भारत की 543 लोकसभा सीटों की मतगणना शुरू होने के मुश्किल से दो घंटे बाद हारी हुई कांग्रेस की हताशा 24, अकबर रोड पर पार्टी के दफ्तर के बाहर साफ दिखने लगी थी. पार्टी समर्थकों का एक समूह जो नारे लगा रहा था, उससे उनकी वफादारी और गुस्सा साफ झलक रहा थाः ‘‘प्रियंका गांधी जिंदाबाद, सोनिया गांधी जिंदाबाद.’’ 2014 के चुनावों में उनके नेता राहुल गांधी का नाम नारों से गायब था, जो एक तरह का खास संकेत था.
उधर, राहुल के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. अपने परिवार के गढ़ अमेठी में वे पिछड़ रहे थे, हालांकि बाद में वे बीजेपी नेता और नरेंद्र मोदी की ‘‘छोटी बहन’’ स्मृति ईरानी से 1,07,903 वोटों से जीतने में सफल रहे. साफ है कि कांग्रेस के इस राजकुमार के लिए रास्ते बंद हो रहे हैं. पार्टी की झोली में जब मात्र 44 सीटें ही आईं तो पार्टी नेताओं ने तुरंत उनका बचाव करना शुरू कर दिया.
कांग्रेस को इससे पहले 1999 में सबसे कम 114 सीटें मिली थीं. निवर्तमान संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ल कहते हैं, ‘‘हमें इतनी कम सीटों की उम्मीद नहीं थी.’’ लेकिन साथ ही उन्होंने तुरंत यह भी जोड़ा, ‘‘यह राहुल गांधी की हार नहीं है. यह पार्टी की सामूहिक जिम्मेदारी है.’’ उसके बाद दोपहर में जब चुनाव में अपनी हार की जिम्मेदारी लेने के लिए राहुल गांधी अपनी मां के साथ कांग्रेस मुख्यालय के बाहर आए तो भी पूरी प्रक्रिया से कटे हुए, दूर और यंत्रवत खड़े रहे. मानो अब तक की कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय अभी तक स्वीकृत नहीं हो पाई है.
कांग्रेस और राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ा सवाल सिद्घांत और प्रस्तुतीकरण का है. 2009 में पार्टी गरीबी को कम करने में सफल रही थी, लेकिन जैसे इसके साथ-साथ महंगाई ने भी आसमान छुआ तो उम्मीदों पर ग्रहण लग गया और मोदी की नीतियों के प्रति एक उम्मीद जगी. दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, ‘‘आज गरीब से गरीब आदमी को भी रोटी की चिंता नहीं है. वे बेहतर जिंदगी चाहते हैं और इसी सवाल पर मोदी का सिक्का चल गया.’’
हर मोर्चे पर राहुल मोदी से पीछे थे. जहां एक ओर मोदी ने खुद को एक गरीब आदमी के रूप में प्रस्तुत किया, जो अपने कपड़े खुद धोता था और जिसने प्लेटफॉर्म पर चाय बेची. वहीं राहुल अपनी समृद्घ सौभाग्यशाली राजवंश की छवि से बाहर नहीं आ सके. मोदी ने नए उद्यमी भारत में नौकरी और संसाधन देने का वायदा किया, जहां प्रतिभा का सम्मान किया जाएगा. वहीं राहुल का वादा एक व्यवस्था के अंतर्गत दान और अधिकार बांटने का था. ऐसी व्यवस्था, जो माई-बाप संस्कृति को बढ़ावा देती है. जहां मोदी का प्रचार बहुत सुचिंतित और योजनाबद्घ था, जहां एक-एक क्षेत्र का चयन बड़ी सावधानी से किया गया और बहुत बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचने की कोशिश की, वहीं राहुल का प्रचार अभियान बहुत अव्यवस्थित था. आखिरकार कांग्रेस का भारत आम आदमी पार्टी की तरह जनसभा का कोई मॉडल प्रतीत हो रहा था. जाहिर है कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस के वोटों में किस तरह सेंधमारी की है.
कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि हार की जिम्मेदारी राहुल गांधी के कंधों पर है. कांग्रेस के 43 वर्षीय उपाध्यक्ष राहुल ने 15वीं लोकसभा में अपना ज्यादातर समय नौवीं पंक्ति में बिताया, जहां वे दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा से बात किया करते थे या धौरहरा के सांसद जितिन प्रसाद को अपने सेलफोन में झांकने देते थे. इस तरह के दृश्य कभी-कभार ही नहीं थे, खासकर यह देखते हुए कि लोकसभा में उनकी मौजूदगी महज 43 फीसदी थी, जिसमें वे सिर्फ दो बार ही बोले. बातचीत के बीच में ही उठकर गायब हो जाने के लिए मशहूर देश के तथाकथित भावी नेता हमेशा जिम्मेदारी लेने से बचते रहे हैं. पार्टी जब भी उनकी अगुआई में चुनाव हारी, उन्हें तरक्की दे दी गई. चाहे उत्तर प्रदेश में 2012 में विधानसभा चुनाव हों या दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनाव, जहां चार महत्वपूर्ण राज्यों में कांग्रेस की करारी हार हुई. अब तक की उनकी 10 साल की राजनीति में कांग्रेस सत्ता में थी. लेकिन राहुल के लिए अब वह सुविधा खत्म हो चुकी है. कांग्रेस के लोग उनसे कुछ कर दिखाने की उम्मीद कर रहे हैं.
विपक्ष में राहुल का व्यवहार और उनका रवैया ही कांग्रेस की और खुद उनकी किस्मत तय करेगा. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘‘सबसे पहली चीज राहुल को यह समझनी होगी कि राजनीति पूर्णकालिक और चौबीसों घंटे का काम है. यह मर्जी के मुताबिक समय देने और गायब हो जाने वाला काम नहीं है, जिसमें आप जब चाहें, किसी को बताए बिना छुट्टियां बिताने के लिए विदेश चले जाएं.’’ 14 मई को मनमोहन सिंह के विदाई रात्रिभोज में राहुल की गैरमौजूदगी ने राजनीति में उनकी गंभीरता के बारे में सवाल खड़े कर दिए. राहुल 12 मई को देश से बाहर चले गए थे और 15 मई को लौट आए थे.
कांग्रेस के नेताओं के लिए उनका बचाव करना कठिन हो गया था, क्योंकि उन्हें राहुल की यात्रा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. अतीत में राहुल गांधी हमेशा ही जिम्मेदारी लेने या शासन में कोई भूमिका लेने से भागते रहे हैं. 2009 में जब मनमोहन सिंह ने उन्हें सम्मानपूर्वक कैबिनेट में मंत्री पद देने की पेशकश की थी तो उन्होंने यह कहकर उसे लेने से इनकार कर दिया था कि उन्हें पार्टी के लिए काम करना है. कभी-कभार गुस्सा जाहिर करने के कारण उनकी छवि एक विद्रोही और अंतरात्मा की आवाज सुनने वाले बाहरी व्यक्ति के तौर पर बन गई, लेकिन एक नेता के तौर पर उनकी छवि नहीं बन पाई.
अब राहुल के पास चुनौती स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘‘उन्हें कुछ ऐसा करने की जरूरत है, जो गांधी परिवार लंबे समय से नहीं कर पाया है. उन्हें एक नया नारा गढऩे की जरूरत है, जो निचले तबके का ध्यान रखने के साथ नए भारत को लुभा सके.’’

