वह कॉल आई तो अचानक थी, लेकिन जब आई तो डेलना अवारी को पक्का यकीन था कि उन्हें क्या जवाब देना है. वे रातोरात बैंकॉक से मुंबई पहुंच गईं थीं. यह अक्तूबर 2010 की बात है. अवारी पिछले आठ साल से अलग-अलग देशों में थोड़े-थोड़े समय के लिए टाटा मोटर्स के कमर्शियल वेहिकल्स डिविजन में काम करती रही हैं.
उस समय वे बैंकॉक में थीं, जब कंपनी के तत्कालीन संचालक रविकांत ने उन्हें फोन किया. वे चाहते थे कि अवारी भारत वापस आकर नैनो की टीम में शामिल हो जाएं. रविकांत का कहना था कि नैनो की परिकल्पना उस तरह साकार नहीं हुई, जैसी कि अपेक्षा थी.
नैनो जनवरी, 2008 में पेश की गई, जिससे ठीक सौ साल पहले फोर्ड की मॉडल टी कार सड़क पर आई थी, जिसने अमेरिका के आम लोगों को रोजमर्रा के काम के लिए गाड़ी चलाने की सहूलियत दी.
दुनिया की सबसे सस्ती कार के रूप में नैनो का मकसद भारत में दुपहिया चलाने वाले लाखों लोगों को चार पहियों की गाड़ी देना और कम खर्च में उत्पादन के मामले में भारत की श्रेष्ठता साबित करना था, ठीक उसी तरह जैसे हेनरी फोर्ड ने मॉडल टी के लिए दुनिया में पहली बार मूविंग असेंबली लाइन स्थापित की थी.
लेकिन अवारी के आने के एक महीने के भीतर सिर्फ 3,065 नैनो गाडिय़ां बिकीं. 16 महीने बाजार में रहने के दौरान सिर्फ चार महीने ऐसे थे जब उसने 5,000 का आंकड़ा पार किया, जबकि नैनो प्लांट की कार बनाने की क्षमता 15,000 मासिक की थी. इसमें बीच-बीच में कुछ बढ़त होती रहती थी. टाटा मोटर्स ने सिर्फ 40 करोड़ डॉलर तो छोटी कार के विकास पर खर्च किए और कुछ रकम गुजरात में साणंद में नई फैक्टरी लगाने में खर्च की.
उस समय टाटा संस के अध्यक्ष रतन टाटा ने नई कार पेश करने और उसे नाम देने से पहले जनवरी, 2008 में ग्रुप की वेबसाइट पर एक इंटरव्यू में कहा था, ''जब हम कार के लिए कारखाने की योजना बना रहे थे और बिजनेस प्लान बना रहे थे, तो मुझे जो प्लान दिखाया गया, उसमें दो लाख कारों की बिक्री का अनुमान था.
मैंने कहा, यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है. अगर हम यह कर सकते हैं, तो हमें साल में दस लाख कारों के बारे में सोचना चाहिए और अगर दस लाख कार नहीं बेच सकते हैं, तो हमें ऐसी कार बनानी ही नहीं चाहिए.”

दो नावों के बीच
रतन टाटा को उनके अधिकारी आरएनटी (रतन नवल टाटा) कहते हैं. 2012 के अंत में रिटायर होने के बाद भी वे टाटा ग्रुप के मार्गदर्शक हैं. नैनो कार का आइडिया उन्हीं का था. उनका पहला खाका मुंबई की भारी बरसात में एक स्कूटर पर चिपक कर बैठे परिवार के फ्लाइओवर के नीचे बारिश से बचने के दृश्य से प्रेरित था.
उन्हें लगा कि कम कीमत वाली नैनो इन लोगों की समस्याओं का समाधान हो सकती है. नाम तय होने से वर्षों पहले 2003 में टाटा ने जैसे ही इसका जिक्र किया, इस कार की कल्पना की चर्चा जंगल में आग की तरह फैल गई.
लोग इसे दुनिया की सबसे सस्ती कार या लखटकिया गाड़ी कहने लगे. नैनो प्रोजेक्ट के मुखिया के तौर पर वापस लाई गई अवारी उस टीम का हिस्सा बनीं, जिसे इसकी किस्मत चमकाने का जिम्मा सौंपा गया. अवारी की वापसी अशुभ संकेतों के बीच हुई. अगले ही महीने नवंबर, 2010 में सिर्फ 509 कारें बिकीं.
तो क्या वे पैर पटकने और रोने के लिए भारत लौटीं थीं?
अवारी का कहना है, ''यह मेरे लिए सम्मान की बात थी” और वे इससे कभी हिचकीं नहीं. वे कहती हैं, ''टाटा ग्रुप के लिए कुछ भी चलेगा.”
इस वाक्य का संबंध उनकी विरासत से है. उनके पिता भी उन्हीं की तरह टाटा मोटर्स में, जबकि मां टाटा की बीमा कंपनी में काम करती थीं और बहन ताज होटल में काम करती हैं. वे कहती हैं, ''हम टाटा परिवार हैं.” उनके पास भी नैनो कार है, जिसे ड्राइवर चलाता है और वे इस अंडे जैसी कार को लिटल कार कहती हैं.
उनकी इस अडिग वफादारी का एक इनाम यह था कि रतन टाटा ने खुद उन्हें उनका काम बताया था, जिसमें उन्होंने कहा कि वे हर भारतवासी को कम कीमत में आने-जाने की सवारी देना चाहते हैं. अवारी बताती हैं, ''टाटा की इसी सोच को लोगों ने गरीब की गाड़ी का नाम दे दिया. कंपनी ने कभी भी इस धारणा को तोड़ा नहीं.”
नैनो की लखटकिया कहानी
यह कोई नई बात नहीं थी. टाटा ने ग्रुप की वेबसाइट पर उस इंटरव्यू में भी कुछ ऐसी ही बात कही थी. उन्होंने कहा था, ''यह कभी भी एक लाख की कार नहीं होने वाली थी, वह तो हालात ने बना दिया.
जिनेवा मोटर शो में ब्रिटिश अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने मुझे इंटरव्यू किया और मैंने भविष्य के इस प्रोडक्ट को कम कीमत की कार कह दिया. मुझसे पूछा गया कि लागत कितनी होगी. मैंने कह दिया करीब एक लाख रुपए. अगले दिन फाइनेंशियल टाइम्स की हेडलाइन थी कि टाटा एक लाख की कार बनाएंगे.”
इस दाम को 'सस्ता’ मान लिया गया. कंपनी के भीतर और बाहर इस समय यही माना जाता है कि नैनो के मामले में सब कुछ योजना के अनुसार न चलने की असली वजह यही है.
मार्केटिंग रणनीति में ग्लोबल गुरु जैक ट्राउट का कहना है, ''कोई अपने दोस्तों और पड़ोसियों को नहीं बताना चाहता कि उसके पास सस्ती कार है. इस तरह एक ब्रांड नष्ट हो गया. यह ऐसी श्रेणी है जिसमें शायद उन्हें नहीं जाना चाहिए था.”
