नासिक-त्र्यंबकेश्वर सिंहस्थ कुंभ 2015 धीरे-धीरे रंगत में आ रहा है. सुबह के यही कोई नौ बजे हैं. नासिक में पंचवटी के रामघाट पर देश भर से आए हजारों श्रद्धालु और साधु डुबकियां लगा रहे हैं. बंगाल के दक्षिण चौबीस परगना से आए शक्तिदास अपने गांव के ही एक युगल की मोबाइल से फोटो खींच रहे हैं. हरिद्वार से आए युवा साधु गोपाल दास चाय के पैसे के लिए नया चेला तलाश रहे हैं. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी से आईं पीतवस्त्रधारी अधेड़ पुजारिन चंद्रकला अपने साथ वालों को खोज रही हैं. आसपास और कोई जगह न होने से, नहाकर निकलीं महिलाएं घाट पर ही छोटे-से हनुमान मंदिर में कपड़े बदलने लगती हैं. वहां तैनात रक्षक चिल्लाता हैः ''यह भगवान का घर है या तुम्हारा चेंजिंग रूम?'' यहां से आगे दूर के घाटों की गेरुई-गुलाबी सीढिय़ों पर दर्जनों साधु छितराए हैं: ध्यान करते, धोती-लंगोट सुखाते, चिलम पीते, मोबाइल पर मैसेज देखते, गपियाते. हवा में मंदिरों की घंटाध्वनि और श्रद्धालुओं के लिए मराठी में सूचनाएं गूंज रही हैं. उधर, तीसेक किमी पश्चिम में त्र्यंबकेश्वर के जव्हार मार्ग पर निरंजनी और आनंद अखाड़े की शाही सवारी निकल रही हैः पताकाओं, बैंडबाजों, तुकाराम के अभंग गाते बच्चों के पीछे ट्रैक्टरों पर बने रथों पर सवार करीब दर्जन भर बड़े महात्मा और साध्वियां, चंवर डुलाते भक्त, भभूत लपेटे और कुछ तो शिश्न में धातु के छल्ले डाले नागा. पास ही द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक त्र्यंबकेश्वर मंदिर की बगल हवन के साथ रुद्राष्टाध्यायी का पाठ जारी है.
दोनों नगरों में बौराई बदरियां जब-तब बरस जा रही हैं. ऐसे में गहरी हरियाली से लदे सह्यद्रि शृंखला के पहाड़ों पर दूर ऊंचाई पर भगवा छतरियां लेकर चढ़ते साधु किसी चित्रकार के लिए दिलकश मंजर खींचते हैं. सड़क के दोनों ओर जयगुरुदेव की संस्था के बीसियों बड़े-बड़े बोर्ड सिंहस्थ में आए भक्तों से मांस और शराब का सेवन न करने का संकल्प लेने की अपील कर रहे हैं.
बीच-बीच में बादलों के खुलने से वातावरण में उमस बढ़ जा रही है. लेकिन कुंभ के इस मेले में आकर जमे साधुओं के 13 अखाड़ों की जमातों के तापमान को इससे कहीं ज्यादा बिगाड़ रखा है एक 50 वर्षीया साध्वी ने. नाम हैः त्रिकाल भवंता. साधु-संतों की सदियों पुरानी अखाड़ों की परंपरा के तहत कुल 13 अखाड़े हैं, जिन्हें कुंभ के दौरान शाही स्नान की तिथियों पर सबसे पहले स्नान का मौका दिया जाता है. इसके अलावा इन्हें ठहरने के लिए भी लंबी-चौड़ी जमीन दी जाती है. इतिहास में यह पहला कुंभ है, जिसमें त्रिकाल भवंता ने परी नाम से विशुद्ध रूप से स्त्रियों के एक अखाड़े के लिए दूसरे अखाड़ों जैसा मान-सम्मान और सुविधाओं की मांग उठा दी. 14 जुलाई को नासिक में धर्म ध्वजारोहण के साथ आरंभ होने के मौके पर आयोजित एक समारोह में इस बात पर अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के पूर्व महंत ज्ञानदास से उनकी कहा-सुनी हो गई. ज्ञानदास पर उन्होंने बदसलूकी का आरोप मढ़ दिया. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस की मौजूदगी में हुए इस वाकए ने दुनिया के इस सबसे बड़े धर्मपर्व के माहौल को शुरू में ही कसैला कर दिया. नासिक में तपोवन स्थित अपने शिविर के छोटे-से कमरे में पालथी मारकर बैठीं साध्वी भवंता कहती हैं, ''जब भी कोई सही काम होता है तो हलचल होती ही है. हम साधु हैं, कहीं भी साधना कर सकते हैं. मन मोर चंगा, कठौती मा गंगा.'' उन्होंने प्रशासन से 10 एकड़ जमीन मांगी थी पर 6,500 वर्ग फुट ही मिली है. वे स्पष्ट करती हैं, ''हम किसी भी कीमत पर मैदान छोड़कर भागने वाले नहीं हैं. शाही स्नान के लिए हमें घाट और समय मिले वरना लड़ाई जारी रहेगी. सड़क पर उतरेंगे, धरना-प्रदर्शन सब करेंगे.''