स्थानीय नेतृत्व को बढ़ावा दें
राहुल का पहला काम पार्टी में गंभीरता के साथ लोकतंत्र लाने का प्रयास होना चाहिए. इस बारे में वे बातें तो बहुत करते हैं, लेकिन अब तक यह काम सिर्फ युवा कांग्रेस तक ही सीमित रहा है. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘‘हमारी पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सब कुछ दिल्ली से तय होता है. बीजेपी क्षेत्रीय नेतृत्व विकसित करती है. इसीलिए वे सफल हैं. दूसरी तरफ हम लोग देश के एक बड़े हिस्से से कटते जा रहे हैं.’’ कांग्रेस ने बड़े व्यवस्थित तरीके से क्षेत्रीय सत्ता केंद्रों को खत्म करने की कोशिश की है. आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र इसके सटीक उदाहरण हैं. 2009 में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को 33 सीटें मिली थीं, जिसके बल पर यूपीए-2 की सरकार बनने में मदद मिली. लेकिन उसी साल सितंबर में वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद कांग्रेस आलाकमान ने के. रोसैया को मुख्यमंत्री बनाकर उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी को अलग-थलग कर दिया, जिसके चलते पार्टी विभाजित हो गई. नवंबर 2010 में आदर्श घोटाले में शामिल होने के कारण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को हटा दिया गया और पृथ्वीराज चव्हाण, जो उस समय पीएमओ में राज्यमंत्री थे, को उनकी जगह मुख्यमंत्री बना दिया गया, हालांकि राज्य इकाई में उनका कड़ा विरोध हुआ था.
पिछले साल राहुल ने कुछ क्षेत्रीय नेताओं को सशक्त बनाने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन आधे-अधूरे मन से की गई कोशिश बहुत देर से हुई. सचिन पायलट, अरुण यादव और अशोक तंवर को राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा का प्रदेश अध्यक्ष तब बनाया गया जब 2013 में पार्टी विधानसभा चुनाव हार गई. राजस्थान कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘‘अब भी समस्या यह है कि पायलट और यादव कोई बड़े नेता नहीं हैं. जनता में उनकी अपील वैसी नहीं है, जैसी कि उनके पिताओं की थी.’’
वरिष्ठ नेताओं से संबंध बनाएं
राहुल के लिए तुरंत एक अन्य काम करना यह जरूरी है कि वे पार्टी में भीतरी तौर पर चल रही कलह को खत्म करें. मोहन गोपाल, जयराम रमेश और मधुसूदन मिस्त्री को राहुल का मुख्य रणनीतिकार बनाए जाने से कई वरिष्ठ नेताओं जैसे चिदंबरम, दिग्विजय सिंह और अहमद पटेल में नाराजगी है, जिन्हें राहुल के नए करीबियों का आदेश मानना पसंद नहीं है. इसके अलावा कमलनाथ, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी और सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे कुछ नेता खुद को पार्टी में निरर्थक या फालतू पाने लगे हैं. चार बार सांसद रह चुके एक नेता कहते हैं, ‘‘जब राजीव नेता थे तो मुझसे कहा जाता था कि मैं अभी बहुत युवा हूं और मुझे इंतजार करना चाहिए. और अब राहुल की टीम में मुझे बूढ़ा माना जाता है. मैं नहीं जानता कि मेरा समय कब आएगा.’’ कांग्रेस के एक नेता का कहना है, ‘‘राहुल को पुराने नेताओं को जोडऩे का प्रयास करना चाहिए.’’
परिवार की कहानी
कांग्रेस अध्यक्ष 67 वर्षीया सोनिया गांधी अब अपनी जिम्मेदारी राहुल पर छोडऩा चाहती हैं, लेकिन राहुल उसे स्वीकार करने से हिचकते रहे हैं. यहां तक कि जब वे पार्टी के उपाध्यक्ष बन गए तब भी सरकार के साथ तालमेल बैठाने और नए सहयोगी बनाने का काम सोनिया की टीम पर ही छोड़ दिया गया और राहुल ने खुद को पार्टी के पुनर्गठन के काम तक ही सीमित रखा. उन्होंने कभी भी सोनिया की मुख्य टीम मनमोहन सिंह, पटेल, ए.के. एंटनी, सुशील कुमार शिंदे और चिदंबरम से जुडऩे की इच्छा नहीं जताई.
कांग्रेस की कार्यकारी समिति में उन्होंने शायद ही कभी अपना मुंह खोला हो. 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान मां सोनिया और बहन प्रियंका को आखिरी समय में उतरना पड़ा. सोनिया कम-से-कम अब भी वरिष्ठ नेताओं और सहयोगी दलों से बातचीत का जिम्मा संभाल रही हैं, क्योंकि उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष से संवाद करना आसान लगता है. अमेठी और रायबरेली में प्रियंका के भाषणों के बाद उनकी लोकप्रियता बढ़ गई है, जिससे कांग्रेस के नेता उन्हें ही पार्टी की बागडोर थमाए जाने के पक्ष में हैं. प्रियंका ने इस विचार को खारिज कर दिया है, लेकिन वे राहुल की छवि सुधारने के लिए अपना योगदान दे सकती हैं.
