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भारत के खिलाफ चीनी-पाकिस्तानी भाई

चीन की मदद से एक आर्थिक गलियारा पाकिस्तान के लिए वाकई बड़ी खबर है. चीन-पाक कूटनीतिक संबंधों की बुनियाद इसी पर टिकी है कि उभरते भारत को कैसे काबू में करें.

अपडेटेड 5 अगस्त , 2013
पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री का पंजाबी भोजन और अंग्रेज दर्जियों के सिले कपड़ों का शौक जगजाहिर है. लेकिन उनके तीसरे कार्यकाल में मेड-इन-चाइना भी अहम भूमिका निभा सकता है. नवाज शरीफ मई में जबरदस्त बहुमत के साथ चुने गए और उन्होंने इस्लामाबाद के दफ्तर-ए-वजारत-ए उज़्मा में कदम रखते ही नीति की बिसात पर चीन-पाकिस्तान दोस्ती के पत्ते फेंक दिए. चीन से संबंधों की बात चुनाव प्रचार के दौरान तक तो नहीं उभरी लेकिन जून में संसद में अपने पहले संबोधन में ही उन्होंने इसका उल्लेख किया. उनके भाषण में विदेश नीति यानी भारत-अफगानिस्तान और अमेरिका तो क्या कश्मीर तक का भी कोई उल्लेख नहीं था. बात हुई तो सिर्फ चीन की.

शरीफ  ने राष्ट्रीय आर्थिक गलियारे का पूरा ब्यौरा दिया, जो पूरे पाकिस्तान से गुजरते हुए चीनी काशगर से अरब सागर तक जाएगा. नवाज शरीफ  ने दावा किया कि बुलेट रेल, बांध, विश्वविद्यालय और सौर पवन चक्कियां सब चीन की मदद से तैयार किए जाएंगे. अपने चुने जाने के दो महीने बाद शरीफ चीन के साथ रणनीतिक गठबंधन को पुख्ता बुनियाद की ओर ले जाते दिख रहे हैं. इस संबंध में ग्वादर पोर्ट खास कूटनीतिक अहमियत रखता है. चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग मई में शरीफ के चुनाव के तुरंत बाद पाकिस्तान पहुंचे थे. वे दुनिया के पहले शासनाध्यक्ष थे, जो पाकिस्तान में चुनाव होते ही वहां गए थे. शरीफ  ने फौरन इसका आभार जताया और जुलाई के शुरू में चीन पहुंच गए.

वहां उन्होंने कोई ठोस सौदे तो नहीं किए, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय से काम का एक अहम वक्तव्य निकालने में कामयाब रहे, “नए हालात में चीन और पाकिस्तान के संबंधों का पहले से कहीं ज्यादा कूटनीतिक महत्व है. ये संबंध और मजबूत हो सकते हैं, कमजोर नहीं.”

शरीफ जब अपने मुल्क लौटे तो बहुत उत्साहित नहीं थे. फिर भी चीन के कारोबारी नेताओं के साथ बहुत से नए प्रोजेक्ट्स के बारे में घंटेभर की बातचीत से काफी संतुष्ट दिखे. इनमें ऊर्जा परियोजनाएं, कराची से लाहौर एक्सेस वे, मेट्रो ट्रांसपोर्ट, आर्थिक शहर, टास्क फोर्स और चाइना सेल शामिल हैं, जिसका गठन पहले से चल रही चीन-पाकिस्तान परियोजनाओं की निगरानी के लिए किया जाएगा. विकास के नए मसीहा हैं व्हार्टन से एमबीए किए हुए योजना मंत्री अहसान इकबाल. उन्हें चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की कार्ययोजना तैयार करने से जुड़ी साझ सहयोग समिति में इस्लामाबाद का प्रतिनिधित्व सौंपा गया था. उनका दावा है कि प्रधानमंत्री चीन में फोटो खिंचवाने और प्रेस बयान जारी कराने से कुछ ज्यादा लेकर लौटे हैं. उनकी उपलब्धियों में सबसे अहम है पूंजी यानी कि नकदी. चीन की इस यात्रा से धन जुटाने का नया रास्ता खुला है. अब चीन से कर्ज लेना ज्यादा आसान और सस्ता होगा. नकदी की समस्या से जूझ रहे पाकिस्तान के लिए यह बहुत बड़ी सुविधा है. पाकिस्तान के विपक्षी दल इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के असद उमर का कहना है कि आर्थिक गलियारे की यह पूरी योजना बुरी नहीं है, लेकिन इस बात का कोई खुलासा नहीं किया गया है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा.