असल में यह कोई अचानक घटी घटना नहीं थी. इलाहाबाद में नैनी के पास अरैल में आश्रम चलाने वाली साध्वी भवंता एक बड़े मकसद के लिए कुंभ के रूप में इस सबसे बड़े धार्मिक मंच का इंतजार कर रही थीं. 2013 में गायत्री त्रिवेणी पीठ बनाकर वे उसकी पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य बन गईं. 2014 में उन्होंने श्री सर्वेश्वर महादेव बैकुंठधाम मुक्तिद्वार (परी) अखाड़े का पंजीकरण भी करा लिया. उनका तर्क था कि सभी अखाड़े पुरुष प्रधान हैं इसलिए महिला संन्यासियों के सम्मान और उनकी सुरक्षा के लिए यह अखाड़ा बनाया गया है. गुरु दत्तात्रेय को उन्होंने इसका आराध्य और मां गायत्री को ईष्ट देवी बनाया. जैसी कि संभावना थी, सभी 13 अखाड़ों की प्रतिनिधि समन्वयक संस्था अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने उनके अखाड़े को मान्यता, शाही स्नान के लिए अलग घाट और समय, सभी से साफ इनकार कर दिया. कुछ माह पूर्व ही परिषद के अध्यक्ष चुने गए महंत नरेंद्र गिरि कहते हैं, ''अखाड़ा बनाना कोई हंसी-खेल नहीं है, अखाड़े सनातन धर्म की रीढ़ हैं. सैकड़ों वर्ष पूर्व आदिगुरु शंकराचार्य ने इन्हें स्थापित किया और उसी परंपरा से इनकी संख्या 13 ही है. 14वां अखाड़ा न तो बना है और न ही बन सकता है.'' वे इसे साध्वी त्रिकाल भवंता की सुर्खियों में बने रहने की लालसा से ज्यादा कुछ नहीं समझते. अखाड़ा परिषद के पूर्व अध्यक्ष महंत ज्ञानदास भी कहते हैं, ''महिला अखाड़ा परंपरा के विरुद्ध है इसलिए इसे मान्यता नहीं दी जा सकती.''
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रहे निर्मल अखाड़े के महंत बलवंत सिंह एक व्यावहारिक पहलू का हवाला देते हैंरू ''कुंभ का महत्व स्नान के लिए है और स्नान के समय को लेकर ही साधुओं में संघर्ष होता आया है. जब 13 अखाड़ों के संन्यासियों के स्नान के लिए ही समय कम पड़ता है तो चौदहवें अखाड़े के लिए समय कहां मिलेगा. समय की कमी के कारण ही स्नान के लिए अग्नि और आह्वान अखाड़ों को जूना अखाड़े के साथ, अटल अखाड़े को महानिर्वाणी के साथ और आनंद अखाड़े को निरंजनी अखाड़े के साथ जाना पड़ता है. समय होता तो पहले ये ही पृथक स्नान का समय चाहते. ऐसे में महिला अखाड़े को अलग समय कैसे दिया जा सकता है?''
मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) जिले में चुनार के पास कठिनई गांव में जन्मी अनिता शर्मा यानी त्रिकाल भवंता घोर पुरुष वर्चस्व वाले अखाड़ों के चौतरफा 'हमलों' से बिल्कुल विचलित नहीं है. उनके एक्टविस्ट व्यक्तित्व की बनावट ही कुछ ऐसी है. वे धर्मक्षेत्र की 'सताई' महिलाओं की भी आवाज हैं. इस मुकाम तक पहुंचने का उनका किस्सा सब कुछ बयान कर देता है. स्कूल और फिर मिर्जापुर के मौनी स्वामी कॉलेज से बीए करते वक्त ऊंचे घरों के लड़कों को भी वे, लड़कियां तंग करने पर पीट डालती थीं. बाद में उन्हीं के घर के सामने से बेखौफ होकर गुजरतीं. उनके किसान पिता को गामा पहलवान कहा जाता था. वे बचपन से ही धार्मिक स्वभाव की थीं. पिता के गुरु के आने पर वे उन्हें पंखा झलने का काम लेतीं, जिससे देर तक उनकी संगत मिले. धीरे-धीरे इलाहाबाद आना शुरू हुआ और 1985 से वे वहीं आ गईं. 2001 के बाद वे फिर घर नहीं लौटीं. वैष्णव संप्रदाय के दिगंबर अखाड़े के महंत राम गोविंद दास को उन्होंने अपना गुरु बनाया.
पर आखिर स्त्रियों के लिए अलग अखाड़े की जिद के पीछे का क्या राज था? उन्हीं के शब्दों में, ''इलाहाबाद में अखाड़ों और धर्मस्थलों में स्त्रियों के साथ लगातार ज्यादतियां देख रही थी. सेवा के लिए आने वाली महिलाओं का शारीरिक, मानसिक शोषण होता. एक अखाड़े में 40 साल सेवा करने वाली स्त्री को भगा दिया गया. कमजोर शरीर...मेरे पास आई. विडंबना ही है कि ऐसी महिलाओं के घर लौटने पर समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता. कुंभ वगैरह में भी महिला भक्तों की परेशानियों का ध्यान नहीं रखा जाता. 2007 के प्रयाग अर्धकुंभ में यह दशा देखकर मुझे प्रेरणा जगी कि स्त्रियों के लिए अलग अखाड़ा हो तो कम व्यवस्था में भी काम चल सकता है.''
अखाड़ों का उनसे परेशान होना लाजिमी है. वे मंजी हुई एक्टविस्ट रही हैं. इस भूमिका में 2002-03 तक उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय विकास परिषद नाम के एनजीओ के तहत इलाहाबाद और आसपास के दसेक जिलों में निचले तबके की और मुस्लिम कामकाजी महिलाओं को एकजुट किया, उनके एनजीओ बनवाए और उन्हें अधिकारों के लिए लडऩा सिखाया. इससे समाज के एक तबके में उनकी लोकप्रियता बढ़ी. उनका एक सियासी पहलू भी रहा है. 2001 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इलाहाबाद शहर दक्षिणी सीट से खांटी बीजेपी नेता और अब पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के खिलाफ चुनाव लड़ा. इसके लिए खुद की पार्टी बनाई, मातृभूमि विकास पार्टी. उन्हें 4,500 वोट मिले थे. 2003 के बाद वे पूरी तरह से धर्मक्षेत्र में आ गईं, वही तेवर लिए हुए. बोलने का ठेट गंवई अंदाज और खांटी शब्दावली लिए हुए.
सवाल है, अगर अखाड़ों में संन्यासिनों, साध्वियों आदि के खिलाफ इतनी ही ज्यादती हो रही थी तो आखिर अंदर से ही इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठी? या फिर महिलाओं के लिए अलग अखाड़ा बनाने पर त्रिकाल भवंता का इतना विरोध क्यों हुआ? उन्हीं के शब्दों में, ''विरोध तो गद्दी पर बैठे धुरंधर कर रहे हैं. मैंने कई अखाड़ों के बहुत-से संतों से सलाह करके यह कदम उठाया था और उन्होंने मेरा समर्थन किया था. हालांकि विरोध तेज होने पर उनमें से भी कई पीछे हट गए.'' कुंभ क्षेत्र में उन्हें महत्व दिए जाने को प्रशासन की एक युक्ति भी बताया जा रहा है. इस तरह से वह उग्र तेवर वाले ज्ञानदास को 'संतुलित' करना चाहता है.
