हमारे सरकारी तंत्र की पुरानी इमारत बेशक ढह चुकी है और उसके मलबे से बाहर निकलने के लिए छटपटाहट भी सब ओर दिख रही है, लेकिन हमारे बीच कुछ आशावादियों को कामकाज के एक नए और ताजा मॉडल के उभरने की उम्मीद हैं. उम्मीद यह भी है कि हमारे अफसरशाह इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, जो हमारी प्रशासनिक मशीनरी के अहम अंग हैं. लेकिन बदलाव लाने के लिए अफसरों को मौजूदा समय के अनुसार अपने को ढालना होगा और खुद को बेहतर साबित करना होगा. ऐसी संभावना भी बदस्तूर दिख रही है और इसमें पर्याप्त गंभीरता के संकेत भी मिल रहे हैं लेकिन मौजूदा वक्त के प्रशासनिक नए चमकते सितारों से पुराने अफसरशाहों (जैसे 1990 के आसपास) की तुलना करना गैर-मुनासिब नहीं होगा, बल्कि इससे नए तथ्यों पर रोशनी पड़ेगी.
यह दावा करना भी गैर-मुनासिब नहीं होगा कि पुराने अफसरशाहों के लिए यह कर्तव्य जैसा था, सिर्फ नौकरी नहीं. भारत जैसे विकासशील देश में यह सामाजिक और नैतिक दायित्व बन जाता है कि समाज के उन तबकों का हमेशा ख्याल रखा जाए, जिन्हें मदद की सख्त जरूरत है और जहां जरूरी हो, फौरन हस्तक्षेप किया जाए—और यह काम वही कर सकता है जो इस पेशे को अपना कर्तव्य मानता हो. 1990 के दशक के वरिष्ठ अफसरों को मानो अक्ल की दाढ़ की तरह ही शुरू में ही इसका इल्म हो जाता था क्योंकि तब प्रशासनिक सेवा का मूलमंत्र ही जनहित के प्रति प्रतिबद्धता होता था. आज, किसी सबसे प्रतिबद्ध और जिम्मेदार दिखने वाले नौजवान अफसर से इसका जिक्र भी कीजिए तो वह कंधा उचकाने लगता है. ऐसा कतई नहीं था कि पुराने अफसर कोई संत थे और उनमें स्वार्थ की भावना ही नहीं थी. फर्क बस यह था कि वे इस नजरिए को आत्मसात कर चुके थे कि प्रशासनिक सेवा का मूलमंत्र जनहित ही होता है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि 2014 का राजनैतिक जनादेश एक नव-उदारवादी विकास मॉडल के लिए है. इस सिद्घांत के तहत भी कई तरह के विकल्प आजमाए जा सकते हैं. लेकिन ऐसे विकल्पों को युवा अफसरों को जनहित की कसौटी पर कसना होगा. मुझे राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी से अलग हुए करीब आधी सदी बीत गई है लेकन वहां के युवा प्रोबेशनर्स से मैं आग्रह करूंगा कि वे प्रशासनिक सेवा के मूलमंत्र-जनहित के प्रति आस्था-को नए सिरे से ईजाद करें.
आज की सरकार के वैश्विक नजरिए के साथ तालमेल बनाते हुए अफसरों को विभिन्न मसलों का विश्लेषण करना चाहिए और ऐसे विकल्पों की ही पेशकश करनी चाहिए जिसमें अधिकतम जनहित का ख्याल हो. जनहित मोटे तौर पर राजनीति निरपेक्ष होता है, बशर्ते उसकी व्याख्या गलत-शलत ढंग से न की जाए. युवा प्रोबेशनर्स को इस सलाह का मतलब यह नहीं हैं कि वे हथियार उठाकर कोई क्रांति करने निकल पड़ें. सरकार की एक राजनैतिक विचारधारा होती है और चुनावी जनादेश उसे यह हक देता है कि वह उस पर अमल करे. हालांकि, प्रशासनिक तंत्र का एक छोटा हिस्सा ही विचारधारा से संचालित होता है—इसके अलावा उसमें काफी गुंजाइश होती है कि ऐसी नीतियां, योजनाएं और कार्यक्रम बनाए जाएं जिनमें जनहित का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखा जा सके.
