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मारुति की बनाई हर तीसरी कार का खरीददार गांव वाला

मारुति की बनाई हर तीसरी कार का खरीदार गांवों में रहता है. एक लाख गांवों तक पहुंच बनाने की तैयारी में जुटी मारुति 14 नए मॉडलों के साथ यह बाजार में हमले के लिए तैयार है.

अपडेटेड 5 फ़रवरी , 2014
हर सुबह केनिची आयुकावा सबसे पहले गुडग़ांव के मारुति सुजुकी के कारखाने में जाते हैं, जिसका गेट धूल-धक्कड़ वाली व्यस्त सड़क से गुजरने के बाद आता है. इसके बाद वसंत विहार के अपने कॉर्पोरेट मुख्यालय पहुंचते हैं जो कि चमकदार मॉल्स के झुंड से कुछ ही कदम दूर है. मारुति सुजुकी इंडिया के एमडी और सीईओ आयुकावा हफ्ते में एक बार मानेसर स्थित अपने दूसरे कारखाने में भी जाते हैं.

पिछले साल अप्रैल में ज्वाइन करने के तुरंत बाद उन्होंने कर्मचारी यूनियन की एक बैठक में पहुंचकर सबको आश्चर्य चकित कर दिया. इस मीटिंग में उन्होंने कंपनी की स्थिति, बिक्री, वित्तीय हालत और बाजार के बारे में विस्तार से बात की. उन्होंने कहा, ‘‘हम एक ही नाव पर सवार हैं.

हम दुश्मन नहीं हैं. हम सहकर्मी हैं और हमें एक-दूसरे का सहयोग करना होगा. हम सबके लिए एक ही दिशा होनी चाहिए, कंपनी की तरक्की और विकास. यदि हमें सही नतीजे मिलते हैं तो जो फल मिलेगा, उसको बांटा जा सकता है.’’

उनके हर शब्द सही निशाने पर लगे. मारुति के लिए बाजार और नीतिगत उतार-चढ़ाव से ज्यादा हाल के वर्षों में कर्मचारियों का मसला ज्यादा परेशान करने वाला था. 18 जुलाई, 2012 कंपनी के तीन दशकों के गौरवशाली इतिहास का काला दिन था.
जुलाई 2012: मानेसर फैक्ट्री में हिंसा के बाद पुलिस बंदोबस्त
उस दिन मानव संसाधन (एचआर) के जनरल मैनेजर अवनीश कुमार देव की मानेसर कारखाने में हत्या कर दी गई थी. इस घटना में कम-से-कम 100 दूसरे मैनेजर घायल हो गए थेः ज्यादातर लोगों के हाथ टूटे थे और सिर फूट गए थे. श्रमिकों के क्रोध से बचने के लिए कई लोग पहली मंजिल से कूद जाने की वजह से घायल हो गए.

कर्मचारियों ने वह सब कुछ उठा लिया था जो उन्हें मिला-कारखाने में रखे औजार, कारों के पार्ट, दरवाजों के कब्जे-और उन्होंने वह किया जिसके बारे में शायद ही किसी ने सोचा हो कि वे ऐसा भी कर सकते हैं. यह दिन पिछले साल लंबे समय तक चले श्रमिक असंतोष के बाद आया था जिसकी वजह से कंपनी को करीब 2,500 करोड़ रु. के बिजनेस का नुकसान हुआ था.

यह श्रमिक असंतोष ऐसे समय में देखा गया जब बाजार में डीजल कारों को लेकर तेजी से झुकाव शुरू हुआ था. कंपनी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव बताते हैं, ‘‘अप्रैल 2011 के बाद कुल बिक्री में डीजल कारों की बिक्री करीब 36 फीसदी से बढ़कर 58 फीसदी हो गई.

हमारे पास डीजल की पर्याप्त क्षमता नहीं थी. केवल एक कारखाने मानेसर से हम दो लाख डीजल इंजन का उत्पादन कर रहे थे. हमारे पास एक लाख डीजल कारों की वेटिंग लिस्ट थी, लेकिन क्षमता नहीं थी.’’