असल में त्रिकाल भवंता के पास अभी उतने साधन नहीं हैं और न ही साथ में कोई बड़ा नाम है. अलग अखाड़े को मान्यता मिल जाने से उन्हें महामंडलेश्वर वगैरह बनाने का अधिकार हासिल हो जाएगा. और जानकारों की मानें तो आजकल एक महामंडलेश्वर बनाने के अमूमन 50 लाख रु. तक लिए जाते हैं. पैसे लेकर यह पद देने की बात खुलकर तो कोई नहीं मानता लेकिन परदे के पीछे अखाड़ों के ही लोग इसे 'जरूरत' और 'व्यवहारिकता' से जोड़ते हैं. हर कुंभ में 20-30 महामंडलेश्वर बन जाते हैं. 2013 के प्रयाग कुंभ में यही कोई 50 महामंडलेश्वर बने थे. अकेले जूना अखाड़े के पास ही बताते हैं, 300 से ज्यादा महामंडलेश्वर हैं. पुरुष और महिला संन्यासियों की संख्या के लिहाज से यह सबसे बड़ा अखाड़ा है. सभी अखाड़ों में मिलाकर 20-25 महिला महामंडलेश्वर हैं, जिनमें कई तो नाम की बताई जाती हैं.
इसी मोड़ पर त्रिकाल भवंता का सामना होता है एक उभरती तेजतर्रार, उच्च शिक्षित साध्वी से. नामः शिवानी दुर्गा, उम्र 39 वर्ष. धर्मक्षेत्र के और दूसरे लोग इन दोनों की भिड़ंत बल्कि कहें कि सांस्कृतिक टकराव को जिज्ञासा के साथ देख रहे हैं. इस साल जनवरी में इलाहाबाद गईं शिवानी को त्रिकाल भवंता ने नासिक में महामंडलेश्वर, यहां तक कि शंकराचार्य तक बनाने का भरोसा दे दिया था, यह कहते हुए कि जरूरत पड़ी तो देश में महिलाओं की चार पीठ स्थापित करेंगे. कुंभ के दौरान नासिक आने से पूर्व भवंता मुंबई में शिवानी के यहां रुकीं, बातें हुईं. इसी बीच कहीं किसी बात पर दोनों में कुछ खटक गया और शिवानी छिटककर दूर जा खड़ी हुईं. मेले में अंततः आनंद अखाड़े के श्री महंत सागरानंद सरस्वती से 31 जुलाई को उन्होंने दीक्षा संन्यास लिया और धर्माचार्य की पदवी पाई. 16 अगस्त को निरंजनी/जूना अखाड़ों की निकली शाही सवारी में उन्हें भी स्थान मिला.
त्र्यंबकेश्वर के साधुग्राम में अपने शिविर में एक घंटे के प्रवचन के बाद यह पूछे जाने पर कि आप त्रिकाल भवंता से अलग क्यों हुईं? वे बेलाग कहती हैं, ''उनका मुख्य उद्देश्य है पैसा कमाना. ईश्वर के बारे में कभी बात ही नहीं की. उनकी पूरी सोच ही एनजीओ ओरिएंटेड है. अखाड़े अध्यात्म से जुड़े हैं. वे धर्म की रक्षा के लिए हैं, पीड़ितों को शरण देने के लिए नहीं. उन्हें तो एनजीओ चलाना चाहिए था.'' शिवानी अपनी गतिविधियों से भी हर तबके का ध्यान खींच रही हैं. उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय से तंत्र-मंत्र विज्ञान (अकल्ट साइंस) में और नागपुर के संस्कृत विश्वविद्यालय से दसमहाविद्या तथा कर्मकांड में शोध कर रखा है. वे अंग्रेजी, हिंदुस्तानी, संस्कृत, पंजाबी और मराठी भाषाएं धाराप्रवाह बोल लेती हैं. इतना ही नहीं, वे संगीत विशारद हैं. मुंबई में गाती भी रही हैं. गालिब उनके पसंदीदा शायर हैं और गीता के बाद मनोचिकित्सक ब्रायन एल. वेस की क्लासिक मेनी लाइव्ज मेनी मास्टर्स उनकी पसंदीदा किताब रही है. उनका ख्याल है कि अध्यात्म की शिक्षा नर्सरी कक्षा से ही दी जानी चाहिए. इस विचार को लेकर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी करने वाली हैं.
