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मौत को मात देकर इराक से लौटीं भारतीय नर्सें

इराक में आइएसआइएस आतंकियों की कैद से 46 भारतीय नर्सों के मौत को झांसा देकर भाग आने की दास्तान.

अपडेटेड 21 जुलाई , 2014
चार आतंकवादी जब एम.जे. नित्यामोल और 45 दूसरी भारतीय नर्सों को बस में ठूंस रहे थे तब उनके अस्पताल के इमर्जेंसी वार्ड से बम धमाके के बाद गहरा काला धुआं उठ रहा था. धमाके के कारण ढही दीवारों पर लगा ढेर सारा खून अभी तक सूखा भी नहीं था. चारों ओर मांस के लोथड़े और बाल बिखरे दिखाई दे रहे थे.

इस समय इराक में सद्दाम हुसैन के गृह शहर तिकरित के उस वीराने में 29 वर्षीय नित्यामोल का शरीर अपनी मौत की आशंका से बुरी तरह थरथराने लगा था. उन्हें और उनकी साथियों को इस्लामिक स्टेट इन इराक ऐंड सीरिया (आइएसआइएस) के लड़ाकों ने कुछ ही पल पहले अस्पताल से बाहर निकल आने का हुक्म सुनाया था.

इन लड़ाकों के कंधे से एसॉल्ट राइफलें लटकी हुई थीं, उन्होंने काले चश्मे पहन रखे थे और काले कपड़े से चेहरे ढंके हुए थे. नित्यामोल के देखते-देखते उनमें से एक लड़ाका अचानक मुड़ा, उसने अपनी एसॉल्ट राइफल से तिकरित टीचिंग अस्पताल की ऊपरी मंजिल की ओर निशाना लगाया और दनादन गोलियां बरसाने लगा.

इस मंजिल पर नर्सों की रिहाइश और कार्यस्थल था. हफ्तेभर से गोलियों और बम धमाकों से बचते-बचाते सभी नर्सों ने यहीं पर पनाह ली हुई थी. उस लड़ाके ने जैसे ही गोलियां चलाईं, उस मंजिल के सारे शीशे टूटने लगे और उनके टुकड़े नर्सों पर बरसने लगे. घबराई नर्सें चीखने-चिल्लाने लगीं. उनमें से कुछ अपनी तीन घायल साथियों की ओर दौड़ीं, जो शीशों के टुकड़ों की बारिश में खून से लथपथ हो चुकी थीं.

बस आगे बढ़ी. मोसुल तक की आठ घंटे की यात्रा के दौरान नर्सें रो रही थीं, एक-दूसरे से लिपटकर ढाढस बंधा रही थीं और ईश्वर से गुहार लगा रही थीं. बस काफी घुमावदार रास्तों से गुजर रही थी. शायद सड़कें सुरक्षित नहीं थीं. नर्सों को कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था कि उन्हें कहां ले जाया जा रहा है. बस की खिड़कियों पर मोटे परदे पड़े थे.

बस के अगले हिस्से में एक काला झंडा और एक बैनर लगा था जिस पर अरबी भाषा में कुछ लिखा था. शायद रास्ते में डटे अपने लड़ाके साथियों को आगाह करने के लिए कि वे उन पर गोलियां न बरसाएं. बस के पीछे एक वैन नर्सों का सामान लिए चल रही थी. तीन लड़ाके एक धूल-धूसरित पुरानी कार में सवार थे और चौथा नर्सों के साथ बस में था.

ये सभी 46 नर्सें कुछ ही महीने पहले इराक पहुंची थीं. उन्हें दिल्ली की एक एजेंसी ने नौकरी दिलाने के लिए हरेक से 1.5 लाख रु. लिए थे और हर महीने 750 डॉलर तनख्वाह दिलाने का वादा किया था. अब कोट्टयम के तलायोलापरांबू के अपने घर में उस दर्दनाक दास्तान को भुलाने की कोशिश में लगीं उनमें से एक नर्स 25 वर्षीय नीना जोसफ  बताती हैं, ''हमने नौकरी की पेशकश को इसलिए स्वीकार किया था क्योंकि इराक में हमारी जानकार कई नर्सें पहले से काम कर रही थीं. उन नर्सों ने हमें बताया था कि वहां उन्हें कोई दिक्कत नहीं है.”

