हुजैफा खोराकीवाला (42 वर्ष) 6,000 करोड़ रु. के कारोबार वाली दवा कंपनी वोकहार्ट लिमिटेड के मालिक और ग्रुप सीईओ हबील खोराकीवाला के बड़े बेटे हैं.
कुशाग्र नयन बजाज (36 वर्ष) उद्योगपति जमनालाल बजाज के पोते और 10,000 करोड़ रु. के कारोबार वाली बजाज कंपनी के मालिक शिशिर बजाज के बेटे हैं.
रोशनी नाडर मल्होत्रा (31 वर्ष) 6.3 अरब डॉलर की कंपनी एचसीएल के मालिक शिव नाडर की इकलौती बेटी हैं.
मानसी किर्लोस्कर (23 वर्ष) विक्रम किर्लोस्कर की इकलौती बेटी हैं. विक्रम की कंपनी किर्लोस्कर सिस्टम्स ने टोयोटा किर्लोस्कर के साझ उपक्रम में 15,000 करोड़ रु. का निवेश किया हुआ है और इसका रियल एस्टेट में भी निवेश हैं.
वीर सिंह (29 वर्ष) 10,600 करोड़ रु. की कंपनी मैक्स इंडिया ग्रुप के मालिक अनलजीत सिंह के इकलौते बेटे है.

इन पांचों नौजवानों के बीच क्या समानता हो सकती है, सिवा इसके कि ये अरबपतियों के यहां पैदा हो गए? इन सबने अपने लिए पहले से तय कॉर्पोरेट करियर से आगे बढ़कर लोगों की भलाई के लिए इंसानी सरोकारों से जुड़े क्षेत्रों को चुना.
खोराकीवाला ने 2008 में वोकहार्ट फाउंडेशन की स्थापना की, जो देश के 10 राज्यों में मोबाइल हेल्थ वैन चलाता है. बजाज अपने कॉर्पोरेट पेशे में से कुछ वक्त निकालकर महाराष्ट्र के वर्धा और राजस्थान के सीकर जिले के गांवों में काम करते हैं. रोशनी शिव नाडर फाउंडेशन के पीछे की प्रेरणा-शक्ति हैं, जो अवसरविहीन बच्चों के लिए विद्याज्ञान नाम से स्कूल चलाता है. इसके तहत एक निजी विश्वविद्यालय भी खोला जाना है. किर्लोस्कर 14 साल की उम्र से ही गरीब बच्चों के बीच काम कर रही हैं. वीर सिंह हॉस्पिटैलिटी क्षेत्र की एक परियोजना पर काम कर रहे हैं, जिसका ताल्लुक पर्यावरणीय सरोकारों से भी है.
भारत में परोपकारी गतिविधियों का लंबा इतिहास रहा है और रईसों के बच्चे इस काम में खासी रुचि लेते रहे हैं. एक अंतरराष्ट्रीय मैनेजमेंट सलाहकार फर्म बेन ऐंड कंपनी ने भारत के चार बड़े शहरों में 180 रईसों के बारे में सर्वेक्षण कर इंडिया फिलेंथ्रोपी रिपोर्ट-2013 तैयार की है, जो कहती है, ‘‘युवा दानदाताओं ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है और अपने परिवारों के परोपकारी कामों का नजरिया तय करने में अक्सर उनकी बड़ी भूमिका रहती है.’’ ऐसी ज्यादातर गतिविधियां स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान देने या अपनी कंपनी की कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी का दायरा थोड़ा बढ़ाने तक ही सीमित रहती हैं. लेकिन ये पांच लोग ऐसे हैं, जो इस सीमा को तोड़कर काफी आगे जा चुके हैं.
