राज्य में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ 10 अप्रैल और 17 अप्रैल को हुए. यह चुनाव पूरी तरह से दो सवालों पर केंद्रित थे. पहला, क्या रिकॉर्ड चौथी बार ओडिसा के मुख्यमंत्री बनने की चाह रखने वाले नवीन पटनायक इतिहास बनाने में कामयाब हो पाएंगे? दूसरा, क्या नरेंद्र मोदी की लहर राज्य में बीजेपी को कुछ सीटें दिलाने में कामयाब रहेगी, जहां 2009 में पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया था?
आखिरकार 16 मई को उस समय इस बहस का अंत हो गया जब नवीन की बीजू जनता दल (बीजेडी) को विधानसभा में आसान जीत मिली और उसने राज्य की 21 लोकसभा सीटों में से 19 अपने खाते में कर लीं. राज्य विधानसभा में महज 18 सीटें हासिल कर कांग्रेस हाशिए पर चली गई है, जबकि लोकसभा की एक सीट भी उसको नहीं मिली है. दूसरी ओर, बीजेपी को 11 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटों पर जीत मिली. चुनाव नतीजों के लंबे इंतजार के बाद आखिरकार यह साफ दिख गया कि नवीन ने मोदी लहर और किसी भी तरह की सत्ता विरोधी लहर को मात दे दी है.
उनकी यह जीत वास्तव में सुखद है क्योंकि न सिर्फ 2009 के विधानसभा में 103 सीटों और लोकसभा में 14 सीटों से वे आगे बढ़े हैं, बल्कि वे 2014 में तमाम झ्ंझवातों से निपटते हुए कद्दावर नेता के रूप में उभरे हैं.
नवीन ने लगातार चौथी जीत की पटकथा अकेले ही तैयार की. उनके आलोचक भी यह बात मानते हैं क्योंकि कभी नवीन के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले अफसर से नेता बने प्यारी मोहन महापात्र भी उनका साथ छोड़ चुके हैं. 2012 से पहले ही मुख्यमंत्री ने महापात्र को खुलकर खेलने की छूट दी थी जिससे वह एक समानांतर सत्ता केंद्र बनकर उभरे थे. हालांकि, नवीन जब काफी दूर लंदन में थे तो उनकी सत्ता पलटने की कोशिश की गई जो विफल रही. इसके बाद नवीन ने फुर्ती दिखाते हुए जून, 2012 में महापात्र को निलंबित कर दिया. महापात्र को आखिरकार पार्टी से बाहर कर दिया गया, इस तरह नवीन का एक ऐसे शख्स से 12 साल का रिश्ता खत्म हो गया जो यह दावा करते थे कि उन्होंने मुख्यमंत्री को राजनीति का ककहरा सिखाया है. महापात्र ने अपना अलग राजनैतिक दल ओडिसा जन मोर्चा (ओजेएम) बनाया और नवीन तथा बीजेडी के खिलाफ आग उगलते रहे, लेकिन विधानसभा और लोकसभा दोनों में शून्य पर रहने के बाद वे अब वह पूरी तरह से अलग-थलग पड़ सकते हैं.
नवीन ने एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राजनैतिक करियर शुरू किया, जिन्हें ओडिया का धाराप्रवाह वक्ता नहीं माना जाता था और जिनको सार्वजनिक जीवन का शायद ही कोई अनुभव था. इस तरह से यहां तक पहुंचने में उन्होंने काफी लंबा सफर तय किया है. 67 साल के इस कुंवारे नेता ने पिछले वर्षों में ओडिसा में राजनीति की परिभाषा बदल दी है. अपने पिता बीजू पटनायक की राजनैतिक विरासत संभालने के बावजूद नवीन के पास अपने परिवार के हित साधने जैसा कुछ भी नहीं. मार्च 2000 में जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने तो ओडिसा को नितांत गरीब राज्य माना जाता था, जहां 1999-2000 में प्रति व्यक्ति आय महज 14,862 रु. थी. यह अब बढ़कर 2011-12 में 26,900 रु. तक पहुंच चुकी है. सितंबर, 2013 में रिजर्व बैंक ने ओडिसा को नए प्रोजेक्ट्स के लिए इन्वेस्टमेंट का सबसे आकर्षक ठिकाना बताया. महिलाओं को लक्ष्य बनाकर योजनाएं चला करके उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि कांग्रेस कभी भी सत्ता में वापसी न कर पाए, जो राज्य में 2000 में सत्ता से बाहर हो गई थी.