33 नर्सों का पहला जत्था पिछले साल 16 अगस्त को इराक पहुंचा था. बाकी 13 नर्सें इस साल फरवरी में वहां पहुंची थीं. तिकरित के अस्पताल में पहुंचकर नर्सें अस्पताल की इमारत तक ही सीमित रह गई थीं. नित्यामोल बताती हैं, ''हमें बाहर जाने की इजाजत नहीं दी जाती थी. शहर से हमारा ताल्लुक तो दूसरी मंजिल की खिड़की से दिखने वाले आसमान से ही था, जहां सभी नर्सों को एक कमरे में छह के हिसाब से ठहराया गया था.”

उन्हें इराक की इस नई हकीकत से साबका पहली दफा 12 जून को पड़ा जब अस्पताल के आसपास गोलियों की आवाजें सुनाई देने लगीं और जलती इमारत से रात रोशन हो उठी. इसके फौरन बाद इराकी नर्सों ने उनसे फुसफुसाकर कहा कि वे शहर छोड़कर भाग रही हैं. भारतीय नर्सें यह समझ चुकी थीं कि अब वे यहां पर फंस चुकी हैं.

हालांकि एक सहारा अभी बचा था, उनके सेलफोन अब भी चालू थे और उनके पास भारतीय दूतावास के नंबर थे.

नित्यामोल बताती हैं, ''13 जून को हमने बगदाद में भारतीय राजदूत अजय कुमार को फोन किया और उनसे हमें वहां से निकाल लेने की गुहार लगाई.” 46 नर्सों में से एक को छोड़कर सभी केरल की हैं. सो, उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री उम्मन चांडी को फोन लगाया. कोट्टायम में रामपुरम की एक नर्स 25 वर्षीया सांद्रा सेबास्टियन कहती हैं, ''उन्होंने हमें ढाढस बंधाया और मदद का वादा किया. उन्होंने यह भी कहा कि तिकरित में सड़कें बंद कर दी गई हैं इसलिए ऐसे हालात में यात्रा करना सुरक्षित नहीं है.”

तिकरित के उस विशाल अस्पताल के वार्ड खाली होने लगे थे. नर्सें टेलीविजन और अपने मोबाइल पर इंटनेट के जरिए खबरें देखकर अपना वक्त बिताती थीं. हांलाकि कुछ समय बाद टेलीविजन भी बंद हो गए और इंटरनेट ठप्प पड़ गया. अब उन्हें कुछ अंदाजा नहीं था कि उनकी खिड़कियों के बाहर की दुनिया में क्या कुछ चल रहा है.

नित्यामोल कहती हैं, ''कुछ समय तक तो हम यही समझते रहे कि तिकरित में दो स्थानीय गुटों के बीच लड़ाई चल रही है. लेकिन जल्दी ही बाहर हो रहे धमाकों से हमारी खिड़कियों के शीशे थर्राने लगे. धमाके भी बार-बार होने लगे.” एक दिन केरल सरकार के आप्रवासी केरलवासी मामलों के विभाग से उन्हें फोन आया और वहां से उन्हें निकालने के लिए उनके पासपोर्ट के नंबर सहित उनसे जुड़ी अन्य जानकारी भी ली गई.

अस्पताल में कुछ ही दिन बाद खाने-पीने का सामान खत्म हो गया. अगर एक रहमदिल इराकी अधिकारी ने साहस नहीं दिखाया होता तो नर्सों को भूखा ही रहना पड़ता. उस अधिकारी ने सभी नर्सों के लिए अगले दो हफ्तों के लिए पर्याप्त भोजन का इंतजाम कर दिया था. नित्यामोल बताती हैं, ''हम उन्हें बस इराक के स्वास्थ्य विभाग के डॉ. मोहम्मद के नाम से ही जानते थे. वे अस्पताल के नजदीक ही रहते थे और जब भी हम उनके मोबाइल पर मिस कॉल देते थे, वे तुरंत ही हमारी मदद के लिए यहां आ जाते थे.”

जून के अंत में डॉ. मोहम्मद ने नर्सों से कहा कि अब वे उनकी मदद के लिए यहां मौजूद नहीं रहेंगे. उन्होंने बताया कि लड़ाके आगे बढ़ते आ रहे हैं, और कुछ ही वक्त में वे अस्पताल पर कब्जा जमा लेंगे. उस समय तक अस्पताल की रक्षा में दो इराकी फौजी तैनात थे. अब वे भी गायब हो चुके थे.

