अक्तूबर, 2007 में जब 24 सदस्यीय फीफा कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से 2014 विश्व कप की मेजबानी ब्राजील को सौंपी तो हर ओर जश्न और खुशी का माहौल था. मानो यह शानदार खेल अपनी मूल जमीं पर लौट रहा था, आखिर वह फुटबॉल का मक्का जो कहा जाता है, इसी सरजमीं से दुनिया को फुटबॉïल के बेहतरीन खिलाड़ी, शानदार प्रशंसक और बेशक लाजवाब फुटबॉल देखने को मिला है.
फीफा विश्व कप उस देश में लौट रहा था जहां 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में रईस औरतें फुटबॉल स्टेडियम इसलिए जाया करती थीं, ताकि वे अपने लिए शौहर चुन सकें. जोड़ों के मिलन स्थल से लेकर विश्व मंच पर दबदबे के प्रतीक के रूप में फुटबॉल का ब्राजील से अनूठा और बेजोड़ नाता है.
फिर भी कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जो वाकई गंभीर हैं. 27 मई को ब्राजील के खिलाड़ी साओ-पालो के पास प्री-टूर्नामेंट ट्रेनिंग कैंप में जाने के लिए होटल से निकल ही रहे थे कि प्रदर्शनकारियों ने उनकी बस पर पथराव शुरू कर दिया और बस रोक ली. ब्राजील इस आयोजन पर 11.5 अरब डॉलर खर्च करने जा रहा है, जो 2010 में दक्षिण अफ्रीका में फीफा कप आयोजन पर खर्च की गई राशि से तीन गुना ज्यादा है.
वह भी ऐसी स्थिति में जब ब्राजील में स्वास्थ्य और शिक्षा की हालत बेहद खस्ता है. यही वजह है कि ब्राजील में समाज का बहुत बड़ा तबका इस आयोजन को सफेद हाथी जैसा बता रहा है और खुलकर इसका विरोध कर रहा है.
यही नहीं, स्टेडियमों के निर्माण में देरी, निर्माण कार्य में लगे मजदूरों की मौत, आसमान छूती लागत और कई स्टेडियमों में मोबाइल कनेक्टिविटी की समस्या ने फीफा के सचिव जेरोम वाल्क को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि ''हम नहीं चाहते कि ब्राजील को अब तक के सबसे खराब विश्वकप आयोजन के लिए याद किया जाए क्योंकि पत्रकार तक अपनी खबरें बाकी दुनिया तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं. ''
ऐसे में यह सवाल मौजूं हो गया है कि क्या ब्राजील इस आयोजन को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचा पाएगा? इसे इतिहास में शानदार की तरह याद किया जाएगा या बेमजा बताया जाएगा? दुनिया में बड़े खेल आयोजनों पर इसका क्या असर होगा? क्या भविष्य में विकासशील देश ऐसे अरबों डॉलर के आयोजन की जिम्मेदारी संभालने के लिए आगे आते रहेंगे? और सबसे अंत में, मोटे तौर पर फुटबॉल और खासकर ब्राजील की टीम के लिए इसके क्या सबक होंगे?
जिस देश ने पेले, गरीचा, कार्लोस अल्बर्टो, सॉक्रेटिज, जाइको, बेबेटो, रोनाल्डिन्हो, रोमारियो, रोनाल्डो और अब नेमार जैसे महान खिलाड़ी दिए हों उसके लिए बेहतरीन फुटबॉल खेलना कभी मुश्किल नहीं रहा. ब्राजील की टीम हमेशा ही दुनिया में सबसे पसंदीदा रही है. इस देश ने गजब की फुटबॉल खेली भी है.
