यह एक नए बीज का अंकुरण था. जैसे कोई विचार अपनी खोल को तोड़कर बाहर निकलना और आकार लेना चाह रहा हो. पहली बार भारत की प्रिंट पत्रकारिता में हमने परंपरा को तोडऩे की कोशिश की ताकि अपने पाठकों को समूचे संस्करण का नियंता बनाया जा सके. तमाम रिपोर्टरों और संपादकों को पाठकों के विचारों, अभिव्यक्ति और राय की काटछांट के काम में लगा दिया गया. भारत की आजादी की 67वीं सालगिरह पर इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता था कि सोशल मीडिया के माध्यम से पत्रकारिता को जनतांत्रिक बना दिया जाए.
पाठकों के माध्यम से इस अंक को निकालने के पीछे उद्देश्य यह था कि इस अंक में सोशल मीडिया के स्वभाव, आजादी और मौज की झलक मिले. इसके साथ-साथ यह फेसबुक पर मौजूद इंडिया टुडे समूह के चाहने वालों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने का एक माध्यम भी हो सकता था. फेसबुक पर 40 फीसदी लोग 18 से 24 वर्ष के युवा हैं और 39 फीसदी लोग 25 से 34 वर्ष आयु वर्ग के बीच के हैं.
हालांकि इस विचार की अपनी चुनौतियां भी थीं क्योंकि सोशल मीडिया पर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा इतनी कच्ची होती है कि उसमें व्याकरण का ख्याल नहीं रखा जाता. वहां हिंग्लिश प्रेम भी काफी प्रबल है. इससे ज्यादा बड़ी बात हालांकि यह थी कि फेसबुक फॉलोवर्स के बीच विभिन्न विचार और नजरिए हैं, जहां निराशावादियों से लेकर दुर्दांत आशावादियों और पलायनवादियों का भारी जमावड़ा एक साथ होता है. ये सभी विचारवान लोग हैं, जिनकी सोच की अनदेखी अमूमन नहीं की जा सकती.
आप चाहें या न चाहें, लेकिन सोशल मीडिया आज मुख्यधारा के मीडिया के लिए कच्चे माल का स्रोत बनता जा रहा है. आज रिपोर्टर ट्विटर, फेसबुक और यू-ट्यूब पर आंख गड़ाए रहते हैं, जहां से वे महत्वपूर्ण लोगों और जनता की प्रतिक्रियाओं को अपनी रिपोर्टों में जगह देते हैं.
सोशल मीडिया सूचना तंत्र का अनिवार्य अंग बन चुका है. शोभा डे ट्विटर पर एक टिप्पणी करती हैं और पूरा महाराष्ट्र प्रतिक्रिया देता है. नरेंद्र मोदी इसे समानता का माध्यम करार देते हैं और अपने संदेश प्रसारित करने के लिए बिजनेस स्कूल के ग्रेजुएट्स को रखते हैं. डिजिटल क्षेत्र का दोहन करने के लिए राहुल गांधी खिड़की जैसी वेबसाइट शुरू करते हैं.
हो सकता है कि आज ऐसी सूची में सिर्फ प्रधानमंत्री या उस पद के उम्मीदवार, मुख्यमंत्री और सांसद आते हों, लेकिन सोशल मीडिया लोकतंत्र का एक तकनीकी पूरक बनकर उभर सकता है. चूंकि ज्यादा लिखे और देखे जाने का अर्थ है ज्यादा समृद्ध और लोकतांत्रिक संवाद. कुछ साल बाद की स्थिति की कल्पना करिए, जब लोग ऐसी ही निकटता और पारदर्शिता की मांग अपने स्थानीय जनप्रतिनिधियों से करने लगेंगे और उनके सामने ऑनलाइन मुश्किल सवालों की झड़ी लगाने लगेंगे.
आज यह देखना महत्वपूर्ण है कि कैसे एक आम आदमी राजनीतिक रूप से अभिजात्य तबके के साथ संवाद स्थापित कर रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के ट्विर टाउनहॉल ने नेता-जनता के रिश्ते में नई आकांक्षाओं को जन्म दिया है. सोशल मीडिया साझेदारी के लोकतंत्र की सच्ची भावना को अभिव्यक्त करता है, जहां एक साथ करोड़ों लोग आपस में संवाद और विचारों का आदान-प्रदान कर रहे होते हैं. चाहे नेता हों, कलाकार या फिर कारोबारी जगत के लोग, सभी को इसके जरिए ज्यादा दर्शकों/श्रोताओं तक पहुंच मिल रही है और बिना ज्यादा निवेश किए वे इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी तक पहुंच पा रहे हैं. नतीजतन, दूरदर्शी नेता और सेलिब्रिटी अपने अलग-अलग मकसद के लिए इस चलन को भुनाने की कोशिशों में जुट गए हैं.