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट में डिग्री लेकर 1996 में भारत लौटे खोराकीवाला ने पिता के कारोबार में ही हाथ बंटाने से शुरुआत की, लेकिन उन्हें जल्द ही एहसास हो गया कि वे सिर्फ इस काम के लिए नहीं बने हैं और वे अपना पूरा समय फाउंडेशन के कामों में देने लगे. उन्होंने ‘‘हॉस्पिटल ऑन व्हील्स’’ बनाया, जो देश में उन्हीं के दूरदराज के निर्धनतम इलाकों में जाकर अब तक 18.1 लाख लोगों को मुफ्त हेल्थ चेकअप और दवाओं की सुविधा दे चुका है. खोराकीवाला कहते हैं, ‘‘मेरी प्रेरणा का स्रोत मोहम्मद यूनुस रहे हैं. मैंने उनके काम का असर देखा है.’’ बांग्लादेश के नोबेल पुरस्कार विजेता और माइक्रो फाइनांस के प्रणेता मोहम्मद यूनुस उनके बारे में पूछे गए एक सवाल पर कहते हैं, ‘‘मैं गरीबों की समस्याओं का समाधान करने के उनके काम और प्रतिबद्धता से काफी प्रभावित हूं. वे नौजवान हैं और ऊर्जावान भी.’’ खोराकीवाला अपने भविष्य को लेकर काफी उत्साहित हैं. वे कहते हैं, ‘‘मुझे उम्मीद है कि 2020 तक वोकहार्ट फाउंडेशन 10 करोड़ लोगों की जिंदगी को प्रभावित कर सकेगा और इसके पास 1,000 करोड़ रु. की योजना होगी.’’

वोकहार्ट फाउंडेशन आम तौर पर सरकारी क्षेत्र के संस्थानों या निजी कॉर्पोरेट घरानों के साथ साझ वित्तीय भागीदारी के तहत खास किस्म की परियोजनाओं पर काम करता है. इसके पास 81 वैनों का बेड़ा है, जिसमें से ज्यादातर स्पांसर्स या दानदाताओं की दी हुई हैं. आंखों के इलाज के लिए यह 13 वैन अलग से चलवाता है. अब तक इन वैनों के सहारे 1,10,000 लोगों की जांच की जा चुकी है और 16,000 लोगों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया जा चुका है.
अब और ज्यादा वैन इसमें जोड़ी जा रही हैं. इस फरवरी में फाउंडेशन ने तमिलनाडु सरकार के साथ समझौता किया कि वह सरकार के हेल्थ वैन के कामकाज की निगरानी और प्रबंधन का काम करेगा. तमिलनाडु सरकार की ऐसी 416 वैनें मौजूद हैं. इसके बाद अप्रैल में इसे छत्तीसगढ़ सरकार से स्कूलों में स्वास्थ्य के ह्नेत्र में पहल करने का ठेका मिला, जिसके तहत रायपुर और बिलासपुर के 27 लाख स्कूली बच्चों की हर छमाही स्वास्थ्य जांच के लिए 173 वैन चलाई जाएंगी. वोकहार्ट फाउंडेशन की निदेशक सुमन अब्राहम कहती हैं, ‘‘हमारे मॉडल में राज्य सरकारों के साथ भागीदारी अहम है क्योंकि इससे हमारे काम का दायरा बढ़ेगा.’’ हालांकि फाउंडेशन का सालाना कारोबार अभी 20 करोड़ रु. के आसपास है लेकिन इस वित्त वर्ष के अंत तक इसके दस गुना बढ़ जाने की उम्मीद है क्योंकि और राज्य सरकारों के साथ भी समझौते होने हैं. स्वास्थ्य जांच नाम की एक चलती-फिरती महत्वाकांक्षी निदान परियोजना भी शुरू की जानी है.
