तेलंगाना अलग राज्य बनने की दहलीज पर है. लेकिन डर है कि कहीं इसके बनने के बाद नक्सलवाद और ना बढ़ जाए. दरअसल गणपति समेत नक्सलियों के ज्यादातर शीर्ष नेता यहां के करीमनगर जिले की उपज हैं. इस नक्सल विरासत का साया अलग राज्य की मांग पर हमेशा से मंडराता रहा है. तो यहां पढ़िए नक्सलियों की पाठशाला और उसकी तैयार संतानों के बारे में...
माओवादी नेता मल्लजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी का पार्थिव शरीर 27 नवंबर 2011 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर जिले स्थित पेडापल्ली गांव में उसके घर लाया गया था. माओवादियों के तीसरे सबसे बड़े नेता किशनजी दुर्दांत रणनीतिकार और छह भाषाओं में माहिर थे, जिनकी मौत पश्चिम बंगाल में सीआरपीएफ के साथ एक मुठभेड़ में हुई थी. गांव में लाश पहुंचते ही आसपास जो भीड़ जुटी, उसे सादे कपड़ों में वहां मौजूद पुलिसवालों ने फिल्माया ताकि सादे कपड़ों में ही मौजूद किसी माओवादी की पहचान की जा सके. किशनजी के बाद पोलित ब्यूरो में उसकी जगह उसके छोटे भाई 51 वर्षीय वेणुगोपाल ने तुरंत ले ली. उनकी मां 76 वर्षीया मधुरम्मा कहती हैं कि अपने जीते जी वे अपने बेटे को शायद अब नहीं देख पाएंगी. वे कहती हैं, “यह तो जंग है. वे पुलिस को मारते हैं... पुलिस उनको मारती है.” मधुरम्मा के पति स्वतंत्रता सेनानी थे.
छत्तीसगढ़ के जंगलों में मोर्चा बनाकर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान पर हमले करने वाले माओवादी नेतृत्व का बड़ा हिस्सा तेलंगाना से ताल्लुक रखता है. माओवादियों के छह बड़े नेता हैदराबाद से 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित करीमनगर जिले के अनजान गांवों-कस्बों के हैं. इनमें माओवादियों का मुखिया, 63 वर्षीय मुप्पल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति भी है.
आंध्र प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी बताते हैं, “ये लोग चारु मजूमदार की तरह स्वप्नदर्शी और बुद्धिजीवी किस्म के नक्सली नहीं हैं.” एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं, “इन माओवादी नेताओं की विचारधारा के पीछे ठोस सैन्य कौशल का आधार भी है.” इस जंग में पिछले 10 साल के दौरान 8,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और इस साल जनवरी में इस संघर्ष ने एक भयानक मोड़ ले लिया. झारखंड में एक सीआरपीएफ के जवान की हत्या करके माओवादियों ने उसके शरीर में विस्फोटक लगा दिया. छत्तीसगढ़ में 18 जनवरी को भारतीय वायु सेना के एमआइ-17 हेलिकॉप्टर को उड़ा दिया.
यह सब भारत के सशस्त्र अतिवाद के इतिहास में पहली बार हुआ था. इसके बाद 25 मई को माओवादियों ने एक झ्टके में 28 लोगों का सफाया कर डाला और इस तरह छत्तीसगढ़ के विपक्षी दल कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व का तकरीबन पूरी तरह पूरा सफाया कर डाला. नंद कुमार पटेल और महेंद्र कर्मा घटना स्थल पर ही मारे गए जबकि घायल विद्याचरण शुक्ल ने बाद में दम तोड़ दिया. इस हमले का मास्टरमाइंड और माओवादियों के सेंट्रल मिलिट्री कमिशन (सीएमसी) का वरिष्ठ सदस्य कटकम सुदर्शन खुद निजामाबाद के बेल्लमपल्ली गांव का निवासी है, जो करीमनगर से सटा हुआ है.
आंध्र प्रदेश पुलिस ने 2010 में 408 ‘वांटेड’ माओवादियों की सूची तैयार की थी जिनमें अकेले करीमगनर से 60 बड़े महत्वपूर्ण माओवादी हैं. इसमें सबसे ज्यादा 80 नाम वारंगल से हैं. ये दोनों जिले भारत के संभावित 29वें राज्य तेलंगाना में हैं. दिल्ली में कांग्रेस की कोर समिति के समक्ष एक पावर प्वाइंट प्रस्तुति में आंध्र्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने कहा था कि तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने से सांप्रदायिकता और नक्सलवाद को बढ़ावा मिलेगा. उन्होंने मिसाल के तौर पर झारखंड और छत्तीसगढ़ में पैदा हुई स्थिति का उदाहरण देते हुए कांग्रेस नेतृत्व को आगाह किया.
करीमनगर की संतानें
कुल 39 लाख की आबादी वाला करीमनगर उत्तर में गोदावरी, पूरब में छत्तीसगढ़ के बस्तर, पश्चिम में निजामाबाद और दक्षिण में वारंगल से घिरा हुआ है. यह आंध्र प्रदेश का सबसे गरम जिला है जहां इस बार गर्मी में पारा 49 डिग्री पर पहुंचने से 10 लोगों की मौत हो गई थी. निजाम खानदान के वारिस के नाम पर बने इस जिले में पनपी अतिवाद की नर्सरी का जवाब हालांकि अकेले यहां की भौगोलिक और मौसम संबंधी स्थितियों में नहीं है.
