अपना होमवर्क करते-करते तेरह साल की बच्ची मां से पूछती है, ''मां आप जानती हैं, चरम सुख क्या होता है? '' मां को चुपचाप अपनी तरफ घूरते देख बेटी कहती है, ''जो भी हो. '' ''अच्छा बताओ, स्पर्म और सीमन क्या एक ही चीज होते हैं? '' मां हां में सिर हिलाती है तो बेटी मां की नादानी पर मुस्कराकर समझाती है, ''नहीं, सारे स्पर्म सीमन होते हैं लेकिन सारे सीमन स्पर्म नहीं. '' और फिर होमवर्क में डूब जाती है.
किताबों में डूबी बेटी को देख मां को अपने स्कूल के दिनों की बायोलॉजी की सख्त मिजाज अध्यापिका याद आती है. जब वे जीवन उत्पत्ति के रहस्यों को उकताऊ रेखाचित्रों के माध्यम से क्लास में समझतीं तो किसी बच्चे की मुंह छिपाकर हंसने की हिम्मत नहीं होती थी. बेटी के ऐसे सवाल पर वे क्या जवाब देतीं?
इससे बढ़कर यह कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन क्या कहते? हाल ही में उन्होंने यह सुझाव देकर कि हमें कंडोम के बारे में कम चर्चा करनी चाहिए, स्कूलों में यौन शिक्षा पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए (बाद में स्पष्ट किया कि उनका आशय 'अश्लीलता' से था) और स्कूलों में योग के जरिए संस्कार सिखाए जाने चाहिए, आधुनिकता की कमजोर नस को छू लिया.
बेशक इससे एक गर्मागर्म बहस छिड़ गई, उन लोगों के बीच जो सेक्स को बेडरूम तक ही सीमित रखना चाहते हैं, दूसरे जो यौन शिक्षा के पक्षधर हैं. इसमें टकराव का मुद्दा था: सेक्स एजुकेशन यानी यौन शिक्षा. बच्चों को यह दी जानी चाहिए? अगर हां तो किस उम्र में? कौन देगा और कितनी? इस विवाद में असल मुद्दा गुम ही हो गया है. ऐसे समय जब समाज में 'सेक्स' शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है, समय से पहले प्रौढ़ हुई पीढ़ी सेक्स से जुड़ी बातें करेगी, फिर चाहे यह किताबों के जरिये हो या उनके बिना.
बच्चों को सोने, उठने, बात करने, पढऩे के बारे में नियमित रूप से शिक्षा और सलाह दी जाती है लेकिन जब बात यौन शिक्षा की हो तो सूचनाएं शून्य ही होती हैं. माता-पिता इस तरह का प्रसंग आने पर बच्चों से झूठ बोलते हैं, उन्हें झिड़कते हैं या उल्टे-सीधे स्पष्टीकरण दे डालते हैं. स्कूल बायोलॉजी की नीरस कक्षाओं में सेक्स से जुड़े थीम लाते हैं. यौन शिक्षा के नाम पर बस खाना-पूर्ति करते हैं, या सोच से परे पाठ्यक्रम तैयार करते हैं.
अध्यापकों को यौन शिक्षा देने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और उन्हें हिचकिचाहट महसूस होती है. इसका नतीजा: बिना किसी शिक्षा के यौन अनुभव, भ्रम और शोषण—जो खासे खतरनाक साबित होते हैं. ऐसे समय जब भारत में बच्चों के खिलाफ सेक्स अपराध जोरों पर हैं, और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के मुताबिक, एचआइवी के 34 प्रतिशत रोगी 15-24 उम्र के होते हैं तो युवाओं के लिए यौन शिक्षा अनिवार्य हो जाती है ताकि वे भविष्य में स्वस्थ संबंध बना सकें.
भारत के 24.3 करोड़ किशोरों (दुनिया में यह संख्या सर्वाधिक है) के लिए जिंदगी से जुड़ा रहस्य अब राज नहीं रह गया है. अभिभावक भले ही बच्चों से पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही केंद्रित करने की उम्मीद करें लेकिन एक के बाद दूसरे सर्वेक्षण बताते हैं कि रोमांस, रिलेशनशिप और यौन संबंध उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं.
इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के 2012 में प्रकाशित सर्वेक्षण के मुताबिक, अंग्रेजी माध्यम वाले प्राइवेट कोएजुकेशन स्कूलों के 13 साल से अधिक उम्र के 10,000 छात्रों में से 50 प्रतिशत से अधिक ने रोमांटिक आकर्षण की बात मानी. 2013 की पॉपुलेशन काउंसिल के अध्ययन से भारत के 15 प्रतिशत युवाओं में विवाह पूर्व यौन संबंधों की पुष्टि होती है.