खोराकीवाला से हटकर कुशाग्र नयन बजाज ने कॉर्पोरेट जिम्मेदारियों और दूसरे सामाजिक सरोकारों को साथ लेकर चलने का फैसला लिया है. पिट्सबर्ग की कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी से पढ़े कुशाग्र अपने समूह की अगुआ कंपनी बजाज हिंदुस्तान के सीईओ और (शिशिर) बजाज समूह के वाइस-चेयरमैन हैं. वे कमलनयन जमनालाल बजाज फाउंडेशन भी चलाते हैं, जिसे उन्होंने मई 2009 में शुरू किया था. इस फाउंडेशन में 180 लोगों की टीम है, जो सीकर और वर्धा में काम कर रही है. जमनालाल बजाज सीकर में पैदा हुए थे और वर्धा में पले-बढ़े थे. कुशाग्र वर्धा में गांवों के विकास का काम कर रहे हैं और समूचे इलाके को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश में जुटे हैं. वे कहते हैं, ‘‘अब तक 950 में से 400 गांवों पर हमारे काम का सीधा असर पड़ा है. हमारा लक्ष्य है कि 2020 तक सभी गांवों में साल भर पानी उपलब्ध रहे.’’

उनकी टीम गांववालों से मिलकर उनसे उनकी जरूरत को समझती है और चेकडैम बनाने, नदियों वगैरह को गादमुक्त करने का काम शुरू करने से पहले लोगों की उसमें भागीदारी तय करती है. इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ता है. कुशाग्र कहते हैं, ‘‘एक बार पर्याप्त पानी हो जाए तो आप तीन या चार फसलें उगा सकते हैं. इससे आपकी आय बढ़ती है और आप ज्यादा बच्चों को स्कूल भेज पाते हैं.’’ अब तक इस फाउंडेशन ने जिले पर 175 करोड़ रु. खर्च किए हैं. गुजरात के सेवा (सेल्फ एप्लॉएड वीमंस एसोसिएशन) नाम के प्रसिद्ध एनजीओ की मदद से वर्धा में करीब 500 स्वयंसहायता समूह बनाए गए हैं. सीकर में विकास के ऐसे ही प्रयास जमनालाल कनीराम बजाज ट्रस्ट के माध्यम से किए जा रहे हैं. इस ट्रस्ट को भी बजाज परिवार ही चलाता है.
बजाज की ही तरह रोशनी नाडर मल्होत्रा ने भी शिव नाडर फाउंडेशन के कामों को 2008 में अपने हाथ में लेने के बाद से काफी विस्तारित किया है. वे अमेरिका के केलॉग ग्रेजुएट स्कूल ऑफ मैनेजमेंट से पढ़ी हैं. वे बताती हैं, ‘‘1996 में शुरू हुए एसएसएन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग को छोड़ दें तो शिव नाडर फाउंडेशन के तमाम काम मेरे लौटकर आने के बाद ही शुरू हुए.’’ इनमें 2011 में एनसीआर में शुरू शिव नाडर यूनिवर्सिटी और उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर और सीतापुर में चल रहे विद्याज्ञान स्कूल शामिल हैं.
विद्याज्ञान स्कूल आवासीय है. वहां गरीब ग्रामीण परिवारों के प्रतिभाशाली बच्चों को रखा जाता है, जिनके माता-पिता की सालाना आय एक लाख रु. से नीचे हो. यहां उन्हें सारी सुविधाएं मुफ्त दी जाती हैं. ये स्कूल 2009 में शुरू हुए थे और फिलहाल इनमें 1,300 बच्चे पढ़ रहे हैं. मल्होत्रा कहती हैं, ‘‘ये गरीब बच्चों के लिए दून स्कूल है. अगले पांच साल में हमें उम्मीद है कि इस स्कूल के दो-तीन बच्चे आइआइटी में होंगे और कम से कम एक तो किसी अमेरिकी यूनिवर्सिटी में होगा.’’ फाउंडेशन ने अपनी विभिन्न परियोजनाओं पर अब तक कुल 1,800 करोड़ रु. खर्च किए हैं. इसमें से ज्यादातर नाडर परिवार की ही दी हुई रकम है. मल्होत्रा कहती हैं, ‘‘हम सामाजिक निवेश का कारोबार कर रहे हैं. हम कुछ ही परियोजनाएं लेना चाहते हैं लेकिन ऐसी जो सार्थक और व्यापक हों.’’
