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बदायूं कांड जाति व महिला विरोधी हिंसा के साथ शौच की समस्या से भी जुड़ा हैः जयराम रमेश

बदायूं कांड जाति और महिला विरोधी हिंसा तो है ही, साथ ही खुले में शौच की समस्या से भी जुड़ा है.

अपडेटेड 16 जून , 2014
लंबा और तीखा चुनाव अभियान खत्म हुआ. इसमें विचारधारा और शख्सियत दोनों की टकराहट थी. देश ने निर्णायक फैसला सुनाया. नई सरकार धीरे-धीरे अपने एजेंडे का खुलासा कर रही है.

लेकिन आज दरकार है कि कुछेक मुद्दों पर राजनैतिक दल एक होकर सोचें. ऐसे मुद्दों में बिलाशक सबसे महत्वपूर्ण घरों में शौच और साफ-सफाई की बेहद खराब स्थितियां हैं और लगता है कि हम सभी ऐसी ही स्थितियों के आदी हो गए हैं. यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब 60 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं. यह आंकड़ा संख्या और फीसदी दोनों ही मामलों में दुनिया में सबसे ज्यादा है. भारत 2015 तक संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी लक्ष्य को अधिकांश मामलों में हासिल कर लेगा, लेकिन शौच की सुविधाओं और सफाई के मामले में काफी पीछे रह जाएगा. 

बेशक, यह हालत हमारे विवेक पर चोट करती है और हमारे लिए बर्दाश्त के बाहर होनी चाहिए. यह कहना बेहद दुखद है कि कुछ दिन पहले हुई बदायूं की भयावह घटना पहली नहीं है. लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा का बुनियादी मानवाधिकारों में गिरावट से सीधा संबंध है. शौच के लिए सुरक्षित स्थान के बिना जीना महिलाओं और बच्चों की गरिमा, गोपनीयता और सुरक्षा के साथ खुला खिलवाड़ है. महिला, चाहे वह मां, बेटी या बहन हो, के सशक्तीकरण और उनकी सुरक्षा का सबसे आसान तरीका घर में एक शौचालय का होना है. हमारे देश में शौच के गलत तरीकों से ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं जिसे सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ ‘‘वातावरण दूषित’’ होना कहते हैं. इसे ही बच्चों के कुपोषण की भयावह हालात का जिम्मेदार माना जाता है और शायद बौद्धिक क्षमता घटने की भी यह बड़ी वजह है.

रोज करीब दो करोड़ यात्रियों को ले जानी वाली भारतीय रेल में दुनिया की सबसे बड़ी खुले में शौच की व्यवस्था है. तमाम तरह के दावों के विपरीत सिर पर मैला ढोने की प्रथा आज भी हमारे समाज का कलंक बनी हुई है और ऐसे 26 लाख शौचालय अब भी कायम हैं. हमारी पवित्र नदियां खासकर गंगा और यमुना महती सफाई कार्य-योजनाओं के बावजूद विशाल नाले में तब्दील हो चुकी हैं.

केंद्र में एक के बाद एक कई सरकारों ने इस शर्मनाक कलंक से निबटने की कोशिश की. 1986 में केंद्रीय ग्रामीण साफ-सफाई कार्यक्रम शुरू किया गया, फिर 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान चला और सबसे नए 2012 में निर्मल भारत अभियान की शुरुआत की गई. साफ-सफाई के लिए बजट अनुदान भी पिछले कुछ साल में बढ़ाया गया, लेकिन यह अब भी नाकाफी है. 

महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में समाज सुधारक संत गाडगे महाराज की प्रेरणा से सार्थक कार्यक्रम चलाया गया और इसकी कुछ कामयाबियां भी देखने को मिली हैं. मसलन, कोल्हापुर जिला इस साल के अंत तक खुले में शौच की प्रथा से मुक्त हो सकता है.