आज के प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को 1990 के दशक के वरिष्ठ अधिकारियों के मुकाबले बेहतर प्रशिक्षण हासिल है. बहुत से युवा अधिकारी खुद को सौंपे गए काम में अपने कौशल का काफी प्रभावी तरीके से इस्तेमाल भी करते हैं. हालांकि, हमारे जैसे पुराने लोगों के लिए तो अधिकारियों की इन दो पीढिय़ों के बीच फर्क तब स्पष्ट होता है जब प्राथमिकताएं तय की जाती हैं और सामाजिक स्तर पर विकल्पों का इस्तेमाल किया जाता है.
जनहित को प्रधानता
आज के शासन का एक पहलू यह लगता है कि सामाजिक क्षेत्र (प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा, प्राथमिक शिक्षा, न्यूनतम पोषण, महिला एवं बाल विकास, कमजांर तबकों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान जैसे मसले) उसके दायरे से बाहर हो गया है. युवाओं ने, कम से कम जो आइएएस बने हैं, अपने कॅरिअर के शुरुआती वर्षों में भारी अभाव जरूर झेला होगा. हमारे प्रतिभाशाली युवा प्रोबेशनर्स ने यह बात जरूर महसूस की होगी कि हमारी विकास की रणनीति और आबादी के बड़े तबके की जरूरतों के बीच भारी खाई है.
आज सरकार व्यापार और कॉरपोरेट जगत को बहुत महत्व दे रही है. उनकी जरूरतों और नजरिए को नीतियों के निर्माण में काफी जगह दी जाती है. वंचित तबके को कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं मिल पाता. यदि कोई प्रशासनिक अधिकारी जनहित के अपने धर्म का पालन करता है, तो उसे ऐसे कदम भी उठाने होंगे जिनसे ऐसे लोगों को नीतियों में जगह मिले जिनका प्रतिनिधित्व ही नहीं हो पाता है. हमें ऐसा सुनने में आ रहा है कि युवा अफसर टेक्नोलॉजी और आधुनिक कारोबारी दस्तूर से चौंधियाए हुए हैं क्योंकि इसे ही तरक्की का मानक मान लिया गया है. हम यही समझते हैं कि देश को वैश्विक महाशक्ति बनाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा आर्थिक तरक्की जरूरी है. लेकिन प्रशासनिक सेवा के हमारे युवा दोस्तों को यह भी तलाशना चाहिए कि आखिर वे जनहित का इसमें समावेश कैसे कर सकते हैं.
यह भी गौरतलब है कि जहां घोटालों की भरमार हो, प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए निष्ठा और ईमानदारी अहम गुण हो जाते हैं. पुराने प्रशासनिक अपने दौर के स्पष्ट मूल्य विधान के कायल हुआ करते थे. उनके लिए निष्ठा, खासकर वित्तीय ईमानदारी का महत्व सर्वाधिक था. यह भी गौरतलब है कि 1990 के दशक में वित्तीय कदाचार के मौके आज की तुलना में नगण्य थे. आज बड़ी संख्या में ऐसे सरकारी सौदे होते हैं जो काफी संदिग्ध होते हैं-कुछ में तो अमूर्त संपत्ति शामिल होती है जिनमें कीमतों के निर्धारण के लिए बाजार में लेन-देन की मिसाल नहीं होती और बिक्री के कई सौदे ऐसी कीमतों पर होते हैं जिनका निर्धारण मनमाने ढंग से किया जाता है.
ऐसी परिस्थितियों में प्रशासनिक कार्य और जटिल हो गए हैं. हालांकि, जो लोग इरादा रखते हैं, उनके लिए अतिरिक्त कानूनी फायदे हासिल करने के अवसर भी हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वित्तीय अपराध के उदाहरण अब इफरात में मिलने लगे हैं. हमें इस सचाई को स्वीकार करना चाहिए, हालांकि हममें से बहुत लोग इससे इनकार करते हैं और ‘ईमानदारी के अभाव’ को एक असंसदीय शब्द जैसा मानते हैं जिसे कभी जुबान पर नहीं लाया जाना चाहिए. इसलिए प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की मौजूदा पीढ़ी को यह तय करना होगा कि आज के शासन के ऐसे काफी जटिल तंत्र में काम करने के लिए किन तौर-तरीकों और प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाए, ताकि शर्मनाक अनियमितता से उठ रहे सार्वजनिक विवादों के बगैर नतीजे किस तरह से दिए जा सकें.