लेकिन सर्वेक्षण टीम की रिपोर्ट में युवाओं में मानव यौन क्रियाओं की बुनियादी समझ की कमी का भी उल्लेख था. ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) की काउंसिलिंग हेल्पलाइन की घंटी थमती नहीं है. लेकिन फोन उठाने पर दूसरी ओर चुप्पी छा जाती है. बच्चे नंबर डायल करते हैं लेकिन बात करने के समय उनके हाथ-पांव ठंडे पड़ जाते हैं. बच्चों में मानव शरीर और यौन संबंधों के बारे में अधकचरा ज्ञान, भ्रांतियां और भारी अज्ञानता होती है.
2002 से एम्स के कम्युनिटी मेडिसिन के आंकड़ों का जायजा लें तो युवाओं की पहली जिज्ञासा होती है, ''क्या मैं सामान्य हूं? ''
एम्स की मनोवैज्ञानिक इकाई में माता-पिता एक 10 साल के बच्चे को लाते हैं, जो काउंसलिंग चैंबर के एकांत में बताता है कि वह 'गंदी बातों' से परेशान है. एम्स में किशोर और बाल मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्ष डॉ. मंजू मेहता कहती हैं, ''एक 12 साल का बच्चा इस वजह से परेशान था कि वह महिलाओं के स्तनों को घूरने से खुद को रोक नहीं पाता था. असल में सेक्स किशोरों का काफी समय लेता है.
उनका मस्तिष्क जिज्ञासु होता है, शरीर बदल रहा होता है, हार्मोन में बदलाव उत्तेजना लाता है, यदि हम सेक्स की चर्चा नहीं करते तो वे इस बारे में और अधिक सोचेंगे. ''
43 वर्ष की अरुण्या राव समझ नहीं पा रही हैं कि उनकी बेटियां आखिर क्यों वर्कशॉप में शामिल हो ऐसी पाठ्यपुस्तकें पढ़ें जो 'सॉफ्ट पोर्न' समझी जाती हैं. 2007 में हटाने के बाद इस साल फिर कर्नाटक सरकार के यौन शिक्षा को हाइ स्कूल में शुरू करने के फैसले से हतप्रभ राव कहती हैं, ''अगर आप ड्रग, प्रेगनेंसी और यौन संबंधों के बारे में चर्चा करते रहे तो इससे बच्चे गलत राह पर चल सकते हैं. ''

(दुनिया भर में एस तरह दी जाती है सेक्स एजुकेशन, इनके मानक हर जगह अलग-अलग हैं.)
आओ सेक्स पर बात करें
ऐसे भी अभिभावक हैं जो राव से सहमत नहीं होंगे. चंडीगढ़ में द एलीमेंट्स नाम की आर्किटेक्ट फर्म में साझीदार अनंत मान कहते हैं, 'यह बेहद बचकाना विचार है कि 'सेक्स एजुकेशन' बच्चों को बिगाड़ देगी. बेहतर होगा अगर हम 18 वर्षीय युवाओं से पूछें कि आखिर पोर्न अच्छा क्यों है? '' उनका कहना है, ''मेरी बड़ी बेटी पुरवाई की पोर्न के खिलाफ बड़ी सशक्त दलील है. उसका कहना है कि पोर्न महिला के शरीर को विषय वस्तु मानता है और पहले से पुरुष प्रधान समाज को बढ़ावा देने का काम करता है. ''
कोलकाता के मनोचिकित्सक अनिरुद्ध देव कहते हैं, ''सेक्स अनुभव आधारित व्यवहार है. सीखे बिना आप कर नहीं सकते. बंदर जैसे समूह में रहने वाले प्राणी दूसरों को देखकर सीखते हैं, तो शेर जैसे अकेले रहने वाले जानवर बार-बार की कोशिश से सीखते हैं. '' और एक बार समझ में आ गया तो सॉफ्टवेयर की तरह यह बैकग्राउंड में रहता है तब तक, जब तक इच्छा जोर न मारने लगे. देब कहते हैं, ''हम सब दूसरे युवाओं, पत्रिकाओं, पुस्तकों, फिल्मों, टीवी और पशुओं की यौन क्रिया से सीखते हैं. ''
लेकिन ऐसे समय में जब दुनिया भर की वेबसाइट्स बस क्लिक भर दूर हों, बच्चे इंटरनेट पोर्न के जरिए यह जानकारी हासिल कर लेते हैं. अपने क्लीनिक में बढ़ती संख्या को देखते हुए वे कहते हैं, ''बच्चे तेजी से बड़े हो रहे हैं. वह सब सीख रहे हैं जो उन्हें नहीं सीखना चाहिए और उसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं. काफी संख्या में 14-15 साल के किशोर यौन सक्रिय हैं, जो दोस्ती और सेक्स को एक ही चीज समझते हैं और इसमें असफलता पर हताश हो जाते हैं. मुझे लगता है कि बेहतर होगा अगर वे सेक्सुएलिटी के बारे में अच्छी अकादमिक जानकारी लें. ''
दिल्ली की 16 वर्षीया महक सहगल ऐसी ही युवा हैं. उनके माता-पिता ने उनसे कभी झूठ नहीं बोला. जैसे-जैसे वे बड़ी होती गईं, घर में शरीर में परिवर्तन, यौन संबंध और यौन सुरक्षा पर हर कोई खुली चर्चा कर सकता था. वे कहती हैं, ''मेरी साइंस टीचर भी बहुत अच्छी थीं. 10वीं क्लास की सीबीएसई की साइंस की किताब में एक चैप्टर था, 'हाउ डू आर्गेनिज्म्स रिप्रोड्यूस'. इसमें हर चीज थी, गर्भ रोकने के उपाय से लेकर यौन संक्रमण से होने वाली बीमारियां रोकने तक. '' महक बताती हैं कि यह बहुत अच्छी तरह लिखा गया लेख था जिसमें बुनियादी बातें समझ गईं थीं.