सिक्किम और केरल लगभग पूरी तरह खुले में शौच प्रथा से मुक्त हो चुके हैं और हिमाचल प्रदेश भी सामुदायिक जागरूकता के अनोखे कार्यक्रमों से यह मुकाम हासिल करने जा रहा है. राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश के कुछ जिलाधिकारियों ने भी इस मामले में अद्भुत नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया है. मनरेगा के तहत 2013-14 में करीब 28 फीसदी काम शौचालय निर्माण का ही किया गया. बिहार में ही 10 लाख शौचालय बनाए जाने की उम्मीद है. तिरुचिरापल्ली पहला खुले में शौच से मुक्त नगर निगम बना.

इस काम में एनजीओ की भूमिका भी सराहनीय है. मसलन, सुलभ इंटरनेशनल ने अकेले ही शहरों में लाखों शौचलय बनाए और उसका संचालन करता है. रक्षा शोध और विकास संगठन (डीआरडीओ) में विकसित नया जैव-शौचालय अब नए रेल कोचों में लगाया जा रहा है. महिलाओं में जागरूकता भी धीरे-धीरे बढ़ रही है. इसका उदाहरण मध्य प्रदेश के बैतूल में एक आदिवासी महिला अनीता बाई नर्रे हैं जो अपनी ससुराल में शौचालय की व्यवस्था न होने से अपने मायके लौट आईं. देश में 2,50,000 ग्राम पंचायतों को निर्मल ग्राम पुरस्कार से सम्मानित किया गया. हालांकि ये ग्राम पंचायतें खुले में शौच से कितनी मुक्त हो पाई हैं, इस पर अभी कुछ सवाल भी हैं. गेट्स फाउंडेशन ने भारत में किफायती शौचालय विकसित करने के लिए दुनिया की वैज्ञानिक तथा तकनीकी बिरादरी को चुनौती दी.

फिर भी, हम जिस जड़ जमा चुकी कुप्रथा से रू-ब-रू हैं, उसके मुकाबले हम कछुए की गति से ही आगे बढ़ रहे हैं. हम सभी को इस सरल से सच को जानना होगा कि देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य बेहतर करने के लिए सबसे सस्ता और सुंदर निवेश स्वच्छ पेयजल और शौचालय की व्यवस्था करके ही हो सकता है. इसके लिए सबसे जरूरी सरकारी पहल से सामाजिक जागरूकता का जनांदोलन शुरू करना है. भारत के पास खुले में शौच के खिलाफ जुनूनी तेवर अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं है. ऐसे क्रांतिकारी समाज परिवर्तन के लिए जरूरी है कि देश का हर आदमी जाति, राजनैतिक विचारों या लैंगिक मतभेदों से ऊपर उठकर इस मकसद में जुट जाए. यह संकट सिर्फ शौचालय का न इस्तेमाल करने वालों को बदलने से ही नहीं खत्म होगा.

ग्रामीण शौचालय के कार्यक्रम मौजूद हैं और इन्हें मनरेगा जैसी योजनाओं से जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन शहरी, अर्द्ध-शहरी वगैरह शौचालयों पर अलग से फोकस की दरकार है. बड़े पैमाने पर शौचालय बनाए जाने चाहिए और उसके साथ नजरिए और आदतों में भी बदलाव लाया जाना चाहिए. इसके लिए नीति, नियम और पहल शुरू करने की दरकार है. लेकिन साथ ही पानी, जल-मल और ठोस कचरे का प्रबंधन भी उतना ही जरूरी है.

