा, “लालू और नीतीश सामान’ दोस्त नहीं हैं. अभी उन्होंने जिन तनी हुई तलवारों को दफन किया है, वे दो दशकों की कड़वी प्रतिद्वंद्विता का नतीजा थीं, जिस दौरान उन्होंने एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने के लिए जो कुछ भी संभव था, वह  किया.” उनका ‘धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन’ राज्य में खुद को प्रासंगिक रखने का दुस्साहसी प्रयास है, जहां लोकसभा की 40 में से 31 सीटें बीजेपी जीत चुकी है.

नीतीश और लालू इस उम्मीद में हाथ मिलाने को तैयार हुए हैं कि उनके अपने-अपने वोट बैंक भी एकजुट हो जाएंगे. धर्मनिरपेक्ष मोर्चे का गठन आंकड़ों के लिहाज से मायने रखता है. लोकसभा चुनाव में जब एनडीए ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है, तब भी उसे केवल 39 फीसदी वोट ही मिले हैं जो कुल मिलाकर 1.31 करोड़ होते हैं. वोटों का यह हिस्सा आरजेडी-कांग्रेस (1.02 करोड़) और जेडी-यू (61 लाख) को कुल मिलाकर मिले 47 फीसदी वोटों से काफी कम है. ये सभी अलग-अलग चुनाव लड़े थे. इस तरह कागज पर तो लालू और नीतीश का एकजुट होना एक दुर्जेय गठबंधन बनाता है क्योंकि दोनों के मुख्य मतदाता अति पिछड़े वर्गों (ईबीसी), महादलित और यादव हैं. यदि इनके साथ मुसलमान भी खड़े हो जाते हैं तो वोटों का एक बड़ा हिस्सा और जुड़ जाएगा.

लेकिन राजनीति के खेल को सामान्य गणित में फिट नहीं किया जा सकता. 2009 में जब एलजेपी के प्रमुख रामविलास पासवान ने लालू से हाथ मिलाया था, तो उनके वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी नहीं हुई थी. लालू और पासवान दोनों ने संयुक्त रूप से सभाओं को संबोधित किया था, पर सभी इलाकों में आरजेडी समर्थकों के एक वर्ग ने एलजेपी प्रत्याशियों को समर्थन नहीं दिया. एलजेपी समर्थक वर्ग भी आरजेडी का समर्थन नहीं कर पाया. पासवान 2009 में हाजीपुर से लोकसभा चुनाव यादवों की वजह से हार गए थे, जो आरजेडी के प्रमुख वोट बैंक माने जाते हैं. यादवों ने गठबंधन के बावजूद पासवान का समर्थन नहीं किया था. इसी तरह 2010 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी को फिर धूल चाटनी पड़ी थी, जब लालू अपने वोटरों को एलजेपी की ओर ले जाने में नाकामयाब रहे.

आखिरकार पासवान को आरजेडी से इतर विकल्प देखना पड़ा और 2014 में उन्होंने बीजेपी से हाथ मिला लिया. आरजेडी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “आरजेडी समर्थक पासवान के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाए क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले फरवरी, 2005 विधानसभा चुनाव के दौरान लालू का खेल बिगाड़ा था. आरजेडी के समर्थक यदि इतने संवेदनशील हैं तो उन्हें नीतीश को समर्थन देने में भी इतनी ही मुश्किल होनी चाहिए. आखिरकार नीतीश ने ही अक्तूबर 2005 में 15 वर्ष के लालू-राबड़ी राज को उखाड़ फेंका था.”

लालू और नीतीश का हाथ मिलाना निश्चित रूप से बिहार के सियासी हलके को हिला देने वाला बदलाव है. लेकिन तथ्य यह भी है कि वैशाली में दोनों के ‘ऐतिहासिक पुनर्मिलन’ को देखने करीब 5,000 लोग ही जमा हुए. यह इस बात का संकेत है कि दोनों पार्टियों के समर्थकों और सदस्यों का मिलन अभी नहीं हो पाया है. दोनों के समर्थकों के बीच अविश्वास गहराई तक जड़ जमाए है. वर्षों से लालू के मतदाता और नीतीश के अति पिछड़ा वर्ग के समर्थक परस्पर विरोधी दलों के खिलाफ वोट देते रहे हैं. इसलिए अब जमीनी स्तर पर उनका मिल जाना आसान नहीं होगा.

बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं, “लालू और नीतीश 20 साल के बाद साथ आए हैं, पर यह साफ है कि बिहार की जनता उन्हें सुनने को तैयार नहीं है.” लालू और नीतीश का वैचारिक उथलापन तो एक जैसा है  लेकिन तरीका और आदत अलग. लालू सैद्धांतिक रूप से ठसकदार और मनमौजी तरीके से काम करने वाले हैं तो नीतीश चतुर, सतर्क, मुखर और गंभीर छवि वाले. दोनों एक अतुलनीय गठबंधन दे सकते हैं, पर उनका मिलन गारंटी नहीं है कि उनके समर्थक भी साथ आ जाएंगे. मांझी भी मानते ही हैं कि ये उप-चुनाव जेडी (यू)-आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन की परीक्षा के लिए उपयुक्त मैदान हैं. उन्होंने कहा, “यदि यह कारगर होता है तो इसे विधानसभा चुनावों और उससे आगे भी जारी रखा जा सकता है.”