विचारधारा बनाम वास्तविकता
अब एक मजबूत सरकार के खिलाफ राहुल को बुलंद तरीके से अपना दखल देना होगा. संसद में अपना आधार बनाना बहुत महत्वपूर्ण होगा. राज्यसभा में कांग्रेस के पास बीजेपी के 46 सदस्यों के मुकाबले 68 सदस्य हैं, जिसका फायदा वह उठा सकती है. क्षेत्रीय पार्टियों को मिलाकर वह नीतिगत प्रयासों पर अड़ंगा लगाकर सरकार को घेर सकती है. लोकसभा में वह तमाम मुद्दों पर ममता बनर्जी और जे. जयललिता जैसी नेताओं को साथ लाकर सदन का काम रोक सकती है, जैसा कि बीजेपी ने 15वीं लोकसभा में किया था.
इस साल के अंत में हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां कांग्रेस को सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना करना होगा. हालांकि13 राज्यों में पार्टी और उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं, फिर भी वह अगर दो राज्यों में हार जाती है तो उसकी झेली में केवल दो ही बड़े राज्य कर्नाटक और केरल रह जाएंगे. पार्टी को अरविंद केजरीवाल की ‘‘आप’’ पार्टी के प्रति भी सचेत रहना होगा, क्योंकि वह सफलतापूर्वक उसके वोटों में सेंध लगा रही है.
पार्टी के सामने उस तरह से किसी बड़े विघटन की संभावना नहीं है, जैसा कि 1996 में हार के बाद पार्टी को झेलना पड़ा था. उस समय शरद पवार और ममता बनर्जी ने पार्टी छोड़कर अपनी पार्टी बना ली थी. गांधी परिवार अब भी कांग्रेस की जीवन धारा है. लेकिन 2014 की हार दिखाती है कि देश पर पार्टी की पकड़ कमजोर हो रही है.
क्या राहुल समय रहते अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए अपने अंदर बदलाव ला पाएंगे? यह देखने के लिए 2019 का इंतजार करना होगा. उनके पास वह सब सीखने के लिए पांच साल है, जो वे पिछले 10 साल में नहीं सीख पाए.
उधर, राहुल के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. अपने परिवार के गढ़ अमेठी में वे पिछड़ रहे थे, हालांकि बाद में वे बीजेपी नेता और नरेंद्र मोदी की ‘‘छोटी बहन’’ स्मृति ईरानी से 1,07,903 वोटों से जीतने में सफल रहे. साफ है कि कांग्रेस के इस राजकुमार के लिए रास्ते बंद हो रहे हैं. पार्टी की झोली में जब मात्र 44 सीटें ही आईं तो पार्टी नेताओं ने तुरंत उनका बचाव करना शुरू कर दिया.
कांग्रेस को इससे पहले 1999 में सबसे कम 114 सीटें मिली थीं. निवर्तमान संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ल कहते हैं, ‘‘हमें इतनी कम सीटों की उम्मीद नहीं थी.’’ लेकिन साथ ही उन्होंने तुरंत यह भी जोड़ा, ‘‘यह राहुल गांधी की हार नहीं है. यह पार्टी की सामूहिक जिम्मेदारी है.’’ उसके बाद दोपहर में जब चुनाव में अपनी हार की जिम्मेदारी लेने के लिए राहुल गांधी अपनी मां के साथ कांग्रेस मुख्यालय के बाहर आए तो भी पूरी प्रक्रिया से कटे हुए, दूर और यंत्रवत खड़े रहे. मानो अब तक की कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय अभी तक स्वीकृत नहीं हो पाई है.