लफ्फाजी बनाम हकीकत
जहां तक दोनों मुल्कों के आम रहन-सहन, धर्म, भाषा, फैशन या खान-पान की बात है तो इन मामलों में दोनों में खास समानता नहीं. पाकिस्तानी जनमानस में चीन को लेकर एक सुखद एहसास है. अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर चीन और पाकिस्तान हमेशा एकमत भी नहीं रहे हैं. ऐसे में तथाकथित विशेष व्यवस्था पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है?

एक तर्क यह दिया जाता है कि भारत के साथ किसी भी युद्ध में चीन ने कभी खुलकर पाकिस्तान का साथ नहीं दिया. उस वक्त भी नहीं, जब 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए थे. जवाब में चीन-पाकिस्तान संबंधों के पैरोकार अकसर कहा करते हैं, जहां तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दखल देने का सवाल है तो चीन की अपनी सीमाएं हैं. पाकिस्तान जब भारत के साथ युद्ध हारता रहा तब चीन भले ही चुपचाप खड़ा देखता रहा हो, लेकिन कुछ ही साल बाद उसने इस इस्लामी गणराज्य को एटमी टेक्नोलॉजी दी और उसी के बल पर पाकिस्तान ने एटम बम बनाया जो उसकी सामरिक योजना का अहम मुकाम है.

जब भी चीन का सवाल उठाया जाता है तो बहस लगभग हमेशा चीन-पाकिस्तान भाई-भाई के सरकारी नारों से उपजे अधकचरे तथ्यों की बाढ़ में बह जाती है. पाकिस्तान के लोग चीन के साथ अपने अनुभवों के बारे में अपनी सोच पर सवाल उठाने को तैयार नहीं हैं.

भारत का भूत
यूनाइटेड स्टेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ पीस (यूएसआइपी) में पाकिस्तान के विशेषज्ञ मोईद यूसुफ का कहना है कि “पाकिस्तान का नजरिया हर देश के साथ अलग-अलग है. पाकिस्तान ने चीन को जो विशेष दर्जा दिया है उससे वह भी विशेष व्यवहार पाने का हकदार है. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. ये तीनों मिलकर पाकिस्तान के लिए वह भूमिका निभा सकते हैं जो अमेरिका कभी नहीं कर पाया.”  पर सवाल यह है कि पाकिस्तान के गठबंधनों की सूची में चीन को पहला स्थान क्यों दिया गया? यूसुफ का कहना है, “मन फैक्टर भारत है.”

इसमें कोई नई बात नहीं है कि पाकिस्तान की विदेश नीति खतरे की आशंका से संचालित होती है और उसके रक्षा प्रतिष्ठान पर भारत का भूत हावी है, लेकिन चीन और पाकिस्तान का साझा रणनीतिक मकसद फौज के बूते भारत को काबू में रखना है तो तर्क कुछ ऐसा हो जाता हैः पाकिस्तान के साथ सबसे अच्छे दोस्त का ताज पहने रहने की कीमत यही है कि चीन भारत को सैनिक खतरा माने या कम-से-कम उसकी सैन्य महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखने की कोशिश करे. चीन और पाकिस्तान दोनों ही एशिया के ऐसे देश हैं, जिनकी इस क्षेत्र में मौजूदगी है, भारत के साथ साझा सीमा है, कश्मीर विवाद में हिस्सेदारी है, कश्मीर के भारत वाले हिस्सों पर दावेदारी है, भारत के साथ संघर्षों का इतिहास है और सेना के कंधों पर सवार राजनैतिक तंत्र है.

इसलिए भारत के दुश्मन के रूप में दोनों की सहज दोस्ती बहुत स्वाभाविक है. लेकिन दोनों देशों के बीच सिर्फ इतनी ही समानता नहीं है. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आइएसआइ) निदेशालय के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल का कहना है, “हमने कभी चीन के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं दिया और उन्होंने भी नहीं.” जनरल गुल के विचारों में पाकिस्तान के रक्षा प्रतिष्ठान के कुछ सबसे रूढ़िवादी विचारों की झलक हो सकती है.
 
दोस्ती का बंदरगाह
जनरल मुशर्रफ की हुकूमत में वित्त मंत्री रहे सलमान शाह को लगता है, “रणनीतिक-आर्थिक स्तर पर यह एक-दूसरे के लिए खासे फायदे का रिश्ता है, लेकिन जरूरी नहीं कि दोनों को बराबर का फायदा हो. उनके नजरिए से बलूचिस्तान और ग्वादर अहम है. इससे उन्हें अरब सागर, फारस की खाड़ी और अफ्रीका तक जाने का रास्ता मिलता है और अमेरिका तथा भारत के साथ घेराबंदी की समस्या से निकलने में काम आता है. इसलिए पाकिस्तान उनके लिए रणनीतिक दोस्त है, भले ही हम चाहें या न चाहें.” जनरल परवेज मुशर्रफ ग्वादर पोर्ट प्रोजेक्ट का सेहरा हमेशा अपने सिर बांधते रहे हैं.