सत्ता संभालने के बाद लगातार ओडिसा में सरकार चलाने वाले नवीन ने सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए जमीनी स्तर पर जनता की अपेक्षा के अनुकूल शासन दिया क्योंकि वे जानते थे कि आज के दौर की राजनीति सांप-सीढ़ी का खेल है. भारत में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के मामले में वे बस सीपीएम के दिग्गज नेता दिवंगत ज्योति बसु से ही पीछे रह गए हैं. कभी राजनैतिक रूप से नौसिखिया (नवीन) कहे जाने वाले मुख्यमंत्री एक बार फिर बीजेडी की जीत की अगुवाई करने के बाद कुशल रणनीतिकार माने जाने लगे हैं.

पार्टी अब अपने 17वें साल में प्रवेश कर गई है और सत्ता में उसका 14वां साल है. वह पहले से भी मजबूत हो गई है. दूसरे खानदानी नेताओं के विपरीत नवीन ने अपना राजनैतिक करियर अपने पिता की 1997 में हुई मौत के बाद शुरू किया. वे अमेरिका से वापस आए और 26 दिसंबर, 1997 को बीजेडी की स्थापना की. विरोधियों ने उनका मजाक उड़ाया, यहां तक कि उनकी पार्टी के चुनाव चिन्ह (शंख) का भी मजाक बनाया गया. लेकिन उन्होंने राज्य का जिस तरह से कायापलट किया उसकी वजह से कभी उनके मुखर आलोचक रहे दामोदर राउत को उनके साथ आना पड़ा. राउत फिलहाल राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं.
खुद की छवि गरीबों के हिमायती के रूप में रचने वाले नवीन एक कठोर बदला लेने वाले भी हैं. नवीन शायद ही कभी अपने दुश्मनों को भूलते हैं. शुरुआती दिनों में उन्होंने पार्टी के सह-संस्थापक और आलोचक बिजय महापात्र को हटाकर 2000 में पातकुड़ा विधानसभा सीट से उनकी जगह अतनु सब्यसाची को बीजेडी उम्मीदवार बना दिया और महापात्र को पार्टी से बाहर कर दिया. बिजय अब भी इस झटके से उबर नहीं पाए हैं. पातकुड़ा से 2004 और 2009 में दो बार चुनाव हारने के बाद वे 2014 में बीजेपी उम्मीदवार के रूप में महाकालपाड़ा सीट पर चले गए थे.
पिछले वर्षों में नवीन ने अपने विरोधियों को निबटाने का काम बहुत बारीकी से किया है. मार्च 2009 में आम चुनावों के ठीक पहले उन्होंने बीजेपी से बीजेडी का 12 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया. नवीन ने 2008 के कंधमाल दंगों को बढ़ावा देने में बीजेपी की कथित भूमिका के आधार पर उसे सांप्रदायिक करार दे दिया. अंतिम समय में बीजेडी के साथ छोड़ देने से बीजेपी बदहाल हो गई थी और 2009 में वह एक भी लोकसभा सीट जीत पाने में असफल रही जबकि 147 सदस्यीय विधानसभा में उसे महज छह सीटें ही मिल सकीं.
नवीन की प्रशासनिक ख्याति अक्तूबर 2013 में और बढ़ गई जब उन्होंने फैलिन चक्रवात के रास्ते में आने वाले गंजाम, पुरी और खुरदा जिले में एक लाख से ज्यादा लोगों को प्रभावी तरीके से बाहर निकाला. उनकी तत्परता और पहले से योजना बनाना गिरधर गमांग के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार की तुलना में बिलकुल विपरीत बात थी, जिसके शासन के दौरान अक्तूबर, 1999 में ओडिसा में सुपर साइक्लोन आने से 10,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी.
नवीन पटनायक की रणनीति में समय हमेशा काफी महत्वपूर्ण रहा है. इस बार दोहरे चुनाव की तैयारी में उन्होंने चतुराई दिखाते हुए बीजेडी के 35 विधायकों को टिकट नहीं दिया ताकि उनके खिलाफ जनता के गुस्से का कोई असर न हो. वे यहीं नहीं रुके, दूसरे दलों से जीतू पटनायक, बिंबाधर कुंअर, गोलक नायक, हेमा गमांग और सरत मिश्रा जैसे नेताओं को लाकर उन्होंने उन दलों को तो कमजोर किया और इससे अपना आधार भी बढ़ाया.