किर्लोस्कर सिस्टम्स के कार्यकारी निदेशक का पद संभालने के बाद मानसी किर्लोस्कर भले कॉर्पोरेट जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं, लेकिन सामाजिक कार्य भी उन्होंने कोई कम नहीं किए हैं. अमेरिका के रोड आइलैंड स्कूल ऑफ डिजाइन से ग्रेजुएट मानसी ने 14 साल की उम्र से ही वंचित तबके के बच्चों को आर्ट और क्राफ्ट पढ़ाने का काम किया. उन्होंने सोलह बरस की उम्र में इन बच्चों की बनाई तस्वीरों की पहली प्रदर्शनी लगाकर डेढ़ लाख रु. इकट्ठा किए थे. धीरे-धीरे उनका काम बच्चों के बीच आर्ट से भी आगे जा पहुंचा. वे बताती हैं, ‘‘मैंने देखा कि बच्चों को जो कुछ भी दिया जाता था, यहां तक कि आर्ट मटीरियल भी, उसे वे कैसे झपटते थे. मुझे समझ आया कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास संसाधनों की कमी है.’’
उन्होंने इसके बाद आपस में टीम बनाने और आपसी संवाद बेहतर करने संबंधी गतिविधियों की शुरुआत की. आज उनका मानना है कि कम्युनिटी सर्विस को हाइस्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. वे कहती हैं, ‘‘बच्चों को शुरुआत से ही इन कामों में जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि उससे वह काम व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है.’’
वीर सिंह जिस वन रिट्रीट्स ऐंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं, वह हालांकि मुनाफे का काम है लेकिन उसके उद्देश्य पूरी तरह कारोबारी नहीं हैं. वे बताते हैं, ‘‘हमारा परिवार देहरादून के बाहरी इलाके में एक होटल और रिसॉर्ट प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था. उस पर छह माह काम करने के बाद मुझे लगा कि यह महज एक होटल प्रोजेक्ट नहीं बल्कि सार्थक उद्देश्य के लिए होना चाहिए.’’ लंदन के इंपीरियल कॉलेज से साइंस ग्रेजुएट वीर सिंह लंबे समय से पर्यावरणीय चिंताओं से जुड़े रहे हैं. उन्हें इस बात की चिंता है कि वन को पर्यावरणीय रूप से कैसे अनुकूल बनाया जाए.
वे कहते हैं, ‘‘मैं अपने प्रोजेक्ट के कार्बन फुटप्रिंट का पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं. अंत में हम कार्बन ऑफ सेटिंग की प्रक्रिया को शुरू करेंगे.’’ इस दिशा में काम करने के लिए उनका होटल प्लास्टिक के बदले कांच की बोतलों का इस्तेमाल करेगा. बिजली बचाने और पानी का दोबारा इस्तेमाल करने जैसी बातें भी उनके दिमाग में हैं. इसके लिए वे इस प्रोजेक्ट की एलईईडी प्लैटिनम रैंकिंग चाहते हैं, जो पर्यावरण हितैषी होने का अंतरराष्ट्रीय पैमाना माना जाता है.
इन पांचों शख्सियतों के प्रयास सराहनीय तो हैं, लेकिन यह भी सच है कि इनके खानदानी कारोबारों का आकार और स्थायित्व ही इन्हें ऐसा कर पाने की सुविधा देते हैं. हैदराबाद स्थित इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में थॉमस श्मीधेनी चेयर ऑफ फैमिली बिजनेस ऐंड वेल्थ के प्रमुख कविल रामचंदन कहते हैं, ‘‘वे अपनी मर्जी से यह सब करते हैं. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उनके पास अपना रास्ता चुनने की छूट है क्योंकि खानदानी कारोबार की सुरक्षा ही इन सबके बीच एक समान बात है. इनके सामने अपने खानदानी कारोबार को बचाए रखने की चुनौती जो नहीं है.’’
