मुसाहिब की सफों में भी मेरी गिनती नहीं होती, यह वह मुल्क है जिसकी मैं सरकारें बनाता था. लखनऊ के लालकुआं इलाके में अपने घर पर 16 मई को घंटों टेलीविजन के सामने लोकसभा चुनाव के नतीजों पर नजरें गड़ाए रहने के बाद जब 65 वर्षीय शायर मुनव्वर राणा उठे तो इस शेर के जरिए उनका दर्द बेसाख्ता जाहिर हो गया.
लेकिन यह दर्द नवाबों और अवध की शानो-शौकत पर इतराने वाले लखनऊ की हदों तक सिमटा न रहा. 16वीं लोकसभा के चुनाव नतीजे मुकम्मल हुए तो जो लिस्ट हाथ में थी, उससे पता चला कि लोकसभा में मुसलमान सांसदों का आंकड़ा अब तक के सबसे निचले स्तर यानी 22 सांसदों पर अटक गया.
देश की 13.4 फीसदी आबादी वाले समुदाय की संसद में मौजूदगी महज 4 फीसदी रह गई. इससे पहले सबसे कम मुस्लिम सांसदों का रिकॉर्ड 1957 के लोकसभा चुनाव में बना था, जब लोकसभा में सिर्फ 23 मुस्लिम सांसद थे. वैसे देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को सबसे अच्छी भागीदारी 1980 की लोकसभा में मिली थी, इंदिरा गांधी की वापसी वाली लोकसभा में सर्वाधिक 49 मुस्लिम सांसद थे.
क्या कांग्रेस और क्या बीजेपी हर पार्टी के मुस्लिम दिग्गज हार गए. जम्मू-कश्मीर की ऊधमपुर सीट से कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद को बीजेपी के जीतेंद्र सिंह ने हरा दिया. राजस्थान की टोंक माधोपुर सीट से कांग्रेस प्रत्याशी और क्रिकेट सितारे मोहम्मद अजहरुद्दीन एक लाख से ज्यादा वोटों से हार गए. उत्तर प्रदेश में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को जीवन की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा और वे पांचवें नंबर पर रह गए.
करारी हार के बाद कांग्रेस के इस नेता ने फर्रूखाबाद में कहा, ‘‘मैं इस हार की जिम्मेदारी स्वीकार करता हूं. लोकतंत्र में हार-जीत लगी रहती है.’’
वैसे मुस्लिम प्रत्याशियों की किस्मत बाकी दलों में भी यही रही. बीएसपी के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बेटे अफजल सिद्दीकी फतेहपुर सीट से मुंह की खा गए. ये आंकड़े देखकर लगता है कि गैर-बीजेपी मुसलमान ही इस बार चुनाव में गच्चा खा गए लेकिन हकीकत उलट है.
बीजेपी के प्रमुख मुस्लिम चेहरे और मोदी मंत्रिमंडल में कैनिबेट रैंक के प्रबल दावेदार शाहनवाज हुसैन बिहार की भागलपुर लोकसभा सीट से हार गए. उन्हें लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के शैलेश कुमार ने 9,458 वोटों से हरा दिया. उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया था. छोटे राज्यों को छोड़ भी दें तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से एक भी मुस्लिम लोकसभा नहीं पहुंचा.
साफ हो गया यूपी
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार यूपी से कोई मुस्लिम सांसद नहीं चुना गया, जबकि इस प्रदेश ने अभी दो साल पहले ही मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी (सपा) को विधानसभा चुनाव में खुलकर समर्थन दिया था. तब मोहम्मद आजम खान एक बार फिर सपा का मुस्लिम चेहरा बनकर उभरे थे. लेकिन आम चुनाव के बाद जब इंडिया टुडे ने पूछा, ‘‘आजम भाई क्या हाल हैं?’’
