देहरादून के पलटन बाजार में उस लड़की का पर्स छीन कर भागने वाले एक चोर को गुस्साई भीड़ ने पकड़ लिया था और लात-घूंसे बरसाने लगे थे. यह देखकर वह सहम गई और उस किशोर चोर को बचाने के लिए दौड़ पड़ी. करीब एक महीने बाद दिल्ली में उसने अपनी मां को यह वाकया बताया था, ''वह एक किशोर लड़का था ... यही कोई 14 या फिर 15 साल का रहा होगा और उसने दो दिन से कुछ खाया भी नहीं था.”
महज 23 साल की उस लड़की को अपने फिजियोथेरेपी कोर्स के लिए पैसे जुटाने में ही खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी. उस लड़की ने उस चोर से वादा लिया कि वह फिर कभी चोरी नहीं करेगा और इसके बाद अपने दो दोस्तों को इस बात के लिए राजी किया कि उस चोर की फटी टी-शर्ट बदलने के लिए उसे कुछ पैसे दें. साथ ही उसने अपने पर्स का वह एकमात्र 100 रु. का नोट भी उस चोर को थमा दिया, जिसे उसने छीनने की कोशिश की थी.
महज दो महीने बाद छह पुरुषों ने मिलकर उसकी जिंदगी तबाह कर डाली थी. 16 दिसंबर, 2012 को दक्षिण दिल्ली में एक चलती बस में उन सबने बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार किया और उसके शरीर के साथ वहशियाना सुलूक किया.
उसका पर्स चुराने की कोशिश करने वाला वह टीनेजर देहरादून की गलियों में आज भी उसे याद करते हुए कहता है कि कैसे उसकी गुस्से से भरी आंखों में एकाएक दया और कोमलता झ्लकने लगी थी, जब उसने उसे बताया था कि वह गरीब और भूखा है. लेकिन दया की उस देवी की भयानक नियति से वह बेखबर था. टीवी या अखबारों में उसकी कोई तस्वीर नहीं दिखी, इसलिए वह उसके चेहरे को याद नहीं कर पा रहा.
छियालीस वर्षीय आशा देवी आज भी अपनी सबसे बड़ी संतान को खोने के गम में डूबी हैं. वे उसकी पैदाइश के दिन को बड़े प्यार से याद करने लगती हैं, ''हमने उसे जे नाम दिया था. उसने हमारे घर को एक चमकती रोशनी से भर दिया था. वह एक 'अनमोल’ बच्ची थी. जिसने हमारी शादी के चार साल बाद 10 मई, 1989 को हमारे घर में जन्म लिया.
उस समय नजफगढ़ के नजदीक तीतारपुर में एक प्रेशर कुकर फैक्ट्री में काम कर रहे उसके पिता बद्रीनाथ सिंह खुशी से पागल हो उठे थे और पड़ोस के बच्चों के बीच लड्डू और 10 रु. के नोट बांटने में 1,000 रु. की अपनी पूरी तनख्वाह उड़ा दी थी.
आशा देवी बताती हैं कि वे मन-ही-मन चाहती थीं कि उनकी पहली संतान लड़की हो. उनके शब्दों में, ''लोगों ने मुझसे कहा कि मेरे पति ऐसे बर्ताव कर रहे हैं, मानो वे दो जुड़वा बेटों के पिता से भी ज्यादा खुश इनसान हों.” एक गहरी सांस भरते हुए वे कहती हैं, ''वे ऐसे दिन थे जब भगवान मेरी बात सुना करते थे.”
द्वारका में अपने तीन कमरे के मकान के एक छोटे-से पूजास्थल में देवी-देवताओं की तस्वीरों के बीच पांच-सात इंच का एक सिरेमिक फोटो फ्रेम रखा हुआ है. काले रंग की टी-शर्ट और लापरवाही से डाले गए क्रोशिया के कार्डिगन में निहायत दुबली-पतली, हल्के लंबे बालों वाली उनकी बेटी एक साधारण-सी लड़की दिखती है.
एक आम युवती जो दिल्ली में हर रोज दिखाई देती है: मेट्रो में, सरोजनी नगर में खरीदारी के दौरान मोलभाव करती, कॉल सेंटर से घर लौटने के लिए सवारी का इंतजार करती, पड़ोसी की बेटी आदि. लेकिन कुछ है जो अलहदा है-सामूहिक बलात्कार के ठीक आठ दिन पहले खींची गई इस तस्वीर से झांक रही आंखें हल्की मुस्कान और जिज्ञासा से भरपूर जिंदा महसूस होती हैं.
