अक्तूबर, 1946 में प्रिमियर्स कॉन्फ्रेंस में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आइएएस और आइपीएस अधिकारियों को तैयार करने के सिलसिले में इन बातों पर जोर दिया था, ‘‘सुरक्षा का आश्वासन हो, अनुशासन और अन्य प्रासंगिक मामलों से जुड़े सवालों पर इस तरह से विचार किया जाए कि इस सेवा में आने वाले खुशी और संतोष महसूस करें और देश की बदलती स्थितियों या पार्टियों में हो रहे बदलावों से उन पर कोई प्रभाव न पड़े.’’ धारा 309-312 के प्रावधानों पर चर्चा के दौरान संविधान निर्माताओं ने सिविल सेवा की आजादी कायम रखने की अहमियत पर जोर दिया था. ऐसा लगता है कि आज की राजनैतिक शक्तियों ने वह सलाह भुला दी है. इसका नतीजा यह हुआ है कि संसदीय लोकतंत्र की रीढ़ कही जाने वाली तटस्थ नौकरशाही असहाय हो गई है.
सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दर्ज किया था कि बार-बार तबादला और निलंबन वे हथियार हैं जिनके जरिए ईमानदार अधिकारियों को काबू में रखा जाता है. पिछले 20 साल के दौरान उत्तर प्रदेश में राजनैतिक नेतृत्व के चरित्र और बर्ताव में बहुत बड़ा बदलाव आया है. जब अल्पसंख्यक समुदाय के एक शक्तिशाली मंत्री ने 1982 के दिसंबर में समय से पहले इस लेखक के तबादले की मांग की तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ने छह महीने तक तो उनकी बात ही नहीं मानी, बल्कि जून, 1983 में उसी सचिव को वापस पद पर बहाल कर दिया जिनका तबादला उस मंत्री ने कराया था. इसके विपरीत, बहनजी ने इस लेखक को दो बार उनके मौजूदा पद से दो पद नीचे नियुक्त किया था. बीएसपी हो या सपा, ईमानदार अधिकारियों को तबादले और निलंबन के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ती है. दुर्गा शाक्ति के पहले इलाहाबाद के आयुक्त हिमांशु कुमार को शहर के सिलिका और रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने पर तबादला झेलना पड़ा था.
आइएएस और आइपीएस अधिकारियों के तबादले के मामले में मायावती और मुलायम के बीच मानो मुकाबला चला रहा था. सुप्रीम कोर्ट ने इस चलन को गलत ठहराया है, इसके बावजूद यह लगातार हो रहा है. मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालने के बाद सालभर में 1,000 अधिकारियों का तबादला कर खुद के रिकॉर्ड को बेहतर कर दिया. उत्तर प्रदेश में आइएएस/आइपीएस अधिकारियों का औसत कार्यकाल सिर्फ तीन महीने है. यह समय इतना छोटा सा टुकड़ा है जो अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि क्या कोई अफसरशाह वाकई कुछ काम भी कर पा रहा है या नहीं. लेकिन नेताओं को सरकारी कामकाज की उतनी परवाह नहीं है, जितनी फिक्र उन्हें इस बात की है कि उनके और उनके लोगों के काम आसानी से होते रहें. और जब इन्हीं कामों में कहीं बाधा आती है तो अफसर को सूखे पत्तों की तरह एक जगह से दूसरी जगह
उड़ा दिया जाता है.
कुछ हद तक प्रशासनिक अधिकारी खुद इसके जिम्मेदार हैं-उनमें चारित्रिक मजबूती, एकजुटता और विपरीत परिस्थितियों से लडऩे की इच्छाशक्ति की कमी है. ऐसे में दुर्गा के मामले में राज्य और केंद्रीय आइएएस संघों की ओर से उठाया गया कदम उम्मीद की सुनहरी किरण की तरह नजर आ रहा है.
लेखक रिटायर्ड आइएएस अधिकारी हैं
सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दर्ज किया था कि बार-बार तबादला और निलंबन वे हथियार हैं जिनके जरिए ईमानदार अधिकारियों को काबू में रखा जाता है. पिछले 20 साल के दौरान उत्तर प्रदेश में राजनैतिक नेतृत्व के चरित्र और बर्ताव में बहुत बड़ा बदलाव आया है. जब अल्पसंख्यक समुदाय के एक शक्तिशाली मंत्री ने 1982 के दिसंबर में समय से पहले इस लेखक के तबादले की मांग की तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ने छह महीने तक तो उनकी बात ही नहीं मानी, बल्कि जून, 1983 में उसी सचिव को वापस पद पर बहाल कर दिया जिनका तबादला उस मंत्री ने कराया था. इसके विपरीत, बहनजी ने इस लेखक को दो बार उनके मौजूदा पद से दो पद नीचे नियुक्त किया था. बीएसपी हो या सपा, ईमानदार अधिकारियों को तबादले और निलंबन के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ती है. दुर्गा शाक्ति के पहले इलाहाबाद के आयुक्त हिमांशु कुमार को शहर के सिलिका और रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने पर तबादला झेलना पड़ा था.
आइएएस और आइपीएस अधिकारियों के तबादले के मामले में मायावती और मुलायम के बीच मानो मुकाबला चला रहा था. सुप्रीम कोर्ट ने इस चलन को गलत ठहराया है, इसके बावजूद यह लगातार हो रहा है. मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालने के बाद सालभर में 1,000 अधिकारियों का तबादला कर खुद के रिकॉर्ड को बेहतर कर दिया. उत्तर प्रदेश में आइएएस/आइपीएस अधिकारियों का औसत कार्यकाल सिर्फ तीन महीने है. यह समय इतना छोटा सा टुकड़ा है जो अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि क्या कोई अफसरशाह वाकई कुछ काम भी कर पा रहा है या नहीं. लेकिन नेताओं को सरकारी कामकाज की उतनी परवाह नहीं है, जितनी फिक्र उन्हें इस बात की है कि उनके और उनके लोगों के काम आसानी से होते रहें. और जब इन्हीं कामों में कहीं बाधा आती है तो अफसर को सूखे पत्तों की तरह एक जगह से दूसरी जगह
उड़ा दिया जाता है.
कुछ हद तक प्रशासनिक अधिकारी खुद इसके जिम्मेदार हैं-उनमें चारित्रिक मजबूती, एकजुटता और विपरीत परिस्थितियों से लडऩे की इच्छाशक्ति की कमी है. ऐसे में दुर्गा के मामले में राज्य और केंद्रीय आइएएस संघों की ओर से उठाया गया कदम उम्मीद की सुनहरी किरण की तरह नजर आ रहा है.
लेखक रिटायर्ड आइएएस अधिकारी हैं