कुशाग्र नयन बजाज (36 वर्ष) उद्योगपति जमनालाल बजाज के पोते और 10,000 करोड़ रु. के कारोबार वाली बजाज कंपनी के मालिक शिशिर बजाज के बेटे हैं.
रोशनी नाडर मल्होत्रा (31 वर्ष) 6.3 अरब डॉलर की कंपनी एचसीएल के मालिक शिव नाडर की इकलौती बेटी हैं.
मानसी किर्लोस्कर (23 वर्ष) विक्रम किर्लोस्कर की इकलौती बेटी हैं. विक्रम की कंपनी किर्लोस्कर सिस्टम्स ने टोयोटा किर्लोस्कर के साझ उपक्रम में 15,000 करोड़ रु. का निवेश किया हुआ है और इसका रियल एस्टेट में भी निवेश हैं.
वीर सिंह (29 वर्ष) 10,600 करोड़ रु. की कंपनी मैक्स इंडिया ग्रुप के मालिक अनलजीत सिंह के इकलौते बेटे है.

इन पांचों नौजवानों के बीच क्या समानता हो सकती है, सिवा इसके कि ये अरबपतियों के यहां पैदा हो गए? इन सबने अपने लिए पहले से तय कॉर्पोरेट करियर से आगे बढ़कर लोगों की भलाई के लिए इंसानी सरोकारों से जुड़े क्षेत्रों को चुना.
खोराकीवाला ने 2008 में वोकहार्ट फाउंडेशन की स्थापना की, जो देश के 10 राज्यों में मोबाइल हेल्थ वैन चलाता है. बजाज अपने कॉर्पोरेट पेशे में से कुछ वक्त निकालकर महाराष्ट्र के वर्धा और राजस्थान के सीकर जिले के गांवों में काम करते हैं. रोशनी शिव नाडर फाउंडेशन के पीछे की प्रेरणा-शक्ति हैं, जो अवसरविहीन बच्चों के लिए विद्याज्ञान नाम से स्कूल चलाता है. इसके तहत एक निजी विश्वविद्यालय भी खोला जाना है. किर्लोस्कर 14 साल की उम्र से ही गरीब बच्चों के बीच काम कर रही हैं. वीर सिंह हॉस्पिटैलिटी क्षेत्र की एक परियोजना पर काम कर रहे हैं, जिसका ताल्लुक पर्यावरणीय सरोकारों से भी है.
भारत में परोपकारी गतिविधियों का लंबा इतिहास रहा है और रईसों के बच्चे इस काम में खासी रुचि लेते रहे हैं. एक अंतरराष्ट्रीय मैनेजमेंट सलाहकार फर्म बेन ऐंड कंपनी ने भारत के चार बड़े शहरों में 180 रईसों के बारे में सर्वेक्षण कर इंडिया फिलेंथ्रोपी रिपोर्ट-2013 तैयार की है, जो कहती है, ‘‘युवा दानदाताओं ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है और अपने परिवारों के परोपकारी कामों का नजरिया तय करने में अक्सर उनकी बड़ी भूमिका रहती है.’’ ऐसी ज्यादातर गतिविधियां स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान देने या अपनी कंपनी की कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी का दायरा थोड़ा बढ़ाने तक ही सीमित रहती हैं. लेकिन ये पांच लोग ऐसे हैं, जो इस सीमा को तोड़कर काफी आगे जा चुके हैं.
