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अब भी सबक सीखने को तैयार नहीं कांग्रेस

राहुल गांधी जिम्मेदारी लेने से जी चुराते रहे, उनके सहयोगी जवाबदेही से कन्नी काटते रहे और कांग्रेस ने बागियों की नकेल कस दी. राहुल की दुनिया में कुछ भी नहीं बदला है.

अपडेटेड 16 जून , 2014
आम चुनाव में पार्टी की अपमानजनक हार के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी 21 मई को पहली बार दिल्ली से बाहर गए. वे और उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा लोकसभा में उन्हें लगातार तीसरी बार चुनने के लिए अमेठी के वोटरों का आभार जताने गए थे. गौरीगंज गांव में पार्टी कार्यकर्ताओं के एक समूह से राहुल गांधी ने कहा, ''यह संघर्ष का समय है और हम इसके लिए तैयार हैं. ''

इससे ऐसा लगा कि कुछ बड़ा बदलाव होने वाला है. कांग्रेस सिर्फ जिम्मेदारी तय करने की बात करने के अलावा आखिरकार अब कुछ करेगी भी. लेकिन एक पखवाड़ा बीत गया है, 129 साल पुरानी पार्टी अपने संगठनात्मक ढांचे में किसी तरह का बदलाव करने के लिए पहल करने की इच्छुक नहीं दिख रही, जो उसकी सबसे बड़ी चुनावी हार की वजह रही है.

चुनाव नतीजे घोषित होने के दिन 16 मई के बाद राहुल के सलाहकारों की टीम वरिष्ठ नेताओं के निशाने पर आ गई. इन नेताओं ने आरोप लगाया कि उन्होंने पार्टी को जमीनी राजनीति से दूर कर दिया. ऐसा माना जाने लगा कि अब तो मधुसूदन मिस्त्री, मोहन गोपाल और जयराम रमेश जैसे विचारकों के दिन गिनती के रह गए हैं, जिनके खिलाफ पूर्व मंत्री आर.पी.एन. सिंह, मिलिंद देवड़ा और सचिन पायलट ने खुलकर बयान दिए थे.

वास्तविकता यह है कि पार्टी तो ऐसा बर्ताव कर रही है जैसे कुछ हुआ ही न हो. अपनी छिंदवाड़ा सीट को बचाने में कामयाब रहे वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने हाल में टीवी इंटरव्यू में कहा, ''भारत की पूरी राजनीति बदल गई है, लेकिन कांग्रेस नहीं बदली है. हर पांच या 10 साल पर वोटर बदल जाता है और उसकी आकांक्षाएं भी.

एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते हमें इसके साथ कदम मिलाकर चलना होगा. '' इस तरह के बदलाव के लिए जिस तरह की दृढ़ता की जरूरत है वह दिखाई नहीं दे रही है. सलाहकारों को 'जोकर' कहने वाले दो छोटे नेताओं भंवरलाल शर्मा और टी.एच. मुस्तफा को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. संदेश साफ था: भारत की सबसे पुरानी पार्टी में गंभीर आत्मविश्लेषण की जगह चाटुकारिता अब भी हावी है.

शीर्ष स्तर पर कोई बदलाव नहीं
राहुल गांधी 31 मई को जब हाल में गैंग रेप की शिकार हुई लड़कियों के परिवार से मिलने उत्तर प्रदेश के बदायूं गए तो वहां मिस्त्री की मौजूदगी हैरान करने वाली थी. मिस्त्री उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे जहां पार्टी सिर्फ दो सीट जीत पाई, खुद मिस्त्री वडोदरा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भारी अंतर से हार गए. इससे पहले 19 मई को नई दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में मिस्त्री ने हार के लिए अपनी जिम्मेदारी स्वीकार की थी.

राज्य कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ''जब वे जिम्मेदारी स्वीकार कर रहे हैं तो फिर उन्हें वहां जाने और लोगों से जुडऩे का मौका क्यों दिया गया? '' मिस्त्री मई के अंतिम हफ्ते में चार दिन लखनऊ में रहे. उन्होंने हार की वजहों को जानने के लिए पार्टी के सभी लोकसभा उम्मीदवारों से बात की. अब वे रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं.