बिहार के दोनों दिग्गज नेता दो दशक तक सियासी दुश्मन रहे और जमकर एक-दूसरे के खिलाफ तीर चलाए थे
लालू प्रसाद यादव ने कब-कब क्या कहा नीतीश के खिलाफ
मार्च, 2000:  “नीतीश कुमार के भाग्य में मुख्यमंत्री बने रहना नहीं लिखा है.”
सितंबर, 2010: “ये शासन है महाराज सुशासन का, खेल हो रहा है कुशासन का. भय, भूख, भ्रष्टाचार मिटाएंगे, ए,बी,सी,डी फर्जी बिल बनवाएंगे, आरएसएस की गोद में बैठकर सेकुलर कहलाएंगे.”
जून, 2013 : “नीतीश कुमार पूरी जिंदगी अवसरवादी और हृदयविहीन रहे हैं. उन्होंने यूज एंड थ्रो की पोलिटिक्स की है. नीतीश ने बीजेपी का फायदा उठाने के बाद उसे छोड़ दिया. मैंने उनसे छोटे भाई की तरह बर्ताव किया लेकिन उसने मुझे भी छोड़ दिया.”
फरवरी, 2014: “नीतीश ने मेरी पार्टी को तोडऩे के लिए साजिश रची.”
जुलाई, 2014: “नीतीश सीधा आदमी है.”
11 अगस्त, 2014: “हम बड़े भाई हैं तो नीतीश क्या बीजेपी की गोद में जाएगा. हमारा जोड़ अब बालू और सीमेंट का जोड़ है.”

नीतीश कुमार ने कब-कब क्या कहा लालू के खिलाफ

1994: “जो सरकार हमारे हित नजरअंदाज करती है, वह सत्ता में नहीं रह सकती.”
सितंबर, 2010 : “जय हो, रेलवे की क्षय हो. बिहार में भय हो, आतंक राज की जय हो, महाराज कायापलट जी की जय हो.”
अक्तूबर, 2010: “वोटर्स को याद रखना होगा कि जो डॉक्टर उनके 15 साल के रोग का इलाज कर रहा है उसे बीच में ही नहीं बदलना चाहिए.”
फरवरी, 2014: “मैं पार्टियां तोडऩे में शामिल नहीं होता. लेकिन आरजेडी टूटने के कगार पर है. यदि लोग हमारे पास आते हैं, हम स्वागत करेंगे.”
अप्रैल, 2014: “लालू जेल जा चुके हिस्ट्रीशीटर के घर पाटलिपुत्र के आरजेडी प्रत्याशी की जीत के लिए मदद मांगने गए. यदि अभी आप चूके तो चीजें पहले की हालत में पहुंच जाएंगी.”
अगस्त, 2014: “हम साथ आए गए हैं जब तक बीजेपी के राजनैतिक इरादों को विफल नहीं कर देंगे, चैन से नहीं बैठेंगे.”

लालू यादव-नीतीश कुमार का सियासी सफर
1977 लालू लोकसभा सांसद बने. नीतीश विधानसभा चुनाव हार गए. दोनों जेपी आंदोलन से राजनीति में आए थे.
1980 लालू लोक सभा चुनाव हार गए. नीतीश भी इसी वर्ष हरनौट सीट से विधानसभा चुनाव हारे.
1985 नीतीश लोकदल के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीते.
1989 नीतीश बाढ़ से लोकसभा चुनाव जीतकर दिल्ली चले गए. वहीं लालू भी लोकसभा चुनाव जीते.
1990 नीतीश के विपरीत लालू बिहार लौटे और राज्य के सीएम बने. वहीं लालू के चाणक्य कहे जाने वाले नीतीश भी आगे बढ़े और वी.पी. सिंह सरकार में राज्यमंत्री बने. दोनों ने 1990 के बाद बिहार से कांग्रेस को उखाडऩे के लिए मिलकर काम किया.
1994 नीतीश लालू से अलग हो गए. नीतीश फिर जॉर्ज फर्नांडीज के साथ और फिर बाद में शरद यादव के साथ जुड़े.
1996 नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया.
2000 नीतीश बीजेपी की मदद से 7 दिन के लिए राज्य के सीएम बने.
2005, 2010 नीतीश ने बीजेपी के साथ सरकार बनाई, सीएम बने.
2013 नीतीश ने जून में गठबंधन तोड़ बीजेपी को सरकार से हटाया.
2014 नीतीश ने मई में लालू से साझेदारी की, अगस्त में उनसे मिले.
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