आशा की बेटी की आंखों का नूर मौत की नींद सोने के बाद भी मुरझाया नहीं. उसके चेहरे को फिर से देखने के लिए आपको अपनी नजर दूसरी तरफ फेर कर हिम्मत जुटानी होगी.
आशा सिंदूर लगी तस्वीर को खुद से ऐसे लिपटाती हैं मानो अपनी मृत बेटी को गोद में ले रखा हो और कहती हैं, ''वह हमेशा से डॉक्टर बनना चाहती थी.” बद्रीनाथ और आशा गरीब थे और बहुत पढ़े-लिखे भी नहीं थे. लेकिन वे उसे और उसके दो छोटे भाइयों को अच्छी शिक्षा देने के लिए हमेशा मेहनत करते रहे.
क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यही वह जरिया है जो उनके बच्चों को द्वारका के महावीर एन्क्लेव के छोटे-से फ्लैट से बाहर की दुनिया का सामना करने के लिए तैयार कर सकता है. उनकी बेटी ने अपने पहले पांच साल द्वारका के एक निजी अंग्रेजी मीडियम विद्यालय ब्रॉड-वे पब्लिक स्कूल में बिताए. उसके मां-बाप चाहते थे कि किसी कम खर्चीले सरकारी स्कूल में नाम लिखाने से पहले उसे एक मजबूत बुनियाद मिल जाए.
लेकिन मेडिकल कॉलेज? उसके लिए पैसा कहां से आएगा? उसके दोनों भाइयों का क्या होगा? पर उनकी बेटी का मन मेडिसिन में जाने का ही था. उसकी मां कहती हैं, ''उसे लोगों को स्वस्थ करने की एक डॉक्टर की ताकत से बड़ा लगाव था. वह भी ऐसा करने की सामर्थ्य पाना चाहती थी.” तब उसकी उम्र मुश्किल से 17 साल की होगी. 2007 में जनकपुरी के सरकारी गर्ल्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल से 12वीं पास करने के बाद उसने उसे बेइंतिहां प्यार करने वाले अपने पिता से कहा, ''पापा, मुझे पढ़ा दो. भाइयों को हम देख लेंगे.”
बद्रीनाथ अपनी बेटी को कभी ना नहीं कर सकते थे. आशा याद करते हुई कहती हैं, ''वह अपने पापा की लाडली थी. जब वह बहुत छोटी थी तब भी घुटनों के बल बिस्तर को पार कर उनकी छाती से लिपटकर सो जाती थी.” उसने अपने पिता से कहा था कि उसके दहेज के लिए की जा रही बचत से उसके मेडिकल कॉलेज की फीस दे दें तो वे मान गए थे.

चार साल के लंबे समय के दौरान जब वह देहरादून के राजपुर रोड स्थित साई इंस्टीट्यूट ऑफ पैरामेडिकल ऐंड एलाइड साइंसेज में फिजियोथेरेपिस्ट का प्रशिक्षण ले रही थी, उसके मां-बाप और भी कड़ी मेहनत से काम कर रहे थे. उसके पिता बद्रीनाथ अब इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जीएमआर के साथ बैगेज हैंडलर का काम डबल शिफ्ट में कर रहे थे.
आशा ने 1985 में अपनी शादी में मिले सारे जेवर गिरवी रख दिए थे; और उसके छोटे भाई जिन्होंने अभी-अभी स्कूल की पढ़ाई खत्म की थी, पड़ोसियों के बच्चों को पढ़ाकर कुछेक सौ रु. कमाने लगे थे. इतना ही नहीं, बद्रीनाथ ने उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में अपनी पांच बीघा पैतृक भूमि भी 3 लाख रु. में बेच दी थी. वह खुद भी अपना मासिक खर्च पूरा करने के लिए देहरादून में स्कूली बच्चों को पढ़ा रही थी.
आशा बताती हैं कि कैसे उसके बेटे जान-बूझकर बहुत कम खाकर ही अपना पेट भर लेते और अपने मोबाइल फोन का बेसिक रीचार्ज करने से भी परहेज करते. जब छुट्टियों में उनकी दीदी घर आती तो वही रीचार्ज करवाती. बेटों को पता था कि उनकी दीदी उनके भविष्य के लिए कड़ी मेहनत कर रही है. आशा के शब्दों में, ''मैंने एक बार अपने छोटे बेटे को बाजार में फास्ट फूड की एक दुकान पार करते समय तेजी से अपनी नजर घुमाते देखा था. उस दिन के बाद उसने बाजार जाना बंद कर दिया था, शायद उस फास्ट फूड के प्रलोभन से बचने के लिए.”