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट में डिग्री लेकर 1996 में भारत लौटे खोराकीवाला ने पिता के कारोबार में ही हाथ बंटाने से शुरुआत की, लेकिन उन्हें जल्द ही एहसास हो गया कि वे सिर्फ इस काम के लिए नहीं बने हैं और वे अपना पूरा समय फाउंडेशन के कामों में देने लगे. उन्होंने ‘‘हॉस्पिटल ऑन व्हील्स’’ बनाया, जो देश में उन्हीं के दूरदराज के निर्धनतम इलाकों में जाकर अब तक 18.1 लाख लोगों को मुफ्त हेल्थ चेकअप और दवाओं की सुविधा दे चुका है. खोराकीवाला कहते हैं, ‘‘मेरी प्रेरणा का स्रोत मोहम्मद यूनुस रहे हैं. मैंने उनके काम का असर देखा है.’’ बांग्लादेश के नोबेल पुरस्कार विजेता और माइक्रो फाइनांस के प्रणेता मोहम्मद यूनुस उनके बारे में पूछे गए एक सवाल पर कहते हैं, ‘‘मैं गरीबों की समस्याओं का समाधान करने के उनके काम और प्रतिबद्धता से काफी प्रभावित हूं. वे नौजवान हैं और ऊर्जावान भी.’’ खोराकीवाला अपने भविष्य को लेकर काफी उत्साहित हैं. वे कहते हैं, ‘‘मुझे उम्मीद है कि 2020 तक वोकहार्ट फाउंडेशन 10 करोड़ लोगों की जिंदगी को प्रभावित कर सकेगा और इसके पास 1,000 करोड़ रु. की योजना होगी.’’

वोकहार्ट फाउंडेशन आम तौर पर सरकारी क्षेत्र के संस्थानों या निजी कॉर्पोरेट घरानों के साथ साझ वित्तीय भागीदारी के तहत खास किस्म की परियोजनाओं पर काम करता है. इसके पास 81 वैनों का बेड़ा है, जिसमें से ज्यादातर स्पांसर्स या दानदाताओं की दी हुई हैं. आंखों के इलाज के लिए यह 13 वैन अलग से चलवाता है. अब तक इन वैनों के सहारे 1,10,000 लोगों की जांच की जा चुकी है और 16,000 लोगों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया जा चुका है.
अब और ज्यादा वैन इसमें जोड़ी जा रही हैं. इस फरवरी में फाउंडेशन ने तमिलनाडु सरकार के साथ समझौता किया कि वह सरकार के हेल्थ वैन के कामकाज की निगरानी और प्रबंधन का काम करेगा. तमिलनाडु सरकार की ऐसी 416 वैनें मौजूद हैं. इसके बाद अप्रैल में इसे छत्तीसगढ़ सरकार से स्कूलों में स्वास्थ्य के ह्नेत्र में पहल करने का ठेका मिला, जिसके तहत रायपुर और बिलासपुर के 27 लाख स्कूली बच्चों की हर छमाही स्वास्थ्य जांच के लिए 173 वैन चलाई जाएंगी. वोकहार्ट फाउंडेशन की निदेशक सुमन अब्राहम कहती हैं, ‘‘हमारे मॉडल में राज्य सरकारों के साथ भागीदारी अहम है क्योंकि इससे हमारे काम का दायरा बढ़ेगा.’’ हालांकि फाउंडेशन का सालाना कारोबार अभी 20 करोड़ रु. के आसपास है लेकिन इस वित्त वर्ष के अंत तक इसके दस गुना बढ़ जाने की उम्मीद है क्योंकि और राज्य सरकारों के साथ भी समझौते होने हैं. स्वास्थ्य जांच नाम की एक चलती-फिरती महत्वाकांक्षी निदान परियोजना भी शुरू की जानी है.
