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मोदी लहर पर सवार बीजेपी समूचे देश में छाई

पहली दफा बीजेपी ने उत्तर और पश्चिम के अपने गढ़ों के बाहर भी मौजूदगी दर्ज करा नया इतिहास बनाया. नरेंद्र मोदी की अगुआई में पार्टी पूरे देश में छा गई.

अपडेटेड 26 मई , 2014

सुबह 10 बजे. तारीख 16 मई. नई दिल्ली के अशोक रोड स्थित बीजेपी के मुख्यालय में जश्न मानो किसी मेले में तब्दील हो गया है. नीले रंग के जंपसूट पर मोर पंख लगाए महिलाएं, कमल के फूल से पुते हाथी, और गुलाब की पंखुडियां बरसाता स्नोब्लोअर सब कुछ जुट गया था. मिठाइयां बंट रही थीं और टीवी के परदों पर जैसे-जैसे विशाल जीत की खबरें आ रही थीं, समूचा माहौल मदमस्त होता जा रहा था.

नरेंद्र मोदी की जीत इतनी विशाल थी कि पार्टी में उनकी कथित प्रतिद्वंद्वी सुषमा स्वराज भी जीत का जश्न मनाने टीवी चौनलों पर पहुंच गईं. दोपहर में मोदी ने ट्वीट किया, ‘‘भारत विजय. अच्छे दिन आने वाले हैं.’’ मोदी ने कुछ कहा और मिनटों में यह ट्वीटर संदेश देश भर में बार-बार सबसे ज्यादा रिट्वीट किया जाने वाला संदेश बन गया.

इस आम चुनाव में मोदी की जीत करीब महीने भर से तय लगने लगी थी, जनमत सर्वेक्षण और मतदान बाद सर्वेक्षणों में सिर्फ आंकड़ों ही फर्क था. बीजेपी को मिले 282 सीटों ने जोरदार मोदी लहर पर ही मुहर नहीं लगाई, बल्कि पार्टी में उन्हें निर्विवाद ताकत के रूप में स्थापित कर दिया.

अपने अलबेले प्रचार अभियान से उन्होंने बीजेपी को सबसे बड़ी जीत दिलाई और अब तक हिंदी पट्टी की पार्टी मानी जाने वाली बीजेपी को वाकई राष्ट्रीय बना दिया. मोदी लहर इतनी तगड़ी थी कि अर्थशास्त्री सुरजीत एस. भल्ला के मुताबिक, इस लहर ने एनडीए के खाते में 75 फीसदी सीटें जोड़ दीं.

लंबे समय से उत्तर और पश्चिम की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी दक्षिण और पूर्व में अपनी जमीन तलाशने के लिए संघर्षरत थी. इस बार मोदी ने इस कमी की भरपाई चतुराई और रणनीतिक लिहाज से बनाए गठजोड़ों से पूरी कर दी. बीजेपी को उन इलाकों में भी जमीन मिल गई, जो पार्टी के आकलन बाहर रहा करती थी.

मोदी नई धुरी
बीजेपी ने उन राज्यों में भी पैठ बनाई है जहां उसकी कोई जमीन नहीं थी और बाकी जगह अपनी मजबूत स्थिति को चट्टान की तरह मजबूत बना लिया. उसे जम्मू-कश्मीर की छह में से तीन सीटें मिलीं और हरियाणा-असम में सात-सात सीटें लेकर नई जमीन तैयार कर ली. उसने तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में अपनी पैठ बनाई. तमिलनाडु में 2009 में शून्य से एक सीट पर तो पश्चिम बंगाल में एक से बढ़कर दो सीटों पर पहुंच गई.

उत्तर प्रदेश में तो उसने सपा और बीएसपी जैसे मजबूत किरदारों को हवा में उड़ा दिया, जबकि महाराष्ट्र में वह अब 23 सीटों के साथ शिवसेना की वरिष्ठ सहयोगी बन गई. बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और चुनाव विश्लेषक जी.वी.एल. नरसिंह राव के मुताबिक यह उफान ही मोदी लहर को पार्टी के इतिहास में एक अलग स्थान दिला देता है. वे बताते हैं, ‘‘बीजेपी को इसी तरह का जनादेश 1999 में भी मिला था लेकिन पहली बार लगभग हर राज्य में मोदी लहर का असर देखा गया. इससे बीजेपी वोट खींचने वाली मशीन में बदल गई.’’