उनकी बेटी 5 नवंबर, 2012 को जब अपनी अंतिम परीक्षा देकर घर लौटी तो उन्हें लगा कि अब बुरे दिन बीत गए हैं. महावीर एन्क्लेव में एक फोटोग्राफर की दुकान की ओर जाने के पहले उसने बद्रीनाथ से कहा था, ''पापा आप किस बात की चिंता करते हैं? आपकी बेटी अब डॉक्टर हो गई है.” उसे दिल्ली के सबसे पुराने निजी अस्पतालों में से एक सेंट स्टीफेंस अस्पताल में फिजियोथेरेपी यूनिट में एक प्रशिक्षु के पद के लिए आवेदन करने के वास्ते नए पासपोर्ट आकार के फोटो की जरूरत थी.
16 दिसंबर, 2012 की शाम को अपने गहरे दोस्त अवनींद्र प्रताप पांडे के साथ बस में सवार होने के 13 दिन बाद खुद पर हुए वहशियाना हमले की चोट से बहादुरी से लडऩे के बाद उसकी मौत हो गई. उसके मन में यौन उत्पीडऩ की कोई याद बाकी नहीं थी. पर जो दर्द उसके शरीर को दहला रहा था, वह था उसके साथ हुई बर्बर क्रूरता की यादें.
सफदरजंग अस्पताल में जिंदा रहने के लिए संघर्ष करती उस बहादुर लड़की ने अपनी मां को बताया, ''बहुत मारे वो लोग. उन्हें छोडऩा मत.”
आशा कहती हैं, ''वह बहुत प्यारी लड़की थी. हमेशा अव्वल आती थी.” उन्होंने याद करके बताया कि सिर्फ तीन बार उनकी बेटी सेकेंड आई थी. स्कूल में उसका ध्यान सिर्फ किताबों में रमा रहता था. उसकी मां कहती हैं, ''उसने शायद ही कभी परिवार के साथ बैठकर कुछेक मिनट से ज्यादा टीवी देखा होगा. उस युवती ने टेक्स्ट बुक और अपनी पढ़ाई की मेज पर गुलदस्ते में सजाए प्लास्टिक के फूलों के बीच अपनी एक दुनिया बसा रखी थी.
आशा कहती हैं, ''वह बहुत कुछ मेरे जैसी थी. वह जिस तरह से बोलती, किसी गलत बात पर जिस तरह से प्रतिक्रिया करती, उसकी हरकतें, सब कुछ. पर उसकी शक्ल उसके पापा जैसी थी.” ऐसा कहते हुए लगा मानो आशा को बद्रीनाथ से थोड़ी देर के लिए ईर्ष्या हुई हो.
''आपके जैसा रंग तो नहीं था...सांवली थी, मगर बहुत सुंदर थी.” अपनी मृत बेटी के बारे में बताते हुए आशा की आंखों से आंसू टपकने लगे. ''और उसे दूध बहुत पंसद था.” वह एक और प्यारी याद खोलती हैं.

ज्यादातर नीले रंग की जींस और टी-शर्ट पहनने वाली उनकी बेटी को नकली गहने पसंद नहीं थे. उसकी मां ने बताया, ''उसके पास कोई जेवर नहीं था. नकली भी नहीं.” उन्होंने बताया कि एक बार वे उसके लिए चांदी की बालियां खरीदने वाले थे, लेकिन उसने मना कर दिया और कहा, ''पैसे बचाओ. हमें कुछ महत्वपूर्ण काम करने के लिए इनकी जरूरत होगी.”
आशा और उसके पति दोनों अवनींद्र के साथ अपनी बेटी के रिश्ते के बारे में बात करने से साफ परहेज करते हैं. ''वे दोनों दोस्त थे. अवनींद्र के चाचा महावीर एन्क्लेव में हमारे पड़ोसी थे. वे आपस में मिलते थे और कभी-कभी बाहर भी जाते थे. आशा को पक्का यकीन है कि उनके बीच कोई रोमांटिक रिश्ता नहीं था.
''मेरा अपनी बेटी के साथ ऐसा रिश्ता था कि मुझे इस बारे में सबसे पहले पता होता.” उन्होंने बताया कि पिछले चार साल से वह देहरादून में थी. वैसे भी अवनींद्र आज हमारे परिवार के संपर्क में नहीं है. अवनींद्र ने उनकी इस राय का खंडन नहीं किया.
उस साहसी युवती को संभवत: अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी में अपने सुकून का कोना मिल गया होता. 2010 और 2011 में टीवी पर दिनभर छाए घोटालों की खबरों से वह तंग आ चुकी थी. उसने एक बार अपने मां-बाप से कहा था, ''जब हम लोगों का समय आएगा, जब हम बड़े होंगे तो हम व्यवस्था को ठीक कर देंगे.”
