नंदिता भान, 29 वर्ष
रिसर्चर पब्लिक हैल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, दिल्ली
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से सोशल एपीडीमियोलॉजी में अपनी दूसरी मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद दिल्ली की नंदिता भान ने कुछ समय भारत में विश्व बैंक के लिए काम किया. हिमाचल प्रदेश में जैंडर और स्वास्थ्य सेवा के अध्ययन के एक प्रोजेक्ट से उनकी यह धारणा मजबूत हो गई कि स्वास्थ्य के लिए सिर्फ दवा और अस्पताल काफी नहीं हैं. स्वास्थ्य सेवा पर असर डालने वाले विभिन्न सामाजिक आर्थिक कारकों का अध्ययन करने के लिए भान ने 2009 में हार्वर्ड विश्व यूनिवर्सिटी में जन स्वास्थ्य में पीएचडी के लिए आवेदन किया. वे इसी वर्ष भारत लौटी हैं.
स्वास्थ्य सेवा की पहेली बूझाना
नंदिता का मानना है कि स्वास्थ्य सेवा के मामले में भारत में बहुत सारे अनसुलझे प्रश्न हैं और वे इस क्षेत्र में योगदान करना चाहती हैं.
काम का दायरा
नंदिता आजकल स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले सामाजिक कारकों, विशेषकर शहरीकरण का अध्ययन कर रही हैं.
आदर्श
बिनायक सेन जिन्होंने जन स्वास्थ्य सेवा की पारंपरिक धारणा को चुनौती दी.
कुणाल बजाज, 35 वर्ष
इंडिपेंडेंट डायरेक्टर, वन 97 कम्युनिकेशंस,
नोएडा और दिल्ली
कुणाल बजाज जब 5 साल के थे तभी उनका परिवार दिल्ली से न्यू जर्सी चला गया था. टेलीकम्युनिकेशंस विशेषज्ञ कुणाल ने 2 साल मैकेन्जी, अमेरिका में काम किया. फिर डॉटकॉम कारोबार की धूम और मोबाइल फोन आने से बजाज को ऐसे स्थानों पर काम के अवसर तलाश करने की प्रेरणा मिली जहां यह सेक्टर अभी प्रारंभिक अवस्था में है. सितंबर, 2003 में वे भारत दूरसंचार नियमन प्राधिकरण, ट्राइ के अध्यक्ष के सलाहकार हो गए.
अवसर का स्पैक्ट्रम
बजाज का कहना है कि स्पर्धा, स्पैक्ट्रम की लड़ाई और नियमन
की बहस तेज होने के साथ ही भारत में रिसर्च और काम के
अनेक दिलचस्प अवसर हैं.
मार्गदर्शक
उन्होंने भारत में टेक्नोलॉजी की कई कंपनियों की शुरुआत में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई है.
टेलीकॉम में एक दशक
पिछले 10 साल में बजाज ने अपनी टेलीकॉम और मीडिया सलाहकार कंपनी खोली (बीडीए कनेक्ट, जिसे 2010 में एनालिसिस मासन को बेच दिया) और दूरसंचार के बारे में 10 अलग-अलग रिपोर्ट प्रकाशित कीं.
दीपिका जैन, 33 वर्ष
एसोसिएट प्रोफेसर और डीन ऑफ एकेडेमिक अफेयर्स, जिंदल लॉ स्कूल, सोनीपत
दिल्ली में लेडी श्रीराम कॉलेज से राजनीति विज्ञान में स्नातक दीपिका जैन ने 2007 में डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा से हेल्थ लॉ में मास्टर की डिग्री ली. 2009 में हार्वर्ड लॉ स्कूल से दूसरी बार एलएलएम किया. हार्वर्ड में ही पढ़ चुके सी. राजकुमार से मुलाकात के बाद उन्होंने जिंदल लॉ स्कूल, सोनीपत, हरियाणा में आवेदन किया.
मनचाहा भविष्य
वे बताती हैं कि जिंदल लॉ स्कूल में मुझसे वादा किया गया कि एकेडेमिक आजादी मिलेगी और संस्थान में हैल्थ लॉ, एथिक्स और टेक्नोलॉजी सेंटर खोलने का अवसर भी मिलेगा. बस बात बन गई.