तो चुनाव प्रचार में सात किलो वजन गंवा चुके जिंदादिल आदमी के बुझे शब्द थे, ‘‘हाल क्या पूछते हैं, कुछ छिपा हुआ है क्या?’’ उनके दर्द की वजह यह है कि उनकी अपनी रामपुर लोकसभा सीट से सपा का मुस्लिम प्रत्याशी बीजेपी के हाथों 20,000 से ज्यादा वोट से हार गया, जबकि यहां 49 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं.
मुस्लिम सांसदों के सफाए के सवाल पर आजम ने कहा, ‘‘इस चुनाव में देश में हिंदू सांप्रदायिकता बढ़ी है. रामपुर में मुस्लिमबहुल विधानसभा से हमारा प्रत्याशी 40,000 की लीड लेकर गया लेकिन यादवबहुल इलाके में हार गया. मुसलमान तो सपा, बीएसपी, कांग्रेस जहां थे, वहीं बने रहे लेकिन इस बार हिंदुओं ने मुसलमान को वोट नहीं दिया.’’
आंकड़ों पर नजर डालें तो मुस्लिम तबके से बीएसपी ने 19, सपा ने 13 और कांग्रेस ने 11 उम्मीदवार उतारे थे. वैसे, उत्तर प्रदेश में कुल 52 मुस्लिम प्रत्याशी थे. संसद में सपा के इकलौते मुस्लिम नुमाइंदे राज्यसभा सांसद मुनव्वर सलीम इस ट्रेंड को मुख्तलिफ अंदाज से देखते हैं, ‘‘हमने तो आजादी के वक्त भी एक हिंदू (महात्मा गांधी) को ही अपना बाबा-ए कौम (राष्ट्रपिता) माना था.
उसके बाद से किसी न किसी हिंदू नेता के नीचे ही काम करते रहे हैं. लेकिन लगता है कि हिंदू अब किसी मुसलमान को अपना नेता नहीं बनने देना चाहते. बिना हिंदू मतों के तो कोई मुसलमान चुनाव नहीं जीत सकता.’’
आजमगढ़ के शिबली नेशनल कॉलेज में राजनीतिक शास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. गयास असद खां इस बदलाव के पीछे दो अहम कारण मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘राजनैतिक पार्टियों ने मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में ही प्रचारित किया, जबकि ऐसा नहीं था. मुसलमान किसी पार्टी से तभी जुड़ा जब उसके पास अपना कोई वोट आधार था. इस बार के चुनाव में पार्टियों ने अपने वोट आधार की चिंता छोड़ सारी कवायद मुसलमानों के वोट पाने में ही लगा दी.
इससे जहां एक ओर मुसलमानों में दुविधा पैदा हुई और वहीं दूसरी ओर इसके खिलाफ हिंदू वोट एकजुट हो गए. इसी का नतीजा चुनाव में अब दिख रहा है.’’ यूपी में ढाई दर्जन सीटों पर मुसलमान वोट 18 फीसदी तो एक दर्जन पर 35 फीसदी से भी ज्यादा हैं. इनमें से बदायूं और आजमगढ़ को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर बीजेपी जीती है. खास बात तो यह है कि 40 फीसदी से ज्यादा मुसलमान वोटरों वाले क्षेत्रों मंद भी कमल खिला है.

कहां-कहां बची नुमाइंदगी
उत्तर भारत में सिर्फ बिहार से ही मुसलमानों को कुछ आसरा मिला. यहां की चार लोकसभा सीटों अररिया से आरजेडी, कटिहार से एनसीपी, खगडिय़ा से एलजेपी और किशनगंज से कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों को कामयाबी मिली. हालांकि मुसलमानों को सबसे बेहतर हिस्सेदारी पश्चिम बंगाल में मिली. यहां से सर्वाधिक आठ मुस्लिम सांसद चुनकर संसद में पहुंचे हैं. इनमें से चार तृणमूल कांग्रेस के और दो-दो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस के हैं. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर से तीन, केरल और असम से दो-दो और तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और लक्ष्यद्वीप से एक-एक मुस्लिम सांसद लोकसभा में आए हैं.