और हमने गौर किया कि जब मैडम ने यह पढ़ाया तो वे जरा भी झिझक नहीं रहीं थी. हालांकि हम सब इनके बारे में पहले से जानते थे. '' 'कैसे जानते थे' के सवाल पर वे बताती हैं कि जब वे कक्षा 7 में थीं तो उनकी मां ने उन्हें जस्ट फॉर गल्र्स किताब दी थी जिसमें शरीर में होने वाले बदलाव से लेकर संभोग और सुरक्षा तक हर बात विस्तार से बताई गई थी.
16 वर्षीय शौर्य वर्मा ने सेक्स के बारे में अपने नोएडा स्थित स्कूल के लाइफ स्किल्स कोर्सेज के जरिए ज्ञान हासिल किया. वे बताते हैं, ''सातवीं क्लास से लेकर नौवीं तक हम महीने में कम-से-कम एक वर्कशॉप में जरूर शामिल होते थे. 16 दिसंबर, 2012 को हुए गैंग रेप के बाद हमारे स्कूल के 7 साल के बच्चे भी पूछने लगे थे कि 'रेप क्या होता है? ''
जब माता-पिता ने बाल यौन शोषण और बताने वाले माड्यूल्स में 10 साल के बच्चों को भी शामिल करने की बात की तो उस बारे में शौर्य बताते हैं, ''कुछ टीचर्स ऐसे कोर्सों के लिए प्रशिक्षित होते हैं. मैं इसलिए जानता हूं क्योंकि मेरी मां भी इसी स्कूल में पढ़ाती हैं. ''
कइयों के लिए तो यह ऊबाऊ और यथार्थ से परे का अनुभव है. मुंबई की 17 वर्षीया अदिति म्हात्रे सातवीं से सेक्स एजुकेशन के सत्र में शामिल रही हैं. वे बताती हैं, ''वे डॉक्टरों को बुलाते और लड़के-लड़कियों से बात करते, हमें बताया जाता कि लड़कियों को मासिक धर्म कैसे होता है, लड़के कैसे उत्तेजित होते हैं. हमसे इस तरह बात की जाती मानो हम नन्हीं बच्चियां हैं. वे जो हमें बता रहे थे, हमें पहले से पता था.
'' हैदराबाद के 14 वर्षीय तेजा अयालासौम्याजुल ने अपनी बायोलॉजी की किताब में प्रजनन प्रक्रिया पर चैप्टर खुद ही पढ़ डाला. वे कहते हैं, ''हमारे अध्यापक तो इसे पढ़ाने की जरूरत ही नहीं समझते. मेरे जेहन में कई सवाल थे, जिनके जवाब अंतत: मुझे अपने माता-पिता से मिले. ''

(असल जिंदगी में काम आने वाले सबक ये हैं, बच्चे को सेक्स एजुकेशन देना कब और कैसे शुरू करें.)
सिलेबस नहीं है सेक्स एजुकेशन का
सेक्स एजुकेशन के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं हैं, अध्यापक फैसला ही नहीं कर पाते कि क्या, कैसे और कितना पढ़ाएं. कोलकाता की शिक्षाविद् देवी कर बताती हैं, ''मैं वैल्यू एजुकेशन क्लास के लिए अध्यापकों को चुनती हूं, जो बायोलॉजी या सेक्स एजुकेशन से परे होती है. हम छात्रों को अच्छी और बुरी नीयत वाले स्पर्श के बारे में बताते हैं, और यह भी कि अपने शरीर का सम्मान कैसे करें. ''
समस्या सही अभिव्यक्ति वाले शब्द की भी है. इसके कई अर्थ हैं और यह कई सांस्कृतिक वर्जनाएं साथ लाता है. जयपुर के अग्रणी रिसर्च और ट्रेनिंग संस्थान संधान की शारदा जैन का कहना है, ''मैं इसके लिए वैकल्पिक शब्द तलाश रही हूं. '' वे बताती हैं कि बच्चों को सेक्स एजुकेशन के मामले में कोई शिक्षित नहीं कर रहा है. कई पश्चिमी देशों में इसे 'सेक्स ऐंड रिलेशनशिप' नाम दिया गया है.