और व्यवस्था का एक अंग हकीकत में बदल गया. इतनी जल्दी कि उसने कल्पना भी न की होगी. उसकी मौत के दो महीने बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने क्रिमिनल लॉ (संशोधन) ऑर्डिनेंस, 2013 (आपराधिक कानून अध्यादेश) को मंजूरी दे दी जिससे यौन अपराधों के संबंध में भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया 1973 की संहिता में महत्वपूर्ण बदलाव का रास्ता साफ हो गया.
उसकी मौत के बाद गुजरा साल विभिन्न घटनाक्रमों से भरा रहा. उसके मां-बाप अब भी उस दुख से उबर नहीं पाए हैं. दुख से बेहाल मां कहती हैं, ''जब कभी भूले ही नहीं तो याद क्या करेंगे.” बद्रीनाथ अपनी नजर फेर लेते हैं. उनका चेहरा उदास है और वे कुछ बोल नहीं पा रहे.
भगवान पर उनकी आस्था लगभग बिखर गई है. आशा पुनर्जन्म के बारे में बÞत भरोसे से कुछ नहीं कह पातीं. ''मुझे कुछ भी पता नहीं. मुझे सिर्फ इतना पता है कि वह एक अच्छी आत्मा थी और हमें उसकी बहुत ज्यादा जरूरत थी.” वे मानती हैं कि उनकी बेटी को अंदाजा था कि क्या होने वाला है.
सामूहिक बलात्कार के तीन दिन पहले उसने कहा था, ''मम्मी, हम ऐसा इंतजाम कर देंगे कि आपको बेटों के ऊपर निर्भर नहीं रहना होगा.”
उसकी मां याद करती हैं, ''उसने नए घर में जाने की बात भी की थी” उस पर हुए यौन हमले के विरोध में उमड़े जनता के आक्रोश के मद्देनजर दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार ने 15 लाख रुपए और द्वारका के अक्षरधाम अपार्टमेंट में तीन कमरे के एक नए फ्लैट के तौर पर अभूतपूर्व मुआवजे की घोषणा की. आशा कहती हैं, ''वह हमेशा जल्दी में रहती थी. ऐसा लगता है कि वह यही चाहती थी.” वह कहती हैं, ''हमें जो दिया जा रहा है, वह उसका होना चाहिए था.”
उसकी दुखद मौत के बाद उभरे जनता के आक्रोश और कई कानूनों में किए गए संशोधनों ने हर दिन उस दर्द की याद दिलाई है. दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस साल 15 अक्तूबर तक 2012 के 700 के मुकाबले बलात्कार की 1,330 घटनाएं दर्ज की गई हैं. उस पर हुए हमले के मद्देनजर महिलाओं की सुरक्षा के लिए दिल्ली सरकार की ओर से स्थापित हेल्पलाइन पर रोजाना 1,500 से अधिक डिस्ट्रेस कॉल्स आती हैं.
तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए.के. गांगुली पर लगे आरोपों जैसी यौन हिंसा की हाल की घटनाओं पर प्रतिक्रिया करते हुए वे कहती हैं, ''गुस्सा नहीं, घृणा आती है कि जिस समाज में कहते हैं कि लड़कियों को पढ़ाओ और हमारे जैसे मां-बाप अपना सब कुछ दांव पर लगाकर बेटी को पढ़ाते-लिखाते हैं, उसी बच्ची का ऐसा हश्र होता है.”
उनके घर की रोशनी बुझा दी गई. बद्रीनाथ और आशा अपनी बेटी को खोने के बाद के समय का सामना करने के लिए हर दिन संघर्ष कर रहे हैं. उन्हें उन लाखों लोगों से प्रेरणा मिल रही है, जो उनकी बेटी के लिए खड़े हो गए थे. खासकर युवतियां जो उन्हें अपनी बेटी की याद दिलाती हैं. बद्रीनाथ कहते हैं, ''गौरव भी महसूस होता है, हिम्मत भी मिलती है. ...लेकिन जब हम घर लौटते हैं, जब उसके सामने जाते हैं तो सब खत्म हो जाता है.”
आशा का दिल दर्द से दोहरा हो जाता है जब उन्हें सफदरजंग अस्पताल की आइसीयू के बिस्तर पर लेटी अपनी असहाय और टूटी हुई बेटी याद आती है. आशा कहती हैं, ''उसे भूख लगी थी और उसने रोटी मांगी थी. वह बार-बार कहती, मां, चुपके से खिला दो.” पर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कहीं रोटी अटक गई और उसकी जान चली गई तो? आठ दिन बाद सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में 29 दिसंबर को वह चल बसी. उसकी मां दुख से बेहाल है और उनके साथ पूरा भारत भी गमगीन है.