कार बनाने के इतिहास में सस्ती कार का यह पहला पतन नहीं था. 1927 में मॉडल टी का उत्पादन बंद करना पड़ा था, जबकि तब तक डेढ़ करोड़ कारें बिक चुकी थीं. उसकी वजह यह थी कि अमेरिका के लोग कम कीमत की कार से कुछ ज्यादा चाहते थे.
उनकी चाहत थी कि स्टाइल, स्पीड और लग्जरी भी मिले. शायद भारत के लोगों से 2010 के दशक में यह अपेक्षा कुछ ज्यादा थी कि वे बिना लग्जरी वाली सीधी-सादी कार अपना लेंगे. कोई आश्चर्य नहीं कि करीब पांच साल में नैनो कार दस लाख की सिर्फ एक चौथाई बिकी.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि नैनो जब आई, तो उसने सीधी-सादी कार का स्तर और घटा दिया. मतलब स्टीरियो, एयरकंडीशनिंग और पावर विंडोज की तो बात क्या, उसके डैशबोर्ड में कागजात रखने के लिए ग्लव कंपार्टमेंट भी नहीं था. उसके साथ ही ग्राहकों में अलग-अलग साइज के अगले और पिछले पहियों जैसी छोटी-छोटी बातों को देखने का माद्दा भी कम हो गया.
टाटा के एक और दूसरी पीढ़ी के कर्मचारी गिरीश वाघ के नेतृत्व में रियर इंजन, रियर व्हील ड्राइव नैनो तैयार करने का प्रोजेक्ट चला था. वाघ का कहना है, ''मर्सिडीज की छोटी कार स्मार्ट के भी पिछले पहिये चौड़े हैं, क्योंकि पिछले हिस्से में वजन ज्यादा है, इसलिए पिछले पहियों को चौड़ा करना पड़ा.”
इस कार के भीतर ज्यादा जगह देने के लिए यही डिजाइन सबसे उपयुक्त लगा और भीतर की बड़ी जगह के साथ-साथ कार को कम जगह में आसानी से घुमाने की क्षमता वास्तव में हैरान करती है.

आग के दरिया में डूबी नैनो
टाटा की यह नई कार के लॉन्च होने के बाद ग्राहकों को खरीदने के लिए डेढ़ साल इंतजार करना पड़ा था. इसलिए इन बातों से उकताहट हो गई थी. नैनो 2009 के मध्य तक ही सड़क पर आ पाई थी. इसके पहले विज्ञापन से इंतजार साफ झलक रहा था, जिसमें कहा गया था नैनो आ गई.
कहते हैं कि गाड़ी सड़क पर आने से पहले दो लाख बुकिंग हो चुकी थी, जबकि डिलिवरी उसके अनुपात में बहुत कम थी.
कार सड़क पर आते ही कुछ गाड़ियों में आग लगने की खबरें आने लगीं. अब कम कीमत का दावा मॉडल टी के मुकाबले और भी ज्यादा भारी पडऩे लगा. नैनो में कम कीमत का मतलब घटिया क्वालिटी, भरोसे और सुरक्षा की कमी माना गया.
वनेसा एबल ने पिछले महीने गार्डियन अखबार की वेबसाइट पर लिखा कि उन्हें नैनो का आइडिया इतना पसंद आया कि उन्होंने यह गाड़ी खरीदी और 2010 में पूरे भारत में दस हजार किलोमीटर का चक्कर लगाया. पूरे रास्ते में लोग पूछते रहे कि क्या उन्हें नैनो के आग का गोला बन जाने का डर नहीं लगा.
वाघ बताते हैं, ''कार के एग्जॉस्ट सिस्टम में कोई बाहरी वस्तु मिलने की कुछ घटनाएं हुई थीं. कार जब कुछ देर चल जाती थी और एक हद तक गरम हो जाती थी, तो उन वस्तुओं में आग लग जाती थी. दूसरा कारण स्टार्टिंग सिस्टम से जुड़ा था.” कुछ कारों में मालिकों ने अपनी कार की शान दिखाने के चक्कर में बाजार से म्यूजिक सिस्टम जैसे उपकरण लगवा लिये थे, जिनके तार सटने से शॉर्ट सर्किट हो गया था.
मारुति सुजूकी के एक अधिकारी का कहना है, ''कई कारों में आग लग जाती है और इसका कारण अकसर इलेक्ट्रिकल गड़बड़ी होती है.” लेकिन नैनो में लगी आग को बुझाना इसलिए मुश्किल साबित हुआ, क्योंकि उस पर 'सस्ती’ कार का ठप्पा था.
अगर वह महंगी कार होती, तो उसे इक्का-दुक्का हादसा मानकर अनदेखा कर दिया जाता. कुल मिलाकर नैनो में आग लगने की तीन या चार घटनाएं हुईं, पर वे याद रह गईं, क्योंकि लोग कहने लगे, ''सस्ती कार से भला और क्या उम्मीद करेंगे आप.”

सस्ते को सलाम करने का दौर
मारुति ने भी कुछ समय तक यह सोचा कि नैनो के मुकाबले कोई कार लाई जाए, लेकिन बहुत जल्दी यह आइडिया छोड़ दिया, क्योंकि एक तो इतने दाम पर मुनाफा कमाना मुश्किल काम था और दूसरे उसने ग्राहकों के मिजाज में बदलाव देख लिया था.
मारुति के इसी अधिकारी ने बताया, ''हमारी कारों की करीब 50 से 60 फीसदी बिक्री बीच के मॉडल की होती थी. बेस मॉडल 30-40 फीसदी और टॉप मॉडल ज्यादा से ज्यादा दस फीसदी बिकता था, लेकिन उन्हीं दिनों हालात बदल गए. टॉप मॉडल ज्यादा बिकने लगा और बेस मॉडल के ज्यादा खरीदार नहीं रहे.”
जाहिर था कि ग्राहक अब पैसे खर्च करके बेहतर माल चाहने लगे थे. भले ही उसके लिए थोड़ा ज्यादा खर्च करना पड़े. सस्ते का बाजार खत्म हो रहा था. अब कोई ऐसी डींग नहीं हांकता था कि मैंने सस्ता सौदा पटा लिया. इसकी मिसाल 2011 में मारुति की नई स्विफ्ट के आने पर देखने को मिली.
नई कार आने के समय पुराने कार की वेटिंग थी. जो लोग कतार में लगे थे, वे सब नई स्विफ्ट लेने को राजी हो गए, जिसमें ज्यादा खूबियां थीं, लेकिन कीमत पुरानी कार से 35,000- 40,000 रु. ज्यादा थी.
कारों के खरीदार बेहतर कारें मांगने लगे थे. उन्हें टू-व्हीलर की जगह लेने वाली कार नहीं चाहिए थी. टू-व्हीलर वाले ऐसी कार खरीदने के लिए इंतजार करने को तैयार थे, जो ज्यादा मोल दे सके. उन्हें असली कार की तलाश थी. नैनो बदलते वक्त के भंवर में डूब गई. अब ज्यादा महंगी, ज्यादा शानदार और ग्राहक के लिए ज्यादा पसंदीदा अंदाज में फिर से पैर जमाने की कोशिश कर रही है.