पेले की गजब की जादूगरी, गेंद पर कमाल का नियंत्रण और गोल करने की लाजवाब क्षमता, गरीचा की बिजली-सी दौड़, जाइको की बेमिसाल फ्री-किक, ब्राजील के खिलाडिय़ों ने विश्व फुटबॉल को क्या कुछ नहीं दिया है. पांच विश्वकप और अनगिनत चैंपियनशिप जीत कर ब्राजील की टीम ने फुटबॉल को दुनिया में ब्राजील की पहली पहचान बना दी है.
फिर भी, इस बार ब्राजील अब तक की सबसे कड़ी परीक्षा से रू-ब-रू है. यूं कहें कि इस बार मुकाबला जुनून और हकीकत के बीच है. क्या फुटबॉल का जुनून गरीबी और खस्ताहाली की जमीनी सच्चाई को हरा सकता है? क्या ब्राजील के लोग इस महाआयोजन को गले लगा लेंगे और यह भुला देंगे कि महीने भर बाद उनके कंधों पर सिर्फ टैक्स का भारी बोझ बचेगा? और ब्राजील की टीम की सफलता या विफलता किस हद तक विश्वकप की लंबी विरासत को प्रभावित करेगी?

तीखा विरोध
जानकार मानते हैं कि अगर विश्वकप को सफल होना है तो ब्राजील को जीतना होगा. शुरुआती चरणों से लेकर ब्राजील की हर जीत के साथ विरोध मंद पड़ता जाएगा और लोग सब कुछ भूलकर खेल में रम जाएंगे. सांबा अपने शबाब पर होगा, स्ट्राइकर नेमार, डिफेंडर थियागो सिल्वा और कोच लुई फिलिप स्कोलारी सुर्खियां बटोरने लगेंगे और मीडिया भी आयोजन की वाहवाही में खो जाएगा.
लेकिन, अगर ब्राजील 16 के दौर में या उससे पहले हार गया तो विश्वकप भारी बर्बादी के मंजर में बदल जा सकता है. विरोध बेकाबू हो सकता है और फुटबॉल से ज्यादा दिलचस्पी दूसरी सुर्खियों में बढ़ सकती है.
कुछ-कुछ वैसे ही हालात दिख सकते हैं जैसे 2007 में वेस्ट इंडीज में क्रिकेट विश्वकप में पहले दौर में ही टीम इंडिया की हार के बाद भारत में देखे गए थे. तो, हैरान न होइएगा, अगर खिलाडिय़ों के घरों पर हमले होने लगें और आयोजकों को निशाना बनाया जाना लगे.
ऐसी आशंकाओं के मद्देनजर ही जर्मनी अपनी टीम के साथ अपने सुरक्षा विशेषज्ञ भेज रहा है और बाहिया की राजधानी साल्वाडोर से 435 मील दक्षिण में सांतो आंद्रे्र में खिलाडिय़ों के लिए विशेष किस्म का सुरह्नित रिसॉर्ट भी बनवा चुका है.
निरंतर 'तरक्की करते शहरों' के लिए फीफा वर्ल्ड कप या ओलंपिक खेलों की मेजबानी अपनी जबरदस्त मार्केटिंग करने का जरिया बन जाती है. वहां के नेता इसके जरिए 'दुनिया की संपन्न शहरी आबादी में शामिल होने' का पुख्ता दावा करते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यह सारा तमाशा विलक्षण खेल प्रतिभा, राष्ट्रीय दबदबे, विशाल आयोजन क्षमता और शायद सबसे महत्वपूर्ण दुनिया में संपन्न-विपन्न के बीच की खाई की नुमाइश का अवसर होता है.
दरअसल यह तो स्थापित तथ्य है कि बड़े खेल आयोजन शहरीकरण में उफान लाने का जरिया होते हैं. इसी वजह से शहरों के पुनर्जीवन के लिए अनिवार्य बड़े आयोजनों की मेजबानी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना ली जाती है. इसकी दो मिसालें हैं 1984 में लॉस एंजेलिस ओलंपिक खेल, जिसमें 21.5 करोड़ पाउंड का मुनाफा हुआ और 1992 का बार्सीलोना गेम्स, जिससे शहरीकरण में नई जान आ गई थी.