भारतीय संदर्भ में यह एडोलेसंट एजुकेशन प्रोग्राम, लाइफ स्किल या लाइफ स्टाइल जैसे नाम से जाना जाता है. लेकिन इनमें एक भी ह्यूमन सेक्सुएलिटी के अनुभवों की सटीक व्याख्या नहीं कर पाता. इस शब्द ने फायदे से ज्यादा नुकसान किया है. बल्कि किशोरों की जरूरत भी पूरी नहीं की. वे कहती हैं, ''बात यह है कि जो वे अनुभव करते हैं, महसूस करते हैं, उस पर रिफ्लेक्टिव स्किल सिखलाए जाएं. साथ ही जीवन में आगे बढऩे और दूसरे लिंग को आदर देना भी समझाया जाए. ''
भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने जब 1992 में पहली बार इसका सुझाव दिया तब से ही स्कूलों में सेक्स एजुकेशन पर लंबा विवाद चल रहा है. भारतीय नेता और नीति नियंताओं ने अपनी राय व्यक्त करने, या आलोचना कुंद करने के लिए मुद्दे पर लंबा सोच-विचार किया, इस पर शुबहा किया, इसे अपनाया, नामंजूर किया. लेकिन जितनी बार हम इसके फायदे-नुकसान पर बहस करते हैं, हम अपनी अगली पीढ़ी को नाकाम कर देते हैं.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में डीन ऑफ एजुकेशन, अनिता रामपाल एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें तैयार करने से जुड़ी रही हैं. वे कहती हैं, ''शिक्षा का उद्देश्य बहुत ऊंचा है—मानव अधिकारों के प्रति, न्याय और समता के प्रति. यौन शिक्षा तो इन लक्ष्यों को हासिल करने का उपकरण भर है. '' शुरुआत एनसीईआरटी के 1993 और 2005 के बीच तैयार किए गए सिलेबस से हुई. सिलेबस को शिक्षा मंत्रालय, एनएसीओ और यूनिसेफ के एडोलेसंस एजुकेशन प्रोग्राम की सलाह से तैयार किया गया.
हर किसी को नहीं भाया यह कदम
2005 और 2007 में यौन शिक्षा को जब-जब लागू करने के प्रयास किए गए 'यह संस्कृतियों के टकराव' में परिवर्तित हो गया. दक्षिणपंथी राजनैतिक दल और धार्मिक संगठन इसके विरोध में एकजुट हो गए. आरएसएस को यदि इसमें पश्चिमी देशों की 'साजिश' की बू आई तो पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी को इसकी बदौलत 'नैतिक दृष्टि से विकृत' बच्चे नजर आने लगे.
बीजेपी ने 'भारतीय संस्कारों' की कमी का रोना रोया खासकर 'संयम की कमी' का. तो पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने 'युवाओं को भ्रष्ट' करने के खिलाफ चेताया. ओडिसा में वामपंथी गुट बांह चढ़ाकर मैदान में कूदे तो कर्नाटक में महिला संगठनों ने कोर्ट में गुहार लगाई. वाम मोर्चे वाले पश्चिम बंगाल में स्कूल अध्यापक भी इसके विरोध में आए. 30 प्रतिशत से अधिक राज्यों ने इसे नकार दिया.
2009 में भी इन्हीं घटनाओं का एक्शन रिप्ले देखा गया, बीजेपी नेता वैंकया नायडू के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने स्कूलों में यौन शिक्षा को खारिज कर दिया. नायडू का कहना था, ''छात्रों को यह समझ दिया जाना चाहिए कि शादी के बाहर यौन संबंध सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ है. '' हाल ही में डॉ. हर्षवर्धन के बयान ने इन घटनाओं की याद ताजा कर दी.
हर सुबह दिल्ली के निर्माण भवन जाने से पहले हर्षवर्धन अपने कृष्णा नगर स्थित घर के ग्राउंड फ्लोर पर बने छोटे से कमरे में जनता से मिलते हैं. इस कमरे की दीवारें फोटो से भरी हैं—जिनमें वे अपने मेंटर और मित्रों के साथ नजर आते हैं; लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, राजनाथ सिंह, श्यामा प्रसाद मुखर्जी. एक बड़ी-सी मेज पर ट्रॉफी, कप, अवार्ड रखे हैं. ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉ. हर्षवर्धन ने सफल जीवन जिया है.