पहले और बाद में
नैनो को पेश किए जाने से एक साल पहले 2007 का भारत बहुत अलग था. 3,000 रु. से कम कीमत वाले नोकिया 1200 की गिनती सबसे लोकप्रिय मोबाइल फोन में होती थी. फ्लैट पैनल एलसीडी टेलीविजन गिने-चुने थे.
हर जगह पीछे से फूले हुए टीवी दिखते थे. फेसबुक बस आया ही था, फ्लिपकार्ट की अभी स्थापना हुई थी, लैपटॉप जगह बनाने के लिए डेस्कटॉप से लड़ रहे थे, टैबलेट सिर्फ वह थी, जो डॉक्टर देता है.
आज 25,000 रु. से ज्यादा कीमत का स्मार्टफोन सैमसंग गैलेक्सी एस-3 बहुत लोकप्रिय है. शहर की अधिकतर दीवारों पर एलसीडी टेलीविजन टंगे हैं, फेसबुक के भारत में 10 करोड़ यूजर हैं, फ्लिपकार्ट का मोल एक अरब डॉलर को पार कर गया है, राजधानी एक्सप्रेस के हर यात्री के हाथ में टैबलेट दिखती है और हां, नैनो के एक मॉडल की कीमत 2,58,000 रु. हो गई है. लेकिन उस लखटकिया का क्या हुआ?
इस सिलसिले की शुरुआत अवारी को रतन टाटा से मिली ब्रीफिंग से हुई थी.
अवारी बताती हैं कि उस ब्रीफिंग में सवाल किया गया था, ''जब आप नैनो चलाते हैं, तो दिमाग में सबसे पहला सवाल यही आता है कि इस कार के बारे में इतनी बदनामी क्यों सुनी जाती है? रतन टाटा चाहते थे कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस कार को चलाने का अनुभव लें और बिना अनुभव हासिल किए बात न करें.”
दूसरे वे चाहते थे कि इस कार को सबका सहयोग मिले. ''नैनो की नई खोज टाटा मोटर्स के भीतर हुई, बाहर नहीं. प्रोडक्ट मैन्युफैक्चरिंग और बिक्री, सब कंपनी के भीतर की बात थी.”
अवारी और नैनो को बचाने वालों ने सबसे पहले अपनी टीम संभालने का काम शुरू किया. अवारी ने जैसे ही पुणे में कंपनी की मूल फैक्टरी और साणंद में नैनो फैक्टरी के बीच आना-जाना शुरू किया, तो वाघ हमेशा मदद के लिए मौजूद थे. सेल्स और मार्केटिंग के मुखिया अंकुश अरोड़ा टीम के अहम सदस्य थे.
सैमसंग इंडिया में मोबाइल फोन डिविजन के मुखिया की हैसियत से नाम कमा चुके रंजीत यादव ने अक्तूबर, 2012 में टाटा मोटर्स में कदम रखा. वे मैनेजिंग डायरेक्टर कार्ल स्लाइम से कुछ दिन बाद आए. कार्ल की इस वर्ष जनवरी में बैंकॉक में शंगरीला होटल से गिरने से मौत हो गई.
यादव जब कंपनी में आए, तो टाटा मोटर्स देश की तीसरी सबसे बड़ी कार कंपनी थी, लेकिन जेडी पावर के सेल्स सैटिस्फैक्शन सर्वे में बारह कंपनियों में उसका स्थान बारहवां था. सर्विस में भी पहली छह कंपनियों में उसकी जगह नहीं थी. यादव बताते हैं, ''हमने ग्राहकों के लिए कार खरीदना मुश्किल कर दिया था यानी हमें अपनी सेल्स और सर्विस सुधारने की जरूरत थी.”
उन दिनों टाटा मोटर्स की डीलरशिप के पीछे सोलह-सोलह कर्मचारी लगे होते थे. यादव कहते हैं, ''अगर किसी डीलर के यहां चले जाते थे, तो डीलर की बजाय टाटा कर्मचारी से ही हाथ मिलाने की संभावना रहती थी.” डीलर्स ने उन्हें बताया कि टाटा के साथ कारोबार करना बहुत टेढ़ा काम था.
उन्हें समझ नहीं आता था कि किसकी बात सुनें. आज हर डीलर को सेल्स के लिए अलग और सर्विस के लिए अलग सिर्फ एक-एक व्यक्ति से बात करनी होती है. यादव के अनुसार, ''15 या 16 महीने पहले की तुलना में आज बिजनेस करना पांच गुना आसान हो गया है.”
सेल्स के अनुभव के मामले में जेडी पावर की रैंकिंग में यह पिछले साल पांच स्थान उछलकर सातवें पर आ गई. ''अब भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन कुल मिलाकर हालात सुधरने लगे हैं.”
बिक्री के लिए नए स्टोर खोले गए हैं. पुरानों का रंग-रूप बदला गया है, लोन लेने के लिए कागजी कार्रवाई आसान हो गई है, नैनो खरीदने की लागत कम थी, लेकिन कार की लाइफ साइकिल लागत को कम करना जरूरी था, इसलिए टाटा ने चार साल की वारंटी का ऐलान किया.
अवारी का कहना है, ''हमें ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि भरोसे को लेकर अजीब-अजीब बातें की जा रही थीं, जबकि यह सबसे किफायती पेट्रोल कार साबित हो चुकी थी.”
नेटवर्क को सुधारने के बाद टीम ने ग्राहकों पर ध्यान देना शुरू किया. अवारी को पिछले साल अगस्त में टाटा की सभी यात्री गडिय़ों की मार्केटिंग प्रमुख बना दिया गया था. वे कहती हैं कि उन लोगों के बारे में सोचना शुरू किया गया, जो 18 साल का होने पर नैनो को अपनी पहली कार बनाना चाहेंगे.
''ऐसा क्या किया जाए कि वे 14 साल की उम्र से ही इसे चाहने लगें और तब तक माता-पिता के पीछे पड़े रहें, जब तक मिल न जाए. उन लोगों की जबान कैसे बोली जाए?”
इस तरह अगस्त-सितंबर, 2011 में नैनो ने अपनी स्थिति बदलने की शुरुआत की. रतन नवल टाटा और रविकांत के साथ लंबी बातचीत के बाद अगले पांच साल का खाका तैयार हुआ.

नैनो के सफर में मोड़
इसका पहला लक्षण तब दिखा, जब विज्ञापन में सस्ते की जगह गजब की बात झलकने लगी. जिस जमाने में हर कोई नैनो के आइडिया का दीवाना था, उस समय मारुति को चला चुके जगदीश खट्टर का कहना है कि शुरू से ही यह रणनीति अपनाई जानी चाहिए थी.
