scorecardresearch

सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि फतवों का कोई कानूनी आधार नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक परंपराओं को महत्व देते हुए स्पष्ट किया कि दारुल कजा-दारुल इफ्ता पर पाबंदी नहीं लगेगी, लेकिन इन्हें किसी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का अधिकार नहीं.

अपडेटेड 21 जुलाई , 2014
सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक परंपराओं को महत्व देते हुए स्पष्ट किया कि दारुल कजा-दारुल इफ्ता पर पाबंदी नहीं लगेगी, लेकिन इन्हें किसी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का अधिकार नहीं होगा.


सर्वोच्च अदालत ने अपने संतुलित फैसले में साफ कर दिया कि शरई अदालतों का कोई कानूनी आधार नहीं है. साथ ही उन्हें यह सलाह भी दे दी कि जब तक कोई उनसे नहीं कहे, तब तक वे मुसलमानों के संवैधानिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने से परहेज करें.

यह फैसला तीन वजहों से बेहद महत्वपूर्ण है: देश की किसी भी कानूनी अदालत के सामने फतवे की कोई अहमियत नहीं है. दूसरा, शरई अदालत उन मामलों में दखल न दें, जिनमें उनसे कोई मदद नहीं मांगी गई है. तीसरा, दारुल इफ्ता ऐसे फतवे न जारी करें, जिनसे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और आजादी का उल्लंघन होता है.

सुप्रीम कोर्ट को दो बातें साफ करनी थीं: एक, क्या दारुल कजा जैसी शरई अदालतें भारतीय न्याय प्रणाली जैसी समानांतर न्याय प्रणाली चलाती हैं और अपने फैसले लागू करवाती हैं? दूसरा, क्या शरई अदालतों और दारुल इफ्ता के फतवों को कोई कानूनी मान्यता हासिल है?

फैसला सुनाने वाले जस्टिस सी.के. प्रसाद और पिनाकी चंद्र घोष की पीठ ने यह भी साफ कर दिया है कि दारुल इफ्ता को ‘कुरान और हदीस की रोशनी में फतवा देने का तो अधिकार है, लेकिन इन फतवों के मुताबिक फैसला सुनाने वाली दारुल कजा जैसी शरई अदालतें अपने फैसले को जबरदस्ती लागू नहीं करवा सकतीं. पीठ ने यह भी साफ कर दिया कि शरई अदालतें भारतीय न्याय व्यवस्था की तरह कोई समानांतर न्याय प्रणाली नहीं चलातीं.

संतुलित फैसला
पीठ ने अपने फैसले में कहा, ''कानून के जरिए स्थापित की गई संस्था का आदेश बाध्यकारी होता है और उसका पालन न करने पर परिणाम भुगतने पड़ते हैं. शरई अदालत (दारुल कजा या काजी कोर्ट) ऐसी संस्थाएं नहीं हैं. दारुल कजा का न तो कानून के जरिए गठन हुआ है और न ही उन्हें सक्षम विधायिका से कानूनी मान्यता प्राप्त है.

मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान इनका कोई भी दर्जा रहा होगा, लेकिन स्वतंत्र भारत की संवैधानिक व्यवस्था में इनकी कोई जगह नहीं है.” इनकी न तो कानूनी मान्यता है और न ही इनके आदेश और फतवे कानूनी प्रक्रिया के जरिए लागू कराए जा सकते हैं.  यदि कोई इन्हें जबरदस्ती लागू करने की कोशिश करता है तो ऐसा करना गैरकानूनी होगा. दारुल कजा को समानांतर न्यायिक व्यवस्था नहीं कहा जा सकता.

इमराना मामले को मद्देनजर रखते हुए पीठ ने कहा कि दारुल इफ्ता और दारुल कजा को इस बारे में सतर्क  रहना चाहिए कि विवाद से अनजान या बाहरी व्यक्ति के कहने पर ऐसे मामले में फतवा न दें, जहां विवाद दो लोगों के बीच हो. कोर्ट ने कहा है कि पूरे समुदाय से जुड़े मसले पर कोई भी फतवा ले सकता है, लेकिन दंपती विशेष से जुड़े मसलों में फतवा तभी देना चाहिए, जब दोनों में कोई एक पक्ष इसकी पेशकश करे.