पल्स पोलियो प्रोग्राम की शुरुआत करने से लेकर दिल्ली में धूम्रपान निरोधक विधेयक लाने तक. यौन शिक्षा पर उनके विचार जानने की कोशिश करें तो उनका जवाब होता है, ''मैंने जो कहना था, कह दिया. अब मुझे कुछ नहीं कहना. '' देश में सेक्स एजुकेशन पर फिर बहस शुरू करवाने के लिए उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए?
किताबों में डूबी बेटी को देख मां को अपने स्कूल के दिनों की बायोलॉजी की सख्त मिजाज अध्यापिका याद आती है. जब वे जीवन उत्पत्ति के रहस्यों को उकताऊ रेखाचित्रों के माध्यम से क्लास में समझतीं तो किसी बच्चे की मुंह छिपाकर हंसने की हिम्मत नहीं होती थी. बेटी के ऐसे सवाल पर वे क्या जवाब देतीं?
इससे बढ़कर यह कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन क्या कहते? हाल ही में उन्होंने यह सुझाव देकर कि हमें कंडोम के बारे में कम चर्चा करनी चाहिए, स्कूलों में यौन शिक्षा पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए (बाद में स्पष्ट किया कि उनका आशय 'अश्लीलता' से था) और स्कूलों में योग के जरिए संस्कार सिखाए जाने चाहिए, आधुनिकता की कमजोर नस को छू लिया.
बेशक इससे एक गर्मागर्म बहस छिड़ गई, उन लोगों के बीच जो सेक्स को बेडरूम तक ही सीमित रखना चाहते हैं, दूसरे जो यौन शिक्षा के पक्षधर हैं. इसमें टकराव का मुद्दा था: सेक्स एजुकेशन यानी यौन शिक्षा. बच्चों को यह दी जानी चाहिए? अगर हां तो किस उम्र में? कौन देगा और कितनी? इस विवाद में असल मुद्दा गुम ही हो गया है. ऐसे समय जब समाज में 'सेक्स' शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है, समय से पहले प्रौढ़ हुई पीढ़ी सेक्स से जुड़ी बातें करेगी, फिर चाहे यह किताबों के जरिये हो या उनके बिना.
बच्चों को सोने, उठने, बात करने, पढऩे के बारे में नियमित रूप से शिक्षा और सलाह दी जाती है लेकिन जब बात यौन शिक्षा की हो तो सूचनाएं शून्य ही होती हैं. माता-पिता इस तरह का प्रसंग आने पर बच्चों से झूठ बोलते हैं, उन्हें झिड़कते हैं या उल्टे-सीधे स्पष्टीकरण दे डालते हैं. स्कूल बायोलॉजी की नीरस कक्षाओं में सेक्स से जुड़े थीम लाते हैं. यौन शिक्षा के नाम पर बस खाना-पूर्ति करते हैं, या सोच से परे पाठ्यक्रम तैयार करते हैं.
अध्यापकों को यौन शिक्षा देने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और उन्हें हिचकिचाहट महसूस होती है. इसका नतीजा: बिना किसी शिक्षा के यौन अनुभव, भ्रम और शोषण—जो खासे खतरनाक साबित होते हैं. ऐसे समय जब भारत में बच्चों के खिलाफ सेक्स अपराध जोरों पर हैं, और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के मुताबिक, एचआइवी के 34 प्रतिशत रोगी 15-24 उम्र के होते हैं तो युवाओं के लिए यौन शिक्षा अनिवार्य हो जाती है ताकि वे भविष्य में स्वस्थ संबंध बना सकें.
भारत के 24.3 करोड़ किशोरों (दुनिया में यह संख्या सर्वाधिक है) के लिए जिंदगी से जुड़ा रहस्य अब राज नहीं रह गया है. अभिभावक भले ही बच्चों से पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही केंद्रित करने की उम्मीद करें लेकिन एक के बाद दूसरे सर्वेक्षण बताते हैं कि रोमांस, रिलेशनशिप और यौन संबंध उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं.
इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के 2012 में प्रकाशित सर्वेक्षण के मुताबिक, अंग्रेजी माध्यम वाले प्राइवेट कोएजुकेशन स्कूलों के 13 साल से अधिक उम्र के 10,000 छात्रों में से 50 प्रतिशत से अधिक ने रोमांटिक आकर्षण की बात मानी. 2013 की पॉपुलेशन काउंसिल के अध्ययन से भारत के 15 प्रतिशत युवाओं में विवाह पूर्व यौन संबंधों की पुष्टि होती है.
लेकिन सर्वेक्षण टीम की रिपोर्ट में युवाओं में मानव यौन क्रियाओं की बुनियादी समझ की कमी का भी उल्लेख था. ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) की काउंसिलिंग हेल्पलाइन की घंटी थमती नहीं है. लेकिन फोन उठाने पर दूसरी ओर चुप्पी छा जाती है. बच्चे नंबर डायल करते हैं लेकिन बात करने के समय उनके हाथ-पांव ठंडे पड़ जाते हैं. बच्चों में मानव शरीर और यौन संबंधों के बारे में अधकचरा ज्ञान, भ्रांतियां और भारी अज्ञानता होती है.