कांग्रेस और राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ा सवाल सिद्घांत और प्रस्तुतीकरण का है. 2009 में पार्टी गरीबी को कम करने में सफल रही थी, लेकिन जैसे इसके साथ-साथ महंगाई ने भी आसमान छुआ तो उम्मीदों पर ग्रहण लग गया और मोदी की नीतियों के प्रति एक उम्मीद जगी. दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, ‘‘आज गरीब से गरीब आदमी को भी रोटी की चिंता नहीं है. वे बेहतर जिंदगी चाहते हैं और इसी सवाल पर मोदी का सिक्का चल गया.’’
हर मोर्चे पर राहुल मोदी से पीछे थे. जहां एक ओर मोदी ने खुद को एक गरीब आदमी के रूप में प्रस्तुत किया, जो अपने कपड़े खुद धोता था और जिसने प्लेटफॉर्म पर चाय बेची. वहीं राहुल अपनी समृद्घ सौभाग्यशाली राजवंश की छवि से बाहर नहीं आ सके. मोदी ने नए उद्यमी भारत में नौकरी और संसाधन देने का वायदा किया, जहां प्रतिभा का सम्मान किया जाएगा. वहीं राहुल का वादा एक व्यवस्था के अंतर्गत दान और अधिकार बांटने का था. ऐसी व्यवस्था, जो माई-बाप संस्कृति को बढ़ावा देती है. जहां मोदी का प्रचार बहुत सुचिंतित और योजनाबद्घ था, जहां एक-एक क्षेत्र का चयन बड़ी सावधानी से किया गया और बहुत बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचने की कोशिश की, वहीं राहुल का प्रचार अभियान बहुत अव्यवस्थित था. आखिरकार कांग्रेस का भारत आम आदमी पार्टी की तरह जनसभा का कोई मॉडल प्रतीत हो रहा था. जाहिर है कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस के वोटों में किस तरह सेंधमारी की है.
कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि हार की जिम्मेदारी राहुल गांधी के कंधों पर है. कांग्रेस के 43 वर्षीय उपाध्यक्ष राहुल ने 15वीं लोकसभा में अपना ज्यादातर समय नौवीं पंक्ति में बिताया, जहां वे दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा से बात किया करते थे या धौरहरा के सांसद जितिन प्रसाद को अपने सेलफोन में झांकने देते थे. इस तरह के दृश्य कभी-कभार ही नहीं थे, खासकर यह देखते हुए कि लोकसभा में उनकी मौजूदगी महज 43 फीसदी थी, जिसमें वे सिर्फ दो बार ही बोले. बातचीत के बीच में ही उठकर गायब हो जाने के लिए मशहूर देश के तथाकथित भावी नेता हमेशा जिम्मेदारी लेने से बचते रहे हैं. पार्टी जब भी उनकी अगुआई में चुनाव हारी, उन्हें तरक्की दे दी गई. चाहे उत्तर प्रदेश में 2012 में विधानसभा चुनाव हों या दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनाव, जहां चार महत्वपूर्ण राज्यों में कांग्रेस की करारी हार हुई. अब तक की उनकी 10 साल की राजनीति में कांग्रेस सत्ता में थी. लेकिन राहुल के लिए अब वह सुविधा खत्म हो चुकी है. कांग्रेस के लोग उनसे कुछ कर दिखाने की उम्मीद कर रहे हैं.
विपक्ष में राहुल का व्यवहार और उनका रवैया ही कांग्रेस की और खुद उनकी किस्मत तय करेगा. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘‘सबसे पहली चीज राहुल को यह समझनी होगी कि राजनीति पूर्णकालिक और चौबीसों घंटे का काम है. यह मर्जी के मुताबिक समय देने और गायब हो जाने वाला काम नहीं है, जिसमें आप जब चाहें, किसी को बताए बिना छुट्टियां बिताने के लिए विदेश चले जाएं.’’ 14 मई को मनमोहन सिंह के विदाई रात्रिभोज में राहुल की गैरमौजूदगी ने राजनीति में उनकी गंभीरता के बारे में सवाल खड़े कर दिए. राहुल 12 मई को देश से बाहर चले गए थे और 15 मई को लौट आए थे.