भारत में ब्लॉग की दुनिया का उदाहरण लें. लालकृष्ण आडवाणी अपने राजनीतिक विचारों के प्रसार के लिए ब्लॉग चलाते हैं. अमिताभ बच्चन की ट्विटर पर फॉलोइंग 58,44,037 है और उनके फेसबुक पेज के लाइक की संख्या 48,63,475 है. उन्होंने नए लोगों के साथ संवाद के लिए सोशल मीडिया का पुल की तरह इस्तेमाल किया है. आनंद महिंद्रा ने अपनी विश्वसनीयता को ऑनलाइन मौजूदगी से और पुख्ता किया है. मीडिया, राजनीति या बिजनेस को छोड़ दें तो आम नागरिक, उपभोक्ता और विभिन्न मुद्दों के पैरोकार समूह भी खुद को इस माध्यम से संगठित कर रहे हैं. इन नेटवर्कों का लाभ उठाकर अपना एजेंडा तय कर रहे हैं और नागरिक मसलों पर बहसें चला रहे हैं.
भारत के नागरिक समाज में अन्ना हजारे के उभार के बाद से आम आदमी पार्टी सोशल मीडिया से बने अपने समर्थन को जबरदस्त तरीके से भुना रही है. एक नए राजनीतिक आंदोलन को इस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से ताकत दी है. नेताओं और कारोबारियों द्वारा किए जाने वाले दावों का परीक्षण करने के लिए भी लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने लगे हैं. सूचना के अधिकार के तहत इससे लोगों का सशक्तीकरण हुआ है.
इस सामाजिक संवाद का जो स्तर और आकार दिख रहा है, उसके साथ जुडऩा वास्तव में कारगर है. पिछले साल से इस देश में फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की संख्या में 50 फीसदी का इजाफा हुआ है और 31 मार्च, 2013 तक यह आंकड़ा 7.8 करोड़ पर आ गया है. यह आंकड़ा अमेरिकी सिक्योरिटीज ऐंड एक्सचेंज कमीशन का है. मार्केट रिसर्च फर्म आइएमआरबी इंटरनेशनल और इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत में फिलहाल 2 करोड़ ट्विटर यूजर हैं. यह एक बड़ा बदलाव है.
भारत में इससे पहले यह बदलाव तब दिखा था, जब टेलीविजन ने गांवों के भीतर चुपचाप अपनी जगह बनाई थी. इसने देश के आखिरी आदमी को भले ही 12 रु. में खाना न दिया हो, लेकन उनमें अभिनेताओं की तरह कपड़े पहनने और मैगी और पास्ता खाने की आकांक्षा जरूर पैदा कर दी है. सोशल मीडिया एक नई चीज है. इसके असर का पूरी तरह से अंदाजा लगाया जाना अभी बाकी है. इंटरनेट के आने के बाद से प्रसारण को नया अर्थ मिला है. पहले जो संदेश 'एक से कई’ तक जाता था, वह अब 'कई से कई’ और 'कई से एक’ की हो गई है. यही तो है अभिव्यक्ति का सच्चा लोकतंत्र.
उसके बाद मोबाइल आया. सेल फोन की उम्र बढ़ी तो वह स्मार्टफोन बन गया, जिनमें सोशल मीडिया के प्लेटफार्म बनकर आने लगे. इसने निरक्षरों की उंगलियों तक को सक्रिय और जागरूक बना दिया. जो पढ़ नहीं सकता था, वह देख और सुनकर यह जानने लगा कि दुनिया में कहां, क्या चल रहा है.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब हमने लोगों से पूछा कि ऐसा कौन-सा गैजट है, जिसके बिना वे नहीं रह सकते तो 80 फीसदी से ज्यादा लोगों ने स्मार्टफोन को चुना. दिलचस्प है कि इस अंक के लिए प्राप्त 70 फीसदी से ज्यादा वोट हैंड हेल्ड डिवाइस यानी मोबाइल फोन और टैबलेट से भेजे गए थे. स्मार्टफोन ने कंटेंट की पूरी दुनिया को ही सिर के बल ला दिया है.