खोराकीवाला से हटकर कुशाग्र नयन बजाज ने कॉर्पोरेट जिम्मेदारियों और दूसरे सामाजिक सरोकारों को साथ लेकर चलने का फैसला लिया है. पिट्सबर्ग की कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी से पढ़े कुशाग्र अपने समूह की अगुआ कंपनी बजाज हिंदुस्तान के सीईओ और (शिशिर) बजाज समूह के वाइस-चेयरमैन हैं. वे कमलनयन जमनालाल बजाज फाउंडेशन भी चलाते हैं, जिसे उन्होंने मई 2009 में शुरू किया था. इस फाउंडेशन में 180 लोगों की टीम है, जो सीकर और वर्धा में काम कर रही है. जमनालाल बजाज सीकर में पैदा हुए थे और वर्धा में पले-बढ़े थे. कुशाग्र वर्धा में गांवों के विकास का काम कर रहे हैं और समूचे इलाके को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश में जुटे हैं. वे कहते हैं, ‘‘अब तक 950 में से 400 गांवों पर हमारे काम का सीधा असर पड़ा है. हमारा लक्ष्य है कि 2020 तक सभी गांवों में साल भर पानी उपलब्ध रहे.’’

उनकी टीम गांववालों से मिलकर उनसे उनकी जरूरत को समझती है और चेकडैम बनाने, नदियों वगैरह को गादमुक्त करने का काम शुरू करने से पहले लोगों की उसमें भागीदारी तय करती है. इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ता है. कुशाग्र कहते हैं, ‘‘एक बार पर्याप्त पानी हो जाए तो आप तीन या चार फसलें उगा सकते हैं. इससे आपकी आय बढ़ती है और आप ज्यादा बच्चों को स्कूल भेज पाते हैं.’’ अब तक इस फाउंडेशन ने जिले पर 175 करोड़ रु. खर्च किए हैं. गुजरात के सेवा (सेल्फ एप्लॉएड वीमंस एसोसिएशन) नाम के प्रसिद्ध एनजीओ की मदद से वर्धा में करीब 500 स्वयंसहायता समूह बनाए गए हैं. सीकर में विकास के ऐसे ही प्रयास जमनालाल कनीराम बजाज ट्रस्ट के माध्यम से किए जा रहे हैं. इस ट्रस्ट को भी बजाज परिवार ही चलाता है.
बजाज की ही तरह रोशनी नाडर मल्होत्रा ने भी शिव नाडर फाउंडेशन के कामों को 2008 में अपने हाथ में लेने के बाद से काफी विस्तारित किया है. वे अमेरिका के केलॉग ग्रेजुएट स्कूल ऑफ मैनेजमेंट से पढ़ी हैं. वे बताती हैं, ‘‘1996 में शुरू हुए एसएसएन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग को छोड़ दें तो शिव नाडर फाउंडेशन के तमाम काम मेरे लौटकर आने के बाद ही शुरू हुए.’’ इनमें 2011 में एनसीआर में शुरू शिव नाडर यूनिवर्सिटी और उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर और सीतापुर में चल रहे विद्याज्ञान स्कूल शामिल हैं.
विद्याज्ञान स्कूल आवासीय है. वहां गरीब ग्रामीण परिवारों के प्रतिभाशाली बच्चों को रखा जाता है, जिनके माता-पिता की सालाना आय एक लाख रु. से नीचे हो. यहां उन्हें सारी सुविधाएं मुफ्त दी जाती हैं. ये स्कूल 2009 में शुरू हुए थे और फिलहाल इनमें 1,300 बच्चे पढ़ रहे हैं. मल्होत्रा कहती हैं, ‘‘ये गरीब बच्चों के लिए दून स्कूल है. अगले पांच साल में हमें उम्मीद है कि इस स्कूल के दो-तीन बच्चे आइआइटी में होंगे और कम से कम एक तो किसी अमेरिकी यूनिवर्सिटी में होगा.’’ फाउंडेशन ने अपनी विभिन्न परियोजनाओं पर अब तक कुल 1,800 करोड़ रु. खर्च किए हैं. इसमें से ज्यादातर नाडर परिवार की ही दी हुई रकम है. मल्होत्रा कहती हैं, ‘‘हम सामाजिक निवेश का कारोबार कर रहे हैं. हम कुछ ही परियोजनाएं लेना चाहते हैं लेकिन ऐसी जो सार्थक और व्यापक हों.’’