लेकिन इन आयोजनों में कई बार नाकामी भी हाथ लगी है. 1976 में मांट्रियल ओलंपिक और हाल के दौर में 2010 में दिल्ली में नाकामी साफ-साफ देखी गई. मांट्रियल खेलों में हुए 69.2 करोड़ पाउंड के घाटे का हवाला देकर तो टोरंटो के लोगों ने 1996 में ओलंपिक के आयोजन का विरोध किया और नारे लगाए ''सर्कस नहीं, रोटी चाहिए. '' इससे ओलंपिक आयोजन का मांट्रियल का दावा खारिज हो गया.
ब्राजील में पढ़े-लिखे लोगों ने सवाल उठाए हैं कि हमारे अधिकतर शहरों में ठीक से बुनियादी ढांचा भी नहीं है तो इतने बड़े खेल आयोजन की मेजबानी की क्या तुक है. यहां सामान्य लोगों के लिए आवास और पेयजल का संकट है और ऊंची मृत्यु दर विकराल समस्या है, नशे का जाल बढ़ता जा रहा है और अपराध चरम पर है. इसके साथ ही प्रदर्शनकारी सरकार के इस दावे पर भी सवाल उठा रहे हैं कि विश्वकप के दौरान पर्यटन से देश को 30 करोड़ डॉलर की कमाई होगी और इस टूर्नामेंट से आम ब्राजीलवासी पर टैक्स का बोझ बहुत ज्यादा नहीं बढ़ेगा.
खूबसूरत खेल काफी नहीं
इस बहस का दूसरा पहलू यह भी है कि आजकल हर बड़े खेल आयोजन से पहले इसी तरह की आशंकाएं जताई जाती हैं. यहां तक कि बीजिंग ओलंपिक के दौरान भी ऐसे सवाल उभरे थे. कई लोगों ने तो यह भविष्यवाणी भी कर दी थी कि 2010 में दक्षिण अफ्रीका में फीफा विश्वकप का आयोजन फीका रहेगा, लेकिन वह देश इस चुनौती पर खरा उतरा.
इसी तरह तमाम आलोचनाओं के बावजूद दिल्ली में भी राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन ठीक-ठाक कर लिया गया. बीजिंग और लंदन ओलंपिक आयोजन ने तो सारे अनुमान झुठला दिए. लंदन ने तो यह दावा भी ठोक दिया है कि 2012 का ओलंपिक अब तक का सबसे शानदार रहा है. इन सभी उदाहरणों से एक ही बात साबित होती है कि मेजबान देश बेहतरीन प्रदर्शन करने में कोई कोताही नहीं बरतते.
2012 ओलंपिक में ब्रिटेन ने 29 स्वर्णपदक जीतकर इतिहास बना दिया था. 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने भी 101 पदक जीतकर कमाल कर दिया था. तो, क्या ब्राजील स्कोलारी के नेतृत्व में ऐसा ही कमाल दिखा पाएगा या अर्जेंटीना सुपर प्रतिभा संपन्न लियोनेल मेसी की अगुआई में खिताब अपने नाम कर लेगा? क्या लुई सॉरेज चोट से चमत्कारी ढंग से उबर कर उरुगुए को 1950 में माराकाना जैसी शान वापस दिला पाएगा?
फुटबॉल पंडितों की मानें तो यूरोप की एक बड़ी टीम ब्राजील में खिताब जीत सकती है, चाहे वह फिलिप लाम की जर्मनी हो या आंद्रेस इनिएस्ता की स्पेन या ईडन हजार्ड की बेल्जियम. विश्वकप के इतिहास में 2014 का मुकाबला सबसे खुला है. यहां तक क्रिस्टियानो रोनाल्डो की पुर्तगाल और वायन रूनी की इंग्लैंड सहित कोई 7 या 8 टीमें खिताब की काबिलियत रखती हैं.