''मैं तो मर्सिडीज के मालिकों के हाथ में यह कार दे देता और उनसे कहता कि सर, यह आपकी तीसरी कार है, जब आप पार्क में अपना कुत्ता घुमाने जाएं, तो इसमें जाएं. हर कोई जब यह सोचेगा कि इस कार को चलाना आसान है, तो इसे खरीद लेगा.”
मालदार लोगों की शान की सवारी
अवारी सबूत के साथ कहती हैं कि पैसे वाले हमेशा नैनो चलाते थे, ''जब हमने कार पेश की तो बुकिंग के दौर में कार उन लोगों ने चुनी, जिनके पास अच्छा-खासा पैसा था; 80 फीसदी खरीदार इसे अपनी तीसरी या चौथी कार के रूप में लेना चाहते थे.”
उन्हें रोजाना मुंबई के समृद्ध कफ परेड इलाके में इसका सबूत दिखाई देता है, जहां नैनो ही नैनो दिखती हैं और ''सबको मालिक खुद ही चलाते हैं. मेरी कार ड्राइवर चलाता है, क्योंकि मुझे ड्राइविंग से परेशानी होती है.” यह बात उनके मुंह से निकल रही है, जिन्होंने सूमो पर गाड़ी चलाना सीखा और लोग एक लड़की को इतनी भारी गाड़ी चलाते देखकर रास्ते से हट जाया करते थे.
अब सारी कोशिश इस अमीर खरीदार को थामे रखने और कम उम्र के उस शहरी नौजवान वर्ग को लुभाने की है, जिसे नैनो हमेशा पसंद थी, लेकिन पहली बार के खरीदार को लुभाने के चक्कर में टाटा मोटर्स ने जिसकी तरफ कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
अब वह अपनी रणनीति सुधारने को तैयार है. सेल्स और मार्केटिंग के मुखिया अंकुश अरोड़ा का कहना है, ''नैनो के लॉन्च से लेकर 2010 तक 20 फीसदी खरीदार 25-34 के आयु वर्ग में थे. आज यह अनुपात 45 फीसदी है. जाहिर है कि हमारे ग्राहकों का वर्ग बदल गया है.
हमारा काम उन ग्राहकों की तादाद बढ़ाना है क्योंकि हमारी 55 फीसदी आबादी 25 साल की उम्र के आसपास है. यही वे खरीदार हैं, जो बाजार में आएंगे. अगर हमने इन खरीदारों को नहीं पकड़ा, तो शायद मौका चूक जाएंगे.”
आज नैनो का विज्ञापन 'नैनो आ गई’ के पहले विज्ञापन से बिल्कुल अलग है. इसमें रंगों और संगीत का धमाल है. नौजवान असल जिंदगी से अलग कुछ कमाल करते हुए मस्ती में दिखते हैं और मसाबा गुप्ता इलेक्ट्रिक ब्लू नैनो से कवर हटाती दिखती हैं. गुप्ता आज फैशन डिजाइनिंग सर्किट में जवां दिलों की धड़कन हैं.
कल तक वे नारी मुक्ति की प्रतीक थीं. मसाबा वेस्ट इंडीज के क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स और अविवाहित भारतीय अभिनेत्री नीना गुप्ता की बेटी हैं. अरोड़ा कहते हैं, ''हम कामयाबी का जश्न मनाने या अपने रुख पर कायम रहने का जश्न मनाने के मामले में शहरी नौजवानों से जुडऩा चाहते थे.”
रतन टाटा की जगह टाटा ग्रुप के अध्यक्ष बने सायरस मिस्त्री ने जब कहा कि नैनो को अब स्मार्ट सिटी कार के रूप में पेश किया जाएगा. उसके कुछ ही दिन बाद आए इस विज्ञापन को तीस दिन में यूट्यूब पर पचास लाख दर्शक मिले. एक अखबार के अनुसार इतने ज्यादा दर्शक किसी कार के विज्ञापन को नहीं मिले.
लेकिन अगर विज्ञापन से ही सारा काम हो जाता, तो कई विज्ञापन कंपनियों के मालिक मार्टिन सोरेल दुनिया के बादशाह होते. नैनो का नया चेहरा ड्राफ्टिंग रूम और वर्कशॉप में रचा जाना था. 2012 और 2013 के नए मॉडलों में कई बदलाव हुए.
ताजा तरीन मॉडल नैनो ट्विस्ट 2008 में दिखे पहले मॉडल से उतना ही अलग है, जितना टाटा मोटर्स को प्रदेश से धकेल बाहर करने वाली पश्चिम बंगाल की राजनेता ममता बनर्जी, एसएमएस भेजने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अलग हैं.
नैनों में अब टि्वस्ट है
इंजीनियरिंग के लिहाज से यह ज्यादा परिष्कृत है और इसकी स्टीयरिंग व्हील भी बढिय़ा है. वाघ ने आरामदायक सफर के लिए इसके सस्पेंशन में सुधार किया और सामने ऐंटी-रॉल बार लगा दिया. इसकी ह्नमता में सुधार किया गया. नई नैनो जैसे ही भड़कीले रंगों में आने लगी वैसे ही उसमें ग्लव कंपार्टमेंट, ब्लूटूथ कनेक्टिविटी वाला आधुनिक म्यूजिक सिस्टम आदि लगा दिया गया. और हां, आग से बचाने के लिए पूरे इलेक्ट्रिकल सिस्टम पर अतिरिक्त परत चढ़ा दी गई है.
ग्रेटर नोएडा में फरवरी में आयोजित ऑटो एक्सपो में आने वाली नैनो की एक झलक दिखाई गई. टाटा मोटर्स के पवेलियन में ऑटोमेटिक मैनुअल ट्रांसमिशन (एएमटी) वाली नैनो खड़ी की गई थी. कारनिर्माता कंपनियां अभी एएमटी के बूते ग्राहकों को रिझने का प्रयास कर रही हैं. इस टेक्नोलॉजी में क्लच की जरूरत नहीं है और इसकी वजह से शहर में गाड़ी चलाना आसान है.
हां, नैनो की कीमत भी बढ़ गई है. नैनो ट्विस्ट की कीमत देश में सर्वाधिक बिकने वाली मारुति एल्टो की कीमत के बराबर है. रतन टाटा ने जब पहली बार 1 लाख रु. की गाड़ी पेश की थी तो उन्होंने कहा था, ''वादा तो वादा है.” तो क्या अब कोई दूसरा वादा है? इसकी परीक्षा देश की सड़कों पर होने वाली है.
जब नैनो पहली बार सड़क पर उतरी थी, उस समय के मुकाबले आज अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर आधी रह गई है. इसका मतलब यह हुआ कि संभावित खरीदार के पास पहले के मुकाबले कम पैसा है. रतन टाटा ने पिछले साल नवंबर में सिंगापुर में एक टीवी प्रोग्राम में कहा था, ''शायद इसे (नैनो) को इंडोनेशिया जैसे नए देश में लॉन्च किया जाए जहां इसके साथ कलंक नहीं लगा है, और फिर नई छवि के साथ भारत में लाया जाए. या बदले हुए प्रोडक्ट के तौर पर इसे यूरोप में बेचा जाए. भारत के बाहर नैनो में काफी दिलचस्पी है.”