बिफर गए बड़े नेता
वे सारी पार्टियां जिन्होंने अंतिम समय तक कांग्रेस के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति दिखाई, उनको इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ. सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही ऐसी पार्टी रही जिसने वक्त रहते कांग्रेस से किनारा कर लिया था, इसलिए उसे बिलकुल नुकसान नहीं हुआ. इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि पारंपरिक रूप से इन्हीं गैर-बीजेपी पार्टियों से मुसलमान चुनाव जीतते रहे हैं.
इसीलिए चुनाव में जेडीयू के 20 से घटकर 2 लोकसभा सीटों पर सिमटने के बाद इस्तीफा देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा, ‘‘मैंने अपने जीवन में ऐसा सांप्रदायिक चुनाव नहीं देखा.’’ तो राजनीति में उनके पुराने मित्र से प्रतिद्वंद्वी और फिर सहयोगी बने लालू ने मुसलमानों को नजर में रखते हुए कहा, ‘‘मैं नरेंद्र मोदी को बधाई नहीं दूंगा.’’
लेकिन इन सबसे आगे निकल गए मुलायम सिंह यादव. हार के बाद पार्टी की समीक्षा बैठक में ही उन्होंने राज्यमंत्री का दर्जा पाए 36 मंत्रियों की लालबत्ती छीन ली. पार्टी सूत्रों की मानें तो मुलायम ने बैठक में कहा, ‘‘तुम सबको यहां बैठने का हक नहीं है. फौरन बाहर निकल जाओ. और ध्यान रखना कि अपने पैरों से ही जाना, बाहर खड़ी लालबत्ती की गाड़ी में बैठ भी मत जाना.’’
भितरघात भी रही वजह
पश्चिम बंगाल में मुस्लिम सांसदों को आठ सीटें इसलिए भी मिल गईं क्योंकि वहां मुस्लिम वोटों का बहुत अधिक बंटवारा नहीं हुआ. मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या वैसे भी कम है. लेकिन उत्तर प्रदेश जहां 19.5 फीसदी मुस्लिम हैं, वहां यह सवाल बना ही रहता है.
अगर उत्तर प्रदेश की सहारनपुर सीट पर नजर डालें तो मुस्लिमबहुल होने के बावजूद कांग्रेस के इमरान मसूद यहां से इसलिए हारे क्योंकि उनके मुकाबले में उनके चचेरे भाई शाजान मसूद सपा की टिकट पर लड़ रहे थे. मसूद करीब 70,000 वोटों से हारे हैं, जबकि उनके चचेरे भाई को 50,000 से अधिक वोट मिले हैं. कभी मौलाना अबुल कलाम आजाद की सीट रही रामपुर में सपा के नसीर अहमद खान की हार की बड़ी वजह कांग्रेस के नवाब काजिम अली खान उर्फ नवेद मियां को मिले 1.5 लाख से अधिक वोट हैं.
इसके अलावा पार्टियों में भितरघात भी इसकी वजह है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संभल सीट से सपा की टिकट पर हारे शफीक उर रहमान बर्क ने आरोप लगाया, ‘‘इकबाल महमूद (मंत्री) ने पूरी ताकत और वक्त मुझे हराने पर ही खर्च किया.’’ इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश की श्रावस्ती सीट से सपा प्रत्याशी अतीक अहमद ने एक बयान में कहा, ‘‘महमूद खान (सपा विधायक) अपने दोस्त और पीस पार्टी के प्रत्याशी रिजवान जहीर को जितवाने में लगे थे और पार्टी के लिए काम करने का उनके पास वक्त ही कहां था.’’