अगले दिन लड़ाके अस्पताल पहुंच गए. नित्यामोल कहती हैं, ''वे काले कपड़े पहने हुए थे, उन्होंने काला दुपट्टा और धूप का चश्मा लगाया हुआ था. हम बुरी तरह डर गए थे. वे लड़ाके अपने साथ कुछ बुरी तरह घायल साथियों को भी लेकर आए और उन्होंने हमसे उनकी मरहम-पट्टी और इलाज करने को कहा.”

30 जून की सुबह लड़ाकों ने उनसे शाम 6.45 बजे तक अस्पताल खाली कर देने को कहा. नर्सों ने फि र चांडी और अजय कुमार को फोन किया. नित्यामोल कहती हैं, ''दोनों ने हमसे कहा कि लड़ाके जो कह रहे हैं, हम वही करें क्योंकि उनकी बात न मानना प्राणघातक हो सकता है. लेकिन उस शाम लड़ाके लौटे ही नहीं.”

एक बम धमाके से 2 जुलाई को अस्पताल थर्रा उठा. इमर्जेंसी वार्ड और ब्लड बैंक धराशायी हो गया. चारों तरफ  धमाके हो रहे थे और नित्यामोल ने 100 मीटर की दूरी पर एक इमारत को आग की लपटों में घिरा देखा. वे कहती हैं, ''सड़कों पर जलती कारें और ट्रक बिखरे पड़े थे. इमर्जेंसी वार्ड से मांस के सडऩे की बदबू आ रही थी.”

उस शाम लड़ाके आए और हमसे पांच घंटे में अपना सामान बांधकर अपने साथ चलने को कहा. फिर नर्सों ने भारतीय दूतावास और चांडी को फोन लगाया. नित्यामोल कहती हैं, ''दोनों ने हमसे शांत रहने को कहा और बताया कि भारत सरकार हमें बचाने की हरसंभव कोशिश कर रही है.” लेकिन उस दिन भी कोई लड़ाके उन्हें लेने के लिए वापस नहीं लौटा.

लेकिन अगले ही दिन लड़ाके आए. सेबास्टियन कहती हैं, ''वे दिन में करीब 11.30 बजे आए और हमें 15 मिनट के अंदर अस्पताल से बाहर आने के लिए कहा. उन्होंने बताया कि वे अस्पताल को बम से उड़ाने जा रहे हैं लेकिन हमें वे अपने साथ मोसुल ले जाएंगे. हमने फौरन भारतीय दूतावास को फोन लगाया. दूतावास के अधिकारी ने कहा कि हम लड़ाकों से छोड़ देने की गुहार लगाएं लेकिन फिर भी वे नहीं मानते हैं तो हम उनके साथ चले जाएं.

उन्होंने बताया कि अगर हालात बिगड़ते हैं तो सरकार हमें बचाने के लिए कमांडो ऑपरेशन चलाने के विकल्प को भी आजमा सकती है.” इसके फौरन बाद रोती-बिलखती नर्सें अस्पताल के बाहर खड़ी बस में सवार होने के लिए जाने लगीं.

लड़ाकों ने नर्सों को दिलासा दिलाया कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. उन्होंने यह भी कहा कि उनको मोसुल ले जाया जाएगा, जहां से एरबिल हवाई अड्डे पर उन्हें आजाद कर दिया जाएगा. बस जैसे ही चलने लगी, कुछ नर्सों के मोबाइल फोन बजने लगे. नर्सों को पता नहीं था कि उनके फोन पर नई दिल्ली से किसका कॉल आ रहा है. लेकिन फोन करने वालों ने उनसे कहा कि वे खिड़की से झांककर यह देखें कि साइनबोर्ड पर कौन-सी जगह का नाम लिखा है. और जगह का नाम मैसेज कर दें.

मोसुल में उनसे दस-दस के जत्थे में बस से उतरने को कहा गया. नित्यामोल कहती हैं, ''हमने सोचा कि वे हमें मारना चाहते हैं और इसीलिए कतार में आने के लिए कह रहे हैं. हम सब बुरी तरह से डर गई थीं. आखिरकार हमें एक गलियारे से होते हुए एक हॉल में ले जाया गया जिसमें चार एसी लगे थे, जिनकी पैकिंग से लग रहा था कि ये एकदम नए हैं.