ऐसे में जब बीजेपी भारी जीत के साथ सरकार बनाने जा रही है, दिल्ली में नवीन क्या करेंगे इस बारे में अभी उन्होंने अपने पत्ते नहीं खोले हैं. हालांकि, एक चीज तो निश्चित हैः ओडिसा नवीन की झोली में है और आगे भी ऐसा ही रहने की संभावना दिख रही है.
आखिरकार 16 मई को उस समय इस बहस का अंत हो गया जब नवीन की बीजू जनता दल (बीजेडी) को विधानसभा में आसान जीत मिली और उसने राज्य की 21 लोकसभा सीटों में से 19 अपने खाते में कर लीं. राज्य विधानसभा में महज 18 सीटें हासिल कर कांग्रेस हाशिए पर चली गई है, जबकि लोकसभा की एक सीट भी उसको नहीं मिली है. दूसरी ओर, बीजेपी को 11 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटों पर जीत मिली. चुनाव नतीजों के लंबे इंतजार के बाद आखिरकार यह साफ दिख गया कि नवीन ने मोदी लहर और किसी भी तरह की सत्ता विरोधी लहर को मात दे दी है.
उनकी यह जीत वास्तव में सुखद है क्योंकि न सिर्फ 2009 के विधानसभा में 103 सीटों और लोकसभा में 14 सीटों से वे आगे बढ़े हैं, बल्कि वे 2014 में तमाम झ्ंझवातों से निपटते हुए कद्दावर नेता के रूप में उभरे हैं.
नवीन ने लगातार चौथी जीत की पटकथा अकेले ही तैयार की. उनके आलोचक भी यह बात मानते हैं क्योंकि कभी नवीन के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले अफसर से नेता बने प्यारी मोहन महापात्र भी उनका साथ छोड़ चुके हैं. 2012 से पहले ही मुख्यमंत्री ने महापात्र को खुलकर खेलने की छूट दी थी जिससे वह एक समानांतर सत्ता केंद्र बनकर उभरे थे. हालांकि, नवीन जब काफी दूर लंदन में थे तो उनकी सत्ता पलटने की कोशिश की गई जो विफल रही. इसके बाद नवीन ने फुर्ती दिखाते हुए जून, 2012 में महापात्र को निलंबित कर दिया. महापात्र को आखिरकार पार्टी से बाहर कर दिया गया, इस तरह नवीन का एक ऐसे शख्स से 12 साल का रिश्ता खत्म हो गया जो यह दावा करते थे कि उन्होंने मुख्यमंत्री को राजनीति का ककहरा सिखाया है. महापात्र ने अपना अलग राजनैतिक दल ओडिसा जन मोर्चा (ओजेएम) बनाया और नवीन तथा बीजेडी के खिलाफ आग उगलते रहे, लेकिन विधानसभा और लोकसभा दोनों में शून्य पर रहने के बाद वे अब वह पूरी तरह से अलग-थलग पड़ सकते हैं.
नवीन ने एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राजनैतिक करियर शुरू किया, जिन्हें ओडिया का धाराप्रवाह वक्ता नहीं माना जाता था और जिनको सार्वजनिक जीवन का शायद ही कोई अनुभव था. इस तरह से यहां तक पहुंचने में उन्होंने काफी लंबा सफर तय किया है. 67 साल के इस कुंवारे नेता ने पिछले वर्षों में ओडिसा में राजनीति की परिभाषा बदल दी है. अपने पिता बीजू पटनायक की राजनैतिक विरासत संभालने के बावजूद नवीन के पास अपने परिवार के हित साधने जैसा कुछ भी नहीं. मार्च 2000 में जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने तो ओडिसा को नितांत गरीब राज्य माना जाता था, जहां 1999-2000 में प्रति व्यक्ति आय महज 14,862 रु. थी. यह अब बढ़कर 2011-12 में 26,900 रु. तक पहुंच चुकी है. सितंबर, 2013 में रिजर्व बैंक ने ओडिसा को नए प्रोजेक्ट्स के लिए इन्वेस्टमेंट का सबसे आकर्षक ठिकाना बताया. महिलाओं को लक्ष्य बनाकर योजनाएं चला करके उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि कांग्रेस कभी भी सत्ता में वापसी न कर पाए, जो राज्य में 2000 में सत्ता से बाहर हो गई थी.