मिस्त्री अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें बख्शा गया हो. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के प्रभारी महासचिव मोहन प्रकाश ने इन राज्यों में पार्टी के फीके प्रदर्शन के बाद इस्तीफे की पेशकश की थी. उन्हें भी अपना काम करते रहने को कहा गया और फिलहाल वे दोनों राज्यों के नेताओं से मुलाकात में व्यस्त हैं.

राहुल के मुख्य चुनाव अभियान प्रबंधकों में से एक पूर्व मंत्री जयराम रमेश को इस तरह की आलोचना का सामना करना पड़ रहा है कि वे जमीनी हकीकत से दूर हैं और राहुल को ब्रांड की तरह पेश करने में विफल रहे हैं. मई के अंत में राहुल के आवास 12, तुगलक लेन पर चुनाव बाद हुई बैठक में प्रियंका ने जयराम से कहा कि वे अपने विचार अपने पास ही रखें. इसके बाद से ही जयराम चुप्पी साध गए हैं.

हालांकि, राहुल के पुराने सलाहकारों मोहन गोपाल और कनिष्क सिंह की अब भी तरफदारी हो रही है और राहुल के दिन प्रति दिन का कामकाज उन्हीं के पास है. 36 वर्षीय कनिष्क ने राहुल के बदायूं दौरे की योजना बनाई और वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता अखिलेश प्रताप सिंह से संपर्क में रहे. राहुल की बेअसर टाउनहॉल सभाओं के सूत्रधार और पार्टी का निष्प्रभावी घोषणापत्र बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले गोपाल चुनाव खत्म होने के बाद कम सक्रिय दिख रहे थे.

राहुल के बदायूं जाने से एक दिन पहले गोपाल कांग्रेस के अनुसूचित जाति सेल के अध्यक्ष के. राजू से मिले. सूत्रों के अनुसार, गोपाल अब भी गांधी परिवार को यह समझने की कोशिश में लगे हैं कि कांग्रेस जिन नीतियों के आधार पर चुनाव लड़ी है, वह गलत नहीं थीं. हार की असल वजह मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के लिए हुआ धु्रवीकरण है.
राहुल गांधी के सिपहसालार
पस्त पड़े राज्य
केंद्रीय नेतृत्व में बदलाव को फिलहाल नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन पार्टी के लोगों का मानना है कि राज्यों में तो खामियों को दूर करने की तात्कालिक जरूरत है, खासकर उन राज्यों में जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसकी शुरुआत महाराष्ट्र से होनी चाहिए जहां अक्तूबर में चुनाव होने हैं, इसके अलावा हरियाणा और दिल्ली में भी नई तरह से सोचने की जरूरत है.

चुनाव में हार पर चर्चा के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण 29 मई को सोनिया गांधी से दिल्ली में मिले. चव्हाण चाहते थे कि राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव में उन्हें पूरी तरह से छूट मिले और उन्हें यह आश्वासन भी मिला कि उनकी हरसंभव मदद की जाएगी. इससे खुश चव्हाण 1 जून को फिर दिल्ली आए. उनके पास कैबिनेट विस्तार के संभावित लोगों की सूची थी, लेकिन उन्हें सोनिया से मिलने का मौका ही नहीं मिला. वे इस सूची को सोनिया के ऑफिस में छोड़कर लौट गए. आखिरकार उनके प्रस्तावित छह लोगों में से सिर्फ दो को ही चुना गया.

चव्हाण को राज्य के प्रमुख नेता नारायण राणे की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है जो राज्य में कैबिनेट मंत्री हैं. राणे भी मई के अंत में सोनिया से मिले और उन्होंने कहा कि अगर पार्टी विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना चाहती है तो चव्हाण को मुख्यमंत्री पद से हटाना होगा.

उन्होंने राज्य सरकार की खामियां गिनाते हुए सोनिया को पत्र भी लिखा है. लेकिन हताश राणे ने कहा, ''प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं थी. '' उन्हें राज्य मंत्रिमंडल की बैठकों में जाने से रोक दिया गया और उन्होंने अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर दिया.