करीब एक-तिहाई भारत ने बीजेपी को वोट दिया और उसे कट्टर हिंदुत्व के तमगे के कारण ‘‘अछूत’’ होने से निजात दिला दी. हालांकि उसके पक्ष में यह बदलाव मुख्य तौर पर उसके विकास और सुशासन के दावों से हुआ लेकिन सहयोगियों से हाथ मिलाने की कोशिशों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.

बीजेपी ने एनडीए में 28 सहयोगी जुटा लिए. हालांकि इनमें से छह की ही मौजूदगी लोकसभा में है. पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर कहते हैं, ‘‘इनमें ज्यादातर के एक सीट से ज्यादा जीतने की उम्मीद नहीं थी. रणनीति यह थी कि इन पार्टियों के वोट बैंक को बीजेपी की ओर खींचा जाए.’’

यह रणनीति कई तरीकों से काम कर गया. बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी पासवान वोटों को खींचने में मददगार हुई, जिनकी तादाद राज्य की सभी 40 सीटों में करीब 50,000 है. तमिलनाडु में छोटे सहयोगियों ने वन्नियार और मूपनार जैसे समुदायों के वोट खींचने में मदद की. उत्तर प्रदेश में अपना दल से गठजोड़ के कारण राज्य के पूर्वी हिस्से की कई सीटों पर करीब एक लाख वोटरों का सहयोग मिल गया.

इससे बीजेपी को उन इलाकों में ताकतवर जातियों को गोलबंद करने में मदद मिली जहां उसका सांगठनिक आधार कमजोर है. बीजेपी के एक नेता कहते हैं, ‘‘पार्टी के प्रचार अभियान का मॉडल चुनाव के दौरान कार्यकर्ताओं को एक राज्य से दूसरे में भेजने की रही है. इसलिए स्थानीय संपर्क एक समस्या हो सकती है. गठबंधन की सभी पार्टियां भले इस बार सीटें नहीं जीत पाईं हैं, लेकिन भविष्य में ये पार्टियां मददगार हो सकती हैं.’’

प्रचार अभियान के दौरान हिंदुत्व के एजेंडे को किनारे रखकर बीजेपी ने वृहत एनडीए की जमीन तैयार की और चुनाव के बाद अधिक सहयोगियों के लिए दरवाजा खुला रखा है. जबकि सरकार बनाने में उनके समर्थन की दरकार नहीं भी है. नए सहयोगी राज्यसभा में आंकड़ों की कमी की कुछ हद तक भरपाई भी कर सकते हैं, जहां एनडीए के 245 में से सिर्फ 64 सदस्य हैं.

राज्यसभा में वामपंथी दलों, बीएसपी, तृणमूल कांग्रेस और एआइडीएमके जैसी पार्टियों के 96 सदस्य हैं, जिनका सहयोग महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के लिए हासिल करना जरूरी होगा. मोदी ने 7 मई को एक टीवी इंटरव्यू में कहा, ‘‘राजनीति चुनाव प्रचार में कही गई बातों के आधार पर नहीं चलती.’’ इस तरह उन्होंने संकेत दिया कि वे उन पार्टियों का भी सहयोग लेने को तैयार हैं जिनकी प्रचार के दौरान आलोचना की है.
बीजेपी की जबरदस्त उछाल
उनकी छवि में समाई पार्टी
निर्णायक जनादेश से मजबूती पाकर मोदी बीजेपी में बड़े बदलाव की तैयारी कर रहे हैं. प्रचार के दौरान मुख्य भूमिका में रहे राजनाथ सिंह, अरुण जेटली और अमित शाह सत्ता के नए केंद्र होंगे. हालांकि जेटली अमृतसर सीट पर कांग्रेस के अमरिंदर सिंह से चुनाव हार गए हैं. जबकि शाह का कद उत्तर प्रदेश में भारी जीत दिलवाने से काफी बढ़ गया है.

वे जब राज्य में 11 महीने पहले उतारे गए तो बीजेपी की कुल 10 सीटें थीं और कार्यकर्ता हतोत्साहित थे. अब वहां 71 सीटें हैं जो 1998 में जीती सर्वाधिक 57 सीटों (कुल 85 में) से भी ज्यादा हैं. इसलिए बीजेपी के बदलाव में उनकी भूमिका अहम होगी. सूत्रों के मुताबिक, मोदी पहले महासचिव (संगठन) के बारे में फैसले लेंगे, जो बीजेपी और आरएसएस के बीच सेतु का काम करते हैं. यह पद अभी रामलाल के पास है और कभी मोदी इसी पद पर थे.