किर्लोस्कर सिस्टम्स के कार्यकारी निदेशक का पद संभालने के बाद मानसी किर्लोस्कर भले कॉर्पोरेट जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं, लेकिन सामाजिक कार्य भी उन्होंने कोई कम नहीं किए हैं. अमेरिका के रोड आइलैंड स्कूल ऑफ डिजाइन से ग्रेजुएट मानसी ने 14 साल की उम्र से ही वंचित तबके के बच्चों को आर्ट और क्राफ्ट पढ़ाने का काम किया. उन्होंने सोलह बरस की उम्र में इन बच्चों की बनाई तस्वीरों की पहली प्रदर्शनी लगाकर डेढ़ लाख रु. इकट्ठा किए थे. धीरे-धीरे उनका काम बच्चों के बीच आर्ट से भी आगे जा पहुंचा. वे बताती हैं, ‘‘मैंने देखा कि बच्चों को जो कुछ भी दिया जाता था, यहां तक कि आर्ट मटीरियल भी, उसे वे कैसे झपटते थे. मुझे समझ आया कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास संसाधनों की कमी है.’’
उन्होंने इसके बाद आपस में टीम बनाने और आपसी संवाद बेहतर करने संबंधी गतिविधियों की शुरुआत की. आज उनका मानना है कि कम्युनिटी सर्विस को हाइस्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. वे कहती हैं, ‘‘बच्चों को शुरुआत से ही इन कामों में जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि उससे वह काम व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है.’’
वीर सिंह जिस वन रिट्रीट्स ऐंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं, वह हालांकि मुनाफे का काम है लेकिन उसके उद्देश्य पूरी तरह कारोबारी नहीं हैं. वे बताते हैं, ‘‘हमारा परिवार देहरादून के बाहरी इलाके में एक होटल और रिसॉर्ट प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था. उस पर छह माह काम करने के बाद मुझे लगा कि यह महज एक होटल प्रोजेक्ट नहीं बल्कि सार्थक उद्देश्य के लिए होना चाहिए.’’ लंदन के इंपीरियल कॉलेज से साइंस ग्रेजुएट वीर सिंह लंबे समय से पर्यावरणीय चिंताओं से जुड़े रहे हैं. उन्हें इस बात की चिंता है कि वन को पर्यावरणीय रूप से कैसे अनुकूल बनाया जाए.
वे कहते हैं, ‘‘मैं अपने प्रोजेक्ट के कार्बन फुटप्रिंट का पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं. अंत में हम कार्बन ऑफ सेटिंग की प्रक्रिया को शुरू करेंगे.’’ इस दिशा में काम करने के लिए उनका होटल प्लास्टिक के बदले कांच की बोतलों का इस्तेमाल करेगा. बिजली बचाने और पानी का दोबारा इस्तेमाल करने जैसी बातें भी उनके दिमाग में हैं. इसके लिए वे इस प्रोजेक्ट की एलईईडी प्लैटिनम रैंकिंग चाहते हैं, जो पर्यावरण हितैषी होने का अंतरराष्ट्रीय पैमाना माना जाता है.
इन पांचों शख्सियतों के प्रयास सराहनीय तो हैं, लेकिन यह भी सच है कि इनके खानदानी कारोबारों का आकार और स्थायित्व ही इन्हें ऐसा कर पाने की सुविधा देते हैं. हैदराबाद स्थित इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में थॉमस श्मीधेनी चेयर ऑफ फैमिली बिजनेस ऐंड वेल्थ के प्रमुख कविल रामचंदन कहते हैं, ‘‘वे अपनी मर्जी से यह सब करते हैं. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उनके पास अपना रास्ता चुनने की छूट है क्योंकि खानदानी कारोबार की सुरक्षा ही इन सबके बीच एक समान बात है. इनके सामने अपने खानदानी कारोबार को बचाए रखने की चुनौती जो नहीं है.’’