महज 23 साल की उस लड़की को अपने फिजियोथेरेपी कोर्स के लिए पैसे जुटाने में ही खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी. उस लड़की ने उस चोर से वादा लिया कि वह फिर कभी चोरी नहीं करेगा और इसके बाद अपने दो दोस्तों को इस बात के लिए राजी किया कि उस चोर की फटी टी-शर्ट बदलने के लिए उसे कुछ पैसे दें. साथ ही उसने अपने पर्स का वह एकमात्र 100 रु. का नोट भी उस चोर को थमा दिया, जिसे उसने छीनने की कोशिश की थी.
महज दो महीने बाद छह पुरुषों ने मिलकर उसकी जिंदगी तबाह कर डाली थी. 16 दिसंबर, 2012 को दक्षिण दिल्ली में एक चलती बस में उन सबने बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार किया और उसके शरीर के साथ वहशियाना सुलूक किया.
उसका पर्स चुराने की कोशिश करने वाला वह टीनेजर देहरादून की गलियों में आज भी उसे याद करते हुए कहता है कि कैसे उसकी गुस्से से भरी आंखों में एकाएक दया और कोमलता झ्लकने लगी थी, जब उसने उसे बताया था कि वह गरीब और भूखा है. लेकिन दया की उस देवी की भयानक नियति से वह बेखबर था. टीवी या अखबारों में उसकी कोई तस्वीर नहीं दिखी, इसलिए वह उसके चेहरे को याद नहीं कर पा रहा.
छियालीस वर्षीय आशा देवी आज भी अपनी सबसे बड़ी संतान को खोने के गम में डूबी हैं. वे उसकी पैदाइश के दिन को बड़े प्यार से याद करने लगती हैं, ''हमने उसे जे नाम दिया था. उसने हमारे घर को एक चमकती रोशनी से भर दिया था. वह एक 'अनमोल’ बच्ची थी. जिसने हमारी शादी के चार साल बाद 10 मई, 1989 को हमारे घर में जन्म लिया.
उस समय नजफगढ़ के नजदीक तीतारपुर में एक प्रेशर कुकर फैक्ट्री में काम कर रहे उसके पिता बद्रीनाथ सिंह खुशी से पागल हो उठे थे और पड़ोस के बच्चों के बीच लड्डू और 10 रु. के नोट बांटने में 1,000 रु. की अपनी पूरी तनख्वाह उड़ा दी थी.
आशा देवी बताती हैं कि वे मन-ही-मन चाहती थीं कि उनकी पहली संतान लड़की हो. उनके शब्दों में, ''लोगों ने मुझसे कहा कि मेरे पति ऐसे बर्ताव कर रहे हैं, मानो वे दो जुड़वा बेटों के पिता से भी ज्यादा खुश इनसान हों.” एक गहरी सांस भरते हुए वे कहती हैं, ''वे ऐसे दिन थे जब भगवान मेरी बात सुना करते थे.”
द्वारका में अपने तीन कमरे के मकान के एक छोटे-से पूजास्थल में देवी-देवताओं की तस्वीरों के बीच पांच-सात इंच का एक सिरेमिक फोटो फ्रेम रखा हुआ है. काले रंग की टी-शर्ट और लापरवाही से डाले गए क्रोशिया के कार्डिगन में निहायत दुबली-पतली, हल्के लंबे बालों वाली उनकी बेटी एक साधारण-सी लड़की दिखती है.
एक आम युवती जो दिल्ली में हर रोज दिखाई देती है: मेट्रो में, सरोजनी नगर में खरीदारी के दौरान मोलभाव करती, कॉल सेंटर से घर लौटने के लिए सवारी का इंतजार करती, पड़ोसी की बेटी आदि. लेकिन कुछ है जो अलहदा है-सामूहिक बलात्कार के ठीक आठ दिन पहले खींची गई इस तस्वीर से झांक रही आंखें हल्की मुस्कान और जिज्ञासा से भरपूर जिंदा महसूस होती हैं.
आशा की बेटी की आंखों का नूर मौत की नींद सोने के बाद भी मुरझाया नहीं. उसके चेहरे को फिर से देखने के लिए आपको अपनी नजर दूसरी तरफ फेर कर हिम्मत जुटानी होगी.