दरअसल, बीजेपी ने अपनी रणनीति में सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवारों को टिकट देने और मुस्लिम वोटों को बांटने का फैसला किया था. बीजेपी की रिकॉर्ड जीत ने मुसलमानों को टिकट देने वाली पार्टियों का सूपड़ा साफ कर दिया. ऐसे में मुस्लिम सांसदों की संख्या इतना कम होना आश्चर्यजनक नहीं है.
लेकिन यह दर्द नवाबों और अवध की शानो-शौकत पर इतराने वाले लखनऊ की हदों तक सिमटा न रहा. 16वीं लोकसभा के चुनाव नतीजे मुकम्मल हुए तो जो लिस्ट हाथ में थी, उससे पता चला कि लोकसभा में मुसलमान सांसदों का आंकड़ा अब तक के सबसे निचले स्तर यानी 22 सांसदों पर अटक गया.
देश की 13.4 फीसदी आबादी वाले समुदाय की संसद में मौजूदगी महज 4 फीसदी रह गई. इससे पहले सबसे कम मुस्लिम सांसदों का रिकॉर्ड 1957 के लोकसभा चुनाव में बना था, जब लोकसभा में सिर्फ 23 मुस्लिम सांसद थे. वैसे देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को सबसे अच्छी भागीदारी 1980 की लोकसभा में मिली थी, इंदिरा गांधी की वापसी वाली लोकसभा में सर्वाधिक 49 मुस्लिम सांसद थे.
क्या कांग्रेस और क्या बीजेपी हर पार्टी के मुस्लिम दिग्गज हार गए. जम्मू-कश्मीर की ऊधमपुर सीट से कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद को बीजेपी के जीतेंद्र सिंह ने हरा दिया. राजस्थान की टोंक माधोपुर सीट से कांग्रेस प्रत्याशी और क्रिकेट सितारे मोहम्मद अजहरुद्दीन एक लाख से ज्यादा वोटों से हार गए. उत्तर प्रदेश में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को जीवन की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा और वे पांचवें नंबर पर रह गए.
करारी हार के बाद कांग्रेस के इस नेता ने फर्रूखाबाद में कहा, ‘‘मैं इस हार की जिम्मेदारी स्वीकार करता हूं. लोकतंत्र में हार-जीत लगी रहती है.’’
वैसे मुस्लिम प्रत्याशियों की किस्मत बाकी दलों में भी यही रही. बीएसपी के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बेटे अफजल सिद्दीकी फतेहपुर सीट से मुंह की खा गए. ये आंकड़े देखकर लगता है कि गैर-बीजेपी मुसलमान ही इस बार चुनाव में गच्चा खा गए लेकिन हकीकत उलट है.
बीजेपी के प्रमुख मुस्लिम चेहरे और मोदी मंत्रिमंडल में कैनिबेट रैंक के प्रबल दावेदार शाहनवाज हुसैन बिहार की भागलपुर लोकसभा सीट से हार गए. उन्हें लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के शैलेश कुमार ने 9,458 वोटों से हरा दिया. उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया था. छोटे राज्यों को छोड़ भी दें तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से एक भी मुस्लिम लोकसभा नहीं पहुंचा.
साफ हो गया यूपी
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार यूपी से कोई मुस्लिम सांसद नहीं चुना गया, जबकि इस प्रदेश ने अभी दो साल पहले ही मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी (सपा) को विधानसभा चुनाव में खुलकर समर्थन दिया था. तब मोहम्मद आजम खान एक बार फिर सपा का मुस्लिम चेहरा बनकर उभरे थे. लेकिन आम चुनाव के बाद जब इंडिया टुडे ने पूछा, ‘‘आजम भाई क्या हाल हैं?’’
तो चुनाव प्रचार में सात किलो वजन गंवा चुके जिंदादिल आदमी के बुझे शब्द थे, ‘‘हाल क्या पूछते हैं, कुछ छिपा हुआ है क्या?’’ उनके दर्द की वजह यह है कि उनकी अपनी रामपुर लोकसभा सीट से सपा का मुस्लिम प्रत्याशी बीजेपी के हाथों 20,000 से ज्यादा वोट से हार गया, जबकि यहां 49 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं.