उस समय वे बैंकॉक में थीं, जब कंपनी के तत्कालीन संचालक रविकांत ने उन्हें फोन किया. वे चाहते थे कि अवारी भारत वापस आकर नैनो की टीम में शामिल हो जाएं. रविकांत का कहना था कि नैनो की परिकल्पना उस तरह साकार नहीं हुई, जैसी कि अपेक्षा थी.
नैनो जनवरी, 2008 में पेश की गई, जिससे ठीक सौ साल पहले फोर्ड की मॉडल टी कार सड़क पर आई थी, जिसने अमेरिका के आम लोगों को रोजमर्रा के काम के लिए गाड़ी चलाने की सहूलियत दी.
दुनिया की सबसे सस्ती कार के रूप में नैनो का मकसद भारत में दुपहिया चलाने वाले लाखों लोगों को चार पहियों की गाड़ी देना और कम खर्च में उत्पादन के मामले में भारत की श्रेष्ठता साबित करना था, ठीक उसी तरह जैसे हेनरी फोर्ड ने मॉडल टी के लिए दुनिया में पहली बार मूविंग असेंबली लाइन स्थापित की थी.
लेकिन अवारी के आने के एक महीने के भीतर सिर्फ 3,065 नैनो गाडिय़ां बिकीं. 16 महीने बाजार में रहने के दौरान सिर्फ चार महीने ऐसे थे जब उसने 5,000 का आंकड़ा पार किया, जबकि नैनो प्लांट की कार बनाने की क्षमता 15,000 मासिक की थी. इसमें बीच-बीच में कुछ बढ़त होती रहती थी. टाटा मोटर्स ने सिर्फ 40 करोड़ डॉलर तो छोटी कार के विकास पर खर्च किए और कुछ रकम गुजरात में साणंद में नई फैक्टरी लगाने में खर्च की.
उस समय टाटा संस के अध्यक्ष रतन टाटा ने नई कार पेश करने और उसे नाम देने से पहले जनवरी, 2008 में ग्रुप की वेबसाइट पर एक इंटरव्यू में कहा था, ''जब हम कार के लिए कारखाने की योजना बना रहे थे और बिजनेस प्लान बना रहे थे, तो मुझे जो प्लान दिखाया गया, उसमें दो लाख कारों की बिक्री का अनुमान था.
मैंने कहा, यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है. अगर हम यह कर सकते हैं, तो हमें साल में दस लाख कारों के बारे में सोचना चाहिए और अगर दस लाख कार नहीं बेच सकते हैं, तो हमें ऐसी कार बनानी ही नहीं चाहिए.”

दो नावों के बीच
रतन टाटा को उनके अधिकारी आरएनटी (रतन नवल टाटा) कहते हैं. 2012 के अंत में रिटायर होने के बाद भी वे टाटा ग्रुप के मार्गदर्शक हैं. नैनो कार का आइडिया उन्हीं का था. उनका पहला खाका मुंबई की भारी बरसात में एक स्कूटर पर चिपक कर बैठे परिवार के फ्लाइओवर के नीचे बारिश से बचने के दृश्य से प्रेरित था.
उन्हें लगा कि कम कीमत वाली नैनो इन लोगों की समस्याओं का समाधान हो सकती है. नाम तय होने से वर्षों पहले 2003 में टाटा ने जैसे ही इसका जिक्र किया, इस कार की कल्पना की चर्चा जंगल में आग की तरह फैल गई.
लोग इसे दुनिया की सबसे सस्ती कार या लखटकिया गाड़ी कहने लगे. नैनो प्रोजेक्ट के मुखिया के तौर पर वापस लाई गई अवारी उस टीम का हिस्सा बनीं, जिसे इसकी किस्मत चमकाने का जिम्मा सौंपा गया. अवारी की वापसी अशुभ संकेतों के बीच हुई. अगले ही महीने नवंबर, 2010 में सिर्फ 509 कारें बिकीं.
तो क्या वे पैर पटकने और रोने के लिए भारत लौटीं थीं?
अवारी का कहना है, ''यह मेरे लिए सम्मान की बात थी” और वे इससे कभी हिचकीं नहीं. वे कहती हैं, ''टाटा ग्रुप के लिए कुछ भी चलेगा.”
इस वाक्य का संबंध उनकी विरासत से है. उनके पिता भी उन्हीं की तरह टाटा मोटर्स में, जबकि मां टाटा की बीमा कंपनी में काम करती थीं और बहन ताज होटल में काम करती हैं. वे कहती हैं, ''हम टाटा परिवार हैं.” उनके पास भी नैनो कार है, जिसे ड्राइवर चलाता है और वे इस अंडे जैसी कार को लिटल कार कहती हैं.
उनकी इस अडिग वफादारी का एक इनाम यह था कि रतन टाटा ने खुद उन्हें उनका काम बताया था, जिसमें उन्होंने कहा कि वे हर भारतवासी को कम कीमत में आने-जाने की सवारी देना चाहते हैं. अवारी बताती हैं, ''टाटा की इसी सोच को लोगों ने गरीब की गाड़ी का नाम दे दिया. कंपनी ने कभी भी इस धारणा को तोड़ा नहीं.”
नैनो की लखटकिया कहानी
यह कोई नई बात नहीं थी. टाटा ने ग्रुप की वेबसाइट पर उस इंटरव्यू में भी कुछ ऐसी ही बात कही थी. उन्होंने कहा था, ''यह कभी भी एक लाख की कार नहीं होने वाली थी, वह तो हालात ने बना दिया.
जिनेवा मोटर शो में ब्रिटिश अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने मुझे इंटरव्यू किया और मैंने भविष्य के इस प्रोडक्ट को कम कीमत की कार कह दिया. मुझसे पूछा गया कि लागत कितनी होगी. मैंने कह दिया करीब एक लाख रुपए. अगले दिन फाइनेंशियल टाइम्स की हेडलाइन थी कि टाटा एक लाख की कार बनाएंगे.”
इस दाम को 'सस्ता’ मान लिया गया. कंपनी के भीतर और बाहर इस समय यही माना जाता है कि नैनो के मामले में सब कुछ योजना के अनुसार न चलने की असली वजह यही है.
मार्केटिंग रणनीति में ग्लोबल गुरु जैक ट्राउट का कहना है, ''कोई अपने दोस्तों और पड़ोसियों को नहीं बताना चाहता कि उसके पास सस्ती कार है. इस तरह एक ब्रांड नष्ट हो गया. यह ऐसी श्रेणी है जिसमें शायद उन्हें नहीं जाना चाहिए था.”