आशा सिंदूर लगी तस्वीर को खुद से ऐसे लिपटाती हैं मानो अपनी मृत बेटी को गोद में ले रखा हो और कहती हैं, ''वह हमेशा से डॉक्टर बनना चाहती थी.” बद्रीनाथ और आशा गरीब थे और बहुत पढ़े-लिखे भी नहीं थे. लेकिन वे उसे और उसके दो छोटे भाइयों को अच्छी शिक्षा देने के लिए हमेशा मेहनत करते रहे.
क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यही वह जरिया है जो उनके बच्चों को द्वारका के महावीर एन्क्लेव के छोटे-से फ्लैट से बाहर की दुनिया का सामना करने के लिए तैयार कर सकता है. उनकी बेटी ने अपने पहले पांच साल द्वारका के एक निजी अंग्रेजी मीडियम विद्यालय ब्रॉड-वे पब्लिक स्कूल में बिताए. उसके मां-बाप चाहते थे कि किसी कम खर्चीले सरकारी स्कूल में नाम लिखाने से पहले उसे एक मजबूत बुनियाद मिल जाए.
लेकिन मेडिकल कॉलेज? उसके लिए पैसा कहां से आएगा? उसके दोनों भाइयों का क्या होगा? पर उनकी बेटी का मन मेडिसिन में जाने का ही था. उसकी मां कहती हैं, ''उसे लोगों को स्वस्थ करने की एक डॉक्टर की ताकत से बड़ा लगाव था. वह भी ऐसा करने की सामर्थ्य पाना चाहती थी.” तब उसकी उम्र मुश्किल से 17 साल की होगी. 2007 में जनकपुरी के सरकारी गर्ल्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल से 12वीं पास करने के बाद उसने उसे बेइंतिहां प्यार करने वाले अपने पिता से कहा, ''पापा, मुझे पढ़ा दो. भाइयों को हम देख लेंगे.”
बद्रीनाथ अपनी बेटी को कभी ना नहीं कर सकते थे. आशा याद करते हुई कहती हैं, ''वह अपने पापा की लाडली थी. जब वह बहुत छोटी थी तब भी घुटनों के बल बिस्तर को पार कर उनकी छाती से लिपटकर सो जाती थी.” उसने अपने पिता से कहा था कि उसके दहेज के लिए की जा रही बचत से उसके मेडिकल कॉलेज की फीस दे दें तो वे मान गए थे.

चार साल के लंबे समय के दौरान जब वह देहरादून के राजपुर रोड स्थित साई इंस्टीट्यूट ऑफ पैरामेडिकल ऐंड एलाइड साइंसेज में फिजियोथेरेपिस्ट का प्रशिक्षण ले रही थी, उसके मां-बाप और भी कड़ी मेहनत से काम कर रहे थे. उसके पिता बद्रीनाथ अब इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जीएमआर के साथ बैगेज हैंडलर का काम डबल शिफ्ट में कर रहे थे.
आशा ने 1985 में अपनी शादी में मिले सारे जेवर गिरवी रख दिए थे; और उसके छोटे भाई जिन्होंने अभी-अभी स्कूल की पढ़ाई खत्म की थी, पड़ोसियों के बच्चों को पढ़ाकर कुछेक सौ रु. कमाने लगे थे. इतना ही नहीं, बद्रीनाथ ने उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में अपनी पांच बीघा पैतृक भूमि भी 3 लाख रु. में बेच दी थी. वह खुद भी अपना मासिक खर्च पूरा करने के लिए देहरादून में स्कूली बच्चों को पढ़ा रही थी.
आशा बताती हैं कि कैसे उसके बेटे जान-बूझकर बहुत कम खाकर ही अपना पेट भर लेते और अपने मोबाइल फोन का बेसिक रीचार्ज करने से भी परहेज करते. जब छुट्टियों में उनकी दीदी घर आती तो वही रीचार्ज करवाती. बेटों को पता था कि उनकी दीदी उनके भविष्य के लिए कड़ी मेहनत कर रही है. आशा के शब्दों में, ''मैंने एक बार अपने छोटे बेटे को बाजार में फास्ट फूड की एक दुकान पार करते समय तेजी से अपनी नजर घुमाते देखा था. उस दिन के बाद उसने बाजार जाना बंद कर दिया था, शायद उस फास्ट फूड के प्रलोभन से बचने के लिए.”