करीब 50,000 रेल डिब्बों में जैव-शौचालय बनाने का काम पांच साल के भीतर जरूर पूरा हो जाना चाहिए. यह काम होते ही हम दुनिया के सबसे बड़े खुले शौचालय को हमेशा के लिए इतिहास का हिस्सा बना देंगे. कुपोषण मिटाने के लिए महिला स्व-सहायता समूह का तेजी से विस्तार हो रहा है और उसका मुख्य फोकस शौचालय की व्यवस्था पर होना चाहिए. तमिलनाडु ने इस दिशा में बढ़त हासिल की है. वहां स्व-सहायता समूहों ने किशोरियों के लिए सस्ते सैनिटरी नैपकिन का उत्पादन शुरू किया. राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के जरिए महिला स्व-सहायता समूहों को प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे बड़े पैमाने पर ‘‘शौचालय बिना दुल्हन नहीं’’ का अभियान चलाएं. इसमें एनजीओ बड़ी भूमिका निभा सकते हैं जैसा कि 2012 में कई राज्यों में सक्रिय निर्मल भारत यात्रा और ओडिसा में ग्राम विकास तथा बिहार में सखी के काम से पता चलता है.

विभिन्न क्षेत्रों के ब्रांड एंबेसेडर से भी इस संदेश को फैलाने में मदद ली जा सकती है. विद्या बालन और सचिन तेंडुलकर जैसे सितारों के विज्ञापनों का अच्छा असर पड़ा है. मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में इसके लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया जाना चाहिए. हर स्तर के निर्वाचित प्रतिनिधि भी समाज में जागरूकता में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके लिए खुले में शौच से मुक्त भारत के लिए एक संसदीय समिति बनाई जा सकती है और हर राज्य में विधायकों की समिति भी बनाई जा सकती है.

अगले पांच साल में देश और दुनिया महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाएगी. महात्मा को इससे बड़ी श्रद्धांजलि क्या होगी कि 2 अक्तूबर, 2014 को सभी राजनैतिक पार्टियों के नेता, सभी मुख्यमंत्री और स्थानीय निकायों के प्रमुख राजघाट पर इकट्ठा होकर शपथ लें कि 2 अक्तूबर, 2019 के पहले पूरे भारत को खुले में शौच की मजबूरी से मुक्त कर देंगे. हमें नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गांधी ने जितना बड़ा आंदोलन देश की आजादी और अछूतोद्धार के लिए चलाया था, उतनी ही शिद्दत से वे साफ-सफाई के अभियान पर भी ध्यान दे रहे थे. अपने हाथ से पाखाना साफ करने की उनकी नजीर आज भी प्रासंगिक है.

बेशक, यह काफी बड़ी जिम्मेदारी है और इतनी छोटी अवधि में खासकर उत्तर भारत में यह संकल्प पूरा करना आसान नहीं होगा. उत्तर भारत में एक वर्ग की रुढ़िवादिता और गरीबी भी इस रास्ते में बड़ी चुनौती है. महिलाओं को परिवार में बराबरी का दर्जा न मिल पाने से भी महिलाएं शौचालय के विषय में अपनी बात पुरजोर ढंग से नहीं रख पा रही हैं. लेकिन बड़ी सोच और आकांक्षा हमें अपने सामूहिक आलस्य और मूर्खता से बाहर निकाल लेगी और हमें काम में लगा देगी. अगर हम ऐसा कर लेते हैं तो यह देश की बहुत बड़ी कामयाबी होगी, क्योंकि ऐसा करके गरीब परिवार भी बीमारियों के इलाज पर खर्च होने वाली बड़ी रकम बचा लेंगे, जो उनके सुख-दुख में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से काम आएगी. इस बारे में अब राजनेताओं को भी एकदम खुले और ताजे नजरिए से सोचने की जरूरत है. इसीलिए मैं कहूंगाः
नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाते चुनाव के दौरान ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’ का नारा दिया था. यह तो शर्तिया तौर पर नहीं हुआ, न होगा और न कभी होने वाला है. अब बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक और नारा देना चाहिए कि ‘‘खुले में शौच मुक्त भारत.’’ अगर वे ऐसा नारा देते हैं तो मुझे यकीन है कि सभी पार्टियां सहयोग का हाथ बढ़ाएंगी.

 जयराम रमेश जुलाई 2011 से अक्तूबर 2012 तक केंद्रीय पेयजल आपूर्ति और स्वच्छता मंत्री थे
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