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इंडिया टुडे नीलसन सर्वेक्षण 2014: भारत के बेस्ट कॉलेज: नए खुले कॉलेजों की बड़ी छलांग

द्वितीय और तृतीय श्रेणी के शहरों में नए खुले कॉलेज पुराने दिग्गज अभिजात्य संस्थानों को दे रहे हैं चुनौती. इंडिया टुडे-नीलसन सर्वेक्षण 2014 के अनुसार ये हैं भारत के बेस्ट कॉलेज.

अपडेटेड 16 जून , 2014
भारत का उच्च शिक्षा मौन क्रांति का गवाह बन रहा है. पिछले दो दशकों से बड़े शहरों और जाने-माने विश्वविद्यालयों के वर्चस्व को छोटे कस्बों और शहरों में खुले नए कॉलेज चुनौती दे रहे हैं. इंडिया टुडे-नीलसन के 2014 के बेस्ट कॉलेजों का सर्वेक्षण बताता है कि हमारी शिक्षा नीति ‘‘विशिष्ट’’ उच्च संस्थानों पर ही केंद्रित नहीं रह सकती.
 
भारत की नई सरकार के लिए सर्वेक्षण देश की उच्च शिक्षा के भविष्य की झ्लक पेश करता है. कुछ का वर्चस्व कायम है-उदाहरण के तौर पर दिल्ली में साइंस, आर्ट्स और कॉमर्स में बेस्ट कॉलेज हैं. इस साल राष्ट्रीय रैंकिंग में जयपुर, लखनऊ, कोच्चि और चंडीगढ़ जैसे द्वितीय और तृतीय श्रेणी के शहरों से 15 नए कॉलेज शामिल हैं. सर्वेक्षण में कोयंबटूर, पटना, भुवनेश्वर और इंदौर जैसे चार नए शहरों को भी शामिल किया गया है. इन शहरों में जो नए कॉलेज खुले हैं, उनमें स्वस्थ प्रतियोगिता नजर आती है क्योंकि ये नए विचारों को बढ़ावा देने और उन्हें लागू करने में आगे रहते हैं. पिछले 20 साल में खुले जिन उभरते कॉलेजों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया, तो पाया गया कि टॉप के स्थान पर अन्य कॉलेजों का कब्जा है.

शिक्षा के क्षेत्र में नई सरकार की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह इस नए रुझन को अपनाने को कितनी उत्सुक है और अच्छी कॉलेज शिक्षा पाने की मिथ्या अवधारणाओं को तोडऩे में कितनी सफल रहती है. सर्वेक्षण से कई नए विचार सामने आए हैं, जिनमें वोकेशनल एजुकेशन को प्रोत्साहन और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का पुनर्गठन शामिल है, लेकिन विशेषज्ञों की राय है कि पहला कदम शिह्ना नीति में प्राथमिकताएं तय करना होना चाहिए.
नए शिक्षा मंत्री को आइआइटी और आइआइएम संस्थानों से परे भी देखना चाहिए. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन के वाइस चांसलर प्रो. आर. गोविंदा का कहना है कि अतीत की सरकारों की यही समस्या रही है. वे कहते हैं, ‘‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय केंद्र सरकार के संसाधनों का प्रबंधक भर नहीं है. उच्च शिक्षा में भागीदारी राज्य विश्वविद्यालयों और उनसे संबद्ध सैकड़ों कॉलेजों से आती है, फिर भी उनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता.’’ अब जब अधिक से अधिक संख्या में छात्र 95 प्रतिशत और उससे अधिक हासिल कर रहे हैं, जिससे दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे लोकप्रिय संस्थानों में असंभव-सा कट-ऑफ सामने आता जा रहा है, होनहार छात्र बेहतर विकल्पों पर जरूर गौर करेंगे.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार से मिलने वाले शुरुआती संकेत तो बहुत संभावना भरे नजर नहीं आते. अपने चुनावी भाषणों में उन्होंने हर राज्य में नए आइआइटी और एम्स खोलने का वादा किया था, इससे ‘‘विशिष्ट’’ उच्च शिक्षा और संस्थानों के प्रति मोह ही नजर आता है. मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने 2 जून को एक बयान जारी कर बताया कि आठ नए आइआइटी की स्थापना के लिए फंड की व्यवस्था करने को कहा गया है.