कार बनाने के इतिहास में सस्ती कार का यह पहला पतन नहीं था. 1927 में मॉडल टी का उत्पादन बंद करना पड़ा था, जबकि तब तक डेढ़ करोड़ कारें बिक चुकी थीं. उसकी वजह यह थी कि अमेरिका के लोग कम कीमत की कार से कुछ ज्यादा चाहते थे.
उनकी चाहत थी कि स्टाइल, स्पीड और लग्जरी भी मिले. शायद भारत के लोगों से 2010 के दशक में यह अपेक्षा कुछ ज्यादा थी कि वे बिना लग्जरी वाली सीधी-सादी कार अपना लेंगे. कोई आश्चर्य नहीं कि करीब पांच साल में नैनो कार दस लाख की सिर्फ एक चौथाई बिकी.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि नैनो जब आई, तो उसने सीधी-सादी कार का स्तर और घटा दिया. मतलब स्टीरियो, एयरकंडीशनिंग और पावर विंडोज की तो बात क्या, उसके डैशबोर्ड में कागजात रखने के लिए ग्लव कंपार्टमेंट भी नहीं था. उसके साथ ही ग्राहकों में अलग-अलग साइज के अगले और पिछले पहियों जैसी छोटी-छोटी बातों को देखने का माद्दा भी कम हो गया.
टाटा के एक और दूसरी पीढ़ी के कर्मचारी गिरीश वाघ के नेतृत्व में रियर इंजन, रियर व्हील ड्राइव नैनो तैयार करने का प्रोजेक्ट चला था. वाघ का कहना है, ''मर्सिडीज की छोटी कार स्मार्ट के भी पिछले पहिये चौड़े हैं, क्योंकि पिछले हिस्से में वजन ज्यादा है, इसलिए पिछले पहियों को चौड़ा करना पड़ा.”
इस कार के भीतर ज्यादा जगह देने के लिए यही डिजाइन सबसे उपयुक्त लगा और भीतर की बड़ी जगह के साथ-साथ कार को कम जगह में आसानी से घुमाने की क्षमता वास्तव में हैरान करती है.

आग के दरिया में डूबी नैनो
टाटा की यह नई कार के लॉन्च होने के बाद ग्राहकों को खरीदने के लिए डेढ़ साल इंतजार करना पड़ा था. इसलिए इन बातों से उकताहट हो गई थी. नैनो 2009 के मध्य तक ही सड़क पर आ पाई थी. इसके पहले विज्ञापन से इंतजार साफ झलक रहा था, जिसमें कहा गया था नैनो आ गई.
कहते हैं कि गाड़ी सड़क पर आने से पहले दो लाख बुकिंग हो चुकी थी, जबकि डिलिवरी उसके अनुपात में बहुत कम थी.
कार सड़क पर आते ही कुछ गाड़ियों में आग लगने की खबरें आने लगीं. अब कम कीमत का दावा मॉडल टी के मुकाबले और भी ज्यादा भारी पडऩे लगा. नैनो में कम कीमत का मतलब घटिया क्वालिटी, भरोसे और सुरक्षा की कमी माना गया.
वनेसा एबल ने पिछले महीने गार्डियन अखबार की वेबसाइट पर लिखा कि उन्हें नैनो का आइडिया इतना पसंद आया कि उन्होंने यह गाड़ी खरीदी और 2010 में पूरे भारत में दस हजार किलोमीटर का चक्कर लगाया. पूरे रास्ते में लोग पूछते रहे कि क्या उन्हें नैनो के आग का गोला बन जाने का डर नहीं लगा.
वाघ बताते हैं, ''कार के एग्जॉस्ट सिस्टम में कोई बाहरी वस्तु मिलने की कुछ घटनाएं हुई थीं. कार जब कुछ देर चल जाती थी और एक हद तक गरम हो जाती थी, तो उन वस्तुओं में आग लग जाती थी. दूसरा कारण स्टार्टिंग सिस्टम से जुड़ा था.” कुछ कारों में मालिकों ने अपनी कार की शान दिखाने के चक्कर में बाजार से म्यूजिक सिस्टम जैसे उपकरण लगवा लिये थे, जिनके तार सटने से शॉर्ट सर्किट हो गया था.
मारुति सुजूकी के एक अधिकारी का कहना है, ''कई कारों में आग लग जाती है और इसका कारण अकसर इलेक्ट्रिकल गड़बड़ी होती है.” लेकिन नैनो में लगी आग को बुझाना इसलिए मुश्किल साबित हुआ, क्योंकि उस पर 'सस्ती’ कार का ठप्पा था.
अगर वह महंगी कार होती, तो उसे इक्का-दुक्का हादसा मानकर अनदेखा कर दिया जाता. कुल मिलाकर नैनो में आग लगने की तीन या चार घटनाएं हुईं, पर वे याद रह गईं, क्योंकि लोग कहने लगे, ''सस्ती कार से भला और क्या उम्मीद करेंगे आप.”

सस्ते को सलाम करने का दौर
मारुति ने भी कुछ समय तक यह सोचा कि नैनो के मुकाबले कोई कार लाई जाए, लेकिन बहुत जल्दी यह आइडिया छोड़ दिया, क्योंकि एक तो इतने दाम पर मुनाफा कमाना मुश्किल काम था और दूसरे उसने ग्राहकों के मिजाज में बदलाव देख लिया था.
मारुति के इसी अधिकारी ने बताया, ''हमारी कारों की करीब 50 से 60 फीसदी बिक्री बीच के मॉडल की होती थी. बेस मॉडल 30-40 फीसदी और टॉप मॉडल ज्यादा से ज्यादा दस फीसदी बिकता था, लेकिन उन्हीं दिनों हालात बदल गए. टॉप मॉडल ज्यादा बिकने लगा और बेस मॉडल के ज्यादा खरीदार नहीं रहे.”
जाहिर था कि ग्राहक अब पैसे खर्च करके बेहतर माल चाहने लगे थे. भले ही उसके लिए थोड़ा ज्यादा खर्च करना पड़े. सस्ते का बाजार खत्म हो रहा था. अब कोई ऐसी डींग नहीं हांकता था कि मैंने सस्ता सौदा पटा लिया. इसकी मिसाल 2011 में मारुति की नई स्विफ्ट के आने पर देखने को मिली.
नई कार आने के समय पुराने कार की वेटिंग थी. जो लोग कतार में लगे थे, वे सब नई स्विफ्ट लेने को राजी हो गए, जिसमें ज्यादा खूबियां थीं, लेकिन कीमत पुरानी कार से 35,000- 40,000 रु. ज्यादा थी.
कारों के खरीदार बेहतर कारें मांगने लगे थे. उन्हें टू-व्हीलर की जगह लेने वाली कार नहीं चाहिए थी. टू-व्हीलर वाले ऐसी कार खरीदने के लिए इंतजार करने को तैयार थे, जो ज्यादा मोल दे सके. उन्हें असली कार की तलाश थी. नैनो बदलते वक्त के भंवर में डूब गई. अब ज्यादा महंगी, ज्यादा शानदार और ग्राहक के लिए ज्यादा पसंदीदा अंदाज में फिर से पैर जमाने की कोशिश कर रही है.