कांग्रेस के नेताओं के लिए उनका बचाव करना कठिन हो गया था, क्योंकि उन्हें राहुल की यात्रा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. अतीत में राहुल गांधी हमेशा ही जिम्मेदारी लेने या शासन में कोई भूमिका लेने से भागते रहे हैं. 2009 में जब मनमोहन सिंह ने उन्हें सम्मानपूर्वक कैबिनेट में मंत्री पद देने की पेशकश की थी तो उन्होंने यह कहकर उसे लेने से इनकार कर दिया था कि उन्हें पार्टी के लिए काम करना है. कभी-कभार गुस्सा जाहिर करने के कारण उनकी छवि एक विद्रोही और अंतरात्मा की आवाज सुनने वाले बाहरी व्यक्ति के तौर पर बन गई, लेकिन एक नेता के तौर पर उनकी छवि नहीं बन पाई.
अब राहुल के पास चुनौती स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘‘उन्हें कुछ ऐसा करने की जरूरत है, जो गांधी परिवार लंबे समय से नहीं कर पाया है. उन्हें एक नया नारा गढऩे की जरूरत है, जो निचले तबके का ध्यान रखने के साथ नए भारत को लुभा सके.’’

स्थानीय नेतृत्व को बढ़ावा दें
राहुल का पहला काम पार्टी में गंभीरता के साथ लोकतंत्र लाने का प्रयास होना चाहिए. इस बारे में वे बातें तो बहुत करते हैं, लेकिन अब तक यह काम सिर्फ युवा कांग्रेस तक ही सीमित रहा है. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘‘हमारी पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सब कुछ दिल्ली से तय होता है. बीजेपी क्षेत्रीय नेतृत्व विकसित करती है. इसीलिए वे सफल हैं. दूसरी तरफ हम लोग देश के एक बड़े हिस्से से कटते जा रहे हैं.’’ कांग्रेस ने बड़े व्यवस्थित तरीके से क्षेत्रीय सत्ता केंद्रों को खत्म करने की कोशिश की है. आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र इसके सटीक उदाहरण हैं. 2009 में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को 33 सीटें मिली थीं, जिसके बल पर यूपीए-2 की सरकार बनने में मदद मिली. लेकिन उसी साल सितंबर में वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद कांग्रेस आलाकमान ने के. रोसैया को मुख्यमंत्री बनाकर उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी को अलग-थलग कर दिया, जिसके चलते पार्टी विभाजित हो गई. नवंबर 2010 में आदर्श घोटाले में शामिल होने के कारण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को हटा दिया गया और पृथ्वीराज चव्हाण, जो उस समय पीएमओ में राज्यमंत्री थे, को उनकी जगह मुख्यमंत्री बना दिया गया, हालांकि राज्य इकाई में उनका कड़ा विरोध हुआ था.
पिछले साल राहुल ने कुछ क्षेत्रीय नेताओं को सशक्त बनाने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन आधे-अधूरे मन से की गई कोशिश बहुत देर से हुई. सचिन पायलट, अरुण यादव और अशोक तंवर को राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा का प्रदेश अध्यक्ष तब बनाया गया जब 2013 में पार्टी विधानसभा चुनाव हार गई. राजस्थान कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘‘अब भी समस्या यह है कि पायलट और यादव कोई बड़े नेता नहीं हैं. जनता में उनकी अपील वैसी नहीं है, जैसी कि उनके पिताओं की थी.’’
वरिष्ठ नेताओं से संबंध बनाएं
राहुल के लिए तुरंत एक अन्य काम करना यह जरूरी है कि वे पार्टी में भीतरी तौर पर चल रही कलह को खत्म करें. मोहन गोपाल, जयराम रमेश और मधुसूदन मिस्त्री को राहुल का मुख्य रणनीतिकार बनाए जाने से कई वरिष्ठ नेताओं जैसे चिदंबरम, दिग्विजय सिंह और अहमद पटेल में नाराजगी है, जिन्हें राहुल के नए करीबियों का आदेश मानना पसंद नहीं है. इसके अलावा कमलनाथ, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी और सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे कुछ नेता खुद को पार्टी में निरर्थक या फालतू पाने लगे हैं. चार बार सांसद रह चुके एक नेता कहते हैं, ‘‘जब राजीव नेता थे तो मुझसे कहा जाता था कि मैं अभी बहुत युवा हूं और मुझे इंतजार करना चाहिए. और अब राहुल की टीम में मुझे बूढ़ा माना जाता है. मैं नहीं जानता कि मेरा समय कब आएगा.’’ कांग्रेस के एक नेता का कहना है, ‘‘राहुल को पुराने नेताओं को जोडऩे का प्रयास करना चाहिए.’’