2002 से एम्स के कम्युनिटी मेडिसिन के आंकड़ों का जायजा लें तो युवाओं की पहली जिज्ञासा होती है, ''क्या मैं सामान्य हूं? ''
एम्स की मनोवैज्ञानिक इकाई में माता-पिता एक 10 साल के बच्चे को लाते हैं, जो काउंसलिंग चैंबर के एकांत में बताता है कि वह 'गंदी बातों' से परेशान है. एम्स में किशोर और बाल मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्ष डॉ. मंजू मेहता कहती हैं, ''एक 12 साल का बच्चा इस वजह से परेशान था कि वह महिलाओं के स्तनों को घूरने से खुद को रोक नहीं पाता था. असल में सेक्स किशोरों का काफी समय लेता है.
उनका मस्तिष्क जिज्ञासु होता है, शरीर बदल रहा होता है, हार्मोन में बदलाव उत्तेजना लाता है, यदि हम सेक्स की चर्चा नहीं करते तो वे इस बारे में और अधिक सोचेंगे. ''
43 वर्ष की अरुण्या राव समझ नहीं पा रही हैं कि उनकी बेटियां आखिर क्यों वर्कशॉप में शामिल हो ऐसी पाठ्यपुस्तकें पढ़ें जो 'सॉफ्ट पोर्न' समझी जाती हैं. 2007 में हटाने के बाद इस साल फिर कर्नाटक सरकार के यौन शिक्षा को हाइ स्कूल में शुरू करने के फैसले से हतप्रभ राव कहती हैं, ''अगर आप ड्रग, प्रेगनेंसी और यौन संबंधों के बारे में चर्चा करते रहे तो इससे बच्चे गलत राह पर चल सकते हैं. ''

(दुनिया भर में एस तरह दी जाती है सेक्स एजुकेशन, इनके मानक हर जगह अलग-अलग हैं.)
आओ सेक्स पर बात करें
ऐसे भी अभिभावक हैं जो राव से सहमत नहीं होंगे. चंडीगढ़ में द एलीमेंट्स नाम की आर्किटेक्ट फर्म में साझीदार अनंत मान कहते हैं, 'यह बेहद बचकाना विचार है कि 'सेक्स एजुकेशन' बच्चों को बिगाड़ देगी. बेहतर होगा अगर हम 18 वर्षीय युवाओं से पूछें कि आखिर पोर्न अच्छा क्यों है? '' उनका कहना है, ''मेरी बड़ी बेटी पुरवाई की पोर्न के खिलाफ बड़ी सशक्त दलील है. उसका कहना है कि पोर्न महिला के शरीर को विषय वस्तु मानता है और पहले से पुरुष प्रधान समाज को बढ़ावा देने का काम करता है. ''
कोलकाता के मनोचिकित्सक अनिरुद्ध देव कहते हैं, ''सेक्स अनुभव आधारित व्यवहार है. सीखे बिना आप कर नहीं सकते. बंदर जैसे समूह में रहने वाले प्राणी दूसरों को देखकर सीखते हैं, तो शेर जैसे अकेले रहने वाले जानवर बार-बार की कोशिश से सीखते हैं. '' और एक बार समझ में आ गया तो सॉफ्टवेयर की तरह यह बैकग्राउंड में रहता है तब तक, जब तक इच्छा जोर न मारने लगे. देब कहते हैं, ''हम सब दूसरे युवाओं, पत्रिकाओं, पुस्तकों, फिल्मों, टीवी और पशुओं की यौन क्रिया से सीखते हैं. ''
लेकिन ऐसे समय में जब दुनिया भर की वेबसाइट्स बस क्लिक भर दूर हों, बच्चे इंटरनेट पोर्न के जरिए यह जानकारी हासिल कर लेते हैं. अपने क्लीनिक में बढ़ती संख्या को देखते हुए वे कहते हैं, ''बच्चे तेजी से बड़े हो रहे हैं. वह सब सीख रहे हैं जो उन्हें नहीं सीखना चाहिए और उसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं. काफी संख्या में 14-15 साल के किशोर यौन सक्रिय हैं, जो दोस्ती और सेक्स को एक ही चीज समझते हैं और इसमें असफलता पर हताश हो जाते हैं. मुझे लगता है कि बेहतर होगा अगर वे सेक्सुएलिटी के बारे में अच्छी अकादमिक जानकारी लें. ''
दिल्ली की 16 वर्षीया महक सहगल ऐसी ही युवा हैं. उनके माता-पिता ने उनसे कभी झूठ नहीं बोला. जैसे-जैसे वे बड़ी होती गईं, घर में शरीर में परिवर्तन, यौन संबंध और यौन सुरक्षा पर हर कोई खुली चर्चा कर सकता था. वे कहती हैं, ''मेरी साइंस टीचर भी बहुत अच्छी थीं. 10वीं क्लास की सीबीएसई की साइंस की किताब में एक चैप्टर था, 'हाउ डू आर्गेनिज्म्स रिप्रोड्यूस'. इसमें हर चीज थी, गर्भ रोकने के उपाय से लेकर यौन संक्रमण से होने वाली बीमारियां रोकने तक. '' महक बताती हैं कि यह बहुत अच्छी तरह लिखा गया लेख था जिसमें बुनियादी बातें समझ गईं थीं.