फिर हासिल करें साख
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रशासनिक सेवा की साख गर्त में जा चुकी है. साख कठोर साक्ष्यों के अलावा धारणाओं से भी हासिल की जा सकती है या गंवाई जा सकती है. आज नौकरशाही पर भरोसा लगातार घटता दिख रहा है. करीब आधा सदी पहले एक युवा अफसर के रूप में मैं अक्सर अवाक रह जाता था, यह देखकर कि मेरी नेकनीयती पर कितना भरोसा किया जा रहा है, जबकि कई बेतुके निर्णय शायद मैंने जल्दबाजी और अति आत्मविश्वास में लिए होंगे. इसके विपरीत आज सही निर्णय को भी, जो समाज की भलाई के लिए लिया गया हो, कुछ व्यक्तिगत हितों या भाई-भतीजावाद की वजह से चुनौती दी जा सकती है. सामान्य नागरिकों ने अधिकारियों को जो बिना शर्त भरोसे की निधि उपहार में दी थी, उसे बर्बाद करके वे अपनी ही डाल काट रहे हैं.
लोगों का भरोसा जीतने के लिए किसी बड़े प्रबंधन कौशल की जरूरत नहीं पड़ती. संवेदना, निष्पक्षता और सबके लिए समान रवैए जैसे सामान्य गुणों से ही समाज का हर व्यक्ति सहज और सुखद महसूस करने लगता है. कारोबारी मॉडल को ही एकमात्र मंत्र मानने से ऐसा सामान्य रवैया भी अब अप्रासंगिक होता जा रहा है. आज, सार्वजनिक लेन-देन में कोई भी किसी पर भरोसा नहीं करता.
1990 के दशक और उसके पहले के दौर की पुरानी पीढ़ी के अफसरशाहों को देश के लोगों से साख उपहार में मिली थी और उन्होंने इसका इस्तेमाल भलाई के लिए किया. युवा अफसरों को इसे फिर हासिल करना होगा, भले ही इसमें कितना भी समय और प्रयास क्यों न लगाना पड़े. मैं इस बात की गारंटी दे सकता हूं कि वे इसे अपने पेशेवर कॅरिअर के श्रेष्ठ निवेश के रूप में पाएंगे.
तो, एक पुरानी पीढ़ी के अधिकारी का युवा अधिकारियों के नाम यह उपदेश अब यहीं खत्म हो जाना चाहिए. फरमान देने का मेरा कोई इरादा नहीं है. निस्संदेह, हर पीढ़ी अपनी परिस्थितियों के मुताबिक अपनी पेशेवर शख्सियत को तैयार करती है. लेकिन सभी तरह का समय देख चुका यह बुजुर्ग सुझाव देने का जोखिम उठाता है कि ऊपर जिन स्थायी बुनियादी मूल्यों का उल्लेख किया गया है वे किसी भी परिस्थिति में, किसी भी उम्र में प्रासंगिक बने रहेंगे.
(जाविद चौधरी सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी हैं )
यह दावा करना भी गैर-मुनासिब नहीं होगा कि पुराने अफसरशाहों के लिए यह कर्तव्य जैसा था, सिर्फ नौकरी नहीं. भारत जैसे विकासशील देश में यह सामाजिक और नैतिक दायित्व बन जाता है कि समाज के उन तबकों का हमेशा ख्याल रखा जाए, जिन्हें मदद की सख्त जरूरत है और जहां जरूरी हो, फौरन हस्तक्षेप किया जाए—और यह काम वही कर सकता है जो इस पेशे को अपना कर्तव्य मानता हो. 1990 के दशक के वरिष्ठ अफसरों को मानो अक्ल की दाढ़ की तरह ही शुरू में ही इसका इल्म हो जाता था क्योंकि तब प्रशासनिक सेवा का मूलमंत्र ही जनहित के प्रति प्रतिबद्धता होता था. आज, किसी सबसे प्रतिबद्ध और जिम्मेदार दिखने वाले नौजवान अफसर से इसका जिक्र भी कीजिए तो वह कंधा उचकाने लगता है. ऐसा कतई नहीं था कि पुराने अफसर कोई संत थे और उनमें स्वार्थ की भावना ही नहीं थी. फर्क बस यह था कि वे इस नजरिए को आत्मसात कर चुके थे कि प्रशासनिक सेवा का मूलमंत्र जनहित ही होता है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि 2014 का राजनैतिक जनादेश एक नव-उदारवादी विकास मॉडल के लिए है. इस सिद्घांत के तहत भी कई तरह के विकल्प आजमाए जा सकते हैं. लेकिन ऐसे विकल्पों को युवा अफसरों को जनहित की कसौटी पर कसना होगा. मुझे राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी से अलग हुए करीब आधी सदी बीत गई है लेकन वहां के युवा प्रोबेशनर्स से मैं आग्रह करूंगा कि वे प्रशासनिक सेवा के मूलमंत्र-जनहित के प्रति आस्था-को नए सिरे से ईजाद करें.