क्षितिज का विस्तार
दीपिका जैन अब ट्रांसजेंडर और समलैंगिक अधिकारों में भी दिलचस्पी लेने लगी हैं.
लेखन की धुन
उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में हेल्थ लॉ और एथिक्स के क्षेत्र में 35 अलग-अलग पेपर, पुस्तकें, पॉलिसी रिपोर्ट और अध्याय लिखे हैं.

अमित शर्मा, 40 वर्ष
रिसर्चर, मलेरिया और दूसरे संक्रामक रोग, आइसीजीईबी, दिल्ली
करीब 15 साल विदेश में रहकर अमेरिका की परड्यू यूनिवर्सिटी से एमएस, अमेरिका की ही नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी से पीएचडी और ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पोस्टडॉक्टरेट फेलोशिप करने के बाद अमित शर्मा ने 2001 में भारत लौटने का फैसला किया. यूके में वे ट्रिनिटी कॉलेज में बायोकेमेस्ट्री पढ़ाते थे. देश लौटने पर वे दिल्ली के इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग और बायोटेक्नोलॉजी से जुड़कर मलेरिया और संक्रामक रोगों पर रिसर्च करने लगे. यहां वे मलेरिया के एंजाइमों और प्रोटीनों का विश्लेषण करते हैं ताकि मलेरिया के इलाज के लिए नई दवाइयां विकसित की जा सकें.
सपूत की वापसी
शर्मा कहते हैं, ‘‘विदेश में अध्ययन और रिसर्च का अनुभव बहुत अच्छा है पर भारत में भी मेरे क्षेत्र में रिसर्च की संभावनाएं हैं.’’
प्रोटीन का पंगा
वे अपने रिसर्च में नई दवाइयां बनाने के लिए मलेरिया प्रोटीन के इस्तेमाल पर काम कर रहे हैं. चुनौती? ऐसी दवाइयां विकसित करना, जो ड्रग रेसिस्टेंट संक्रामक बीमारियों से लड़ सकें.
अपनी है बारी
बकौल शर्मा, ‘‘लोग महसूस करते हैं कि रिसर्च विकसित करने को खुद भी योगदान देना होगा.’’

विकास कुमार जेना, 36 वर्ष
रिसर्चर, सीएसआइआर इंस्टीट्यूट ऑफ मिनरल्स ऐंड मैटीरियल्स टेक्नोलॉजी, भुवनेश्वर
ओडिशा के जगतसिंहपुर के विकास कुमार जेना ने आइआइटी-खडग़पुर से इलेक्ट्रोकेमिकल, बायो और ऑप्टिकल सेंसर विकसित करने के विषय पर पीएचडी की. आगे का अध्ययन अमेरिका की वाशिंगटन यूनिवर्सिटी से किया. पर एक घटना ने उनकी जिंदगी बदल दी. उन्हें एक ऐसा आदमी मिला जो आर्सेनिक जहर से प्रभावित था. वह बरुईपुर (कोलकाता) का रहने वाला था, जहां भूमिगत जल में आर्सेनिक पाया जाता है. जेना बताते हैं, ‘‘उसके होंठ काले पड़ चुके थे. उसकी दशा देख मैंने ऐसा सेंसर विकसित करने का फैसला किया जो आर्सेनिक जैसे कणों का पता लगा सके.’’
नैतिक जिम्मेदारी
भारत वापस क्यों? इसके पीछे ‘‘एक नैतिक जिम्मेदारी की भावना थी. हम किसके लिए रिसर्च कर रहे हैं. हमें विदेश में ज्यादा आराम हो सकता है, लेकिन भारत में रिसर्च करना जरूरी है, ताकि हमारे रिसर्च का फायदा आम आदमी को मिल सके.’’
काम को सम्मान
जेना को सीएसआइआर, इंडियन सोसायटी फॉर इलेक्ट्रोएनालिटिकल केमिस्ट्री, इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन और ओडिशा केमिकल सोसाइटी से पुरस्कार मिल चुके हैं.