पहले और बाद में
नैनो को पेश किए जाने से एक साल पहले 2007 का भारत बहुत अलग था. 3,000 रु. से कम कीमत वाले नोकिया 1200 की गिनती सबसे लोकप्रिय मोबाइल फोन में होती थी. फ्लैट पैनल एलसीडी टेलीविजन गिने-चुने थे.
हर जगह पीछे से फूले हुए टीवी दिखते थे. फेसबुक बस आया ही था, फ्लिपकार्ट की अभी स्थापना हुई थी, लैपटॉप जगह बनाने के लिए डेस्कटॉप से लड़ रहे थे, टैबलेट सिर्फ वह थी, जो डॉक्टर देता है.
आज 25,000 रु. से ज्यादा कीमत का स्मार्टफोन सैमसंग गैलेक्सी एस-3 बहुत लोकप्रिय है. शहर की अधिकतर दीवारों पर एलसीडी टेलीविजन टंगे हैं, फेसबुक के भारत में 10 करोड़ यूजर हैं, फ्लिपकार्ट का मोल एक अरब डॉलर को पार कर गया है, राजधानी एक्सप्रेस के हर यात्री के हाथ में टैबलेट दिखती है और हां, नैनो के एक मॉडल की कीमत 2,58,000 रु. हो गई है. लेकिन उस लखटकिया का क्या हुआ?
इस सिलसिले की शुरुआत अवारी को रतन टाटा से मिली ब्रीफिंग से हुई थी.
अवारी बताती हैं कि उस ब्रीफिंग में सवाल किया गया था, ''जब आप नैनो चलाते हैं, तो दिमाग में सबसे पहला सवाल यही आता है कि इस कार के बारे में इतनी बदनामी क्यों सुनी जाती है? रतन टाटा चाहते थे कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस कार को चलाने का अनुभव लें और बिना अनुभव हासिल किए बात न करें.”
दूसरे वे चाहते थे कि इस कार को सबका सहयोग मिले. ''नैनो की नई खोज टाटा मोटर्स के भीतर हुई, बाहर नहीं. प्रोडक्ट मैन्युफैक्चरिंग और बिक्री, सब कंपनी के भीतर की बात थी.”
अवारी और नैनो को बचाने वालों ने सबसे पहले अपनी टीम संभालने का काम शुरू किया. अवारी ने जैसे ही पुणे में कंपनी की मूल फैक्टरी और साणंद में नैनो फैक्टरी के बीच आना-जाना शुरू किया, तो वाघ हमेशा मदद के लिए मौजूद थे. सेल्स और मार्केटिंग के मुखिया अंकुश अरोड़ा टीम के अहम सदस्य थे.
सैमसंग इंडिया में मोबाइल फोन डिविजन के मुखिया की हैसियत से नाम कमा चुके रंजीत यादव ने अक्तूबर, 2012 में टाटा मोटर्स में कदम रखा. वे मैनेजिंग डायरेक्टर कार्ल स्लाइम से कुछ दिन बाद आए. कार्ल की इस वर्ष जनवरी में बैंकॉक में शंगरीला होटल से गिरने से मौत हो गई.
यादव जब कंपनी में आए, तो टाटा मोटर्स देश की तीसरी सबसे बड़ी कार कंपनी थी, लेकिन जेडी पावर के सेल्स सैटिस्फैक्शन सर्वे में बारह कंपनियों में उसका स्थान बारहवां था. सर्विस में भी पहली छह कंपनियों में उसकी जगह नहीं थी. यादव बताते हैं, ''हमने ग्राहकों के लिए कार खरीदना मुश्किल कर दिया था यानी हमें अपनी सेल्स और सर्विस सुधारने की जरूरत थी.”
उन दिनों टाटा मोटर्स की डीलरशिप के पीछे सोलह-सोलह कर्मचारी लगे होते थे. यादव कहते हैं, ''अगर किसी डीलर के यहां चले जाते थे, तो डीलर की बजाय टाटा कर्मचारी से ही हाथ मिलाने की संभावना रहती थी.” डीलर्स ने उन्हें बताया कि टाटा के साथ कारोबार करना बहुत टेढ़ा काम था.
उन्हें समझ नहीं आता था कि किसकी बात सुनें. आज हर डीलर को सेल्स के लिए अलग और सर्विस के लिए अलग सिर्फ एक-एक व्यक्ति से बात करनी होती है. यादव के अनुसार, ''15 या 16 महीने पहले की तुलना में आज बिजनेस करना पांच गुना आसान हो गया है.”
सेल्स के अनुभव के मामले में जेडी पावर की रैंकिंग में यह पिछले साल पांच स्थान उछलकर सातवें पर आ गई. ''अब भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन कुल मिलाकर हालात सुधरने लगे हैं.”
बिक्री के लिए नए स्टोर खोले गए हैं. पुरानों का रंग-रूप बदला गया है, लोन लेने के लिए कागजी कार्रवाई आसान हो गई है, नैनो खरीदने की लागत कम थी, लेकिन कार की लाइफ साइकिल लागत को कम करना जरूरी था, इसलिए टाटा ने चार साल की वारंटी का ऐलान किया.
अवारी का कहना है, ''हमें ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि भरोसे को लेकर अजीब-अजीब बातें की जा रही थीं, जबकि यह सबसे किफायती पेट्रोल कार साबित हो चुकी थी.”
नेटवर्क को सुधारने के बाद टीम ने ग्राहकों पर ध्यान देना शुरू किया. अवारी को पिछले साल अगस्त में टाटा की सभी यात्री गडिय़ों की मार्केटिंग प्रमुख बना दिया गया था. वे कहती हैं कि उन लोगों के बारे में सोचना शुरू किया गया, जो 18 साल का होने पर नैनो को अपनी पहली कार बनाना चाहेंगे.
''ऐसा क्या किया जाए कि वे 14 साल की उम्र से ही इसे चाहने लगें और तब तक माता-पिता के पीछे पड़े रहें, जब तक मिल न जाए. उन लोगों की जबान कैसे बोली जाए?”
इस तरह अगस्त-सितंबर, 2011 में नैनो ने अपनी स्थिति बदलने की शुरुआत की. रतन नवल टाटा और रविकांत के साथ लंबी बातचीत के बाद अगले पांच साल का खाका तैयार हुआ.

नैनो के सफर में मोड़
इसका पहला लक्षण तब दिखा, जब विज्ञापन में सस्ते की जगह गजब की बात झलकने लगी. जिस जमाने में हर कोई नैनो के आइडिया का दीवाना था, उस समय मारुति को चला चुके जगदीश खट्टर का कहना है कि शुरू से ही यह रणनीति अपनाई जानी चाहिए थी.
''मैं तो मर्सिडीज के मालिकों के हाथ में यह कार दे देता और उनसे कहता कि सर, यह आपकी तीसरी कार है, जब आप पार्क में अपना कुत्ता घुमाने जाएं, तो इसमें जाएं. हर कोई जब यह सोचेगा कि इस कार को चलाना आसान है, तो इसे खरीद लेगा.”