उनकी बेटी 5 नवंबर, 2012 को जब अपनी अंतिम परीक्षा देकर घर लौटी तो उन्हें लगा कि अब बुरे दिन बीत गए हैं. महावीर एन्क्लेव में एक फोटोग्राफर की दुकान की ओर जाने के पहले उसने बद्रीनाथ से कहा था, ''पापा आप किस बात की चिंता करते हैं? आपकी बेटी अब डॉक्टर हो गई है.” उसे दिल्ली के सबसे पुराने निजी अस्पतालों में से एक सेंट स्टीफेंस अस्पताल में फिजियोथेरेपी यूनिट में एक प्रशिक्षु के पद के लिए आवेदन करने के वास्ते नए पासपोर्ट आकार के फोटो की जरूरत थी.
16 दिसंबर, 2012 की शाम को अपने गहरे दोस्त अवनींद्र प्रताप पांडे के साथ बस में सवार होने के 13 दिन बाद खुद पर हुए वहशियाना हमले की चोट से बहादुरी से लडऩे के बाद उसकी मौत हो गई. उसके मन में यौन उत्पीडऩ की कोई याद बाकी नहीं थी. पर जो दर्द उसके शरीर को दहला रहा था, वह था उसके साथ हुई बर्बर क्रूरता की यादें.
सफदरजंग अस्पताल में जिंदा रहने के लिए संघर्ष करती उस बहादुर लड़की ने अपनी मां को बताया, ''बहुत मारे वो लोग. उन्हें छोडऩा मत.”
आशा कहती हैं, ''वह बहुत प्यारी लड़की थी. हमेशा अव्वल आती थी.” उन्होंने याद करके बताया कि सिर्फ तीन बार उनकी बेटी सेकेंड आई थी. स्कूल में उसका ध्यान सिर्फ किताबों में रमा रहता था. उसकी मां कहती हैं, ''उसने शायद ही कभी परिवार के साथ बैठकर कुछेक मिनट से ज्यादा टीवी देखा होगा. उस युवती ने टेक्स्ट बुक और अपनी पढ़ाई की मेज पर गुलदस्ते में सजाए प्लास्टिक के फूलों के बीच अपनी एक दुनिया बसा रखी थी.
आशा कहती हैं, ''वह बहुत कुछ मेरे जैसी थी. वह जिस तरह से बोलती, किसी गलत बात पर जिस तरह से प्रतिक्रिया करती, उसकी हरकतें, सब कुछ. पर उसकी शक्ल उसके पापा जैसी थी.” ऐसा कहते हुए लगा मानो आशा को बद्रीनाथ से थोड़ी देर के लिए ईर्ष्या हुई हो.
''आपके जैसा रंग तो नहीं था...सांवली थी, मगर बहुत सुंदर थी.” अपनी मृत बेटी के बारे में बताते हुए आशा की आंखों से आंसू टपकने लगे. ''और उसे दूध बहुत पंसद था.” वह एक और प्यारी याद खोलती हैं.

ज्यादातर नीले रंग की जींस और टी-शर्ट पहनने वाली उनकी बेटी को नकली गहने पसंद नहीं थे. उसकी मां ने बताया, ''उसके पास कोई जेवर नहीं था. नकली भी नहीं.” उन्होंने बताया कि एक बार वे उसके लिए चांदी की बालियां खरीदने वाले थे, लेकिन उसने मना कर दिया और कहा, ''पैसे बचाओ. हमें कुछ महत्वपूर्ण काम करने के लिए इनकी जरूरत होगी.”
आशा और उसके पति दोनों अवनींद्र के साथ अपनी बेटी के रिश्ते के बारे में बात करने से साफ परहेज करते हैं. ''वे दोनों दोस्त थे. अवनींद्र के चाचा महावीर एन्क्लेव में हमारे पड़ोसी थे. वे आपस में मिलते थे और कभी-कभी बाहर भी जाते थे. आशा को पक्का यकीन है कि उनके बीच कोई रोमांटिक रिश्ता नहीं था.
''मेरा अपनी बेटी के साथ ऐसा रिश्ता था कि मुझे इस बारे में सबसे पहले पता होता.” उन्होंने बताया कि पिछले चार साल से वह देहरादून में थी. वैसे भी अवनींद्र आज हमारे परिवार के संपर्क में नहीं है. अवनींद्र ने उनकी इस राय का खंडन नहीं किया.
उस साहसी युवती को संभवत: अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी में अपने सुकून का कोना मिल गया होता. 2010 और 2011 में टीवी पर दिनभर छाए घोटालों की खबरों से वह तंग आ चुकी थी. उसने एक बार अपने मां-बाप से कहा था, ''जब हम लोगों का समय आएगा, जब हम बड़े होंगे तो हम व्यवस्था को ठीक कर देंगे.”