मोदी पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था संसदीय बोर्ड में अपेक्षाकृत युवा नेताओं को लाएंगे और उन्हें महासचिव का पद देकर इस साल होने वाले महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों की जिम्मेदारी सौंपेंगे. वे पार्टी में महिलाओं का अनुपात भी बढ़ाएंगे और अल्पसंख्यक राजनीति की धारा बदलने के लिए नया मुस्लिम नेतृत्व भी तैयार करेंगे. ब्रांड रणनीतिकार सुशील पंडित कहते हैं, ‘‘राष्ट्रपति शैली प्रचार चला चुके मोदी राष्ट्रपति प्रणाली जैसी सरकार ही चलाएंगे.’’

इसक मतलब पार्टी और सरकार पर मजबूत पकड़ बनाए रखेंगे. शिरोमणि अकाली दल के नरेश गुजराल कहते हैं, ‘‘मंत्रियों की नियुक्ति पीएम करेंगे, वे मुख्यमंत्रियों या पार्टी प्रमुखों के प्रतिनिधि नहीं होंगे. पीएम के पास गठबंधन के निर्धारित कोटे की मजबूरी नहीं होगी.’’

हिंदू राष्ट्रवाद पर काफी लिखने वाले फ्रांसीसी राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफरलो के मुताबिक मोदी बीजेपी या आरएसएस के कार्यकर्ताओं पर निर्भरता कम करने के लिए एक समानांतर तंत्र खड़ा कर सकते हैं. वरिष्ठ नेता स्थितियां कठिन कर सकते हैं लेकिन गुजरात की ही तरह मोदी प्रधानमंत्री कार्यालय का पार्टी से संबंध नहीं रहने देंगे.

अधिकांश मजबूत मुख्यमंत्रियों की तरह वे अपने रोजमर्रा के काम के लिए अफसरशाहों की टोली पर भरोसा करेंगे. इस तरह पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय को मजबूती मिलने की उम्मीद है. मोदी अपने वफादार अफसरों को गुजरात से दिल्ली ला सकते हैं. इनमें उनके प्रमुख सचिव के. कैलाशनाथ और अतिरिक्त प्रमुख सचिव ए.के. शर्मा हो सकते हैं.

परिवार पर पकड़
बीजेपी में यह बदलाव संघ को कितना भाएगा? यह सवाल मोदी के लिए सरकार के पहले कुछ महीनों में महत्वपूर्ण होगा. आरएसएस ने उनके पीछे अपनी पूरी ताकत लगा दी है और उनकी जीत में लगाए अपने कार्यकर्ताओं की कीमत वसूल सकता है. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी आरएसएस पर काबू पाने के लिए जूझते रहे थे, खासकर इतिहास की किताबों में अपने नायकों को महिमामंडत करने के मामले में.

संघ पर टिप्पणी करने वाले ज्योतिर्मय शर्मा का कहना है कि बीजेपी-आरएसएस का रिश्ता बेहतर होगा. वे कहते हैं, ‘‘पहले दोनों के बीच फर्क था जब राजनीति को सामाजिक बदलाव का ओछा माध्यम माना जाता था. लेकिन मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ को राजनीति से परहेज नहीं है.

मोदी और भागवत लगभग एक ही उम्र के हैं और एक ही वैचारिक धरातल पर हैं इसलिए बीजेपी और संघ के रिश्तों में नए तरह की बात होगी.’’ शर्मा कहते हैं, ‘‘आरएसएस अब भी पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखने और समान नागरिक संहिता में यकीन रखता है लेकिन इन मामलों को वह शांति से निबटा लेगा.’’

बहरहाल, चुनाव जीते जा चुके हैं इसलिए मोदी गुजरात की प्रशासनिक स्पष्टता केंद्र में भी लाएंगे. इसके लिए पहले बीजेपी को ऐसी शक्ल देनी होगी, जो कारगर सरकार में मददगार हो. अगर मोदी और आरएसएस की योजना लंबे समय तक सत्ता में रहना है तो उन्हें गुजरात मॉडल को प्रभावी बनाने और गांधीनगर के नया सचिवालय की कार्यसंस्कृति दिल्ली के साउथ ब्लॉक में लाने के तरीके तलाशने ही होंगे.

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