मारुति के पांव उखाडऩे के लिए होड़ शुरू हो चुकी थी. हुंडई ने कदम तेजी से बढ़ाए, लेकिन वह दूसरे स्थान पर काफी अंतर से पीछे रही है. टोयोटा ने अपने इटियोस एवं लिवा मॉडलों की बदौलत जमीन हासिल कर ली थी. इसके बाद के महीनों में स्थितियां और मुश्किल होती गईं जब होंडा ने अमेज लॉन्च कर दी.

रेनॉ-निसान भी अपने डैटसन ब्रांड के साथ मारुति के छोटी कारों (ए सेग्मेंट) के आधार को हिलाने की तैयारी कर रही थी. चर्चा शुरू हो गईः ग्लोबल ऑटो जगत की छोटी मछली मारुति सुजुकी कब तक ऐसे बाजार में अपना प्रभुत्व बनाए रख पाएगी, जहां विशालकाय मगरमच्छ पहुंच चुके हैं?

लेकिन इस आशंका के विपरीत होता दिखा है. इस वित्त वर्ष के पहले नौ माह में उसकी बाजार हिस्सेदारी 41.3 फीसदी रही. जापान की सुजुकी मोटर कंपनी के चेयरमैन ओसामु सुजुकी ने भारत के अपने मैनेजरों से कहा है कि बाजार हिस्सेदारी को 40 फीसदी से ऊपर बनाए रखें. सुजुकी की मारुति में 56.2 फीसदी हिस्सेदारी है.

लेकिन सवाल यह है कि मारुति ने धीमी अर्थव्यवस्था और बिगड़ती स्थिति के बीच अपना कायापलट कैसे किया?

 अनूठी छुट्टी
मारुति के मार्केटिंग और सेल्स सीओओ मयंक पारिख ने जब अपनी पत्नी से दो साल की छुट्टी लेने की बात कही तो वे खुश नहीं थीं. असल में ये छुट्टी नौकरी से नहीं, बल्कि घर के काम से थी. पारिख ने समझ लिया था कि उनकी कंपनी मारुति को धीमी होती अर्थव्यवस्था का सामना करने की तैयारी में उनकी पूरी ऊर्जा की जरूरत है.

पत्नी के राजी होने पर मयंक ने राहत की सांस ली. यह पांच साल पुरानी बात है. और इस दौरान मारुति की कुल बिक्री में ग्रामीण बाजार की हिस्सेदारी महज 10 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत को पार कर गई है.

इस बीच, मयंक उन क्षेत्रों के भी माहिर हो गए हैं, जिनसे बहुत कम कंपनियों के सीओओ मामूली परिचय होने का दावा कर सकते हैं. वे पुजारियों, ग्रेनाइट पॉलिश करने वालों, ढाबा मालिकों, शिक्षकों और ग्राम पंचायतों-सब की जन्म कुंडली बांच सकते हैं.

यह सारी जानकारी उन्होंने सड़कों की धूल फांक कर हासिल की है. ऐसे ही एक सफर के दौरान मयंक की मुलाकात धनबाद के एक मामूली दुकानदार से हुई, जिसका कहना था कि मंदी सिर्फ उनके लिए है, जो आर्थिक अखबार पढ़ते हैं और बिजनेस चैनल देखते हैं.

इससे मयंक की आंखें खुलीं और उन्होंने अपनी टीम को ताकीद कर दी कि जो कुछ पढ़ते और देखते हैं, उस पर ज्यादा ध्यान न दें. इसके बाद वे उन ग्राहकों की तलाश में निकल पड़े, जिन्हें मंदी की परवाह नहीं रहती.

पिछले सितंबर में गुजरात में घूमते हुए उन्हें हाइवे पर कई ऐसे आउटलेट मिले, जो ढाबे से बड़े और मोटल से छोटे थे. उन्होंने एक जगह रुक कर एक मालिक से बात की. पता लगा कि वह रोजाना एक लाख रु. से ज्यादा का कारोबार करता है. ऑफिस लौटते ही मयंक ने इन लोगों के लिए माल ढोने की जगह वाली ओमनी वैन का स्पेशल पैकेज तैयार किया. यह पैकेज हर महीने तीन या चार दर्जन की तादाद में बिकता है.