सत्ता संभालने के बाद लगातार ओडिसा में सरकार चलाने वाले नवीन ने सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए जमीनी स्तर पर जनता की अपेक्षा के अनुकूल शासन दिया क्योंकि वे जानते थे कि आज के दौर की राजनीति सांप-सीढ़ी का खेल है. भारत में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के मामले में वे बस सीपीएम के दिग्गज नेता दिवंगत ज्योति बसु से ही पीछे रह गए हैं. कभी राजनैतिक रूप से नौसिखिया (नवीन) कहे जाने वाले मुख्यमंत्री एक बार फिर बीजेडी की जीत की अगुवाई करने के बाद कुशल रणनीतिकार माने जाने लगे हैं.

पार्टी अब अपने 17वें साल में प्रवेश कर गई है और सत्ता में उसका 14वां साल है. वह पहले से भी मजबूत हो गई है. दूसरे खानदानी नेताओं के विपरीत नवीन ने अपना राजनैतिक करियर अपने पिता की 1997 में हुई मौत के बाद शुरू किया. वे अमेरिका से वापस आए और 26 दिसंबर, 1997 को बीजेडी की स्थापना की. विरोधियों ने उनका मजाक उड़ाया, यहां तक कि उनकी पार्टी के चुनाव चिन्ह (शंख) का भी मजाक बनाया गया. लेकिन उन्होंने राज्य का जिस तरह से कायापलट किया उसकी वजह से कभी उनके मुखर आलोचक रहे दामोदर राउत को उनके साथ आना पड़ा. राउत फिलहाल राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं.
खुद की छवि गरीबों के हिमायती के रूप में रचने वाले नवीन एक कठोर बदला लेने वाले भी हैं. नवीन शायद ही कभी अपने दुश्मनों को भूलते हैं. शुरुआती दिनों में उन्होंने पार्टी के सह-संस्थापक और आलोचक बिजय महापात्र को हटाकर 2000 में पातकुड़ा विधानसभा सीट से उनकी जगह अतनु सब्यसाची को बीजेडी उम्मीदवार बना दिया और महापात्र को पार्टी से बाहर कर दिया. बिजय अब भी इस झटके से उबर नहीं पाए हैं. पातकुड़ा से 2004 और 2009 में दो बार चुनाव हारने के बाद वे 2014 में बीजेपी उम्मीदवार के रूप में महाकालपाड़ा सीट पर चले गए थे.
पिछले वर्षों में नवीन ने अपने विरोधियों को निबटाने का काम बहुत बारीकी से किया है. मार्च 2009 में आम चुनावों के ठीक पहले उन्होंने बीजेपी से बीजेडी का 12 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया. नवीन ने 2008 के कंधमाल दंगों को बढ़ावा देने में बीजेपी की कथित भूमिका के आधार पर उसे सांप्रदायिक करार दे दिया. अंतिम समय में बीजेडी के साथ छोड़ देने से बीजेपी बदहाल हो गई थी और 2009 में वह एक भी लोकसभा सीट जीत पाने में असफल रही जबकि 147 सदस्यीय विधानसभा में उसे महज छह सीटें ही मिल सकीं.
नवीन की प्रशासनिक ख्याति अक्तूबर 2013 में और बढ़ गई जब उन्होंने फैलिन चक्रवात के रास्ते में आने वाले गंजाम, पुरी और खुरदा जिले में एक लाख से ज्यादा लोगों को प्रभावी तरीके से बाहर निकाला. उनकी तत्परता और पहले से योजना बनाना गिरधर गमांग के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार की तुलना में बिलकुल विपरीत बात थी, जिसके शासन के दौरान अक्तूबर, 1999 में ओडिसा में सुपर साइक्लोन आने से 10,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी.
नवीन पटनायक की रणनीति में समय हमेशा काफी महत्वपूर्ण रहा है. इस बार दोहरे चुनाव की तैयारी में उन्होंने चतुराई दिखाते हुए बीजेडी के 35 विधायकों को टिकट नहीं दिया ताकि उनके खिलाफ जनता के गुस्से का कोई असर न हो. वे यहीं नहीं रुके, दूसरे दलों से जीतू पटनायक, बिंबाधर कुंअर, गोलक नायक, हेमा गमांग और सरत मिश्रा जैसे नेताओं को लाकर उन्होंने उन दलों को तो कमजोर किया और इससे अपना आधार भी बढ़ाया.
ऐसे में जब बीजेपी भारी जीत के साथ सरकार बनाने जा रही है, दिल्ली में नवीन क्या करेंगे इस बारे में अभी उन्होंने अपने पत्ते नहीं खोले हैं. हालांकि, एक चीज तो निश्चित हैः ओडिसा नवीन की झोली में है और आगे भी ऐसा ही रहने की संभावना दिख रही है.