प्रेरणा के स्रोत
वे सी.वी. रमन और एपीजे अब्दुल कलाम के प्रशंसक हैं. -मालिनी बनर्जी
रिसर्चर पब्लिक हैल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, दिल्ली
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से सोशल एपीडीमियोलॉजी में अपनी दूसरी मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद दिल्ली की नंदिता भान ने कुछ समय भारत में विश्व बैंक के लिए काम किया. हिमाचल प्रदेश में जैंडर और स्वास्थ्य सेवा के अध्ययन के एक प्रोजेक्ट से उनकी यह धारणा मजबूत हो गई कि स्वास्थ्य के लिए सिर्फ दवा और अस्पताल काफी नहीं हैं. स्वास्थ्य सेवा पर असर डालने वाले विभिन्न सामाजिक आर्थिक कारकों का अध्ययन करने के लिए भान ने 2009 में हार्वर्ड विश्व यूनिवर्सिटी में जन स्वास्थ्य में पीएचडी के लिए आवेदन किया. वे इसी वर्ष भारत लौटी हैं.
स्वास्थ्य सेवा की पहेली बूझाना
नंदिता का मानना है कि स्वास्थ्य सेवा के मामले में भारत में बहुत सारे अनसुलझे प्रश्न हैं और वे इस क्षेत्र में योगदान करना चाहती हैं.
काम का दायरा
नंदिता आजकल स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले सामाजिक कारकों, विशेषकर शहरीकरण का अध्ययन कर रही हैं.
आदर्श
बिनायक सेन जिन्होंने जन स्वास्थ्य सेवा की पारंपरिक धारणा को चुनौती दी.
कुणाल बजाज, 35 वर्ष
इंडिपेंडेंट डायरेक्टर, वन 97 कम्युनिकेशंस,
नोएडा और दिल्ली
कुणाल बजाज जब 5 साल के थे तभी उनका परिवार दिल्ली से न्यू जर्सी चला गया था. टेलीकम्युनिकेशंस विशेषज्ञ कुणाल ने 2 साल मैकेन्जी, अमेरिका में काम किया. फिर डॉटकॉम कारोबार की धूम और मोबाइल फोन आने से बजाज को ऐसे स्थानों पर काम के अवसर तलाश करने की प्रेरणा मिली जहां यह सेक्टर अभी प्रारंभिक अवस्था में है. सितंबर, 2003 में वे भारत दूरसंचार नियमन प्राधिकरण, ट्राइ के अध्यक्ष के सलाहकार हो गए.
अवसर का स्पैक्ट्रम
बजाज का कहना है कि स्पर्धा, स्पैक्ट्रम की लड़ाई और नियमन
की बहस तेज होने के साथ ही भारत में रिसर्च और काम के
अनेक दिलचस्प अवसर हैं.
मार्गदर्शक
उन्होंने भारत में टेक्नोलॉजी की कई कंपनियों की शुरुआत में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई है.
टेलीकॉम में एक दशक
पिछले 10 साल में बजाज ने अपनी टेलीकॉम और मीडिया सलाहकार कंपनी खोली (बीडीए कनेक्ट, जिसे 2010 में एनालिसिस मासन को बेच दिया) और दूरसंचार के बारे में 10 अलग-अलग रिपोर्ट प्रकाशित कीं.
दीपिका जैन, 33 वर्ष
एसोसिएट प्रोफेसर और डीन ऑफ एकेडेमिक अफेयर्स, जिंदल लॉ स्कूल, सोनीपत
दिल्ली में लेडी श्रीराम कॉलेज से राजनीति विज्ञान में स्नातक दीपिका जैन ने 2007 में डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा से हेल्थ लॉ में मास्टर की डिग्री ली. 2009 में हार्वर्ड लॉ स्कूल से दूसरी बार एलएलएम किया. हार्वर्ड में ही पढ़ चुके सी. राजकुमार से मुलाकात के बाद उन्होंने जिंदल लॉ स्कूल, सोनीपत, हरियाणा में आवेदन किया.
मनचाहा भविष्य
वे बताती हैं कि जिंदल लॉ स्कूल में मुझसे वादा किया गया कि एकेडेमिक आजादी मिलेगी और संस्थान में हैल्थ लॉ, एथिक्स और टेक्नोलॉजी सेंटर खोलने का अवसर भी मिलेगा. बस बात बन गई.