लेकिन इनमें किसी भी टीम की जीत से सेप्प ब्लाटर या जिरोम वाल्क के चेहरे पर मुस्कान नहीं आएगी. फीफा और ब्राजील सरकार की तो यही चाहत है कि मेजबान टीम कुछ और चुस्त हो और रिकॉर्ड छठी बार ट्रॉफी जीत जाए. 1950 में ब्राजील की हार पर बनी फिल्म पैराडाइज लॉस्ट में फाइनल के बाद भयावह निराशा के आलम का अंदाजा लगता है. ऐसा लगा मानो पूरा देश कई दिनों तक शोक मनाता रहा.
खचाखच भरे माराकाना स्टेडियम में हर कोई सोचता ही रह गया कि पड़ोसी मुल्क उरुगुए से 2-1 से ब्राजील की हार भला कैसे हो गई.
फिर भी 1950 में ब्राजील सिर्फ एक फुटबॉल मैच हारा था. हार से निराशा तो हुई थी पर ब्राजील की अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक घाटा नहीं उठाना पड़ा था, बल्कि खिलाडिय़ों को कुछ दिन बाद नायक माना गया, जिनके कदम आखिरी बाधा पर चूके थे. इस बार ऐसी कोई उम्मीद नहीं है.
2016 के रियो ओलंपिक खेलों में दो साल बचे हैं और विश्व कप का अनुभव अच्छा नहीं रहा तो हो सकता है कि ब्राजील को ओलंपिक की मेजबानी से हाथ धोना पड़े. अटकलें लगने लगी हैं कि लंदन को तैयार किया जा रहा है.
कुछ दिन बाद दुनिया की निगाहें ब्राजील पर टिक जाएंगी, तब सवाल सिर्फ जोगा बोनिटो या खूबसूरत खेल का नहीं रह जाएगा. सवाल गोल दागने या बचाने का भी नहीं रह जाएगा. ब्राजील के लोगों के लिए सब कुछ दांव पर लगा है. सवाल हकीकत से टकराकर जुनून की हार, कड़वी आर्थिक हकीकतों से फुटबॉल के ऊपर न उठ पाने और बड़े खेल आयोजनों की मेजबानी में विकासशील देशों की नाकामी का है.
फीफा विश्व कप उस देश में लौट रहा था जहां 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में रईस औरतें फुटबॉल स्टेडियम इसलिए जाया करती थीं, ताकि वे अपने लिए शौहर चुन सकें. जोड़ों के मिलन स्थल से लेकर विश्व मंच पर दबदबे के प्रतीक के रूप में फुटबॉल का ब्राजील से अनूठा और बेजोड़ नाता है.
फिर भी कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जो वाकई गंभीर हैं. 27 मई को ब्राजील के खिलाड़ी साओ-पालो के पास प्री-टूर्नामेंट ट्रेनिंग कैंप में जाने के लिए होटल से निकल ही रहे थे कि प्रदर्शनकारियों ने उनकी बस पर पथराव शुरू कर दिया और बस रोक ली. ब्राजील इस आयोजन पर 11.5 अरब डॉलर खर्च करने जा रहा है, जो 2010 में दक्षिण अफ्रीका में फीफा कप आयोजन पर खर्च की गई राशि से तीन गुना ज्यादा है.
वह भी ऐसी स्थिति में जब ब्राजील में स्वास्थ्य और शिक्षा की हालत बेहद खस्ता है. यही वजह है कि ब्राजील में समाज का बहुत बड़ा तबका इस आयोजन को सफेद हाथी जैसा बता रहा है और खुलकर इसका विरोध कर रहा है.