यूएसआइपी में पाकिस्तानी मामलों के जानकार मोइद यूसुफ इस तर्क को और आगे बढ़ाते हुए दावा करते हैं कि पाकिस्तान दरअसल चीन की इस मजबूरी का फायदा उठाता है. उनके शब्दों में, “चीन के जहाज तेल की सप्लाई के रास्ते को छोटा करने के लिए ग्वादर का इस्तेमाल करेंगे और वहां रुकेंगे तो हमारे समुद्री साहिलों की हिफाजत से उनका भी हित जुड़ेगा क्योंकि भारत की तुलना में कमजोर नौसेना की वजह से पाकिस्तान को हमेशा खतरा लगा रहता है. इसलिए इस दोस्ती से पाकिस्तान को फायदा होगा. ऐसे हालात में आर्थिक लाभ, ग्वादर और ऊर्जा सब मिलाकर खेल कर सकते हैं, फिर भी पाकिस्तान की सियासीसोच पर भू-राजनीतिक मसलों के दबाव ही हावी रहते हैं.”

जनरल गुल का कहना है कि वैश्विक भू-राजनैतिक खेल में ग्वादर दरअसल चीन और पाकिस्तान की तरफ से बहुत बड़ा साझ दांव है. “पाकिस्तान अफगानिस्तान की पहरेदारी करता है, जो दुनिया के इस हिस्से में ऊर्जा के साधन लाने का रास्ता है. इसलिए चीन और पाकिस्तान मिलकर यहां कारोबार का रंग-ढंग बदल देंगे और भारत को नुकसान उठाना पड़ेगा.”

जो मांगोगे, मिलेगा
हालांकि शाह को लगता है कि चीन के साथ व्यवहार के मामले में पाकिस्तान की सेना और कारोबारी जगत के तौर-तरीकों में विरोधाभास है. “मुक्त व्यापार समझौते और पांच साल के आर्थिक सहयोग कार्यक्रम के लिए 2005 में ही तंत्र स्थापित कर दिया गया था लेकिन उसका फायदा बहुत ही कम हुआ है. उसकी वजह यह है कि प्राइवेट सेक्टर में हम कभी भी चीन के साथ तालमेल नहीं बैठा सके क्योंकि हमारे कारोबारियों और नीति निर्माताओं का कारोबारी रुझान हमेशा यूरोप और अमेरिका की तरफ रहा है. लेकिन हमारा रक्षा प्रतिष्ठान...? उनके दिमाग में हमेशा से यह बात साफ रही है कि उसे चीन से क्या चाहिए? उसने जो मांगा है, वह मिला है.”

असल में पाकिस्तान की पारंपरिक हथियारों की खरीद और उनके विकास के प्लेटफार्म जुटाने और नई पीढ़ी के एटमी हथियारों और एटमी ऊर्जा विकास परियोजनाओं के लिए दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग बहुत बढ़ा है. शाह का इशारा उसी तरफ  है. इससे एक अहम सवाल उठता है—अगर चीन के जहाज, विमान और मिसाइल पाकिस्तान पहुंच गए हैं तो चीन की आर्थिक खुशहाली का मंत्र इस धरती तक क्यों नहीं पहुंचा? शाह का जवाब सीधा-सादा है, “पाकिस्तान के मामले में चीन का रुख एकदम सीधा है, अगर आप मांगेंगे तो वे देंगे, नहीं मांगेंगे तो नहीं मिलेगा.”

मोइद यूसुफ व्यापार के मामले में एक और खामी की ओर इशारा करते हैं और वह है मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर के मामले में उसका परस्पर विरोधी रवैया. “हिंदुस्तान बरसों से दबाव डाल रहा है, फिर भी व्यापार में सबसे ज्यादा वरीयता प्राप्त देश का दर्जा पूरी तरह लागू नहीं हुआ है, जबकि चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर हो गए हैं और पाकिस्तान के बाजारों में चीन का माल भरा पड़ा है. वह सब ठीक है क्योंकि यह चीन है, हिंदुस्तान नहीं! हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इसके पीछे की सोच आर्थिक नहीं बल्कि राजनीति और सैन्य मुद्दों से प्रेरित है.

