गठवाला खाप के 52 गांवों के चौधरी बाबा हरकिशन मलिक शामली जिले के लिसाढ़ गांव में अपनी ड्योढ़ी पर हुक्का गुडग़ुड़ा रहे हैं. उनके साथ उनके 60 वर्षीय बेटे राजेंद्र मलिक और कुछ गांव वाले 27 मार्च के अखबार में छपे सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इत्मीनान से चर्चा कर रहे हैं. इस फैसले में उत्तर प्रदेश सरकार को मुजफ्फरनगर दंगों की साजिश का पहले से पता न लगा पाने के लिए फटकार लगाई गई है और यह भी कहा गया कि समाजवादी पार्टी सरकार किस तरह आरोपियों को पकडऩे में नाकाम रही है. पर बेल के पेड़ के नीचे चल रही यह हुक्का बैठक असल में अदालत के फैसले का सरासर मजाक-सा उड़ाती दिखती है क्योंकि 84 साल के हरकिशन मलिक पर भीड़ को उकसाने और हत्या सहित दंगों के 26 मामले दर्ज हैं. वहीं राजेंद्र पर हत्या सहित दंगों से जुड़े तीन दर्जन मुकदमे दर्ज हैं. कोल्हू से उठ रही ताजा गुड़ की महक से मदमाती हवा में बड़ी विनम्रता से राजेंद्र ने खुद यह बात बताई.
मुकदमों की फेहरिस्त को जेब से निकालते हुए राजेंद्र मलिक कहते हैं, ''अब आप ही बताइए, जब इनसे चला-फिरा भी नहीं जाता तो बाबा हत्या जैसा अपराध कैसे करेंगे? ये तो जी, वोटर लिस्ट उठाकर एक तरफ से मुकदमे लगा दिए. यहां तो कुछ भी न हुआ. '' बातचीत से साफ जाहिर है कि अपनी गिरफ्तारी न होने के प्रति वे कितने आश्वस्त हैं. वैसे, उनकी मासूम दलीलों के बावजूद इस गंभीर आरोप को दरकिनार नहीं कर सकते कि लिसाढ़ के इंटर कॉलेज में दंगों से पहले हुई पंचायत के चौधरी तो बाबा ही थे, भले ही उनकी उम्र कितनी भी ज्यादा क्यों न हो. और उनकी आंख का इशारा खाप में आज भी मायने रखता है. दूसरी बात यह कि जिसे वे 'यहां तो कुछ न हुआ' कह रहे हैं, उसे ही पुलिस रिकॉर्ड में 13 हत्याओं के रूप में दर्ज किया गया है. लेकिन पुलिस की मुस्तैदी का दूसरा पहलू यह है कि वह फुगाना थाने से बाबा के घर को जोडऩे वाली सड़क पर पांच किमी का रास्ता सात महीने में भी तय नहीं कर पाई है. गिरफ्तारी में पुलिस की ढिलाई का हाल यह है कि दंगों में भी नामजद 804 लोग आज भी कागजों में फरार हैं, जबकि वे बाबा की तरह ही आराम से अपने घर पर बैठे हैं.