यही नहीं, स्टेडियमों के निर्माण में देरी, निर्माण कार्य में लगे मजदूरों की मौत, आसमान छूती लागत और कई स्टेडियमों में मोबाइल कनेक्टिविटी की समस्या ने फीफा के सचिव जेरोम वाल्क को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि ''हम नहीं चाहते कि ब्राजील को अब तक के सबसे खराब विश्वकप आयोजन के लिए याद किया जाए क्योंकि पत्रकार तक अपनी खबरें बाकी दुनिया तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं. ''
ऐसे में यह सवाल मौजूं हो गया है कि क्या ब्राजील इस आयोजन को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचा पाएगा? इसे इतिहास में शानदार की तरह याद किया जाएगा या बेमजा बताया जाएगा? दुनिया में बड़े खेल आयोजनों पर इसका क्या असर होगा? क्या भविष्य में विकासशील देश ऐसे अरबों डॉलर के आयोजन की जिम्मेदारी संभालने के लिए आगे आते रहेंगे? और सबसे अंत में, मोटे तौर पर फुटबॉल और खासकर ब्राजील की टीम के लिए इसके क्या सबक होंगे?
जिस देश ने पेले, गरीचा, कार्लोस अल्बर्टो, सॉक्रेटिज, जाइको, बेबेटो, रोनाल्डिन्हो, रोमारियो, रोनाल्डो और अब नेमार जैसे महान खिलाड़ी दिए हों उसके लिए बेहतरीन फुटबॉल खेलना कभी मुश्किल नहीं रहा. ब्राजील की टीम हमेशा ही दुनिया में सबसे पसंदीदा रही है. इस देश ने गजब की फुटबॉल खेली भी है.
पेले की गजब की जादूगरी, गेंद पर कमाल का नियंत्रण और गोल करने की लाजवाब क्षमता, गरीचा की बिजली-सी दौड़, जाइको की बेमिसाल फ्री-किक, ब्राजील के खिलाडिय़ों ने विश्व फुटबॉल को क्या कुछ नहीं दिया है. पांच विश्वकप और अनगिनत चैंपियनशिप जीत कर ब्राजील की टीम ने फुटबॉल को दुनिया में ब्राजील की पहली पहचान बना दी है.
फिर भी, इस बार ब्राजील अब तक की सबसे कड़ी परीक्षा से रू-ब-रू है. यूं कहें कि इस बार मुकाबला जुनून और हकीकत के बीच है. क्या फुटबॉल का जुनून गरीबी और खस्ताहाली की जमीनी सच्चाई को हरा सकता है? क्या ब्राजील के लोग इस महाआयोजन को गले लगा लेंगे और यह भुला देंगे कि महीने भर बाद उनके कंधों पर सिर्फ टैक्स का भारी बोझ बचेगा? और ब्राजील की टीम की सफलता या विफलता किस हद तक विश्वकप की लंबी विरासत को प्रभावित करेगी?

तीखा विरोध
जानकार मानते हैं कि अगर विश्वकप को सफल होना है तो ब्राजील को जीतना होगा. शुरुआती चरणों से लेकर ब्राजील की हर जीत के साथ विरोध मंद पड़ता जाएगा और लोग सब कुछ भूलकर खेल में रम जाएंगे. सांबा अपने शबाब पर होगा, स्ट्राइकर नेमार, डिफेंडर थियागो सिल्वा और कोच लुई फिलिप स्कोलारी सुर्खियां बटोरने लगेंगे और मीडिया भी आयोजन की वाहवाही में खो जाएगा.
लेकिन, अगर ब्राजील 16 के दौर में या उससे पहले हार गया तो विश्वकप भारी बर्बादी के मंजर में बदल जा सकता है. विरोध बेकाबू हो सकता है और फुटबॉल से ज्यादा दिलचस्पी दूसरी सुर्खियों में बढ़ सकती है.
कुछ-कुछ वैसे ही हालात दिख सकते हैं जैसे 2007 में वेस्ट इंडीज में क्रिकेट विश्वकप में पहले दौर में ही टीम इंडिया की हार के बाद भारत में देखे गए थे. तो, हैरान न होइएगा, अगर खिलाडिय़ों के घरों पर हमले होने लगें और आयोजकों को निशाना बनाया जाना लगे.
