कहने को विवाद साहित्यिक था लेकिन इसमें विचारधारा और उनके आपसी रिश्तों की कई परतें खुल गईं. साहित्यिक पत्रिका हंस वैचारिक तेवरों और उससे ज्यादा उसके संपादक राजेंद्र यादव की बेबाक टिप्पणियों और उनकी साहित्यिक राजनीति के लिए जानी जाती रही है. कथा सम्राट प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई को वह अपने स्थापना दिवस की शक्ल में मनाती है. इस मौके पर होने वाली बहस का हिंदी समाज के बुद्धिजीवियों को इंतजार रहता है. अव्यवस्थाओं के बावजूद यह आयोजन थोड़ी बौद्धिक उत्तेजना तो दे ही जाता रहा है.
तेलुगु के चर्चित कवि एक्टिविस्ट वरवर राव को इस दफा बतौर स्टार वक्ता बुलाया गया था. बहस का विषय था ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’. राव इस बहाने जहाज से दिल्ली आए भी पर यह क्या? ऐन मौके पर ‘गायब’ हो गए. इधर कार्यक्रम खत्म, उधर सोशल साइट्स पर चर्चा शुरूः हंस का प्रोग्राम फ्लॉप. इस बीच फेसबुक पर राव की ओर से ‘गायब’ होने की नाटकीय सफाई आई. हिंदी कवि, संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी और दक्षिणपंथी चिंतक गोविंदाचार्य के नाम भी वक्ताओं में देखकर उन्हें ‘‘हैरानी हुई.’’ वाजपेयी को उन्होंने ‘‘सत्ता प्रतिष्ठान और कॉर्पोरेट सेक्टर के साथ जुड़ाव’’ रखने वाला और गोविंदाचार्य को ‘‘फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद’’ से प्रभावित बताया. उसी खुले पत्र में राव यह भी साफ करते हैं कि बोलने वालों में और कौन है, क्या है, इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.
बखेड़ा असल में राव के इस उत्तेजक पत्र से ही शुरू हुआ, जिसने इस बहस में बारूद का काम किया. वरना वक्ताओं में नाम तो आंदोलनों से जुड़ीं लेखिका अरुंधती रॉय का भी था लेकिन उनका न आना उतना बड़ा मसला न बना. यहीं पर राजेंद्र यादव के स्वभाव से जुड़ी अराजकता का पहलू भी जुड़ता दिखता है. अरुंधती के बारे में वे कहते हैं कि अपने आने, न आने की बात साफ-साफ उन्होंने बताई नहीं. लेकिन अरुंधती इंडिया टुडे से साफ कहती हैं कि ‘‘इस आयोजन की मुझे कोई खबर ही न थी. इस बारे में मेरी किसी से कोई बात ही नहीं हुई.’’ इतना ही नहीं, वे जोड़ती हैं कि ‘‘ऐसा दूसरी बार हुआ है.’’ खैर, उन्होंने अपनी तरफ से इसे बड़ा मसला नहीं बनने दिया.
पर राव के मामले में बात इतनी बिगड़ कैसे गई? यादव के स्वभाव का एक बार फिर जिक्र करना होगा. उन्होंने न्यौते की जो चिट्ठी भेजी उसमें, राव के मुताबिक, बाकी वक्ताओं का कोई जिक्र न था. उन्हीं के शब्दों में, ‘‘यादव ने बाकी वक्ताओं के बारे में पूछने पर भी कुछ नहीं बताया. बार-बार यही कहते रहे कि आप ही स्टार वक्ता हैं. व्यस्तता के बावजूद मैं आया. हवाई अड्डे पर मुझे लेने आए लोगों से कार्ड लेकर देखा तो वाजपेयी और गोविंदाचार्य का नाम देखकर हैरत में पड़ गया. उसी वक्त तय कर लिया कि कार्यक्रम में नहीं जाऊंगा.’’ पर एक ओर तो आप कहते हैं कि दूसरे वक्ता कौन हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? ‘‘देखिए, बात प्रेमचंद की है.
टीवी चैनलों पर चर्चा में मैं भी तमाम तरह की सोच के लोगों के साथ बैठता ही हूं. पर प्रेमचंद का नाम सामंतवाद, साम्राज्यवाद, फासीवाद विरोधी धारा को साहित्य में मजबूत करने से जुड़ा रहा है. उनकी जयंती के मौके पर इस तरह के लोगों को बुलाना ठीक न था.’’ अब तो यादव को भी गुस्सा आना लाजिमी थाः ‘‘बकवास कर रहे हैं वे. सब बताया गया था उन्हें. कल को किसी जहाज में उन्हें नरेंद्र मोदी के बगल में सीट मिल जाए तो क्या जहाज से उतर जाएंगे?’’