हां, पुलिस के इस रवैए ने गांव से जान बचाकर भागे मुसलमानों की दहशत को और बढ़ा दिया है. उनके बड़े-बड़े मकान भुतहा हो गए हैं. उनमें सामान बिखरा पड़ा है और खिड़की-दरवाजे उखाड़ लिए गए हैं. इनमें से कुछ मकानों में गांव वाले अब अपनी गाय-भैंस बांध रहे हैं. जो हाल लिसाढ़ का है, वही हाल इस पंचायत के मजरा हसनपुर का है. हसनपुर के 30 वर्षीय तैयब जब हमें मुस्लिमबहुल जोला गांव के कैंप में मिले तो उनकी आंखें डबडबा आईं. जाटों से ब्याज पर पैसा लेकर फेरीवाले का काम करने वाले चार बच्चों के पिता ने कहा, ''मैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक कपड़ा बेचने जाता था. अकसर शहरों में झुग्गियां भी दिखती थीं. लेकिन कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन हम भी झुग्गियों में रहने को मजबूर होंगे. '' तैयब मानते हैं कि उनके गांव में किसी मुसलमान की हत्या नहीं हुई, लेकिन लिसाढ़ ने उन जैसों को बुरी तरह खौफजदा कर दिया है. वे लोग अब गांव नहीं जाना चाहते, उधर सरकार ने अब तक इस गांव को मुआवजा भी नहीं दिया है. ऐसे में वे लोग भी बाकी लोगों की तरह मुआवजे की बाट जोह रहे हैं, ताकि जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने का कुछ आधार मिले. वैसे भी खौफ का साया अब नया ठिकाना बनाने को मजबूर कर रहा है.
यही खौफ अब पश्चिमी यूपी के दंगा पीडि़त गांवों की स्थायी पहचान बन गया है. यहां सामाजिक तानाबाना पूरी तरह बिखर गया है. जाट बहुल गांव अब सिर्फ हिंदू गांव रह गए हैं, क्योंकि मुसलमानों ने इन्हें हमेशा के लिए तौबा कह दिया है. फुगाना, इटावा, नाला, खरड़, एल्लम, हसनपुर, बावड़ी, हड़ल्ली, निरपुड़ा, आप जिस गांव का भी जिक्र कीजिए, वहां मुसलमानों के पलायन की एक-सी तस्वीर नजर आएगी. हां, शाहपुर से सटा बसी गांव इसका अपवाद दिखाई देगा. मुजफ्फरनगर का यह इकलौता गांव है जहां वाल्मीकि समुदाय के हिंदुओं ने मुसलमानों के डर से गांव से पलायन किया है. दरअसल यही वह गांव है जहां मुजफ्फरनगर से पंचायत कर लौट रहे जाटों पर 7 सितंबर को मुसलमानों ने पथराव किया था और एक जाट की मौत हो गई थी. उसके बाद दलितों को इस मुस्लिम बहुल गांव में रहना सुरक्षित नहीं लगा. गांव के 28 वाल्मीकि परिवार तब से मुजफ्फरनगर के गांधीनगर मुहल्ले में रह रहे हैं.
अपने चार बच्चों के साथ यहां रह रहीं बबिता वाल्मीकि कहती हैं, ''हम लोग तो छाती तक भरे जोहड़ को पारकर बच्चों को बचाकर किसी तरह यहां लाए हैं. वहां बहुत खतरा है. '' छठवीं में पढऩे वाले उनके बेटे अमन का स्कूल भी तभी से छूट गया है. और यहां वे जिस झुग्गी में रह रही हैं, उस पर भी रात-दिन उजाड़े जाने का खतरा है. गांव के रवि वाल्मीकि हालात से उकताकर कहते हैं, ''मुसलमानों को तो मुआवजा भी मिल गया है, लेकिन हमें तो फूटी कौड़ी भी नहीं मिली. क्या हिंदू होना जुर्म है? ''