क्षितिज का विस्तार
दीपिका जैन अब ट्रांसजेंडर और समलैंगिक अधिकारों में भी दिलचस्पी लेने लगी हैं.
लेखन की धुन
उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में हेल्थ लॉ और एथिक्स के क्षेत्र में 35 अलग-अलग पेपर, पुस्तकें, पॉलिसी रिपोर्ट और अध्याय लिखे हैं.

अमित शर्मा, 40 वर्ष
रिसर्चर, मलेरिया और दूसरे संक्रामक रोग, आइसीजीईबी, दिल्ली
करीब 15 साल विदेश में रहकर अमेरिका की परड्यू यूनिवर्सिटी से एमएस, अमेरिका की ही नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी से पीएचडी और ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पोस्टडॉक्टरेट फेलोशिप करने के बाद अमित शर्मा ने 2001 में भारत लौटने का फैसला किया. यूके में वे ट्रिनिटी कॉलेज में बायोकेमेस्ट्री पढ़ाते थे. देश लौटने पर वे दिल्ली के इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग और बायोटेक्नोलॉजी से जुड़कर मलेरिया और संक्रामक रोगों पर रिसर्च करने लगे. यहां वे मलेरिया के एंजाइमों और प्रोटीनों का विश्लेषण करते हैं ताकि मलेरिया के इलाज के लिए नई दवाइयां विकसित की जा सकें.
सपूत की वापसी
शर्मा कहते हैं, ‘‘विदेश में अध्ययन और रिसर्च का अनुभव बहुत अच्छा है पर भारत में भी मेरे क्षेत्र में रिसर्च की संभावनाएं हैं.’’
प्रोटीन का पंगा
वे अपने रिसर्च में नई दवाइयां बनाने के लिए मलेरिया प्रोटीन के इस्तेमाल पर काम कर रहे हैं. चुनौती? ऐसी दवाइयां विकसित करना, जो ड्रग रेसिस्टेंट संक्रामक बीमारियों से लड़ सकें.
अपनी है बारी
बकौल शर्मा, ‘‘लोग महसूस करते हैं कि रिसर्च विकसित करने को खुद भी योगदान देना होगा.’’

विकास कुमार जेना, 36 वर्ष
रिसर्चर, सीएसआइआर इंस्टीट्यूट ऑफ मिनरल्स ऐंड मैटीरियल्स टेक्नोलॉजी, भुवनेश्वर
ओडिशा के जगतसिंहपुर के विकास कुमार जेना ने आइआइटी-खडग़पुर से इलेक्ट्रोकेमिकल, बायो और ऑप्टिकल सेंसर विकसित करने के विषय पर पीएचडी की. आगे का अध्ययन अमेरिका की वाशिंगटन यूनिवर्सिटी से किया. पर एक घटना ने उनकी जिंदगी बदल दी. उन्हें एक ऐसा आदमी मिला जो आर्सेनिक जहर से प्रभावित था. वह बरुईपुर (कोलकाता) का रहने वाला था, जहां भूमिगत जल में आर्सेनिक पाया जाता है. जेना बताते हैं, ‘‘उसके होंठ काले पड़ चुके थे. उसकी दशा देख मैंने ऐसा सेंसर विकसित करने का फैसला किया जो आर्सेनिक जैसे कणों का पता लगा सके.’’
नैतिक जिम्मेदारी
भारत वापस क्यों? इसके पीछे ‘‘एक नैतिक जिम्मेदारी की भावना थी. हम किसके लिए रिसर्च कर रहे हैं. हमें विदेश में ज्यादा आराम हो सकता है, लेकिन भारत में रिसर्च करना जरूरी है, ताकि हमारे रिसर्च का फायदा आम आदमी को मिल सके.’’
काम को सम्मान
जेना को सीएसआइआर, इंडियन सोसायटी फॉर इलेक्ट्रोएनालिटिकल केमिस्ट्री, इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन और ओडिशा केमिकल सोसाइटी से पुरस्कार मिल चुके हैं.
प्रेरणा के स्रोत
वे सी.वी. रमन और एपीजे अब्दुल कलाम के प्रशंसक हैं. -मालिनी बनर्जी