राव को असल में यादव की मंशा पर ही शक है. विवाद थम नहीं रहा. राव प्रकरण पर छत्तीसगढ़ में सक्रिय एक युवा एक्टिविस्ट कहते हैं, ‘‘हम ही सही, सिर्फ हमें ही सुनिए, यह नजरिया ठीक नहीं.’’ चलिए, एक बहस तो निकली.
तेलुगु के चर्चित कवि एक्टिविस्ट वरवर राव को इस दफा बतौर स्टार वक्ता बुलाया गया था. बहस का विषय था ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’. राव इस बहाने जहाज से दिल्ली आए भी पर यह क्या? ऐन मौके पर ‘गायब’ हो गए. इधर कार्यक्रम खत्म, उधर सोशल साइट्स पर चर्चा शुरूः हंस का प्रोग्राम फ्लॉप. इस बीच फेसबुक पर राव की ओर से ‘गायब’ होने की नाटकीय सफाई आई. हिंदी कवि, संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी और दक्षिणपंथी चिंतक गोविंदाचार्य के नाम भी वक्ताओं में देखकर उन्हें ‘‘हैरानी हुई.’’ वाजपेयी को उन्होंने ‘‘सत्ता प्रतिष्ठान और कॉर्पोरेट सेक्टर के साथ जुड़ाव’’ रखने वाला और गोविंदाचार्य को ‘‘फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद’’ से प्रभावित बताया. उसी खुले पत्र में राव यह भी साफ करते हैं कि बोलने वालों में और कौन है, क्या है, इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.
बखेड़ा असल में राव के इस उत्तेजक पत्र से ही शुरू हुआ, जिसने इस बहस में बारूद का काम किया. वरना वक्ताओं में नाम तो आंदोलनों से जुड़ीं लेखिका अरुंधती रॉय का भी था लेकिन उनका न आना उतना बड़ा मसला न बना. यहीं पर राजेंद्र यादव के स्वभाव से जुड़ी अराजकता का पहलू भी जुड़ता दिखता है. अरुंधती के बारे में वे कहते हैं कि अपने आने, न आने की बात साफ-साफ उन्होंने बताई नहीं. लेकिन अरुंधती इंडिया टुडे से साफ कहती हैं कि ‘‘इस आयोजन की मुझे कोई खबर ही न थी. इस बारे में मेरी किसी से कोई बात ही नहीं हुई.’’ इतना ही नहीं, वे जोड़ती हैं कि ‘‘ऐसा दूसरी बार हुआ है.’’ खैर, उन्होंने अपनी तरफ से इसे बड़ा मसला नहीं बनने दिया.
पर राव के मामले में बात इतनी बिगड़ कैसे गई? यादव के स्वभाव का एक बार फिर जिक्र करना होगा. उन्होंने न्यौते की जो चिट्ठी भेजी उसमें, राव के मुताबिक, बाकी वक्ताओं का कोई जिक्र न था. उन्हीं के शब्दों में, ‘‘यादव ने बाकी वक्ताओं के बारे में पूछने पर भी कुछ नहीं बताया. बार-बार यही कहते रहे कि आप ही स्टार वक्ता हैं. व्यस्तता के बावजूद मैं आया. हवाई अड्डे पर मुझे लेने आए लोगों से कार्ड लेकर देखा तो वाजपेयी और गोविंदाचार्य का नाम देखकर हैरत में पड़ गया. उसी वक्त तय कर लिया कि कार्यक्रम में नहीं जाऊंगा.’’ पर एक ओर तो आप कहते हैं कि दूसरे वक्ता कौन हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? ‘‘देखिए, बात प्रेमचंद की है.
टीवी चैनलों पर चर्चा में मैं भी तमाम तरह की सोच के लोगों के साथ बैठता ही हूं. पर प्रेमचंद का नाम सामंतवाद, साम्राज्यवाद, फासीवाद विरोधी धारा को साहित्य में मजबूत करने से जुड़ा रहा है. उनकी जयंती के मौके पर इस तरह के लोगों को बुलाना ठीक न था.’’ अब तो यादव को भी गुस्सा आना लाजिमी थाः ‘‘बकवास कर रहे हैं वे. सब बताया गया था उन्हें. कल को किसी जहाज में उन्हें नरेंद्र मोदी के बगल में सीट मिल जाए तो क्या जहाज से उतर जाएंगे?’’
राव को असल में यादव की मंशा पर ही शक है. विवाद थम नहीं रहा. राव प्रकरण पर छत्तीसगढ़ में सक्रिय एक युवा एक्टिविस्ट कहते हैं, ‘‘हम ही सही, सिर्फ हमें ही सुनिए, यह नजरिया ठीक नहीं.’’ चलिए, एक बहस तो निकली.