लेकिन न तो कोई तैयब के सवाल का जवाब दे रहा है और न रवि के सवाल का, क्योंकि जो नेता सत्ता में हैं, वे सात माह में उनकी कोई ठोस मदद कर नहीं पाए और जो विपक्ष में हैं, वे इस गुंताड़े में लगे हैं कि दंगों से उन्हें नफा होगा या नुकसान. इसीलिए दंगा पीडि़तों के घरों को रहने लायक बनाने के लिए कोई पहल भले ही न हुई हो, लेकिन उन्हें वोटर बनाए रखने के लिए नए वोटर कार्ड देने में देर नहीं हो रही है. जोला और लोई के कैंपों में रह रहे मुसलमानों के नाम शरणार्थी शिविरों के पते के साथ मतदाता सूचियों में दर्ज कर लिए गए हैं और जल्द ही वे इन्हीं इलाकों के वोटर हो जाएंगे, भले ही वे किसी गांव के रहने वाले हों. वोटर लिस्ट वहां भी तैयार हो रही है, जहां लोगों को किसी तरह आशियाना मिल गया है. ऐसी ही नई बस्ती बसी है सराय गांव के पास शेखुलहिंद नाम से. यहां जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मुसलमानों के लिए 55 घर बनाकर दिए हैं. जोला कैंप के शाजिद ने बताया, ''गांव के सामने सीपीएम भी हम लोगों के लिए मकान बन रही है. ''
ऐसा नहीं है कि राजनैतिक दल सिर्फ वोटर लिस्ट की फिक्र कर रहे हैं. उन्हें वोटर को अपने पाले में खींचने की भी उतनी ही चिंता है. तभी तो नवंबर में लोई कैंप को जबरन उजाडऩे की पहल करने वाली अखिलेश यादव सरकार की सपा के ही झंडे अब इस कैंप पर लहराते दिख रहे हैं. सपा को उम्मीद बंध रही है कि दंगों के बाद बीएसपी का मुस्लिम-दलित समीकरण टूट गया है. ऐसे में बीएसपी के कादिर राणा को दोबारा सांसद बनने में दिक्कत पेश आ सकती है.
उधर दंगा पीडि़त गांवों में 'अब की बार, मोदी सरकार' के छोटे-छोटे बैनरों के साथ बीजेपी भी अपनी मौजूदगी दिखाने में लगी है. वैसे चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले पूरा इलाका नरेंद्र मोदी के भव्य बैनरों से पटा था, लेकिन संहिता की मजबूरी में पार्टी को छोटे बैनरों से संतोष करना पड़ रहा है. फिर भी बीजेपी दंगों की आंच में पकी ध्रुवीकरण की दावत का मजा लेने से चूकना नहीं चाहती. पार्टी ने दंगों के आरोपी संजीव बालियान को मुजफ्फरनगर और हुकुम सिंह को कैराना से टिकट दिया है. साफ है कि ये नए समीकरण जाट वर्चस्व वाले अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के लिए भी चुनौती पेश कर रहे हैं.
इस नए माहौल के पेशे-नजर सियासत ऐसी पहेली बन गई है, जिसमें सरकार को समझ नहीं आ रहा कि आरोपियों पर सख्ती करने में फायदा है या मामले को ठंडे बस्ते में डालकर भूल जाने में. इसीलिए दंगा पीडि़त मारे-मारे फिर रहे हैं, मुख्य आरोपी आराम से चौधराहट कर रहे हैं और सरकार अदालत में फटकार खा रही है.
मुकदमों की फेहरिस्त को जेब से निकालते हुए राजेंद्र मलिक कहते हैं, ''अब आप ही बताइए, जब इनसे चला-फिरा भी नहीं जाता तो बाबा हत्या जैसा अपराध कैसे करेंगे? ये तो जी, वोटर लिस्ट उठाकर एक तरफ से मुकदमे लगा दिए. यहां तो कुछ भी न हुआ. '' बातचीत से साफ जाहिर है कि अपनी गिरफ्तारी न होने के प्रति वे कितने आश्वस्त हैं. वैसे, उनकी मासूम दलीलों के बावजूद इस गंभीर आरोप को दरकिनार नहीं कर सकते कि लिसाढ़ के इंटर कॉलेज में दंगों से पहले हुई पंचायत के चौधरी तो बाबा ही थे, भले ही उनकी उम्र कितनी भी ज्यादा क्यों न हो. और उनकी आंख का इशारा खाप में आज भी मायने रखता है. दूसरी बात यह कि जिसे वे 'यहां तो कुछ न हुआ' कह रहे हैं, उसे ही पुलिस रिकॉर्ड में 13 हत्याओं के रूप में दर्ज किया गया है. लेकिन पुलिस की मुस्तैदी का दूसरा पहलू यह है कि वह फुगाना थाने से बाबा के घर को जोडऩे वाली सड़क पर पांच किमी का रास्ता सात महीने में भी तय नहीं कर पाई है. गिरफ्तारी में पुलिस की ढिलाई का हाल यह है कि दंगों में भी नामजद 804 लोग आज भी कागजों में फरार हैं, जबकि वे बाबा की तरह ही आराम से अपने घर पर बैठे हैं.