बंगलुरू से कोयंबतूर जाते हुए उन्हें कई ग्रेनाइट पॉलिश करने वाली यूनिट दिखाई दीं. मंदी के बावजूद उनका कारोबार खूब चल रहा था. अब उनके लिए भी एक स्पेशल पैकेज है.

उन्होंने माथापच्ची की बैठकों के दौरान अपनी टीम से पूछा कि बुरे वक्त में भी समाज का कौन-सा तबका खूब कमाता है. जवाब मिला, मंदिर के पुजारी, क्योंकि लोग ज्यादा पूजा करते हैं और ज्यादा चढ़ावा देते हैं. मारुति ने अब पुजारियों के लिए स्पेशल पैकेज बनाया, जिसकी शुरुआत नासिक में त्रयंबकेश्वर मंदिर से हुई.

बढ़ती ब्याज दरों का मुकाबला करने के लिए उन्होंने ऐसे ग्राहक तलाशे जो कर्ज लेकर कार नहीं खरीदना चाहते. किसान आम तौर पर नकद खरीदना चाहते हैं, इसलिए उनके लिए भी स्पेशल पैकेज है.

मयंक को गांवों में सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी अच्छे लगते हैं. उनका वेतन कमोबेश शहर वालों के बराबर होता है, पर उत्तर प्रदेश के उरई में एक शिक्षक का मासिक खर्च लखनऊ वाले शिक्षक की तुलना में सिर्फ  बीस प्रतिशत है. मारुति ने उनके लिए गुरु दक्षिणा कार्यक्रम चला दिया.

गांव के लोग मनरेगा की आमदनी से कारें नहीं खरीद सकते, लेकिन साबुन, डिटर्जेंट और टूथपेस्ट खरीदने लगे हैं, जिससे दुकानदारों की कमाई बढ़ी है और वे कार खरीद सकते हैं.
मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव और एमडी-सीईओ केनिची
कुल मिलाकर मारुति के पास छोटे और पक्के ग्राहकों के लिए 332 स्पेशल पैकेज हैं. मयंक का कहना है, ‘‘बूंद-बूंद से घड़ा भरता है. इस साल हमारी बिक्री 1.3 प्रतिशत बढ़ी है, पर ग्रामीण बाजार 18 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ा है.’’

वैसे दो बातें ऐसी हैं, जो गांव के लोगों को मारुति कार खरीदने के लिए पहले से कहीं ज्यादा प्रेरित करती हैं. एक तो प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की बदौलत, पिछले कुछ वर्षों में गांवों के लिए सड़क संपर्क बहुत सुधरा है. दूसरे कंपनी ने स्थानीय डीलर, सेल्स अधिकारियों का जाल बिछा दिया है.

ऐसे 7,743 सेल्स अधिकारी भारत की 3,854 तहसीलों में से 93 प्रतिशत में हाजिर रहते हैं. सर्वे बताते हैं कि गांव वालों को शोरूम्स में अंग्रेजी बोलने वाले कर्मचारियों पर भरोसा नहीं होता, लिहाजा ये स्थानीय सेल्स अधिकारी जानकारी जुटाते हैं और कारें बेचते हैं.

मयंक के पास बहुत मोटी लॉगबुक है. उसके पन्ने पलटते ही आप जान सकते हैं कि गुजरात की सलुजा तहसील में 10,000 लोग रहते हैं, तीन सरकारी स्कूलों में कुल 24 कर्मचारी हैं, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 6 कर्मचारी हैं, देना बैंक और कैनरा बैंक की शाखाएं हैं और 10 किसानों के पास 10 एकड़ से ज्यादा बड़ी जोत है. गांव में 400 टूव्हीलर और 40 ट्रैक्टर हैं.

पर चार पहियों वाली यात्री सवारी सिर्फ पांच हैं. इस आखिरी आंकड़े को पढ़ते ही मयंक की बांछें खिल गईं. उनका कहना है, ‘‘हमारी 4.8 प्रतिशत तक बिक्री 100 से कम परिवारों वाले गांवों में होती है. पिछले साल हमने 46,000 गांवों में कारें बेचीं. आप कहेंगे कि तादाद बहुत बड़ी है, लेकिन यह देश में कुल गांवों का सिर्फ 7 प्रतिशत है. हमारा मकसद इसे एक लाख तक पहुंचाने का है.’’