ऐसे व्यापक व्यक्तित्व की स्वामिनी एक धर्माचार्य आखिर महिलाओं के लिए अलग अखाड़े का विरोध कैसे कर सकती है? खासकर जब वे खुद पति से करीब दो दशक तक पीड़ित रहने का दावा करती हों? वे अपना पक्ष रखती हैं, ''स्त्री कोमल होती है, उसकी एक मर्यादा है. पुरुष सख्त दिमाग होते हैं और धर्मयुद्ध में यह जरूरी भी है.'' पर इस आधुनिक समय में कौन-सा धर्मयुद्ध है, जिसमें पुरुष ही लड़ें? ''देखिए, स्त्री को शंकराचार्य पद पर बैठाना बड़ी बात नहीं लेकिन उसे बचाकर रखा गया. और आज जो परिस्थितयां बन रही हैं, उसमें स्त्री शंकराचार्य बनेगी. लेकिन अलग अखाड़ा बनाने का कोई उद्देश्य तो हो?'' त्रिकाल भवंता के मुद्दों को वे धर्म का नहीं, एनजीओ का काम मानती हैं.
संतों-सन्यासियों के वैसे कुल 13 अखाड़े हैं. 7 शैवः जूना, निरंजनी, महानिर्वाणी, अटल, आह्वान, आनंद और अग्नि. 3 वैष्णवः दिगंबर, निर्वाणी और निर्मोही तथा 3 उदासीन अखाड़ेः बड़ा उदासीन, नया उदासीन और निर्मल. अखाड़े अपना रुतबा बढ़ाने के लिए बड़े संतों को साथ जुडऩे और पद देने की पेशकश करते रहते हैं. लेकिन कई संत अखाड़ों से कोई संबंध नहीं रखते और अपनी विद्वता के कारण वे परमहंस की स्थिति में पहुंच जाते हैं. मगर अखाड़ों में महामंडलेश्वर पद को लेकर अक्सर विवाद खड़े होते रहे हैं. हाल ही नोएडा के बियर बार मालिक सचिन दत्ता को निरंजनी अखाड़े की ओर से महामंडलेश्वर बनाने और भारी विरोध होने पर उसे हटाए जाने को खासी सुर्खियां मिलीं. त्रिकाल भवंता को ''दो श्लोक तक नहीं आता'' कहने वाले नरेंद्र गिरि ने दत्ता के बारे में कहा था कि वे सब छोड़कर धर्म की शरण में आए थे. प्रयाग में निरंजनी अखाड़े की महामंडलेश्वर मां आनंदमयी भी विवादास्पद रही थीं, क्योंकि उनके शिविर के प्रायोजक के रूप में एक दवा कंपनी और उसके उत्पाद के रूप में कामोत्तेजक दवा का विज्ञापन किया गया था.
पिछले 12-13 साल से अन्न न ग्रहण करके फल-जलाहार पर जीवन जीने वाली त्रिकाल भवंता यहीं सवाल उठाती हैं: ''है कोई इनसे पूछने वाला? होटलों में छापे पड़ रहे हैं, आश्रमों में क्यों नहीं?'' यहां शिवानी भी अपना पक्ष जोड़ती हैं: ''सोने में कलि का वास और फिर सोने की लंबी माला!'' पर क्या महिलाओं के लिए अलग अखाड़ा बनाए बगैर उनके कल्याण के लिए काम नहीं किया जा सकता? भवंता आखिरी कील जड़ती हैं, ''सारा काम करें महिलाएं. जहां नारी हो वहां स्वर्ग का सब ओर नारा. लेकिन उन्हें बराबरी का दर्जा देने की बात आते ही धर्माधिकारियों को सांप क्यों सूंघ जाता है?''
नासिक कुंभ में पहला शाही स्नान 29 अगस्त को है. उससे पहले ग्रंथ हल्के और ग्रंथियां भारी पड़ती दिख रही हैं.
(—साथ में महेश शर्मा)
सिंहस्थ: स्त्री अखाड़े का शंखनाद
एक स्वयंभू महिला शंकराचार्य त्रिकाल भवंता ने परंपरा तोड़कर सिंहस्थ कुंभ में अपने अलग अखाड़े की गाड़ी ध्वजा, निकाली सवारी. सभी अखाड़ों का उनके खिलाफ हल्लाबोल, लेकिन वे भी अड़ीं

अपडेटेड 24 अगस्त , 2015
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