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खत्म हुआ पहचान की राजनीति का दौर

सभी वर्गों के वोटरों के अपार समर्थन से संभव हुई बीजेपी की भारी जीत. वही जाति की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का जलवा हिन्दी प्रदेशों में खत्म होता नजर आया.

अपडेटेड 26 मई , 2014
मनमोहन सिंह के विपरीत नरेंद्र मोदी को ‘एक्सिडेंटल पीएम’ (संयोग से प्रधानमंत्री) तो कतई नहीं कहा जा सकता. उनका उत्थान इससे बेहतर और क्या हो सकता था. बीजेपी ने उन्हें सितंबर 2013 के मध्य में ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था.

छह महीने का ऐसा व्यापक प्रचार अभियान देश में इससे पहले कभी देखा नहीं गया था. 7 अप्रैल से 12 मई के बीच 36 दिनों के 16वीं लोकसभा के लिए नौ चरणों के मतदान के प्रचार में मोदी ने 3,00,000 किलोमीटर से ज्यादा का सफर किया, करीब 430 रैलियों को संबोधित किया और करीब 5,800 सार्वजनिक आयोजनों में शामिल हुए. प्रचार का फोकस सुशासन और विकास के वादे पर था. जनादेश भी एनडीए और मोदी के लिए भरपूर विश्वास मत की तरह आया. इसके साथ लगातार कई त्रिशंकु जनादेश का इतिहास भी टूट गया. बीजेपी को अकेले 282 सीटें हासिल हुईं और सरकार चलाने का पूर्ण बहुमत मिल गया. पिछली बार किसी एक पार्टी को मुकम्मल जनादेश तीन दशक पहले 1984 में कांग्रेस को ही मिला था.

यह जनादेश देश के राजनैतिक चयन के इतिहास में निर्विवाद परिवर्तन जैसा है. बीजेपी को मिले 31.5 प्रतिशत वोट उसके इतिहास में सबसे अधिक हैं और 19.6 प्रतिशत के साथ कांग्रेस की वोट हिस्सेदारी उसके इतिहास में सबसे कम है. आश्चर्यजनक रूप से यह 2009 में बीजेपी के वोट प्रतिशत के बराबर ही है. कांग्रेस के खिलाफ वोटों का रुझान (9 प्रतिशत) भी वही है जो उसके खिलाफ 1971 से 1977, और 1984 से 1989 के दौरान देखा गया था. लेकिन इस बार पहले से ही कमतर आधार ने उसे 20 प्रतिशत से भी नीचे पहुंचा दिया. इससे पार्टी को मिले वोटों का सीटों में बदलना मुश्किल हो गया.
बीजेपी ने दूर-दराज तक पैठ बनाई
बीजेपी के पक्ष में 12.7 फीसदी का रुझान भी देश के चुनावी इतिहास में अप्रत्याशित था. यह 1989 और 1991 के दौर में बीजेपी के प्रति बने रुझान से डेढ़ गुना ज्यादा है और इसी से ‘मोदी लहर’ की बात में दम दिखने लगा. एनडीए की जीत की एकमात्र वजह बीजेपी का बेहतरीन प्रदर्शन है. हालांकि एनडीए में बीजेपी के सहयोगी दल अपने दम पर मामूली वोट हिस्सेदारी बढ़ा पाए, लेकिन उनकी सीटें 25 से दोगुनी बढ़कर 53 तक पहुंच गईं.

कांग्रेस को 16वीं लोकसभा में सिर्फ 44 सीटें ही मिलीं, जो राहुल के पिता दिवंगत राजीव गांधी को इंदिरा हत्याकांड (1984) में मिली 404 सीटों का महज आठवां हिस्सा है. यह एनडीए के पहली बार सत्ता में आने के समय कांग्रेस की 114 सीटों से भी काफी कम है. सो, कुल सीटों के 10 प्रतिशत से भी कम सीटें पाने की वजह से कांग्रेस के संसदीय दल के नेता को संविधान के मुताबिक विपक्ष के नेता की मान्यता भी हासिल नहीं होगी!

उत्तर और पश्चिम में भारी उथल-पुथल
बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए को उत्तर (दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) और पश्चिम (छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र) से सीटों का अप्रत्याशित लाभ हुआ. उत्तर से 101 सीटें जुड़कर 14 से 115 हो गईं, जबकि पश्चिम ने अतिरिक्त 45 सीटें देकर तादाद 61 से 106 कर दी.

उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) को एक भी सीट नहीं मिली जबकि 2009 में उसे 20 सीटें मिली थीं. मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी (सपा) घटकर पांच पर आ गई और कांग्रेस को सिर्फ सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी की दो सीटें ही मिलीं.  अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में जबरदस्त जीत हासिल की थी लेकिन इस बार उसे खासकर दिल्ली और वाराणसी के शहरी केंद्रों में बीजेपी के लिए खतरा माना गया. वाराणसी से मोदी चुनाव लड़ रहे थे. आप को शायद उसके दिल्ली में 49 दिनों में सरकार छोड़ देने और कुछ गड़बडिय़ों का खामियाजा भुगतना पड़ा. उसे सिर्फ पंजाब में चार सीटें मिलीं.