मालदार लोगों की शान की सवारी
अवारी सबूत के साथ कहती हैं कि पैसे वाले हमेशा नैनो चलाते थे, ''जब हमने कार पेश की तो बुकिंग के दौर में कार उन लोगों ने चुनी, जिनके पास अच्छा-खासा पैसा था; 80 फीसदी खरीदार इसे अपनी तीसरी या चौथी कार के रूप में लेना चाहते थे.”
उन्हें रोजाना मुंबई के समृद्ध कफ परेड इलाके में इसका सबूत दिखाई देता है, जहां नैनो ही नैनो दिखती हैं और ''सबको मालिक खुद ही चलाते हैं. मेरी कार ड्राइवर चलाता है, क्योंकि मुझे ड्राइविंग से परेशानी होती है.” यह बात उनके मुंह से निकल रही है, जिन्होंने सूमो पर गाड़ी चलाना सीखा और लोग एक लड़की को इतनी भारी गाड़ी चलाते देखकर रास्ते से हट जाया करते थे.
अब सारी कोशिश इस अमीर खरीदार को थामे रखने और कम उम्र के उस शहरी नौजवान वर्ग को लुभाने की है, जिसे नैनो हमेशा पसंद थी, लेकिन पहली बार के खरीदार को लुभाने के चक्कर में टाटा मोटर्स ने जिसकी तरफ कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
अब वह अपनी रणनीति सुधारने को तैयार है. सेल्स और मार्केटिंग के मुखिया अंकुश अरोड़ा का कहना है, ''नैनो के लॉन्च से लेकर 2010 तक 20 फीसदी खरीदार 25-34 के आयु वर्ग में थे. आज यह अनुपात 45 फीसदी है. जाहिर है कि हमारे ग्राहकों का वर्ग बदल गया है.
हमारा काम उन ग्राहकों की तादाद बढ़ाना है क्योंकि हमारी 55 फीसदी आबादी 25 साल की उम्र के आसपास है. यही वे खरीदार हैं, जो बाजार में आएंगे. अगर हमने इन खरीदारों को नहीं पकड़ा, तो शायद मौका चूक जाएंगे.”
आज नैनो का विज्ञापन 'नैनो आ गई’ के पहले विज्ञापन से बिल्कुल अलग है. इसमें रंगों और संगीत का धमाल है. नौजवान असल जिंदगी से अलग कुछ कमाल करते हुए मस्ती में दिखते हैं और मसाबा गुप्ता इलेक्ट्रिक ब्लू नैनो से कवर हटाती दिखती हैं. गुप्ता आज फैशन डिजाइनिंग सर्किट में जवां दिलों की धड़कन हैं.
कल तक वे नारी मुक्ति की प्रतीक थीं. मसाबा वेस्ट इंडीज के क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स और अविवाहित भारतीय अभिनेत्री नीना गुप्ता की बेटी हैं. अरोड़ा कहते हैं, ''हम कामयाबी का जश्न मनाने या अपने रुख पर कायम रहने का जश्न मनाने के मामले में शहरी नौजवानों से जुडऩा चाहते थे.”
रतन टाटा की जगह टाटा ग्रुप के अध्यक्ष बने सायरस मिस्त्री ने जब कहा कि नैनो को अब स्मार्ट सिटी कार के रूप में पेश किया जाएगा. उसके कुछ ही दिन बाद आए इस विज्ञापन को तीस दिन में यूट्यूब पर पचास लाख दर्शक मिले. एक अखबार के अनुसार इतने ज्यादा दर्शक किसी कार के विज्ञापन को नहीं मिले.
लेकिन अगर विज्ञापन से ही सारा काम हो जाता, तो कई विज्ञापन कंपनियों के मालिक मार्टिन सोरेल दुनिया के बादशाह होते. नैनो का नया चेहरा ड्राफ्टिंग रूम और वर्कशॉप में रचा जाना था. 2012 और 2013 के नए मॉडलों में कई बदलाव हुए.
ताजा तरीन मॉडल नैनो ट्विस्ट 2008 में दिखे पहले मॉडल से उतना ही अलग है, जितना टाटा मोटर्स को प्रदेश से धकेल बाहर करने वाली पश्चिम बंगाल की राजनेता ममता बनर्जी, एसएमएस भेजने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अलग हैं.
नैनों में अब टि्वस्ट है
इंजीनियरिंग के लिहाज से यह ज्यादा परिष्कृत है और इसकी स्टीयरिंग व्हील भी बढिय़ा है. वाघ ने आरामदायक सफर के लिए इसके सस्पेंशन में सुधार किया और सामने ऐंटी-रॉल बार लगा दिया. इसकी ह्नमता में सुधार किया गया. नई नैनो जैसे ही भड़कीले रंगों में आने लगी वैसे ही उसमें ग्लव कंपार्टमेंट, ब्लूटूथ कनेक्टिविटी वाला आधुनिक म्यूजिक सिस्टम आदि लगा दिया गया. और हां, आग से बचाने के लिए पूरे इलेक्ट्रिकल सिस्टम पर अतिरिक्त परत चढ़ा दी गई है.
ग्रेटर नोएडा में फरवरी में आयोजित ऑटो एक्सपो में आने वाली नैनो की एक झलक दिखाई गई. टाटा मोटर्स के पवेलियन में ऑटोमेटिक मैनुअल ट्रांसमिशन (एएमटी) वाली नैनो खड़ी की गई थी. कारनिर्माता कंपनियां अभी एएमटी के बूते ग्राहकों को रिझने का प्रयास कर रही हैं. इस टेक्नोलॉजी में क्लच की जरूरत नहीं है और इसकी वजह से शहर में गाड़ी चलाना आसान है.
हां, नैनो की कीमत भी बढ़ गई है. नैनो ट्विस्ट की कीमत देश में सर्वाधिक बिकने वाली मारुति एल्टो की कीमत के बराबर है. रतन टाटा ने जब पहली बार 1 लाख रु. की गाड़ी पेश की थी तो उन्होंने कहा था, ''वादा तो वादा है.” तो क्या अब कोई दूसरा वादा है? इसकी परीक्षा देश की सड़कों पर होने वाली है.
जब नैनो पहली बार सड़क पर उतरी थी, उस समय के मुकाबले आज अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर आधी रह गई है. इसका मतलब यह हुआ कि संभावित खरीदार के पास पहले के मुकाबले कम पैसा है. रतन टाटा ने पिछले साल नवंबर में सिंगापुर में एक टीवी प्रोग्राम में कहा था, ''शायद इसे (नैनो) को इंडोनेशिया जैसे नए देश में लॉन्च किया जाए जहां इसके साथ कलंक नहीं लगा है, और फिर नई छवि के साथ भारत में लाया जाए. या बदले हुए प्रोडक्ट के तौर पर इसे यूरोप में बेचा जाए. भारत के बाहर नैनो में काफी दिलचस्पी है.”