ऐसी आशंकाओं के मद्देनजर ही जर्मनी अपनी टीम के साथ अपने सुरक्षा विशेषज्ञ भेज रहा है और बाहिया की राजधानी साल्वाडोर से 435 मील दक्षिण में सांतो आंद्रे्र में खिलाडिय़ों के लिए विशेष किस्म का सुरह्नित रिसॉर्ट भी बनवा चुका है.
निरंतर 'तरक्की करते शहरों' के लिए फीफा वर्ल्ड कप या ओलंपिक खेलों की मेजबानी अपनी जबरदस्त मार्केटिंग करने का जरिया बन जाती है. वहां के नेता इसके जरिए 'दुनिया की संपन्न शहरी आबादी में शामिल होने' का पुख्ता दावा करते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यह सारा तमाशा विलक्षण खेल प्रतिभा, राष्ट्रीय दबदबे, विशाल आयोजन क्षमता और शायद सबसे महत्वपूर्ण दुनिया में संपन्न-विपन्न के बीच की खाई की नुमाइश का अवसर होता है.
दरअसल यह तो स्थापित तथ्य है कि बड़े खेल आयोजन शहरीकरण में उफान लाने का जरिया होते हैं. इसी वजह से शहरों के पुनर्जीवन के लिए अनिवार्य बड़े आयोजनों की मेजबानी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना ली जाती है. इसकी दो मिसालें हैं 1984 में लॉस एंजेलिस ओलंपिक खेल, जिसमें 21.5 करोड़ पाउंड का मुनाफा हुआ और 1992 का बार्सीलोना गेम्स, जिससे शहरीकरण में नई जान आ गई थी.
लेकिन इन आयोजनों में कई बार नाकामी भी हाथ लगी है. 1976 में मांट्रियल ओलंपिक और हाल के दौर में 2010 में दिल्ली में नाकामी साफ-साफ देखी गई. मांट्रियल खेलों में हुए 69.2 करोड़ पाउंड के घाटे का हवाला देकर तो टोरंटो के लोगों ने 1996 में ओलंपिक के आयोजन का विरोध किया और नारे लगाए ''सर्कस नहीं, रोटी चाहिए. '' इससे ओलंपिक आयोजन का मांट्रियल का दावा खारिज हो गया.
ब्राजील में पढ़े-लिखे लोगों ने सवाल उठाए हैं कि हमारे अधिकतर शहरों में ठीक से बुनियादी ढांचा भी नहीं है तो इतने बड़े खेल आयोजन की मेजबानी की क्या तुक है. यहां सामान्य लोगों के लिए आवास और पेयजल का संकट है और ऊंची मृत्यु दर विकराल समस्या है, नशे का जाल बढ़ता जा रहा है और अपराध चरम पर है. इसके साथ ही प्रदर्शनकारी सरकार के इस दावे पर भी सवाल उठा रहे हैं कि विश्वकप के दौरान पर्यटन से देश को 30 करोड़ डॉलर की कमाई होगी और इस टूर्नामेंट से आम ब्राजीलवासी पर टैक्स का बोझ बहुत ज्यादा नहीं बढ़ेगा.
खूबसूरत खेल काफी नहींइस बहस का दूसरा पहलू यह भी है कि आजकल हर बड़े खेल आयोजन से पहले इसी तरह की आशंकाएं जताई जाती हैं. यहां तक कि बीजिंग ओलंपिक के दौरान भी ऐसे सवाल उभरे थे. कई लोगों ने तो यह भविष्यवाणी भी कर दी थी कि 2010 में दक्षिण अफ्रीका में फीफा विश्वकप का आयोजन फीका रहेगा, लेकिन वह देश इस चुनौती पर खरा उतरा.