केंद्र सरकार का ध्यान जहां सिर्फ विशिष्ट उच्च शिक्षा पर है, छोटे कॉलेजों पर फोकस इतना ही सीमित है कि देश में उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वालों की संख्या बढ़ रही है. गोविंदा की चेतावनी है कि सरकार को ऐसा नहीं करना चाहिए. वे कहते हैं, ‘‘संख्या बढ़ाने का आशय यह होता है कि आंकड़ों की तुलना विकसित देशों की उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले छात्रों से की जा सके. जबकि सरकार का ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि छात्र कॉलेजों में क्या सीखते हैं और कॉलेज शिक्षा पूरी करने के बाद नौकरी के लिए उनकी तैयारी कितनी है.’’ एक बार राज्य स्तर पर स्तरीय शिक्षा संस्थान खुल गए तो दाखिला संख्या खुद ही बढ़ जाएगी.

कई राज्यों ने कानून बनाकर कई निजी विश्वविद्यालय स्थापित किए हैं, उन राज्यों की भूमिका की समीक्षा कर उन्हें नीति निर्धारण की अधिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए. नोएडा की गलगोटियाज यूनिवर्सिटी के चांसलर सुनील गलगोटिया बताते हैं कि निजी विश्वविद्यालयों के विकास में सबसे बड़ी बाधा केंद्र सरकार का इस बात पर जोर देना है कि इन संस्थानों को नॉट फॉर प्रॉफिट संस्थानों के रूप में चलाया जाना चाहिए. वे कहते हैं, ‘‘मुनाफे की उम्मीद न हो तो कोई भी कॉर्पोरेट घराना शिक्षा में इन्वेस्ट नहीं करेगा. सरकार की यह मिथ्या धारणा है कि अगर विश्वविद्यालय को मुनाफा कमाने की इजाजत दे दी गई तो फीस बढ़ जाएगी. इसके विपरीत, अधिक संस्थानों का अर्थ है अधिक प्रतियोगिता और कम फीस.’’ इससे सरकार को भी कई करोड़ रु. की राजस्व हानि होती है क्योंकि सोसाइटीज और ट्रस्टों को कर नहीं चुकाना पड़ता.

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी जैसे टिप्पणीकारों का तर्क है कि शिक्षा में लाभ कमाने के सवाल पर सरकारों का रवैया रूढ़िवादी है. वे शिक्षा से पैसा कमाने को अनैतिक मानते हैं और इसकी वजह से जमीनी सचाइयों की उपेक्षा कर देते हैं. शौरी ने इस साल इंडिया टुडे कॉनक्लेव में बताया, ‘‘कुरनूल में रायलसीमा यूनिवर्सिटी ने दो साल में 2,600 पीएचडी दी हैं लेकिन हैरत की बात है कि इसे मुनाफा कमाने वाला नहीं समझ जाता.’’ अभी यह देखा जाना शेष है कि क्या सरकार निजी विश्वविद्यालयों को चलाने के बेहतर तरीके निकाल सकती है.
बेस्ट कॉलेज
बीजेपी सरकार ने घोषणा कर दी है कि स्किल डेवलपमेंट उसके एजेंडे का अहम हिस्सा होगा. मिनिस्ट्री ऑफ स्किल्स स्थापित करके उसने अपने इरादों की पुष्टि भी कर दी है. रिक्रूटमेंट कंसल्टेंसी फर्म टीमलीज के अध्यक्ष मनीष सबरवाल बताते हैं कि अगले 20 माह तक हर महीने 10 लाख युवा मानव श्रम का हिस्सा बनते रहेंगे, इस वजह से भी रोजगार बेहद अहम मुद्दा बन जाता है. इसके बावजूद बड़े स्तर पर स्किल डेवलपमेंट और वोकेशनल ट्रेनिंग बड़ी चुनौतियां पेश करते हैं. अब तक सरकार ने ट्रेनिंग के लिए सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित करने की चर्चा भर की है. इससे आधी समस्या ही सुलझेगी-ऐसे संस्थान कार उद्योग जैसे संगठित क्षेत्रों के लिए प्रशिक्षित श्रमिक तैयार कर सकते हंए लेकिन असंगठित क्षेत्र की समस्याएं अलग हैं. मसलन, निर्माण उद्योग में प्रशिक्षित श्रमिकों को लाने और उन्हें कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरियां देने से श्रमिक नियमों को नए सिरे से तय करना होगा.