परिवार की कहानी
कांग्रेस अध्यक्ष 67 वर्षीया सोनिया गांधी अब अपनी जिम्मेदारी राहुल पर छोडऩा चाहती हैं, लेकिन राहुल उसे स्वीकार करने से हिचकते रहे हैं. यहां तक कि जब वे पार्टी के उपाध्यक्ष बन गए तब भी सरकार के साथ तालमेल बैठाने और नए सहयोगी बनाने का काम सोनिया की टीम पर ही छोड़ दिया गया और राहुल ने खुद को पार्टी के पुनर्गठन के काम तक ही सीमित रखा. उन्होंने कभी भी सोनिया की मुख्य टीम मनमोहन सिंह, पटेल, ए.के. एंटनी, सुशील कुमार शिंदे और चिदंबरम से जुडऩे की इच्छा नहीं जताई.
कांग्रेस की कार्यकारी समिति में उन्होंने शायद ही कभी अपना मुंह खोला हो. 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान मां सोनिया और बहन प्रियंका को आखिरी समय में उतरना पड़ा. सोनिया कम-से-कम अब भी वरिष्ठ नेताओं और सहयोगी दलों से बातचीत का जिम्मा संभाल रही हैं, क्योंकि उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष से संवाद करना आसान लगता है. अमेठी और रायबरेली में प्रियंका के भाषणों के बाद उनकी लोकप्रियता बढ़ गई है, जिससे कांग्रेस के नेता उन्हें ही पार्टी की बागडोर थमाए जाने के पक्ष में हैं. प्रियंका ने इस विचार को खारिज कर दिया है, लेकिन वे राहुल की छवि सुधारने के लिए अपना योगदान दे सकती हैं.
विचारधारा बनाम वास्तविकता
अब एक मजबूत सरकार के खिलाफ राहुल को बुलंद तरीके से अपना दखल देना होगा. संसद में अपना आधार बनाना बहुत महत्वपूर्ण होगा. राज्यसभा में कांग्रेस के पास बीजेपी के 46 सदस्यों के मुकाबले 68 सदस्य हैं, जिसका फायदा वह उठा सकती है. क्षेत्रीय पार्टियों को मिलाकर वह नीतिगत प्रयासों पर अड़ंगा लगाकर सरकार को घेर सकती है. लोकसभा में वह तमाम मुद्दों पर ममता बनर्जी और जे. जयललिता जैसी नेताओं को साथ लाकर सदन का काम रोक सकती है, जैसा कि बीजेपी ने 15वीं लोकसभा में किया था.
इस साल के अंत में हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां कांग्रेस को सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना करना होगा. हालांकि13 राज्यों में पार्टी और उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं, फिर भी वह अगर दो राज्यों में हार जाती है तो उसकी झेली में केवल दो ही बड़े राज्य कर्नाटक और केरल रह जाएंगे. पार्टी को अरविंद केजरीवाल की ‘‘आप’’ पार्टी के प्रति भी सचेत रहना होगा, क्योंकि वह सफलतापूर्वक उसके वोटों में सेंध लगा रही है.
पार्टी के सामने उस तरह से किसी बड़े विघटन की संभावना नहीं है, जैसा कि 1996 में हार के बाद पार्टी को झेलना पड़ा था. उस समय शरद पवार और ममता बनर्जी ने पार्टी छोड़कर अपनी पार्टी बना ली थी. गांधी परिवार अब भी कांग्रेस की जीवन धारा है. लेकिन 2014 की हार दिखाती है कि देश पर पार्टी की पकड़ कमजोर हो रही है.
क्या राहुल समय रहते अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए अपने अंदर बदलाव ला पाएंगे? यह देखने के लिए 2019 का इंतजार करना होगा. उनके पास वह सब सीखने के लिए पांच साल है, जो वे पिछले 10 साल में नहीं सीख पाए.