और हमने गौर किया कि जब मैडम ने यह पढ़ाया तो वे जरा भी झिझक नहीं रहीं थी. हालांकि हम सब इनके बारे में पहले से जानते थे. '' 'कैसे जानते थे' के सवाल पर वे बताती हैं कि जब वे कक्षा 7 में थीं तो उनकी मां ने उन्हें जस्ट फॉर गल्र्स किताब दी थी जिसमें शरीर में होने वाले बदलाव से लेकर संभोग और सुरक्षा तक हर बात विस्तार से बताई गई थी.
16 वर्षीय शौर्य वर्मा ने सेक्स के बारे में अपने नोएडा स्थित स्कूल के लाइफ स्किल्स कोर्सेज के जरिए ज्ञान हासिल किया. वे बताते हैं, ''सातवीं क्लास से लेकर नौवीं तक हम महीने में कम-से-कम एक वर्कशॉप में जरूर शामिल होते थे. 16 दिसंबर, 2012 को हुए गैंग रेप के बाद हमारे स्कूल के 7 साल के बच्चे भी पूछने लगे थे कि 'रेप क्या होता है? ''
जब माता-पिता ने बाल यौन शोषण और बताने वाले माड्यूल्स में 10 साल के बच्चों को भी शामिल करने की बात की तो उस बारे में शौर्य बताते हैं, ''कुछ टीचर्स ऐसे कोर्सों के लिए प्रशिक्षित होते हैं. मैं इसलिए जानता हूं क्योंकि मेरी मां भी इसी स्कूल में पढ़ाती हैं. ''
कइयों के लिए तो यह ऊबाऊ और यथार्थ से परे का अनुभव है. मुंबई की 17 वर्षीया अदिति म्हात्रे सातवीं से सेक्स एजुकेशन के सत्र में शामिल रही हैं. वे बताती हैं, ''वे डॉक्टरों को बुलाते और लड़के-लड़कियों से बात करते, हमें बताया जाता कि लड़कियों को मासिक धर्म कैसे होता है, लड़के कैसे उत्तेजित होते हैं. हमसे इस तरह बात की जाती मानो हम नन्हीं बच्चियां हैं. वे जो हमें बता रहे थे, हमें पहले से पता था.
'' हैदराबाद के 14 वर्षीय तेजा अयालासौम्याजुल ने अपनी बायोलॉजी की किताब में प्रजनन प्रक्रिया पर चैप्टर खुद ही पढ़ डाला. वे कहते हैं, ''हमारे अध्यापक तो इसे पढ़ाने की जरूरत ही नहीं समझते. मेरे जेहन में कई सवाल थे, जिनके जवाब अंतत: मुझे अपने माता-पिता से मिले. ''

(असल जिंदगी में काम आने वाले सबक ये हैं, बच्चे को सेक्स एजुकेशन देना कब और कैसे शुरू करें.)
सिलेबस नहीं है सेक्स एजुकेशन का
सेक्स एजुकेशन के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं हैं, अध्यापक फैसला ही नहीं कर पाते कि क्या, कैसे और कितना पढ़ाएं. कोलकाता की शिक्षाविद् देवी कर बताती हैं, ''मैं वैल्यू एजुकेशन क्लास के लिए अध्यापकों को चुनती हूं, जो बायोलॉजी या सेक्स एजुकेशन से परे होती है. हम छात्रों को अच्छी और बुरी नीयत वाले स्पर्श के बारे में बताते हैं, और यह भी कि अपने शरीर का सम्मान कैसे करें. ''
समस्या सही अभिव्यक्ति वाले शब्द की भी है. इसके कई अर्थ हैं और यह कई सांस्कृतिक वर्जनाएं साथ लाता है. जयपुर के अग्रणी रिसर्च और ट्रेनिंग संस्थान संधान की शारदा जैन का कहना है, ''मैं इसके लिए वैकल्पिक शब्द तलाश रही हूं. '' वे बताती हैं कि बच्चों को सेक्स एजुकेशन के मामले में कोई शिक्षित नहीं कर रहा है. कई पश्चिमी देशों में इसे 'सेक्स ऐंड रिलेशनशिप' नाम दिया गया है.