इसी तरह अगर स्किल डेवलपमेंट को विशिष्ट केंद्रों से परे कॉलेजों तक ले जाना है तो हायर सेकेंडरी स्तर और कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली वोकेशनल शिक्षा में बेहतर सामंजस्य स्थापित करना होगा. ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि छात्र नौकरी से शिक्षा और शिक्षा से नौकरी की ओर सहजता से आवाजाही कर सकें.
बेस्ट कॉलेज
अपने कार्यकाल के पांच वर्षों में यूपीए सरकार ने अपने स्किल डेवलपमेंट एजेंडा को कभी भी अमली जामा नहीं पहनाया. इसके बावजूद हाल ही में कुछ शीर्ष विश्वविद्यालयों के साथ अच्छे करार हुए हैं. पिछले साल दिल्ली यूनिवर्सिटी ने नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के साथ 60,000 छात्रों के लिए करार किया, जिसके तहत छात्रों को वित्त, स्वास्थ्य, आइटी और बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में फील्ड वर्क करना है. नए कॉलेज भी ‘‘जॉबसीकर्स (नौकरी ढूंढने वाले)’’ की  बजाए ‘‘जॉबक्रिएटर्स (नौकरियों का सृजन करने वाले)’’ तैयार करने पर फोकस कर रहे हैं. यह बात इंडिया टुडे-नीलसन इमर्जिंग कॉलेज सर्वेक्षण में सामने आई है, जहां टॉप के कॉलेजों ने उद्यमी छात्रों को वित्तीय सहयोग देने के लिए अत्याधुनिक इनक्यूबेशन सेंटर शुरू किए हैं. लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान तो ईको-फ्रेंडली बाइक और कारों के निर्माण में मदद के लिए 30-40 लाख रु. तक इन्वेस्ट कर रहे हैं.
सोनीपत की ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में छात्र
शिक्षा के क्षेत्र में बड़े फैसले सिर्फ संसद में विधेयकों के जरिए ही नहीं लिए जाने चाहिए. पिछली सरकार ने 10 शिक्षा विधेयक लंबित छोड़े थे, जिनमें विदेश शिक्षा संस्थान (प्रवेश और संचालन नियमन) विधेयक, 2012 और यूनिवर्सिटीज फॉर रिसर्च ऐंड इनोवेशन बिल, 2012 भी शामिल है जो विभिन्न विषयों पर सेंटर्स फॉर एक्सीलेंस स्थापित करने से संबंधित है. एक जाने-माने शिक्षाविद कहते हैं, ‘‘सेंटर्स ऑफ एक्सीलेंस जैसे अच्छे संस्थानों की स्थापना प्रमोटरों और यूजीसी से संवाद के जरिए की जा सकती है. इसके लिए विधेयक की जरूरत नहीं है जो कार्य को लटका दे. इसी तरह विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए हमें उनसे सीधे ही बात करनी होगी, अन्यथा वे यहां कैंपस स्थापित करने में अधिक दिलचस्पी नहीं लेंगे.’’ सरकार और विश्वविद्यालय में खुला संवाद सरकार के स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए भी जरूरी है.

देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था में सुधार बीजेपी सरकार की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए. शिक्षा खर्च जो अभी सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसदी है, उसे बढ़ाकर 6 फीसदी करना होगा. सरकार ने नए विचारों को स्वीकार करने और सुधार की इच्छा भी जताई है. अभी सरकार को वजूद में आए कुछ हफ्ते ही हुए हैं, इसलिए सरकार का आकलन जल्दबाजी होगी, पर आने वाले महीनों में यह देखना होगा कि इसकी उच्च शिक्षा योजनाएं चली आ रही परिपाटी से परे जाकर नया  गतिशील और प्रतियोगी वातावरण ला पाती हैं या नहीं.
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