सोशल मीडिया ने संचार के नियमों को भी सकारात्मक दिशा में बदला है. हाल ही में टेलीग्राम ने इस देश में अपनी आखिरी सांस ली है. हालांकि वह आधुनिक ट्वीट का ही एक आदिम संस्करण था, जो पैसे बचाने के लिए न्यूनतम शब्दों में किया जाता था. आज संचार के संक्षिप्त स्वरूप को मिलने वाली सामाजिक और अकादमिक स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि अब छात्रों से भाषा के परचे में एसएमएस की तरह एक संदेश तक लिखने को कहा जा रहा है.
तो क्या सोशल मीडिया ही विकल्प है? कई भारतीय आज समाचारों के लिए भी इसी माध्यम का प्रयोग करते हैं. सोशल मीडिया अंक के लिए इंडिया टुडे समूह द्वारा डिजिटल दुनिया पर किए गए सर्वेक्षण का नतीजा यह है कि आज सिर्फ 5 फीसदी लोगों के लिए वेबसाइट और 25 फीसदी लोगों के लिए टीवी खबरें देखने का प्राथमिक स्रोत है. सर्वे में 66 फीसदी लोगों ने समाचारों के लिए फेसबुक को चुना, जबकि 4 फीसदी इसके लिए ट्विटर का सहारा लेते हैं. अब आप इसकी उपेक्षा कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे होंगे.
आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां विकीलिक्स इंटेलीजेंस एजेंसियों को चुनौती दे रहा है, जबकि फेसबुक के यूजर्स आबादी के मामले में सिर्फ दो देशों से पीछे है. यह ऐसी दुनिया है, जहां ट्यूनीशिया का एक फल विक्रेता मोहम्मद बोजीजी अकेले दम पर जनता में आक्रोश फैला सकता है और अरब की क्रांति को जन्म दे सकता है.
इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया सत्ताओं को गिराने की कुव्वत रखता है, लेकिन क्या यह नई और ज्यादा जनतांत्रिक सत्ताओं को निर्मित भी कर सकता है? इस पर अंतिम बात कहने का समय अभी नहीं आया है. लेकिन जिस तरह इसका प्रभाव बढ़ा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि कि कोई भी टिप्पणी करने से पहले सतर्कता बरतना बहुत जरूरी है.
पाठकों के माध्यम से इस अंक को निकालने के पीछे उद्देश्य यह था कि इस अंक में सोशल मीडिया के स्वभाव, आजादी और मौज की झलक मिले. इसके साथ-साथ यह फेसबुक पर मौजूद इंडिया टुडे समूह के चाहने वालों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने का एक माध्यम भी हो सकता था. फेसबुक पर 40 फीसदी लोग 18 से 24 वर्ष के युवा हैं और 39 फीसदी लोग 25 से 34 वर्ष आयु वर्ग के बीच के हैं.
हालांकि इस विचार की अपनी चुनौतियां भी थीं क्योंकि सोशल मीडिया पर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा इतनी कच्ची होती है कि उसमें व्याकरण का ख्याल नहीं रखा जाता. वहां हिंग्लिश प्रेम भी काफी प्रबल है. इससे ज्यादा बड़ी बात हालांकि यह थी कि फेसबुक फॉलोवर्स के बीच विभिन्न विचार और नजरिए हैं, जहां निराशावादियों से लेकर दुर्दांत आशावादियों और पलायनवादियों का भारी जमावड़ा एक साथ होता है. ये सभी विचारवान लोग हैं, जिनकी सोच की अनदेखी अमूमन नहीं की जा सकती.
आप चाहें या न चाहें, लेकिन सोशल मीडिया आज मुख्यधारा के मीडिया के लिए कच्चे माल का स्रोत बनता जा रहा है. आज रिपोर्टर ट्विटर, फेसबुक और यू-ट्यूब पर आंख गड़ाए रहते हैं, जहां से वे महत्वपूर्ण लोगों और जनता की प्रतिक्रियाओं को अपनी रिपोर्टों में जगह देते हैं.