मुशर्रफ के जाने और अब हालांकि हार चुकी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की हुकूमत के आने के बाद के कुछ वर्षों में चीन के साथ संबंधों में थोड़ा ठंडापन आ गया था. हालांकि चीन ने टेक्नोलॉजी पार्कों में निवेश किया है, टेलीकॉम क्षेत्र में जबरदस्त खरीदारी की है और ग्वादर का प्रबंधन औपचारिक रूप से अपने हाथ में ले लिया है. फिर भी परस्पर दोस्ती का रिश्ता अब भी कमजोर और डगमग है और करार तोडऩे वाले खतरे के निशान भी साफ दिख रहे हैं.

दक्षिण एशिया में चीन का हथियार
अपनी जमीन पर सक्रिय आतंकी गुटों पर फंदा न कसना पाकिस्तान की चाहे कूटनीतिक चाल हो या फिर अनदेखी, पर यह चीन के लिए परेशानी का सबब है. चीन के पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट घुसपैठ कर रहा है और पाकिस्तान में उसकी मौजूदगी के पुख्ता सबूत हैं. यूसुफ का कहना है कि पाकिस्तानी शासन चीन की अल्पसंख्यक उइगुर आबादी के मामले में जो कुछ कर सकता था, किया गया.” इसके बावजूद पाकिस्तान इस मामले में चीन के लिए परेशानी का सबब तो है.

अटलांटिक काउंसिल में साउथ एशिया सेंटर के निदेशक शुजा नवाज जैसे लोग खास उत्साहित नहीं हैं. उनका कहना है कि पाकिस्तान ने चीन के साथ अपने रिश्तों को बहुत ज्यादा देर के लिए ऑटो पायलट मोड पर छोड़ दिया है. वे कहते हैं, “पाकिस्तान के लिए यह समझना बहुत अहम है कि चीन अब विदेश नीति के मामले में दूरगामी रवैया अपना रहा है. वह भारत के साथ व्यावहारिक सोच का पक्षधर है, वह मध्य एशिया, ईरान और पाकिस्तान को एक क्षेत्रीय गुट मानता है और नीतिगत मामलों में स्वतंत्र ढंग से निबटने के लिए शंघाई सहयोग संगठन जैसे महत्वपूर्ण मंचों का इस्तेमाल करेगा.”

पूरी तरह भारत केंद्रित पाकिस्तानी सुरक्षा तंत्र चीन के मामले में दो बहुत ठोस लाल रेखाएं खींच देता है. पहली तो यह कि सशस्त्र संघर्ष या सैनिक जमाव की स्थिति में भी चीन अगर पाकिस्तान की नजर में जरूरी हथियार और सैन्य सामग्री देने से इनकार कर देता है तो वह पाकिस्तान को खो देगा. सलमान शाह के शब्दों में, “अगर मुसीबत के दौर में चीन ने साथ नहीं दिया तो यह रिश्ता खत्म हो जाएगा. अगर चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी का समर्थन किया और भारत को स्थायी दर्जा मिल गया तब भी चीन-पाकिस्तान संबंधों का यही हश्र होगा.

लेकिन ऐसा होने के आसार बहुत कम हैं. भारत के हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को चीन ‘नत्थी’ किया हुआ वीजा दे रहा है, गिलगित-बाल्तिस्तान  इलाके (जिसे भारत जम्मू-कश्मीर का हिस्सा मानता है) और भारत के साथ पूरी सीमा पर उसकी पीपल्स लिबरेशन आर्मी की मौजूदगी की अफवाहें बार-बार आ रही हैं. ये सब कश्मीर मुद्दे को अप्रत्याशित रूप से त्रिपक्षीय मसला बनाते दिख रहे हैं.

चीन-पाकिस्तान गठजोड़ में कम-से-कम पाकिस्तानी शासन के नजरिये से यह हमेशा एक खुशखबरी है. पर जब मैंने बेहद उत्साहित एक जनरल से पूछा कि चीन के नए प्रधानमंत्री मई में सबसे पहले पाकिस्तान की बजाए भारत क्यों गए, तो कमाल का जवाब मिला, “वे दोस्ती करने के लिए भारत गए थे. यहां उसके बाद आए क्योंकि हम तो पहले से दोस्त हैं. वह भी फायदे के.”

वजाहत एस खान, हार्वर्ड केनेडी स्कूल के फेलो हैं, वे मल्टी मीडिया पत्रकार हैं जो एनबीसी न्यूज, आज टीवी और  रेडियो पाकिस्तान के लिए काम करते हैं
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