आज की सरकार के वैश्विक नजरिए के साथ तालमेल बनाते हुए अफसरों को विभिन्न मसलों का विश्लेषण करना चाहिए और ऐसे विकल्पों की ही पेशकश करनी चाहिए जिसमें अधिकतम जनहित का ख्याल हो. जनहित मोटे तौर पर राजनीति निरपेक्ष होता है, बशर्ते उसकी व्याख्या गलत-शलत ढंग से न की जाए. युवा प्रोबेशनर्स को इस सलाह का मतलब यह नहीं हैं कि वे हथियार उठाकर कोई क्रांति करने निकल पड़ें. सरकार की एक राजनैतिक विचारधारा होती है और चुनावी जनादेश उसे यह हक देता है कि वह उस पर अमल करे. हालांकि, प्रशासनिक तंत्र का एक छोटा हिस्सा ही विचारधारा से संचालित होता है—इसके अलावा उसमें काफी गुंजाइश होती है कि ऐसी नीतियां, योजनाएं और कार्यक्रम बनाए जाएं जिनमें जनहित का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखा जा सके.
आज के प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को 1990 के दशक के वरिष्ठ अधिकारियों के मुकाबले बेहतर प्रशिक्षण हासिल है. बहुत से युवा अधिकारी खुद को सौंपे गए काम में अपने कौशल का काफी प्रभावी तरीके से इस्तेमाल भी करते हैं. हालांकि, हमारे जैसे पुराने लोगों के लिए तो अधिकारियों की इन दो पीढिय़ों के बीच फर्क तब स्पष्ट होता है जब प्राथमिकताएं तय की जाती हैं और सामाजिक स्तर पर विकल्पों का इस्तेमाल किया जाता है.
जनहित को प्रधानता
आज के शासन का एक पहलू यह लगता है कि सामाजिक क्षेत्र (प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा, प्राथमिक शिक्षा, न्यूनतम पोषण, महिला एवं बाल विकास, कमजांर तबकों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान जैसे मसले) उसके दायरे से बाहर हो गया है. युवाओं ने, कम से कम जो आइएएस बने हैं, अपने कॅरिअर के शुरुआती वर्षों में भारी अभाव जरूर झेला होगा. हमारे प्रतिभाशाली युवा प्रोबेशनर्स ने यह बात जरूर महसूस की होगी कि हमारी विकास की रणनीति और आबादी के बड़े तबके की जरूरतों के बीच भारी खाई है.
आज सरकार व्यापार और कॉरपोरेट जगत को बहुत महत्व दे रही है. उनकी जरूरतों और नजरिए को नीतियों के निर्माण में काफी जगह दी जाती है. वंचित तबके को कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं मिल पाता. यदि कोई प्रशासनिक अधिकारी जनहित के अपने धर्म का पालन करता है, तो उसे ऐसे कदम भी उठाने होंगे जिनसे ऐसे लोगों को नीतियों में जगह मिले जिनका प्रतिनिधित्व ही नहीं हो पाता है. हमें ऐसा सुनने में आ रहा है कि युवा अफसर टेक्नोलॉजी और आधुनिक कारोबारी दस्तूर से चौंधियाए हुए हैं क्योंकि इसे ही तरक्की का मानक मान लिया गया है. हम यही समझते हैं कि देश को वैश्विक महाशक्ति बनाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा आर्थिक तरक्की जरूरी है. लेकिन प्रशासनिक सेवा के हमारे युवा दोस्तों को यह भी तलाशना चाहिए कि आखिर वे जनहित का इसमें समावेश कैसे कर सकते हैं.
यह भी गौरतलब है कि जहां घोटालों की भरमार हो, प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए निष्ठा और ईमानदारी अहम गुण हो जाते हैं. पुराने प्रशासनिक अपने दौर के स्पष्ट मूल्य विधान के कायल हुआ करते थे. उनके लिए निष्ठा, खासकर वित्तीय ईमानदारी का महत्व सर्वाधिक था. यह भी गौरतलब है कि 1990 के दशक में वित्तीय कदाचार के मौके आज की तुलना में नगण्य थे. आज बड़ी संख्या में ऐसे सरकारी सौदे होते हैं जो काफी संदिग्ध होते हैं-कुछ में तो अमूर्त संपत्ति शामिल होती है जिनमें कीमतों के निर्धारण के लिए बाजार में लेन-देन की मिसाल नहीं होती और बिक्री के कई सौदे ऐसी कीमतों पर होते हैं जिनका निर्धारण मनमाने ढंग से किया जाता है.