पूरब (ओडिसा, असम, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल) में भी एनडीए को अच्छी बढ़त मिली. इन राज्यों में उसकी सीटें 25 से बढ़कर 53 हो गईं. बिहार में पहले की 12 से 31 सीटों पर पहुंच जाना खासकर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि नीतीश कुमार के जेडी (यू) के साथ उसका 17 साल का गठबंधन टूटा था. उसके बाद कुछ भी चमत्कार नहीं हो सका. बीजेपी तो मोदी लहर के दम पर अपनी नैया पार कर ले गई लेकिन जेडी (यू) तो नेस्तनाबूद हो गया, लालू प्रसाद यादव की आरजेडी को सिर्फ चार सीटें मिलीं जो 2009 के बराबर ही है.

पश्चिम बंगाल में सीपीएम खिसककर सिर्फ दो सीटों पर आ गई और 22.7 फीसदी वोटों तक ही सिमटकर रह गई. उसे 2009 में नौ सीटें और 33.1 फीसदी वोट मिले थे. इस बार केरल के नतीजे भी अनुकूल न होने से सीपीएम के लोकसभा में बस 9 सदस्य ही रह गए हैं.

(बीजेपी को किसने-किसने चुना)
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 34 (19 से बढ़कर) सीटों के साथ पश्चिम बंगाल पर अपनी पकड़ और मजबूत बना ली है और 1980 के दशक में वाम मोर्चा की तरह लगने लगी है. वहां इस पार्टी ने जोरदार तरीके से दस्तक दे दी है. बीजेपी के लिए भी वहां से अच्छी खबर हाथ लगी है. भगवा पार्टी ने वहां अपना वोट प्रतिशत 6.1 से दोगुने से ज्यादा बढ़ाकर 16.9 फीसदी कर लिया है. शायद वह राज्य में मुख्य विपक्षी दल बनने की ओर अग्रसर है.

दक्षिण में (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु) बीजेपी ने कर्नाटक में अपना घाटा दो पर ही रोक लिया और आंध्र में चंद्र बाबू नायडू के साथ गठजोड़ करके 13 सीटों का फायदा कर लिया. तमिलनाडु में 2जी घोटाले और पारिवारिक कलह से पस्त डीएमके की सीटें 18 से शून्य हो गईं. हालांकि उसका वोट प्रतिशत 25.1 से 23.3 पर आकर मामूली-सा ही गिरा. जे. जयललिता की एआइएडीएमके तमिलनाडु की 39 में से 37 सीटें हथिया ले गई. उसका यह प्रदर्शन बेहतर रहा है, और हमेशा की तरह तमिलनाडु की जनता ने एकतरफा नतीजे ही किसी एक पार्र्टी को दिए हैं.

संकेत यह मिल रहे हैं कि कांग्रेस ने अपना मुस्लिम और सिख वोट बैंक तो बनाए रखा है लेकिन हिंदुओं के सभी वर्गों में (7 से 9 फीसदी) समर्थन गंवा चुकी है. बीजेपी ने मुसलमानों में अपनी लोकप्रियता करीब 9 फीसदी तक बढ़ा ली है. बीजेपी के ‘सास्कृतिक सद्भाव’ और ‘विकास के एजेंडे’ का दांव शायद अनुसूचित जातियों (एससी) और जनजातियों (एसटी) के सिर चढ़कर बोला है. शायद 17 से 20 फीसदी एससी-एसटी ने उसे वोट दिया है.

(कांग्रेस क्यों  हुई धराशायी)
आयु वर्ग की बात करें तो इसमें कांग्रेस 25 साल से कम उम्र के युवाओं में अपना आधार कायम रख पाई है जबकि मध्य और उससे अधिक आयु के लोगों में 5-7 फीसदी तक आकर्षण खोती लग रही है. दूसरी ओर, बीजेपी सभी आयु वर्ग में पकड़ बनाती लग रही है (उसे 11-18 प्रतिशत) का लाभ हुआ है. बीजेपी की लोकप्रियता सबसे ज्यादा युवाओं में है और इसका नुकसान कांग्रेस के अलावा दूसरी पार्टियों को होता लग रहा है. कांग्रेस के रोटी, कपड़ा और मकान के एजेंडे से बीजेपी का सड़क, बिजली, पानी का एजेंडा शायद मुखर मध्यवर्ग से अतिरिक्त वोट बटोर लाया है.

मतदान में लैंगिक रुझान के फर्क का कोई संकेत नहीं है. पुरुषों और महिलाओं, दोनों का झुकाव बीजेपी की ओर है. आय, शिक्षा, जाति, लिंग और उम्र के विभिन्न वर्गों के वोट रुझान में फर्क नहीं दिखा है. यह सकारात्मक रुझान है और पहचान की राजनीति के खत्म होने का भी पूरी तरह से संकेत है.

2014 के लोकसभा नतीजे दो अहम सवाल खड़े करते हैं: नई एनडीए सरकार प्रचार में आकांक्षाओं को बढ़ाने वाले वादे क्या पूरा कर पाएगी? और कांग्रेस अपने अस्तित्व पर आए संकट से उबरने के लिए अपने में क्या बदलाव लाएगी? इनके जवाब जानने के लिए कुछ महीने और इंतजार कीजिए.

लेखक अर्थशास्त्री और चुनाव विश्लेषक हैं
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