सोशल मीडिया सूचना तंत्र का अनिवार्य अंग बन चुका है. शोभा डे ट्विटर पर एक टिप्पणी करती हैं और पूरा महाराष्ट्र प्रतिक्रिया देता है. नरेंद्र मोदी इसे समानता का माध्यम करार देते हैं और अपने संदेश प्रसारित करने के लिए बिजनेस स्कूल के ग्रेजुएट्स को रखते हैं. डिजिटल क्षेत्र का दोहन करने के लिए राहुल गांधी खिड़की जैसी वेबसाइट शुरू करते हैं.
हो सकता है कि आज ऐसी सूची में सिर्फ प्रधानमंत्री या उस पद के उम्मीदवार, मुख्यमंत्री और सांसद आते हों, लेकिन सोशल मीडिया लोकतंत्र का एक तकनीकी पूरक बनकर उभर सकता है. चूंकि ज्यादा लिखे और देखे जाने का अर्थ है ज्यादा समृद्ध और लोकतांत्रिक संवाद. कुछ साल बाद की स्थिति की कल्पना करिए, जब लोग ऐसी ही निकटता और पारदर्शिता की मांग अपने स्थानीय जनप्रतिनिधियों से करने लगेंगे और उनके सामने ऑनलाइन मुश्किल सवालों की झड़ी लगाने लगेंगे.
आज यह देखना महत्वपूर्ण है कि कैसे एक आम आदमी राजनीतिक रूप से अभिजात्य तबके के साथ संवाद स्थापित कर रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के ट्विर टाउनहॉल ने नेता-जनता के रिश्ते में नई आकांक्षाओं को जन्म दिया है. सोशल मीडिया साझेदारी के लोकतंत्र की सच्ची भावना को अभिव्यक्त करता है, जहां एक साथ करोड़ों लोग आपस में संवाद और विचारों का आदान-प्रदान कर रहे होते हैं. चाहे नेता हों, कलाकार या फिर कारोबारी जगत के लोग, सभी को इसके जरिए ज्यादा दर्शकों/श्रोताओं तक पहुंच मिल रही है और बिना ज्यादा निवेश किए वे इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी तक पहुंच पा रहे हैं. नतीजतन, दूरदर्शी नेता और सेलिब्रिटी अपने अलग-अलग मकसद के लिए इस चलन को भुनाने की कोशिशों में जुट गए हैं.
भारत में ब्लॉग की दुनिया का उदाहरण लें. लालकृष्ण आडवाणी अपने राजनीतिक विचारों के प्रसार के लिए ब्लॉग चलाते हैं. अमिताभ बच्चन की ट्विटर पर फॉलोइंग 58,44,037 है और उनके फेसबुक पेज के लाइक की संख्या 48,63,475 है. उन्होंने नए लोगों के साथ संवाद के लिए सोशल मीडिया का पुल की तरह इस्तेमाल किया है. आनंद महिंद्रा ने अपनी विश्वसनीयता को ऑनलाइन मौजूदगी से और पुख्ता किया है. मीडिया, राजनीति या बिजनेस को छोड़ दें तो आम नागरिक, उपभोक्ता और विभिन्न मुद्दों के पैरोकार समूह भी खुद को इस माध्यम से संगठित कर रहे हैं. इन नेटवर्कों का लाभ उठाकर अपना एजेंडा तय कर रहे हैं और नागरिक मसलों पर बहसें चला रहे हैं.
भारत के नागरिक समाज में अन्ना हजारे के उभार के बाद से आम आदमी पार्टी सोशल मीडिया से बने अपने समर्थन को जबरदस्त तरीके से भुना रही है. एक नए राजनीतिक आंदोलन को इस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से ताकत दी है. नेताओं और कारोबारियों द्वारा किए जाने वाले दावों का परीक्षण करने के लिए भी लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने लगे हैं. सूचना के अधिकार के तहत इससे लोगों का सशक्तीकरण हुआ है.
इस सामाजिक संवाद का जो स्तर और आकार दिख रहा है, उसके साथ जुडऩा वास्तव में कारगर है. पिछले साल से इस देश में फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की संख्या में 50 फीसदी का इजाफा हुआ है और 31 मार्च, 2013 तक यह आंकड़ा 7.8 करोड़ पर आ गया है. यह आंकड़ा अमेरिकी सिक्योरिटीज ऐंड एक्सचेंज कमीशन का है. मार्केट रिसर्च फर्म आइएमआरबी इंटरनेशनल और इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत में फिलहाल 2 करोड़ ट्विटर यूजर हैं. यह एक बड़ा बदलाव है.