ऐसी परिस्थितियों में प्रशासनिक कार्य और जटिल हो गए हैं. हालांकि, जो लोग इरादा रखते हैं, उनके लिए अतिरिक्त कानूनी फायदे हासिल करने के अवसर भी हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वित्तीय अपराध के उदाहरण अब इफरात में मिलने लगे हैं. हमें इस सचाई को स्वीकार करना चाहिए, हालांकि हममें से बहुत लोग इससे इनकार करते हैं और ‘ईमानदारी के अभाव’ को एक असंसदीय शब्द जैसा मानते हैं जिसे कभी जुबान पर नहीं लाया जाना चाहिए. इसलिए प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की मौजूदा पीढ़ी को यह तय करना होगा कि आज के शासन के ऐसे काफी जटिल तंत्र में काम करने के लिए किन तौर-तरीकों और प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाए, ताकि शर्मनाक अनियमितता से उठ रहे सार्वजनिक विवादों के बगैर नतीजे किस तरह से दिए जा सकें.
फिर हासिल करें साख
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रशासनिक सेवा की साख गर्त में जा चुकी है. साख कठोर साक्ष्यों के अलावा धारणाओं से भी हासिल की जा सकती है या गंवाई जा सकती है. आज नौकरशाही पर भरोसा लगातार घटता दिख रहा है. करीब आधा सदी पहले एक युवा अफसर के रूप में मैं अक्सर अवाक रह जाता था, यह देखकर कि मेरी नेकनीयती पर कितना भरोसा किया जा रहा है, जबकि कई बेतुके निर्णय शायद मैंने जल्दबाजी और अति आत्मविश्वास में लिए होंगे. इसके विपरीत आज सही निर्णय को भी, जो समाज की भलाई के लिए लिया गया हो, कुछ व्यक्तिगत हितों या भाई-भतीजावाद की वजह से चुनौती दी जा सकती है. सामान्य नागरिकों ने अधिकारियों को जो बिना शर्त भरोसे की निधि उपहार में दी थी, उसे बर्बाद करके वे अपनी ही डाल काट रहे हैं.
लोगों का भरोसा जीतने के लिए किसी बड़े प्रबंधन कौशल की जरूरत नहीं पड़ती. संवेदना, निष्पक्षता और सबके लिए समान रवैए जैसे सामान्य गुणों से ही समाज का हर व्यक्ति सहज और सुखद महसूस करने लगता है. कारोबारी मॉडल को ही एकमात्र मंत्र मानने से ऐसा सामान्य रवैया भी अब अप्रासंगिक होता जा रहा है. आज, सार्वजनिक लेन-देन में कोई भी किसी पर भरोसा नहीं करता.
1990 के दशक और उसके पहले के दौर की पुरानी पीढ़ी के अफसरशाहों को देश के लोगों से साख उपहार में मिली थी और उन्होंने इसका इस्तेमाल भलाई के लिए किया. युवा अफसरों को इसे फिर हासिल करना होगा, भले ही इसमें कितना भी समय और प्रयास क्यों न लगाना पड़े. मैं इस बात की गारंटी दे सकता हूं कि वे इसे अपने पेशेवर कॅरिअर के श्रेष्ठ निवेश के रूप में पाएंगे.
तो, एक पुरानी पीढ़ी के अधिकारी का युवा अधिकारियों के नाम यह उपदेश अब यहीं खत्म हो जाना चाहिए. फरमान देने का मेरा कोई इरादा नहीं है. निस्संदेह, हर पीढ़ी अपनी परिस्थितियों के मुताबिक अपनी पेशेवर शख्सियत को तैयार करती है. लेकिन सभी तरह का समय देख चुका यह बुजुर्ग सुझाव देने का जोखिम उठाता है कि ऊपर जिन स्थायी बुनियादी मूल्यों का उल्लेख किया गया है वे किसी भी परिस्थिति में, किसी भी उम्र में प्रासंगिक बने रहेंगे.
(जाविद चौधरी सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी हैं )