महाराष्ट्र के साथ ही कांग्रेस के एक और गढ़ हरियाणा में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जहां पिछले दस साल से पार्टी सत्ता में है. हाल के लोकसभा चुनावों में राज्य की दस सीटों में से पार्टी को महज एक सीट हासिल हुई जो 2009 की नौ सीटों से बहुत कम है. ऐसे अहम समय में, शायद एक भी दिन ऐसा नहीं रहा, जब पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्य की वरिष्ठ नेता कुमारी शैलजा ने भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार पर हमला न बोला हो.

उन्होंने कहा, ''हाइकमान के निर्देश का इंतजार करने की जगह हुड्डा को नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश करनी चाहिए. उन्हें सामने आना चाहिए.''

राज्य कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर ने पार्टी की सभी समितियों को भंग कर नई टीम बनाने की कोशिश शुरू की है, लेकिन उन्हें हुड्डा और स्थानीय नेता चौधरी बिरेंदर सिंह से कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जो हुड्डा के बाहर जाने की स्थिति में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाए हुए हैं.

दिल्ली में पार्टी नेता लोकसभा में हार के लिए पिछले सांसदों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं ताकि गांधी परिवार पर कोई आंच न आए. दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने कहा, ''दिल्ली की हार के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो पार्टी के सात सांसद और खुद मैं. अगर केंद्रीय मंत्री अपनी सीट नहीं जीत पाते हैं तो इसके लिए हाइकमान को किस तरह से जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? ''

दिसंबर, 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ आठ विधायकों के साथ तीसरे स्थान पर खिसक गई थी. लवली के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपने मूल वोटरों को सकारात्मक संदेश देना, जिन्होंने ऐसा लगता है कि अरविंद केजरीवाल की आप के लिए कांग्रेस से किनारा कर लिया है.

नेतृत्व का संकट
कांग्रेस को एक बुनियादी समस्या का सामना करना पड़ रहा है: इस रसातल से उसे कौन बाहर निकाल सकता है? पार्टी नेताओं ने राहुल में भरोसा जताया है, जो कभी खत्म न होने वाली छुट्टी के मूड में हैं. वे 28 मई को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में जब युवक कांग्रेस की बैठक में शामिल हुए तो वहां यह मांग उठी कि उन्हें लोकसभा में पार्टी का नेता बनना चाहिए.

युवक कांग्रेस के अध्यक्ष राजीव सताव ने कहा, ''हम चाहते हैं कि राहुलजी विपक्ष के नेता बनें. बैठक में उनके सामने यह मांग उठाई गई है. '' यहां तक कि दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता भी यह चाहते थे कि राहुल सामने आकर मोर्चा संभालें. राहुल ने इन सबको झिड़की लगाई और अपनी मां को यह बता दिया कि वे नेता बनने के इच्छुक नहीं हैं.

2 जून को कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने घोषणा की कि पूर्व रेल मंत्री मल्लिकार्जुन खडग़े संसद के निचले सदन में पार्टी के नेता होंगे. राहुल ने जब चुनौती स्वीकार करने से इनकार कर दिया तब सोनिया ने दलित नेता सुशील कुमार शिंदे की जगह एक और दलित को लाने का फैसला लिया. गांधी परिवार के करीबी वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा, ''खडग़े की जगह कमलनाथ, वीरप्पा मोइली या कैप्टन अमरिंदर सिंह बेहतर विकल्प हो सकते थे. कम से कम उनकी उपस्थिति महसूस तो की जाती. ''

कुछ कांग्रेसी पार्टी को बचाने के लिए किसी चमत्कार के इंतजार में हैं. पर किसी भी वरिष्ठ नेता को यह भरोसा नहीं कि ऐसा होगा. एक महासचिव ने कहा, ''यह बस पत्ते इधर से उधर करने की बात है. ''  जून या जुलाई की शुरुआत में कुछ मामूली बदलावों की घोषणा हो सकती है, बड़ा उलटफेर, कागजी सही, चिंतन बैठक के बाद या हार के कारणों की समीक्षा के लिए समिति बनाने के बाद ही हो सकता है.

अभी तो इनमें से किसी भी विकल्प की चर्चा तक नहीं की जा रही है. कदम उठाए जाने के इच्छुक पार्टी नेताओं के मुताबिक, ''अब हार के कारणों का पता लगाने के लिए समितियां बनाने में काफी देर हो चुकी है. '' हालांकि, कुछ भी होने वाला नहीं है, राहुल की कांग्रेस में कुछ नहीं बदला है.
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