इसी तरह तमाम आलोचनाओं के बावजूद दिल्ली में भी राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन ठीक-ठाक कर लिया गया. बीजिंग और लंदन ओलंपिक आयोजन ने तो सारे अनुमान झुठला दिए. लंदन ने तो यह दावा भी ठोक दिया है कि 2012 का ओलंपिक अब तक का सबसे शानदार रहा है. इन सभी उदाहरणों से एक ही बात साबित होती है कि मेजबान देश बेहतरीन प्रदर्शन करने में कोई कोताही नहीं बरतते.
2012 ओलंपिक में ब्रिटेन ने 29 स्वर्णपदक जीतकर इतिहास बना दिया था. 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने भी 101 पदक जीतकर कमाल कर दिया था. तो, क्या ब्राजील स्कोलारी के नेतृत्व में ऐसा ही कमाल दिखा पाएगा या अर्जेंटीना सुपर प्रतिभा संपन्न लियोनेल मेसी की अगुआई में खिताब अपने नाम कर लेगा? क्या लुई सॉरेज चोट से चमत्कारी ढंग से उबर कर उरुगुए को 1950 में माराकाना जैसी शान वापस दिला पाएगा?
फुटबॉल पंडितों की मानें तो यूरोप की एक बड़ी टीम ब्राजील में खिताब जीत सकती है, चाहे वह फिलिप लाम की जर्मनी हो या आंद्रेस इनिएस्ता की स्पेन या ईडन हजार्ड की बेल्जियम. विश्वकप के इतिहास में 2014 का मुकाबला सबसे खुला है. यहां तक क्रिस्टियानो रोनाल्डो की पुर्तगाल और वायन रूनी की इंग्लैंड सहित कोई 7 या 8 टीमें खिताब की काबिलियत रखती हैं.
लेकिन इनमें किसी भी टीम की जीत से सेप्प ब्लाटर या जिरोम वाल्क के चेहरे पर मुस्कान नहीं आएगी. फीफा और ब्राजील सरकार की तो यही चाहत है कि मेजबान टीम कुछ और चुस्त हो और रिकॉर्ड छठी बार ट्रॉफी जीत जाए. 1950 में ब्राजील की हार पर बनी फिल्म पैराडाइज लॉस्ट में फाइनल के बाद भयावह निराशा के आलम का अंदाजा लगता है. ऐसा लगा मानो पूरा देश कई दिनों तक शोक मनाता रहा.
खचाखच भरे माराकाना स्टेडियम में हर कोई सोचता ही रह गया कि पड़ोसी मुल्क उरुगुए से 2-1 से ब्राजील की हार भला कैसे हो गई.
फिर भी 1950 में ब्राजील सिर्फ एक फुटबॉल मैच हारा था. हार से निराशा तो हुई थी पर ब्राजील की अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक घाटा नहीं उठाना पड़ा था, बल्कि खिलाडिय़ों को कुछ दिन बाद नायक माना गया, जिनके कदम आखिरी बाधा पर चूके थे. इस बार ऐसी कोई उम्मीद नहीं है.
2016 के रियो ओलंपिक खेलों में दो साल बचे हैं और विश्व कप का अनुभव अच्छा नहीं रहा तो हो सकता है कि ब्राजील को ओलंपिक की मेजबानी से हाथ धोना पड़े. अटकलें लगने लगी हैं कि लंदन को तैयार किया जा रहा है.
कुछ दिन बाद दुनिया की निगाहें ब्राजील पर टिक जाएंगी, तब सवाल सिर्फ जोगा बोनिटो या खूबसूरत खेल का नहीं रह जाएगा. सवाल गोल दागने या बचाने का भी नहीं रह जाएगा. ब्राजील के लोगों के लिए सब कुछ दांव पर लगा है. सवाल हकीकत से टकराकर जुनून की हार, कड़वी आर्थिक हकीकतों से फुटबॉल के ऊपर न उठ पाने और बड़े खेल आयोजनों की मेजबानी में विकासशील देशों की नाकामी का है.

