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आगे बढ़ते भारत में पीछे रह गया लेफ्ट

केंद्रीय नेतृत्व के घातक फैसले, युवा चेहरों की कमी और बदलते दौर के साथ न चलना बन सकता है वामपंथियों के खात्मे की वजह बन गई. बुरी तरह पीछे रह गया वाम दल.

अपडेटेड 26 मई , 2014
वाम दलों सीपीआइ और सीपीएम को मिली 10 सीटें पिछले तीस साल में उनका सबसे खराब प्रदर्शन कहा जा सकता है. 2004 में मिली 53 सीटों ने उन्हें यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में दबदबा रखने का आधार दे दिया था लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल (जहां वामपंथियों की सरकार थी) में सत्ता विरोधी लहर और 2008 में यूपीए से रिश्ते तोडऩे के मुद्दे पर उठी अंदरूनी खींचतान अगले ही चुनाव में करारी शिकस्त की वजह बनी. 2009 में सीपीआइ और सीपीएम के हिस्से सिर्फ 20 सीटें  ही आईं. सीपीएम के गढ़ पश्चिम बंगाल में इसकी मौजूदगी दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई. इस चुनाव में भी यह 10 सीटें ही जीत पाई. पिछले 25 साल में वामपंथियों ने पूरे भारत में अपनी जमीन तेजी से खोई है. 1989 में जहां 9 राज्यों में इसकी मौजूदगी थी, आज चुनावी जीत तीन राज्यों तक सिमट कर रह गई है.

दिल्ली के भाई वीर सिंह मार्ग पर सीपीएम मुख्यालय की दूसरी मंजिल पर केबिन में पोलित ब्यूरो  सदस्य एस. रामचंद्रन पिल्लै पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों की सिकुड़ती जमीन की वजह बड़ी बेबाकी से बताते हैं. वे मानते हैं कि राज्य नेतृत्व ने कई प्रशासनिक और राजनैतिक गलतियां कीं. अगले साल प्रकाश करात की जगह पार्टी महासचिव बनने जा रहे पिल्लै कहते हैं, ‘‘हम जनता का मूड भांपने में नाकाम रहे. काफी समय तक सत्ता में रहने की वजह से कुछ नेताओं में अकड़ आ गई थी.’’ लेकिन सत्तर पार के पिल्लै इस अंदेशे को सिरे से खारिज कर देते हैं कि वे इस पद के लिए बहुत बूढ़े हो चुके हैं. उनके गृह राज्य केरल में सीपीआइ और सीपीएम का वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) 2004 में 15 सीटों के मुकाबले अब सिमटकर छह सीटों पर आ गया है. लेकिन पिल्लै इसे अस्थायी झटका मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘हम केरल में सरकार बनाने से मामूली अंतर से चूक गए थे पर हम जल्द वापसी करेंगे.’’

इस बात की भी आलोचना की जा रही है कि अपने गढ़ दो राज्यों के अलावा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, ओडिसा और असम से भी इसका सफाया इसलिए हुआ क्योंकि इन पार्टियों ने क्षेत्र विशेष के मुद्दों-समस्याओं की उपेक्षा की. वामपंथी नेता भी मानते हैं कि वे जातीय समीकरणों के प्रति संवेदनशील नहीं रहे. उत्तर भारत में जहां जाति की राजनीति का वर्चस्व है, इनकी जगह सपा, बीएसपी और आरजेडी जैसी पार्टियों ने ले ली. महाराष्ट्र में शिवसेना और असम में एजीपी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने भी वामपंथियों को हाशिए पर धकेल दिया.

राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि 1999 के हताशाजनक प्रदर्शन के बाद 2004 में वामपंथियों ने थोड़ी सफलता पाई थी. पर अब ये पार्टियां अप्रासंगिक और विलुप्त होने के कगार पर हैं. दिल्ली के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के आदित्य निगम का मानना है कि आप के रूप में नया वामपंथी दल उभरकर आया है, जो युवाओं के आदर्शवादी गुट को आकर्षित कर रहा है.

निगम कहते हैं, ‘‘आज के वामपंथी दल मुलायम सिंह यादव के समाजवादी पार्टी की तरह हैं. पार्टी में नाम के अलावा कहीं भी समाजवाद नहीं है.’’ अवसर को भांपकर आम आदमी पार्टी (आप) ने केरल के पूर्व मुख्यंमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन समेत कई वरिष्ठ नेताओं को 2014 के लोकसभा चुनाव में उसके बैनर पर लडऩे का न्यौता भेजा था. पूर्व सीपीएम सदस्य प्रसेनजीत बोस कहते हैं, ‘‘उनकी जगह आप नेताओं ने ले ली है. आखिर करात और सीताराम येचुरी जैसे नेता केजरीवाल की तरह चुनाव क्यों नहीं लड़ते?’’ वे कहते हैं कि चार बार त्रिपुरा के मुख्यमंत्री रह चुके मानिक सरकार को पार्टी में बड़ी भूमिका मिलनी चाहिए.

पिल्लै इस हमले के जवाब में सफाई देते हैं कि वरिष्ठ नेताओं का चुनाव न लडऩा हमारे कार्य विभाजन का परिणाम है, ‘‘निर्वाचन क्षेत्र पर ध्यान देने के लिए काफी समय की जरूरत होती है. संगठनात्मक कार्य एक पूर्णकालिक दायित्व है. यदि करात चुनाव लड़ते हैं तो पार्टी कौन चलाएगा?’’ पिल्लै यह भी नहीं मानते कि आप की सफलता की वजह वामपंथियों की नाकामी है. उनके मुताबिक, ‘‘आप की कोई विचारधारा या किसी मुद्दे पर स्पष्ट राय नहीं है. यह उन लोगों को खींचने का प्रयास कर रही है जो व्यवस्था से हार चुके थे. ऐसी राजनीति ज्यादा नहीं चलती.’’

बोस का मानना है कि पार्टी को बदले दौर के साथ बदलना चाहिए और प्रेस विज्ञप्ति जारी करने की बजाए मतदाताओं से जुडऩे के आधुनिक तरीके इस्तेमाल करने चाहिए. पिल्लै भी इससे सहमत हैं लेकिन वे पर्याप्त स्थान न देने के लिए मीडिया को भी दोषी मानते हैं. उनका सवाल है, ‘‘मोदी, राहुल गांधी और केजरीवाल की रैलियों को पर्याप्त कवरेज मिली लेकिन हमारी रैलियों की क्यों उपेक्षा की गई?’’ मीडया को बलि का बकरा बनाना आसान है लेकिन वामपंथियों को प्रासंगिक बने रहने के लिए ऐसे बहानों के अलावा कुछ और करने की जरूरत है.
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