मुस्लिम सांसदों के सफाए के सवाल पर आजम ने कहा, ‘‘इस चुनाव में देश में हिंदू सांप्रदायिकता बढ़ी है. रामपुर में मुस्लिमबहुल विधानसभा से हमारा प्रत्याशी 40,000 की लीड लेकर गया लेकिन यादवबहुल इलाके में हार गया. मुसलमान तो सपा, बीएसपी, कांग्रेस जहां थे, वहीं बने रहे लेकिन इस बार हिंदुओं ने मुसलमान को वोट नहीं दिया.’’
आंकड़ों पर नजर डालें तो मुस्लिम तबके से बीएसपी ने 19, सपा ने 13 और कांग्रेस ने 11 उम्मीदवार उतारे थे. वैसे, उत्तर प्रदेश में कुल 52 मुस्लिम प्रत्याशी थे. संसद में सपा के इकलौते मुस्लिम नुमाइंदे राज्यसभा सांसद मुनव्वर सलीम इस ट्रेंड को मुख्तलिफ अंदाज से देखते हैं, ‘‘हमने तो आजादी के वक्त भी एक हिंदू (महात्मा गांधी) को ही अपना बाबा-ए कौम (राष्ट्रपिता) माना था.
उसके बाद से किसी न किसी हिंदू नेता के नीचे ही काम करते रहे हैं. लेकिन लगता है कि हिंदू अब किसी मुसलमान को अपना नेता नहीं बनने देना चाहते. बिना हिंदू मतों के तो कोई मुसलमान चुनाव नहीं जीत सकता.’’
आजमगढ़ के शिबली नेशनल कॉलेज में राजनीतिक शास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. गयास असद खां इस बदलाव के पीछे दो अहम कारण मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘राजनैतिक पार्टियों ने मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में ही प्रचारित किया, जबकि ऐसा नहीं था. मुसलमान किसी पार्टी से तभी जुड़ा जब उसके पास अपना कोई वोट आधार था. इस बार के चुनाव में पार्टियों ने अपने वोट आधार की चिंता छोड़ सारी कवायद मुसलमानों के वोट पाने में ही लगा दी.
इससे जहां एक ओर मुसलमानों में दुविधा पैदा हुई और वहीं दूसरी ओर इसके खिलाफ हिंदू वोट एकजुट हो गए. इसी का नतीजा चुनाव में अब दिख रहा है.’’ यूपी में ढाई दर्जन सीटों पर मुसलमान वोट 18 फीसदी तो एक दर्जन पर 35 फीसदी से भी ज्यादा हैं. इनमें से बदायूं और आजमगढ़ को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर बीजेपी जीती है. खास बात तो यह है कि 40 फीसदी से ज्यादा मुसलमान वोटरों वाले क्षेत्रों मंद भी कमल खिला है.

कहां-कहां बची नुमाइंदगी
उत्तर भारत में सिर्फ बिहार से ही मुसलमानों को कुछ आसरा मिला. यहां की चार लोकसभा सीटों अररिया से आरजेडी, कटिहार से एनसीपी, खगडिय़ा से एलजेपी और किशनगंज से कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों को कामयाबी मिली. हालांकि मुसलमानों को सबसे बेहतर हिस्सेदारी पश्चिम बंगाल में मिली. यहां से सर्वाधिक आठ मुस्लिम सांसद चुनकर संसद में पहुंचे हैं. इनमें से चार तृणमूल कांग्रेस के और दो-दो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस के हैं. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर से तीन, केरल और असम से दो-दो और तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और लक्ष्यद्वीप से एक-एक मुस्लिम सांसद लोकसभा में आए हैं.