हमें तब भी डर था कि लड़ाके हमारा इस्तेमाल भारत सरकार से अच्छी-खासी रकम उगाहने के लिए करेंगे. हमारी सुरक्षा में लगे शख्स ने हमसे अपने सिर, हाथ और पैर ढक लेने के लिए कहा.” उन्होंने नर्सों को खुब्ज (रोटी), दाल और चीज दी. उसके बाद वे कुछ चटाइयां ले आए और नर्सों से आराम करने को कहा.

इस पूरी यात्रा में भारतीय दूतावास ने मोबाइल पर मैसेज के जरिए नर्सों से संपर्क बनाए रखा था. उनके प्रीपेड मोबाइल को रिचार्ज भी कराया गया था. लेकिन अब वे जिस कमरे में थीं, उसमें बिजली का कोई स्विच नहीं था. इसलिए एक-एक कर उनके फोन की बैट्रियां खत्म होने लगीं.

4 जुलाई को नर्सों से कहा गया कि वे एयरपोर्ट जाने के लिए तैयार हो जाएं. इस पर नर्सों ने भारतीय राजदूत अजय कुमार को फोन लगाया. उन्होंने नर्सों से लड़ाकों के साथ जाने को कहा. एयरपोर्ट के रास्ते में तीन बार उनकी बस रोकी गई, जिसे संभवत: दूसरे लड़ाकों ने रोका होगा. नित्यामोल बताती हैं, ''हमसे एक जगह पर उतरकर एक इमारत के भीतर जाने को कहा गया.

शुक्र है कि उस मकान में बिजली का स्विच था जिससे हमने अपने फोन चार्ज कर लिए. लेकिन वहां मोबाइल का सिग्नल नहीं मिल रहा था. हममें से दो नर्सों के पास एक दूसरी कंपनी का सिम था और हमने उनके जरिए राजदूत से बात की. उन्होंने हमसे कहा कि इमारत के बाहर एक गाड़ी खड़ी है और ड्राइवर का नाम अब्दुल शाह है. ड्राइवर से उसका नाम पूछ लेने के बाद हम उसमें बैठ जाएं. लेकिन बाहर निकलने पर हमें कोई गाड़ी नहीं दिखी, न ही वहां कोई ड्राइवर था.”

नित्यामोल बताती हैं, ''बाद में कुछ लड़ाके लौट आए और उन्होंने हमसे एक बस में सवार होने के लिए कहा. बस हमें वहां ले गई जहां भारतीय दूतावास के कुछ अधिकारी हमारा इंतजार कर रहे थे. रात पौने नौ बजे वे अधिकारी हमें एरबिल इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर लेकर आ गए.” हालांकि इससे पता चलता है कि भारतीय दूतावास कम-से-कम नर्सों की यात्रा के आखिरी दौर में तो लड़ाकों से संपर्क में था ही. लेकिन भारत सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए है. आखिरकार नर्सें 5 जुलाई की सुबह 4.10 बजे विमान पर सवार हुईं.

लेकिन इन नर्सों के लिए परेशानियां अब भी खत्म नहीं हुई हैं. इनमें से ज्यादातर लड़कियां बेहद गरीब परिवारों की हैं. अब इन युवा लड़कियों के भविष्य पर अनिश्चितता की तलवार लटकी हुई है. इनमें से ज्यादातर लड़कियों ने इराक में नौकरी पाने के लिए उधार लिया था या अपनी संपत्तियां बेच दी थीं. लेकिन अब उनके पास यह नौकरी भी नहीं रही. नित्यामोल कहती हैं, ''मैं इस उम्मीद से वहां गई थी कि अपने दैनिक मजदूर बीमार पिता की मदद कर पाऊंगी. उन्होंने इराक में मेरी नौकरी के लिए अपने घर को गिरवी रखकर 1.5 लाख रु. का जुगाड़ किया था.”

केरल में नर्सों को मामूली पैसे मिलते हैं. केरल नर्स एसोसिएशन की प्रेसिडेंट जास्मीन शाह कहती हैं, ''उन्हें 6,000 रु. महीने से भी कम मिलते हैं. कर्ज अदा करने के लिए उन्हें इराक और दूसरे खाड़ी देशों में नौकरी करनी पड़ती है.” इसीलिए नित्यामोल और 45 दूसरी नर्सें तो केरल लौट आईं लेकिन बाकी की पांच नर्सें सब कुछ दांव पर लगाकर भी इराक चली गईं.
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