पीठ ने कहा कि फतवों को अदालत में चुनौती देने की जरूरत नहीं है. उन्हें नजरअंदाज कर देना चाहिए. अगर कोई उन्हें लागू करने की कोशिश करता है तो यह गैरकानूनी होगा. फतवे को कोई कानूनी मान्यता तो नहीं है, लेकिन इसमें इतना असर जरूर होता है कि यह बर्बादी ला सके इसलिए फतवा देने वालों को बहुत एहतियात बरतना चाहिए.

कोर्ट ने सलाह दी कि कोई शरई अदालत किसी भी शख्स के बारे में कोई ऐसा फतवा या फैसला न दे, जिससे उस शख्स के मानवाधिकारों का हनन होता हो. कानूनी अधिकारों, स्थिति और नैतिक कर्तव्यों को प्रभावित करने वाले फतवे पूरी तरह से गैरकानूनी हैं.

मुसलमानों की प्रतिक्रिया
फतवे और शरई अदालतों के फैसले को मानने की बाध्यता के बारे में देश के मुस्लिम बुद्धिजीवियों में किसी तरह का भ्रम नहीं था. लिहाजा कमोबेश सारे लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान का कहना है कि अदालत का फैसला किसी भी तरह से हकीकत के उलट नहीं है.

लेकिन उनका कहना है कि मुल्ला-मौलवियों का एक वर्ग मुस्लिम समुदाय के लिए परेशानी का सबब बन गया है और वे लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं. उन्होंने कहा, ''यह शोषण के अलावा और कुछ नहीं है.”

देश की आजादी के आंदोलन से जुड़े और पाकिस्तान की अवधारणा का विरोध करने वाले संगठन जमीयत उलेमा-ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी इस जनहित याचिका को साजिश करार देते हैं. उनके मुताबिक, ''यह शरई अदालत गठित करने और फतवे देने के हमारे हक के खिलाफ एक साजिश थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है. शरियत की रौशनी में मसलों का फतवे के जरिए हल दिया जाता है. उसे कोई माने या न माने, कोई जबरदस्ती नहीं है.”

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य एस.क्यू.आर. इलियास कहते हैं, ''इस बात को लेकर कभी कोई संदेह नहीं था कि हम कोई पैरलल ज्यूडिशियरी चलाते हैं और न ही शरई अदालतों को कोई कानूनी मान्यता हासिल थी. कोर्ट ने भी यह बात साफकर दी है और समाज में शरई अदालतों के रोल को सराहा है. शरई अदालतों की वजह से लाखों मामले कोर्ट में नहीं पहुंचते वरना कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या और भी बढ़ जाती.”

हालांकि इलियास की तरह एआइएमपीएलबी का मानना है कि दारुल कजा के जरिए अदालतों से मुकदमों का बोझ कम किया जाता है, लेकिन 2006 के एक अध्ययन के मुताबिक, देशभर में बोर्ड की 22 शरई अदालतों में 1973 से केवल 6,433 मुकदमों को सुलझया गया है.
सुप्रीम कोर्ट
जनहित याचिका
पेशे से वकील विश्व लोचन मदान ने 2005 में जनहित याचिका दायर कर शरई अदालतों की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया था. याचिका में इन अदालतों को बंद कराने की मांग की गई थी. मदान के मुताबिक, ''दारुल इफ्ता किसी के भी कहने पर हर छोटी-बड़ी बात पर फतवे जारी कर देता है और ऐसे फतवे लोगों के मानवाधिकारों में दखल करते हैं.”

मदान पिछले नौ साल से इस मामले को अदालत में जिंदा रखे हुए थे. लेकिन उन्होंने फैसले का स्वागत किया और माना कि कोर्ट ने शरई अदालत पर रोक न लगाकर अच्छा ही किया है. उन्हों कहा, ''कोर्ट ने मेरी सारी बातें तो नहीं मानीं, लेकिन एक संदेह जरूर दूर कर दिया कि शरई अदालतों को कोई कानूनी मान्यता नहीं हासिल है और ये जबरदस्ती अपने फैसले पर अमल नहीं करवा सकतीं...अगर मेरी बात मान ली जाती तो शायद ठीक नहीं होता.”