और व्यवस्था का एक अंग हकीकत में बदल गया. इतनी जल्दी कि उसने कल्पना भी न की होगी. उसकी मौत के दो महीने बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने क्रिमिनल लॉ (संशोधन) ऑर्डिनेंस, 2013 (आपराधिक कानून अध्यादेश) को मंजूरी दे दी जिससे यौन अपराधों के संबंध में भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया 1973 की संहिता में महत्वपूर्ण बदलाव का रास्ता साफ हो गया.
उसकी मौत के बाद गुजरा साल विभिन्न घटनाक्रमों से भरा रहा. उसके मां-बाप अब भी उस दुख से उबर नहीं पाए हैं. दुख से बेहाल मां कहती हैं, ''जब कभी भूले ही नहीं तो याद क्या करेंगे.” बद्रीनाथ अपनी नजर फेर लेते हैं. उनका चेहरा उदास है और वे कुछ बोल नहीं पा रहे.
भगवान पर उनकी आस्था लगभग बिखर गई है. आशा पुनर्जन्म के बारे में बÞत भरोसे से कुछ नहीं कह पातीं. ''मुझे कुछ भी पता नहीं. मुझे सिर्फ इतना पता है कि वह एक अच्छी आत्मा थी और हमें उसकी बहुत ज्यादा जरूरत थी.” वे मानती हैं कि उनकी बेटी को अंदाजा था कि क्या होने वाला है.
सामूहिक बलात्कार के तीन दिन पहले उसने कहा था, ''मम्मी, हम ऐसा इंतजाम कर देंगे कि आपको बेटों के ऊपर निर्भर नहीं रहना होगा.”
उसकी मां याद करती हैं, ''उसने नए घर में जाने की बात भी की थी” उस पर हुए यौन हमले के विरोध में उमड़े जनता के आक्रोश के मद्देनजर दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार ने 15 लाख रुपए और द्वारका के अक्षरधाम अपार्टमेंट में तीन कमरे के एक नए फ्लैट के तौर पर अभूतपूर्व मुआवजे की घोषणा की. आशा कहती हैं, ''वह हमेशा जल्दी में रहती थी. ऐसा लगता है कि वह यही चाहती थी.” वह कहती हैं, ''हमें जो दिया जा रहा है, वह उसका होना चाहिए था.”
उसकी दुखद मौत के बाद उभरे जनता के आक्रोश और कई कानूनों में किए गए संशोधनों ने हर दिन उस दर्द की याद दिलाई है. दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस साल 15 अक्तूबर तक 2012 के 700 के मुकाबले बलात्कार की 1,330 घटनाएं दर्ज की गई हैं. उस पर हुए हमले के मद्देनजर महिलाओं की सुरक्षा के लिए दिल्ली सरकार की ओर से स्थापित हेल्पलाइन पर रोजाना 1,500 से अधिक डिस्ट्रेस कॉल्स आती हैं.
तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए.के. गांगुली पर लगे आरोपों जैसी यौन हिंसा की हाल की घटनाओं पर प्रतिक्रिया करते हुए वे कहती हैं, ''गुस्सा नहीं, घृणा आती है कि जिस समाज में कहते हैं कि लड़कियों को पढ़ाओ और हमारे जैसे मां-बाप अपना सब कुछ दांव पर लगाकर बेटी को पढ़ाते-लिखाते हैं, उसी बच्ची का ऐसा हश्र होता है.”
उनके घर की रोशनी बुझा दी गई. बद्रीनाथ और आशा अपनी बेटी को खोने के बाद के समय का सामना करने के लिए हर दिन संघर्ष कर रहे हैं. उन्हें उन लाखों लोगों से प्रेरणा मिल रही है, जो उनकी बेटी के लिए खड़े हो गए थे. खासकर युवतियां जो उन्हें अपनी बेटी की याद दिलाती हैं. बद्रीनाथ कहते हैं, ''गौरव भी महसूस होता है, हिम्मत भी मिलती है. ...लेकिन जब हम घर लौटते हैं, जब उसके सामने जाते हैं तो सब खत्म हो जाता है.”
आशा का दिल दर्द से दोहरा हो जाता है जब उन्हें सफदरजंग अस्पताल की आइसीयू के बिस्तर पर लेटी अपनी असहाय और टूटी हुई बेटी याद आती है. आशा कहती हैं, ''उसे भूख लगी थी और उसने रोटी मांगी थी. वह बार-बार कहती, मां, चुपके से खिला दो.” पर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कहीं रोटी अटक गई और उसकी जान चली गई तो? आठ दिन बाद सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में 29 दिसंबर को वह चल बसी. उसकी मां दुख से बेहाल है और उनके साथ पूरा भारत भी गमगीन है.