बिफर गए बड़े नेता
वे सारी पार्टियां जिन्होंने अंतिम समय तक कांग्रेस के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति दिखाई, उनको इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ. सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही ऐसी पार्टी रही जिसने वक्त रहते कांग्रेस से किनारा कर लिया था, इसलिए उसे बिलकुल नुकसान नहीं हुआ. इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि पारंपरिक रूप से इन्हीं गैर-बीजेपी पार्टियों से मुसलमान चुनाव जीतते रहे हैं.
इसीलिए चुनाव में जेडीयू के 20 से घटकर 2 लोकसभा सीटों पर सिमटने के बाद इस्तीफा देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा, ‘‘मैंने अपने जीवन में ऐसा सांप्रदायिक चुनाव नहीं देखा.’’ तो राजनीति में उनके पुराने मित्र से प्रतिद्वंद्वी और फिर सहयोगी बने लालू ने मुसलमानों को नजर में रखते हुए कहा, ‘‘मैं नरेंद्र मोदी को बधाई नहीं दूंगा.’’
लेकिन इन सबसे आगे निकल गए मुलायम सिंह यादव. हार के बाद पार्टी की समीक्षा बैठक में ही उन्होंने राज्यमंत्री का दर्जा पाए 36 मंत्रियों की लालबत्ती छीन ली. पार्टी सूत्रों की मानें तो मुलायम ने बैठक में कहा, ‘‘तुम सबको यहां बैठने का हक नहीं है. फौरन बाहर निकल जाओ. और ध्यान रखना कि अपने पैरों से ही जाना, बाहर खड़ी लालबत्ती की गाड़ी में बैठ भी मत जाना.’’
भितरघात भी रही वजह
पश्चिम बंगाल में मुस्लिम सांसदों को आठ सीटें इसलिए भी मिल गईं क्योंकि वहां मुस्लिम वोटों का बहुत अधिक बंटवारा नहीं हुआ. मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या वैसे भी कम है. लेकिन उत्तर प्रदेश जहां 19.5 फीसदी मुस्लिम हैं, वहां यह सवाल बना ही रहता है.
अगर उत्तर प्रदेश की सहारनपुर सीट पर नजर डालें तो मुस्लिमबहुल होने के बावजूद कांग्रेस के इमरान मसूद यहां से इसलिए हारे क्योंकि उनके मुकाबले में उनके चचेरे भाई शाजान मसूद सपा की टिकट पर लड़ रहे थे. मसूद करीब 70,000 वोटों से हारे हैं, जबकि उनके चचेरे भाई को 50,000 से अधिक वोट मिले हैं. कभी मौलाना अबुल कलाम आजाद की सीट रही रामपुर में सपा के नसीर अहमद खान की हार की बड़ी वजह कांग्रेस के नवाब काजिम अली खान उर्फ नवेद मियां को मिले 1.5 लाख से अधिक वोट हैं.
इसके अलावा पार्टियों में भितरघात भी इसकी वजह है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संभल सीट से सपा की टिकट पर हारे शफीक उर रहमान बर्क ने आरोप लगाया, ‘‘इकबाल महमूद (मंत्री) ने पूरी ताकत और वक्त मुझे हराने पर ही खर्च किया.’’ इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश की श्रावस्ती सीट से सपा प्रत्याशी अतीक अहमद ने एक बयान में कहा, ‘‘महमूद खान (सपा विधायक) अपने दोस्त और पीस पार्टी के प्रत्याशी रिजवान जहीर को जितवाने में लगे थे और पार्टी के लिए काम करने का उनके पास वक्त ही कहां था.’’
दरअसल, बीजेपी ने अपनी रणनीति में सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवारों को टिकट देने और मुस्लिम वोटों को बांटने का फैसला किया था. बीजेपी की रिकॉर्ड जीत ने मुसलमानों को टिकट देने वाली पार्टियों का सूपड़ा साफ कर दिया. ऐसे में मुस्लिम सांसदों की संख्या इतना कम होना आश्चर्यजनक नहीं है.