हां, पुलिस के इस रवैए ने गांव से जान बचाकर भागे मुसलमानों की दहशत को और बढ़ा दिया है. उनके बड़े-बड़े मकान भुतहा हो गए हैं. उनमें सामान बिखरा पड़ा है और खिड़की-दरवाजे उखाड़ लिए गए हैं. इनमें से कुछ मकानों में गांव वाले अब अपनी गाय-भैंस बांध रहे हैं. जो हाल लिसाढ़ का है, वही हाल इस पंचायत के मजरा हसनपुर का है. हसनपुर के 30 वर्षीय तैयब जब हमें मुस्लिमबहुल जोला गांव के कैंप में मिले तो उनकी आंखें डबडबा आईं. जाटों से ब्याज पर पैसा लेकर फेरीवाले का काम करने वाले चार बच्चों के पिता ने कहा, ''मैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक कपड़ा बेचने जाता था. अकसर शहरों में झुग्गियां भी दिखती थीं. लेकिन कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन हम भी झुग्गियों में रहने को मजबूर होंगे. '' तैयब मानते हैं कि उनके गांव में किसी मुसलमान की हत्या नहीं हुई, लेकिन लिसाढ़ ने उन जैसों को बुरी तरह खौफजदा कर दिया है. वे लोग अब गांव नहीं जाना चाहते, उधर सरकार ने अब तक इस गांव को मुआवजा भी नहीं दिया है. ऐसे में वे लोग भी बाकी लोगों की तरह मुआवजे की बाट जोह रहे हैं, ताकि जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने का कुछ आधार मिले. वैसे भी खौफ का साया अब नया ठिकाना बनाने को मजबूर कर रहा है.
यही खौफ अब पश्चिमी यूपी के दंगा पीडि़त गांवों की स्थायी पहचान बन गया है. यहां सामाजिक तानाबाना पूरी तरह बिखर गया है. जाट बहुल गांव अब सिर्फ हिंदू गांव रह गए हैं, क्योंकि मुसलमानों ने इन्हें हमेशा के लिए तौबा कह दिया है. फुगाना, इटावा, नाला, खरड़, एल्लम, हसनपुर, बावड़ी, हड़ल्ली, निरपुड़ा, आप जिस गांव का भी जिक्र कीजिए, वहां मुसलमानों के पलायन की एक-सी तस्वीर नजर आएगी. हां, शाहपुर से सटा बसी गांव इसका अपवाद दिखाई देगा. मुजफ्फरनगर का यह इकलौता गांव है जहां वाल्मीकि समुदाय के हिंदुओं ने मुसलमानों के डर से गांव से पलायन किया है. दरअसल यही वह गांव है जहां मुजफ्फरनगर से पंचायत कर लौट रहे जाटों पर 7 सितंबर को मुसलमानों ने पथराव किया था और एक जाट की मौत हो गई थी. उसके बाद दलितों को इस मुस्लिम बहुल गांव में रहना सुरक्षित नहीं लगा. गांव के 28 वाल्मीकि परिवार तब से मुजफ्फरनगर के गांधीनगर मुहल्ले में रह रहे हैं.