मारुति ने पिछले पांच साल में छोटी जगहों पर 500 नए सेल्स और सर्विस केंद्र खोले हैं, जिससे पहले से मौजूद विशाल नेटवर्क बढ़ा है (देखें यहां, वहां और हर जगह). उसने मारुति मोबाइल सर्विस शुरू की है, जो गांवों में आप के घर आकर कार की सर्विस करती है. इस साल तक इसकी तादाद 1,000 हो जाएगी.

 आंखों देखी
एम.एम. सिंह 30 साल से मारुति में काम कर रहे हैं और पिछले 10 साल से मैन्युफैक्चरिंग के मुखिया हैं. शॉपफ्लोर पर उनकी बहुत इज्जत है. पर हद तो तब हो गई, जब उन्होंने गुडग़ांव फैक्टरी में इंजन असेंबली में कन्वेयर बैल्ट देखकर कहा कि वह बीच-बीच में रुक रही है.

प्लांट मैनेजर ने इसे मानने से इनकार कर दिया. आंख से देखने पर लगता था कि वह लगातार चल रही है. एम.एम. सिंह ने मैनेजर से कहा कि कन्वेयर पर एक मीटर लगाएं और एक हफ्ते में बताएं.

प्लांट मैनेजर तीन दिन बाद दौड़ता हुआ आया और बोला कि कन्वेयर रोजाना 800 बार पल भर के लिए ही सही, रुक रही है. समस्या नट कसने और फूलप्रूफिंग की थी. उसे दूर करते ही उत्पादन 20 से 30 इंजन प्रति दिन बढ़ गया और किसी को कानोकान खबर भी नहीं हुई.

सिंह कहते हैं, ‘‘हमारी फैक्टरियों के हर पुर्जे की तस्वीर मेरे दिमाग में ऐसी है, जो किसी और को नहीं दिखाई देती. इस हद तक काम में डूब जाना पड़ता है.’’ पैनी नजर रखने की इसी काबिलियत के बल पर सिंह कंपनियों के सम्मेलनों में लोकप्रिय वक्ता हैं, जहां वे बेखौफ  अपने राज बताते हैं, ‘‘हमारी कोई नकल नहीं कर सकता. जब तक वे मेरे आसपास तक भी पहुंचेंगे, मैं किसी दूसरे स्तर तक जा चुका होऊंगा.’’

ये स्तर वाकई बहुत तेजी से बदलते हैं. एम.एम. सिंह हर साल लागत में कटौती के अपने लक्ष्य से आगे निकल जाते हैं. पिछले वर्ष अप्रैल-नवंबर में खर्च घटाने का लक्ष्य 351 रु. प्रति गाड़ी था, लेकिन दिसंबर के मध्य तक 628 रु. का लक्ष्य छू लिया.

इस आंकड़े को मामूली मानने से पहले 12 लाख के सालाना उत्पादन से गुणा करके देख लें. सात साल में कुल उत्पादन लागत करीब 40 प्रतिशत गिरी है.

अमूमन कारखानों में मार्गदर्शक सिद्धांत यही है कि मशीन और कन्वेयर को कतई इंतजार न कराया जाए. ओ. सुजुकी का कहना है कि किसी को चलने के पैसे नहीं दिए जाने चाहिए. अगर कोई कर्मचारी किसी पुर्जे को उठाने के लिए बीस कदम चलता है तो हर पुर्जे के लिए चालीस कदम चलना पड़ता है. अगर उसकी शिफ्ट में 200 कारें बनती हैं, तो उसे 8,000 कदम चलना पड़ेगा.

इसलिए पुर्जों को असेंबली लाइन के कारीगरों के करीब ले आया गया है. कार कारखानों के लेआउट को देखते हुए यह काम आसान नहीं है, लेकिन कुछ साल पहले की तुलना में सिर्फ दस प्रतिशत ही चलना पड़ता है. कहीं-कहीं तो चलने की जरूरत ही नहीं है. 