भारत में इससे पहले यह बदलाव तब दिखा था, जब टेलीविजन ने गांवों के भीतर चुपचाप अपनी जगह बनाई थी. इसने देश के आखिरी आदमी को भले ही 12 रु. में खाना न दिया हो, लेकन उनमें अभिनेताओं की तरह कपड़े पहनने और मैगी और पास्ता खाने की आकांक्षा जरूर पैदा कर दी है. सोशल मीडिया एक नई चीज है. इसके असर का पूरी तरह से अंदाजा लगाया जाना अभी बाकी है. इंटरनेट के आने के बाद से प्रसारण को नया अर्थ मिला है. पहले जो संदेश 'एक से कई’ तक जाता था, वह अब 'कई से कई’ और 'कई से एक’ की हो गई है. यही तो है अभिव्यक्ति का सच्चा लोकतंत्र.
उसके बाद मोबाइल आया. सेल फोन की उम्र बढ़ी तो वह स्मार्टफोन बन गया, जिनमें सोशल मीडिया के प्लेटफार्म बनकर आने लगे. इसने निरक्षरों की उंगलियों तक को सक्रिय और जागरूक बना दिया. जो पढ़ नहीं सकता था, वह देख और सुनकर यह जानने लगा कि दुनिया में कहां, क्या चल रहा है.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब हमने लोगों से पूछा कि ऐसा कौन-सा गैजट है, जिसके बिना वे नहीं रह सकते तो 80 फीसदी से ज्यादा लोगों ने स्मार्टफोन को चुना. दिलचस्प है कि इस अंक के लिए प्राप्त 70 फीसदी से ज्यादा वोट हैंड हेल्ड डिवाइस यानी मोबाइल फोन और टैबलेट से भेजे गए थे. स्मार्टफोन ने कंटेंट की पूरी दुनिया को ही सिर के बल ला दिया है.
सोशल मीडिया ने संचार के नियमों को भी सकारात्मक दिशा में बदला है. हाल ही में टेलीग्राम ने इस देश में अपनी आखिरी सांस ली है. हालांकि वह आधुनिक ट्वीट का ही एक आदिम संस्करण था, जो पैसे बचाने के लिए न्यूनतम शब्दों में किया जाता था. आज संचार के संक्षिप्त स्वरूप को मिलने वाली सामाजिक और अकादमिक स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि अब छात्रों से भाषा के परचे में एसएमएस की तरह एक संदेश तक लिखने को कहा जा रहा है.
तो क्या सोशल मीडिया ही विकल्प है? कई भारतीय आज समाचारों के लिए भी इसी माध्यम का प्रयोग करते हैं. सोशल मीडिया अंक के लिए इंडिया टुडे समूह द्वारा डिजिटल दुनिया पर किए गए सर्वेक्षण का नतीजा यह है कि आज सिर्फ 5 फीसदी लोगों के लिए वेबसाइट और 25 फीसदी लोगों के लिए टीवी खबरें देखने का प्राथमिक स्रोत है. सर्वे में 66 फीसदी लोगों ने समाचारों के लिए फेसबुक को चुना, जबकि 4 फीसदी इसके लिए ट्विटर का सहारा लेते हैं. अब आप इसकी उपेक्षा कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे होंगे.
आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां विकीलिक्स इंटेलीजेंस एजेंसियों को चुनौती दे रहा है, जबकि फेसबुक के यूजर्स आबादी के मामले में सिर्फ दो देशों से पीछे है. यह ऐसी दुनिया है, जहां ट्यूनीशिया का एक फल विक्रेता मोहम्मद बोजीजी अकेले दम पर जनता में आक्रोश फैला सकता है और अरब की क्रांति को जन्म दे सकता है.
इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया सत्ताओं को गिराने की कुव्वत रखता है, लेकिन क्या यह नई और ज्यादा जनतांत्रिक सत्ताओं को निर्मित भी कर सकता है? इस पर अंतिम बात कहने का समय अभी नहीं आया है. लेकिन जिस तरह इसका प्रभाव बढ़ा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि कि कोई भी टिप्पणी करने से पहले सतर्कता बरतना बहुत जरूरी है.