भारतीय संदर्भ में यह एडोलेसंट एजुकेशन प्रोग्राम, लाइफ स्किल या लाइफ स्टाइल जैसे नाम से जाना जाता है. लेकिन इनमें एक भी ह्यूमन सेक्सुएलिटी के अनुभवों की सटीक व्याख्या नहीं कर पाता. इस शब्द ने फायदे से ज्यादा नुकसान किया है. बल्कि किशोरों की जरूरत भी पूरी नहीं की. वे कहती हैं, ''बात यह है कि जो वे अनुभव करते हैं, महसूस करते हैं, उस पर रिफ्लेक्टिव स्किल सिखलाए जाएं. साथ ही जीवन में आगे बढऩे और दूसरे लिंग को आदर देना भी समझाया जाए. ''
भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने जब 1992 में पहली बार इसका सुझाव दिया तब से ही स्कूलों में सेक्स एजुकेशन पर लंबा विवाद चल रहा है. भारतीय नेता और नीति नियंताओं ने अपनी राय व्यक्त करने, या आलोचना कुंद करने के लिए मुद्दे पर लंबा सोच-विचार किया, इस पर शुबहा किया, इसे अपनाया, नामंजूर किया. लेकिन जितनी बार हम इसके फायदे-नुकसान पर बहस करते हैं, हम अपनी अगली पीढ़ी को नाकाम कर देते हैं.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में डीन ऑफ एजुकेशन, अनिता रामपाल एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें तैयार करने से जुड़ी रही हैं. वे कहती हैं, ''शिक्षा का उद्देश्य बहुत ऊंचा है—मानव अधिकारों के प्रति, न्याय और समता के प्रति. यौन शिक्षा तो इन लक्ष्यों को हासिल करने का उपकरण भर है. '' शुरुआत एनसीईआरटी के 1993 और 2005 के बीच तैयार किए गए सिलेबस से हुई. सिलेबस को शिक्षा मंत्रालय, एनएसीओ और यूनिसेफ के एडोलेसंस एजुकेशन प्रोग्राम की सलाह से तैयार किया गया.
हर किसी को नहीं भाया यह कदम
2005 और 2007 में यौन शिक्षा को जब-जब लागू करने के प्रयास किए गए 'यह संस्कृतियों के टकराव' में परिवर्तित हो गया. दक्षिणपंथी राजनैतिक दल और धार्मिक संगठन इसके विरोध में एकजुट हो गए. आरएसएस को यदि इसमें पश्चिमी देशों की 'साजिश' की बू आई तो पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी को इसकी बदौलत 'नैतिक दृष्टि से विकृत' बच्चे नजर आने लगे.
बीजेपी ने 'भारतीय संस्कारों' की कमी का रोना रोया खासकर 'संयम की कमी' का. तो पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने 'युवाओं को भ्रष्ट' करने के खिलाफ चेताया. ओडिसा में वामपंथी गुट बांह चढ़ाकर मैदान में कूदे तो कर्नाटक में महिला संगठनों ने कोर्ट में गुहार लगाई. वाम मोर्चे वाले पश्चिम बंगाल में स्कूल अध्यापक भी इसके विरोध में आए. 30 प्रतिशत से अधिक राज्यों ने इसे नकार दिया.
2009 में भी इन्हीं घटनाओं का एक्शन रिप्ले देखा गया, बीजेपी नेता वैंकया नायडू के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने स्कूलों में यौन शिक्षा को खारिज कर दिया. नायडू का कहना था, ''छात्रों को यह समझ दिया जाना चाहिए कि शादी के बाहर यौन संबंध सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ है. '' हाल ही में डॉ. हर्षवर्धन के बयान ने इन घटनाओं की याद ताजा कर दी.
हर सुबह दिल्ली के निर्माण भवन जाने से पहले हर्षवर्धन अपने कृष्णा नगर स्थित घर के ग्राउंड फ्लोर पर बने छोटे से कमरे में जनता से मिलते हैं. इस कमरे की दीवारें फोटो से भरी हैं—जिनमें वे अपने मेंटर और मित्रों के साथ नजर आते हैं; लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, राजनाथ सिंह, श्यामा प्रसाद मुखर्जी. एक बड़ी-सी मेज पर ट्रॉफी, कप, अवार्ड रखे हैं. ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉ. हर्षवर्धन ने सफल जीवन जिया है.
पल्स पोलियो प्रोग्राम की शुरुआत करने से लेकर दिल्ली में धूम्रपान निरोधक विधेयक लाने तक. यौन शिक्षा पर उनके विचार जानने की कोशिश करें तो उनका जवाब होता है, ''मैंने जो कहना था, कह दिया. अब मुझे कुछ नहीं कहना. '' देश में सेक्स एजुकेशन पर फिर बहस शुरू करवाने के लिए उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए?