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बंटवारे की राह बनाने वाली कांग्रेस तेलंगाना में रह गई खाली हाथ

कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश के अपने दुर्ग को इस उम्मीद में बांटा था कि कम-से-कम तेलंगाना में सीटें मिल जाएंगी. लेकिन उसके हाथ लगे पुराने दुर्ग के खंडहर.

अपडेटेड 26 मई , 2014
शुक्रवार, 16 मई की तपती दोपहरी तक आंध्र प्रदेश में कांग्रेस का खेल आधिकारिक रूप से खत्म हो चुका था. आखिरकार तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को तेलंगाना में विधानसभा की 61 सीटें हासिल हुईं, जबकि तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) को सीमांध्र में 115 सीटें और वाइएसआर कांग्रेस को 70 सीटें हासिल हुई हैं.

तेलंगाना की कुल 17 लोकसभा सीटों में से टीआरएस को 13, कांग्रेस को 1, बीजेपी को 2 और टीडीपी को 1 सीट पर विजय मिली है. सीमांध्र में टीडीपी-बीजेपी गठबंधन ने 16 सीटें हासिल कर ली हैं, जबकि वाइएसआर कांग्रेस को 9 सीटें मिली हैं. इस क्षेत्र में कुल 25 लोकसभा क्षेत्र हैं. कभी कांग्रेस का गढ़ रहे आंध्र प्रदेश के विभाजन का नतीजा उसकी बड़ी हार के रूप में सामने आया है.

उसे मिलने वाले वोटों के हिस्से में भी काफी तेजी से गिरावट आई है. विडंबना यह है कि उसके वोटों का कुछ हिस्सा टीआरएस जैसी उस पार्टी को गया है जिसने अलग राज्य के लिए आंदोलन किया था तो कुछ हिस्सा वाइएसआर कांग्रेस को जो विभाजन के खिलाफ अविचल खड़ी रही थी.

एन. चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली टीडीपी और के. चंद्रशेखर राव की अगुआई वाली टीआरएस दो अलग-अलग बने राज्यों में अपने बूते पर सरकार बना सकती हैं. टीआरएस के लिए ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन भरोसेमंद सहयोगी हो सकता है. संबंधित राज्य सरकारों का गठन 2 जून को विभाजन प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही होगा.

पांच साल (2004-2009) तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी के कल्याणकारी कार्यों के बावजूद दिल्ली और हैदराबाद में दो बार की सरकारों की विरोधी हवा भी कांग्रेस के लिए उतना मायने नहीं रखती जितना कि आंध्र के विभाजन ने उसे हार का स्वाद चखाया है. पार्टी ने सोचा था कि आम चुनावों की घोषणा से पहले राज्य के विभाजन के बारे में महत्वपूर्ण संसदीय प्रक्रिया पूरी करने से वोटरों के दिमाग में उसका यह योगदान ताजा बना रहेगा, लेकिन नतीजा इसका उलटा ही रहा है.
चंद्रबाबू नायडू
तेलंगाना के 10 जिलों में टीआरएस ने सत्ता छीन ली है और कांग्रेस को गड्ढे में धकेला है. केसीआर के नाम से बुलाए जाने वाले टीआरएस प्रमुख ने वोटरों को लुभाने के लिए सकारात्मक अभियान चलाया. उन्होंने तेलंगाना के ‘‘पुनर्निर्माण’’ की योजना और शिक्षा तथा रोजगार में मुसलमानों को 12 फीसदी आरक्षण देने की बात की. इससे ऐसा लगता है कि पार्टी के पक्ष में चुपचाप एक हवा बनती चली गई.

कांग्रेस ने 2004 में ही तेलंगाना का वादा करने का श्रेय खो दिया और आंध्र प्रदेश पुनर्गठन बिल को पारित करने में छह साल लगा दिए, जिसका श्रेय बीजेपी भी लेती है. कांग्रेस के लिए स्थिति तब और बुरी हो गई, जब 26 फरवरी को हैदराबाद लौटने पर केसीआर ने यह ऐलान कर दिया कि टीआरएस अकेले चुनाव लड़ेगी.

कांग्रेस के पास ऐसा कोई स्थानीय चेहरा नहीं था जो राज्य विभाजन का श्रेय दिला सकता. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अभियान के अंतिम थकाऊ दौर में जाकर तेलंगाना का चुनावी दौरा किया. ये दोनों इससे पहले आंध्र प्रदेश में 2009 में वाइएसआर की मौत पर शोक संवेदना प्रकट करने आए थे.

समय से हुआ नायडू का गठबंधन
शेष आंध्र प्रदेश के 13 जिलों में वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली वाइएसआर कांग्रेस और उनकी प्रतिद्वंद्वी टीडीपी प्रमुख नायडू की पार्टी से सीधी लड़ाई थी. उन्होंने अपने पिता की कल्याणकारी विरासत को वापस लाने का वादा किया था. नायडू ने भरोसा दिया था कि 2004 में कांग्रेस के सत्ता में आने से पहले नौ साल के उनके रिकॉर्ड कार्यकाल में जिस तरह से विकास हुआ था, उसे वे फिर दोहराएंगे.

सक्रिय पार्टी मशीनरी के अभाव में जगन ने सभी 25 लोकसभा सीटों पर ‘‘करोड़पति उम्मीदवारों’’ के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की सोची. आम चुनाव में ऐसी पहचान वाली यह एकमात्र पार्टी रही.

वाइएसआर कांग्रेस के ऊर्जावान मुखिया ने युवा वोटरों और दलितों, ईसाइयों और मुसलमानों सहित सभी जातियों और समुदायों के वोटरों पर सीधा असर डाला. हालांकि, जगन अपने प्रतिद्वंद्वी नायडू की रणनीतिक चतुराई को भांपने में विफल रहे. नायडू ने नरेंद्र मोदी की लहर को भुनाने के लिए बीजेपी से गठबंधन किया तो कापू समुदाय को लुभाने के लिए तेलुगु अभिनेता पवन कल्याण को अपने साथ जोड़ा जिन्होंने चुनावी रैलियों में जोड़ी नंबर एककृबीजेपी-टीडीपी गठबंधन-की तारीफ की.
आंध्र प्रदेश
राजनैतिक टीकाकार सी. नरसिंह राव कहते हैं, ‘‘नायडू ने चुनाव से सिर्फ  चार हफ्ते पहले इन दोनों को लाकर काफी फायदा उठाया. यह पूरा खेल बदलने वाला साबित हुआ.’’

जहां तक एक और योद्धा एन. किरण कुमार रेड्डी की बात है, जिन्होंने तेलंगाना बिल पारित होने के विरोध में कुर्सी छोड़ दी थी, उन्होंने अलग होकर जो जय सम्यक आंध्र पार्टी बनाई, वह बदकिस्मत ही साबित हुई. उन्हें उतारने के लिए उम्मीदवार नहीं मिले और जो मिले भी वे बाद में टीडीपी-बीजेपी गठजोड़ के पक्ष में हट गए. रेड्डी खुद तो नहीं लड़े, लेकिन उन्होंने अपने भाई को मैदान में उतारा ताकि पिलेर विधानसभा सीट परिवार में ही रह जाए.

कांग्रेस तो प्रचार अभियान के शुरुआती दौर में ही उम्मीद खो चुकी थी, खासकर बाकी आंध्र प्रदेश में और चुनावी खर्च के हिसाब से यह पार्टी के लिए राज्य में सबसे सस्ता चुनाव साबित हुआ. इसका प्रतीक पेश करते हुए और अपनी खराब चुनावी संभावना को देखते हुए आंध्र प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख एन. रघुवीर रेड्डी 7 मई को अनंतपुरम में अपना वोट डालने के लिए बैलगाड़ी पर पहुंचे.

सीमांध्र में सूपड़ा साफ होने और तेलंगाना में दूसरे स्थान पर रही पार्टी को अब दौड़ में वापस आने के लिए वर्षों तक इंतजार करना होगा. इस आम चुनाव में कांग्रेस को लगे पूरे सदमे के मुकाबले आंध्र का सदमा छोटा दिख सकता है, लेकिन आजादी के बाद से जो कांग्रेस का दुर्ग था, वहां अब सिर्फ खंडहर बचे हैं.    
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