फैक्टरियों में मीटर लगाए गए हैं, ताकि हर कार के लिए बिजली और पानी की खपत को नापा जा सके. हर शिफ्ट में दो बार 7.5 मिनट के लिए टी ब्रेक होता है. उस दौरान असेंबली लाइन और लाइट बंद कर दी जाती हैं. सिर्फ  चाय पीने की जगह रोशनी रहती है. कंपनी के सीएफओ अजय सेठ का कहना है कि डेस्क छोड़ते समय लाइट बंद करने की आदत पड़ गई है.

हर साल फरवरी से दो माह तक एम.एम. सिंह सप्ताह में सातों दिन काम करते हैं. रविवार को वे उन चीजों की सूची बनाते हैं, जिन्हें वे अगले वित्त वर्ष में हासिल करना चाहते हैं. बाकी दिनों में वे कारीगरों, सुपरवाइजर, इंजीनियर और मैनेजरों को अपनी योजनाएं बताते हैं. वे लोग अपने सुझाव और विचार देते हैं.

पिछले वित्त वर्ष में मारुति ने अपने कर्मचारियों के सुझावों को अपनाकर 350 करोड़ रु. बचाए थे. इनमें से अधिकतर सुझाव छोटी-मोटी चीजों के बारे में थे, जैसे कंपनी रिसाव टेस्ट करने की मशीनों की सील के लिए हर साल सप्लायर को 7,34,000 रु. दिया करती थी, अब यह सील फैक्टरी में बनती है और उसका खर्च सिर्फ 1,30,000 रु. रह गया है.

सिंह कहते हैं कि कारीगर समझ गए हैं कि अगर उन्हें रहना है, तो लागत कम और क्वालिटी बेहतरीन रखनी होगी. लेकिन अगर उनके इरादे कुछ और हों, जैसे कि 2011 और 2012 में मानेसर में आंदोलन के दौरान देखने को मिले, तो क्या होगा?
एम.एम. सिंह, मैनुफैक्चरिंग के प्रमुख
संतुष्ट श्रमिक
गुडग़ांव फैक्टरी में करीब 14 साल तक कारीगरों की कोई समस्या नहीं रही. मानेसर का किस्सा कुछ अलग है. उसकी कंपनी भी अलग थी-सुजुकी पावरट्रेन इंडिया. 2012-13 में इसका मारुति में विलय हो गया. उस कंपनी में दो बाहरी एजेंसियों के जरिए भर्ती का अपना सिस्टम था.

कारीगर किराए की छोटी जगह में, अकसर एक कमरे में चार, रहते थे और काम के बाद करने को कुछ नहीं था. मानेसर में ठेकेदारों के जरिए भर्ती कारीगरों का अनुपात बहुत ज्यादा था. कुछ अनुमानों के मुताबिक यह 50 प्रतिशत से ज्यादा था. अधिकतर युवा थे और अपनी पीढ़ी की महत्वाकांक्षा के अनुरूप बहुत जल्दी में थे.

गुडग़ांव में स्थिति अलग है. यहां बहुत से कारीगर बीस साल से भी पहले से काम कर रहे हैं. उन्हें अपनी वर्दी पर गर्व है, क्योंकि गांव में रुतबा बढ़ जाता है. गुडग़ांव में पुराने कर्मचारियों की बड़ी तादाद नौजवानों को काबू में रखती है, और उन्हें बताती है कि तुम्हारा वक्त भी आएगा.

मानेसर में पुराने कर्मचारियों का ऐसा असर नहीं था. लेकिन अब कुछ हद तक ऐसा है. गुडग़ांव से ऐसे करीब 150 वरिष्ठ कर्मचारी चुने गए, जो मानेसर फैक्टरी के पास रहते थे और उनका तबादला वहीं कर दिया गया. फिर भी मानेसर के 4,800 कर्मचारियों की औसत आयु 29 वर्ष है, जबकि गुडग़ांव के 7,200 कर्मचारियों में यह औसत 35 वर्ष है.