बोर्ड और सरकार का पक्ष
बोर्ड ने पूरे मामले में दारुल कजा को बनाए रखने की दलील दी. कोर्ट में बोर्ड ने पक्ष रखा था कि फतवा बाध्यकारी नहीं होता और यह मुफ्ती का विचार/ सलाह या महज मध्यस्थीकरण होता है, जो तभी दिया जाता है जब कोई पक्ष उसके पास आता है. उसके पास उसे लागू कराने का कोई अधिकार या प्राधिकार नहीं होता. अगर किसी फतवे को उस व्यक्ति की मर्जी के खिलाफ लागू कराने की कोशिश की जाती है तो वह उसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है.
 
भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बरसों चली सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखा कि फतवे सिर्फ राय होते हैं और कोई भी मुसलमान इन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं है. दूसरी तरफ दारुल कजा जैसी शरई अदालतें दंड संहिता के तहत अपने फैसले लागू नहीं करवातीं, बल्कि मुस्लिम परिवारों से जुड़े मामलों मसलन शादी-ब्याह, तलाक वगैरह में महज मध्यस्थ या सलाहकार की भूमिका निभाती हैं.

सरकार ने शरई अदालतों की हिमायत करते हुए कहा कि ये भारतीय अदालतों के बाहर पारिवारिक विवादों को निबटाने की एक वैकल्पिक व्यवस्था मात्र है, जहां कम खर्च में और जल्दी विवादों का निबटारा किया जाता है. सरकार ने कहा कि शरई अदालतें कोई समानांतर कानून प्रणाली नहीं चलातीं और इस असरदार व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता.

दारुल इफ्ता और दारुल कजा
पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मुफ्ती एजाज कासमी के मुताबिक, ''दारुल इफ्ता शादी, ब्याह, तलाक या इस्लाम से जुड़े किसी भी मामले पर शरियत की नजर से अपनी राय देता है, जिसे फतवा कहते हैं. जबकि, दारुल कजा उन फतवों के मुताबिक चलने वाली अदालतों को कहते हैं, जिसके जज को काजी कहते हैं.”

दारुल कजा में कोई भी व्यक्ति अगर कोई मामला लाता है तो दूसरे पक्ष को बाकायदा नोटिस देकर जवाब देने के लिए कहा जाता है. दोनों ही पक्ष अपनी दलीलों के लिए किसी भी मुफ्ती की मदद ले सकते हैं. दोनों पक्षों के जवाब सुनने के बाद काजी इस्लामी शरियत यानी इस्लामी कानून के मुताबिक अपना फैसला सुनाता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड देशभर में शरई अदालतों का गठन करता है.

फतवे का एक और पहलू
एआइएमपीएलबी के सदस्य मुफ्ती एजाज कासमी के मुताबिक, 'फतवों को बदनाम ज्यादा किया जाता है.’ अच्छे फतवों को कम उजागर किया जाता है. ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां दारुल इफ्ता की तरफ से जारी फतवों की न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई है. वे बताते हैं कि 2005 में दारुल उलूम, देवबंद ने एक फतवा दिया, जिसके मुताबिक बकरीद में गाय की कुर्बानी को ये कहते हुए गलत बताया कि अगर किसी धर्म के मानने वालों को गाय की कुर्बानी से ठेस पहुंचती हो तो ऐसे जानवर की कुर्बानी ठीक नहीं.

इस फतवे को देशभर में सराहा गया. इसी तरह आतंकवाद के खिलाफ दारुल उलूम, देवबंद के फतवे की पूरी दुनिया में सराहना हुई. उस फतवे के मुताबिक, आतंकवाद और हिंसा इस्लाम में हराम है और ऐसे काम में शामिल होने वाले को शहीद का दर्जा कतई नहीं दिया जा सकता. इस फतवे को न सिर्फ देश की संसद बल्कि अमेरिका और यूएन में भी सराहा गया.

ऐसे मामलों में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ध्यान रखना होगा कि सभी व्यक्तियों के साथ इंसाफ किया जाए और उनके नागरिक अधिकारों का हनन न हो. तभी मुसलमानों के बीच उनका महत्व रहेगा वरना देश का संविधान मौजूद है.
Advertisement
Advertisement