अपने चार बच्चों के साथ यहां रह रहीं बबिता वाल्मीकि कहती हैं, ''हम लोग तो छाती तक भरे जोहड़ को पारकर बच्चों को बचाकर किसी तरह यहां लाए हैं. वहां बहुत खतरा है. '' छठवीं में पढऩे वाले उनके बेटे अमन का स्कूल भी तभी से छूट गया है. और यहां वे जिस झुग्गी में रह रही हैं, उस पर भी रात-दिन उजाड़े जाने का खतरा है. गांव के रवि वाल्मीकि हालात से उकताकर कहते हैं, ''मुसलमानों को तो मुआवजा भी मिल गया है, लेकिन हमें तो फूटी कौड़ी भी नहीं मिली. क्या हिंदू होना जुर्म है? ''
लेकिन न तो कोई तैयब के सवाल का जवाब दे रहा है और न रवि के सवाल का, क्योंकि जो नेता सत्ता में हैं, वे सात माह में उनकी कोई ठोस मदद कर नहीं पाए और जो विपक्ष में हैं, वे इस गुंताड़े में लगे हैं कि दंगों से उन्हें नफा होगा या नुकसान. इसीलिए दंगा पीडि़तों के घरों को रहने लायक बनाने के लिए कोई पहल भले ही न हुई हो, लेकिन उन्हें वोटर बनाए रखने के लिए नए वोटर कार्ड देने में देर नहीं हो रही है. जोला और लोई के कैंपों में रह रहे मुसलमानों के नाम शरणार्थी शिविरों के पते के साथ मतदाता सूचियों में दर्ज कर लिए गए हैं और जल्द ही वे इन्हीं इलाकों के वोटर हो जाएंगे, भले ही वे किसी गांव के रहने वाले हों. वोटर लिस्ट वहां भी तैयार हो रही है, जहां लोगों को किसी तरह आशियाना मिल गया है. ऐसी ही नई बस्ती बसी है सराय गांव के पास शेखुलहिंद नाम से. यहां जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मुसलमानों के लिए 55 घर बनाकर दिए हैं. जोला कैंप के शाजिद ने बताया, ''गांव के सामने सीपीएम भी हम लोगों के लिए मकान बन रही है. ''
ऐसा नहीं है कि राजनैतिक दल सिर्फ वोटर लिस्ट की फिक्र कर रहे हैं. उन्हें वोटर को अपने पाले में खींचने की भी उतनी ही चिंता है. तभी तो नवंबर में लोई कैंप को जबरन उजाडऩे की पहल करने वाली अखिलेश यादव सरकार की सपा के ही झंडे अब इस कैंप पर लहराते दिख रहे हैं. सपा को उम्मीद बंध रही है कि दंगों के बाद बीएसपी का मुस्लिम-दलित समीकरण टूट गया है. ऐसे में बीएसपी के कादिर राणा को दोबारा सांसद बनने में दिक्कत पेश आ सकती है.
उधर दंगा पीडि़त गांवों में 'अब की बार, मोदी सरकार' के छोटे-छोटे बैनरों के साथ बीजेपी भी अपनी मौजूदगी दिखाने में लगी है. वैसे चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले पूरा इलाका नरेंद्र मोदी के भव्य बैनरों से पटा था, लेकिन संहिता की मजबूरी में पार्टी को छोटे बैनरों से संतोष करना पड़ रहा है. फिर भी बीजेपी दंगों की आंच में पकी ध्रुवीकरण की दावत का मजा लेने से चूकना नहीं चाहती. पार्टी ने दंगों के आरोपी संजीव बालियान को मुजफ्फरनगर और हुकुम सिंह को कैराना से टिकट दिया है. साफ है कि ये नए समीकरण जाट वर्चस्व वाले अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के लिए भी चुनौती पेश कर रहे हैं.
इस नए माहौल के पेशे-नजर सियासत ऐसी पहेली बन गई है, जिसमें सरकार को समझ नहीं आ रहा कि आरोपियों पर सख्ती करने में फायदा है या मामले को ठंडे बस्ते में डालकर भूल जाने में. इसीलिए दंगा पीडि़त मारे-मारे फिर रहे हैं, मुख्य आरोपी आराम से चौधराहट कर रहे हैं और सरकार अदालत में फटकार खा रही है.