चेयरमैन भार्गव का कहना है कि और भी बहुत कुछ हो रहा है, ‘‘हमने बाहरी भर्ती कंपनियों और ठेकेदारों से मुक्ति पा ली है. वापस गुडग़ांव वाला सिस्टम अपना लिया है. अब हम पूरी जांच करते हैं कि कैंडिडेट कहां से आ रहा है, उसका परिवार कैसा है.

उन्हें पहले एप्रेंटिस रखा जाता है और पूरे साल उन पर नजर रहती है. उसके बाद एप्रेंटिस को परीक्षा देनी पड़ती है और दो साल के लिए ट्रेनी के तौर पर भर्ती की जाती है. सबसे अहम चीज है उनका नजरिया.’’ 

कुछ भर्ती नए सिस्टम के तहत की जा रही है. मांग घटने पर कुछ कारीगरों की छंटनी कर दी जाती है. जो सबसे बाद में भर्ती हुआ है, वह सबसे पहले जाएगा. मांग बढऩे पर सबसे आखिर में निकाला गया व्यक्ति सबसे पहले वापस आएगा.

नियमित कर्मचारियों की सभी रिक्तियां इन्हीं लोगों में से भरी जाएंगी. भार्गव का कहना है कि इसके पीछे इरादा उन्हें जोड़े रखने और नियमित कर्मचारी बनने की प्रेरणा देते रहने का है. कुल स्थायी कर्मचारियों में से करीब 30 प्रतिशत नई व्यवस्था के तहत आएंगे. मांग में भी औसतन इतना ही ऊपर-नीचे होता रहता है.

भार्गव का कहना है कि बदकिस्मती से हमारे कानून में अस्थायी कर्मचारियों को रखने का कोई प्रावधान नहीं है. हम कर्मचारियों के मामले में लचीलापन चाहते हैं, क्योंकि मांग घटती-बढ़ती रहती है. लोग ठेके पर कर्मचारी रखते हैं और उसका गलत इस्तेमाल होता है.

हम भर्ती करके निकालना नहीं चाहते. हम अस्थायी कर्मचारी चाहते हैं. हम यह भी चाहते हैं कि भारत में सामाजिक सुरक्षा का कोई इंतजाम हो. कुछ और कंपनियां भी यही व्यवस्था अपनाने लगी हैं.

अपने वजूद के पहले डेढ़ दशक में मारुति ने फैक्टरी के आसपास चक्रपुर और भोंडसी गांवों में कर्मचारियों के लिए मकान बनवाए. 2,000 से ज्यादा मकान बनवाए गए और जिनके मालिक कर्मचारी हैं. कंपनी अब यही व्यवस्था वापस लाना चाहती है.

हरियाणा सरकार से भवन निर्माण कानूनों में ढील की बात चल रही है, ताकि छोटे फ्लैट वाली ऊंची इमारतें बड़ी संख्या में बनाई जा सकें. चेयरमैन भार्गव का कहना है कि हर कर्मचारी के लिए लागत कम करने का यही तरीका है. इसके लिए मारुति जमीन, पैसा, आर्किटेक्ट और ठेकेदार जुटाने में मदद करेगी.

एम.एम. सिंह रवैए में बदलाव की जरूरत के बारे में कहते हैं, ‘‘मैंने अपने पिता से कभी सवाल नहीं किया. पर मेरे दोनों बेटे और दोनों बहुएं मुझसे सवाल करती हैं. बहुएं अपनी सास से सवाल करती हैं. हमारे जमाने में सास की बात पत्थर की लकीर होती थी, जब घर में हालात बदले हैं तो फैक्टरी में भी बदलेंगे न.’’

इसलिए वे और दूसरे वरिष्ठ मैनेजर अकसर कर्मचारियों को बताते हैं कि कंपनी का क्या हाल है, बाजार का क्या हाल है, क्या कामयाबी मिली और क्या दिक्कतें आईं. सिंह का कहना है कि उन्हें हर बात में शामिल करना होगा. एक बार वे अपनापन समझने लगेंगे, तो ऐसे नतीजे दे सकते हैं, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.

एम.एम. सिंह के इस विश्वास के पीछे ठोस आंकड़े हैं. भला कौन सोच सकता है कि कर्मचारियों के सुझावों के जरिए 350 करोड़ रु. बच सकते हैं.
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