इसी साल 1 जून की सुबह उत्तरी करीमनगर में स्थित 3,651 लोगों की आबादी वाले बीरपुर गांव की नींद एक हरकारे की आवाज से खुली थी. मुगलों के जमाने से चली आ रही परंपरा के मुताबिक टिन का एक ड्रम पीटते हुए एक हरकारे ने मुनादी की कि सरकार बड़े माओवादी नेताओं की जमीनें जब्त करने जा रही है. उसके साथ गांव का तहसीलदार और नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए) का एक अधिकारी भी था. ध्यान रहे कि बीरपुर माओवादी नेता गणपति का जन्मस्थल है.
एनआइए 2010 में पश्चिम बंगाल में हथियारों की बरामदगी से जुड़े एक मामले की जांच कर रही है जिसमें गणपति और एक अन्य नेता तिरुपति सह-आरोपी हैं. एनआइए ने माओवादी नेता और गणपति के सहयोगी बालामुरी नारायण राव की 1.3 एकड़ जमीन जब्त कर ली थी. उन्होंने पाया कि गणपति के पास कोई जमीन नहीं है. पहली बार किसी केंद्रीय एजेंसी ने माओवादी नेता के खिलाफ कोई कदम उठाया. इससे पहले उन्हें हमेशा केंद्र और राज्य सरकारों के आपसी झगड़े का लाभ मिलता रहा है.
यहां जमीन का मुद्दा ही समस्या की जड़ रहा है. गणपति के पिता जमींदार और सवर्ण जाति वेलम्मा के किसान थे. गणपति आगे चलकर इसी वर्ग के खिलाफ हो गया. करीगमनगर के एसआरआर कॉलेज से 1970 में बीएससी ग्रेजुएट गणपति ने जिले के एक स्कूल में तीन साल तक पढ़ाने का काम किया. करीगमनर में सशस्त्र संघर्ष का इतिहास रहा है. यहीं से 1945 में सीपीआइ का सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ था और जो 1951 में समाप्त हुआ. इसे तेलंगाना विद्रोह के नाम से जाना जाता है. इसके निशाने पर निजाम की सत्ता थी, लेकिन निजामशाही खत्म होने के बाद भी ‘दोरालु’ जमींदारों की सामंती बर्बरता कायम रही. करीमनगर के सांसद पोन्नम प्रभाकर बताते हैं, “यहां बारिश नहीं होती थी, खेती बारिश पर निर्भर थी और सामंती उत्पीडऩ चरम पर था.” दोरालु जमींदारों के पास काफी जमीन थी और वे अकसर अपने यहां खेती करने वाले किसानों की बीवियों को प्रताड़ित किया करते थे. बगावत की जमीन यहां पहले से तैयार थी.
गणपति के चचेरे भाई, 75 वर्षीय राजेश्वर राव इसी गांव में रहते हैं और ठेकेदारी करते हैं. सड़क किनारे बैठे गरमी और उमस में तौलिए से पंखा झलते हुए वे बताते हैं, “वह शर्मीला और संकोची था... शराब आदि कोई बुराई उसमें नहीं थी. तीनों भाई कम्युनिस्ट थे और हमेशा विप्लव साहित्यम (क्रांतिकारी साहित्य) में डूबे रहते थे.”
करीमनगर में माओवाद की नींव एक माक्र्सवादी छात्र संगठन रेडिकल स्टुडेंट्स यूनियन (आरएसयू) से पड़ी, जिसके जरिए सारे माओवादी नेता मिलते थे. तेलंगाना से स्नातक किए गणपति और अन्य छात्र नेता भी धीरे-धीरे आरएसयू की ओर खिंचते चले गए. उनके साथ ही कुछ दूसरे माओवादी विचारक भी इसमें शामिल हुए, जैसे वारंगल के रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज से गोल्ड मेडलिस्ट चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद (जिसे आंध्र प्रदेश पुलिस ने 2010 में मार डाला) और किशनजी. देश में जब इमरजेंसी लगी थी, तो 1977 में हिंसा और लूट के मामले में गणपति को गिरफ्तार किया गया था. उसकी जमानत हुई और 1979 में वह भूमिगत हो गया और अगले ही साल अपने कुछ दूसरे साथियों के साथ कोंडापल्ली सीतारामैया के नेतृत्व वाले धड़े पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) में शामिल हो गया. यह संगठन माओत्से तुंग और उनकी लिखी लाल किताब का अनुयायी था जो मानता था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है और अपने चेयरमैन की तरह ही इसे पाने के लिए तीन चरणों की कल्पना करता थाः सुदूर गढ़ों से गांवों तक और फिर शहरों तक.
ये नेता जैसे-जैसे संगठन के भीतर ऊंचे पायदानों पर पहुंचते गए, उन्होंने अपना उपनाम रख लिया और अपने घर-परिवार, बीवी-बच्चे और पुरानी यादों को पीछे छोड़ दिया. और रह गए तो सिर्फ दीवारों और प्लास्टिक की सीली एलबमों में आठवें दशक के घुंघराले बालों वाले उनके पोट्रेट. कभी पेड़ों से ताड़ी निकालने का काम करने वाले और आज रियल एस्टेट एजेंट बन चुके 40 साल के टिप्पिरी गंगाधर कहते हैं, “मैं पिछली बार 1980 में अपने भाई से जेल में मिला था.” तिरुपति उनके भाई हैं, जो किशनजी और गणपति की ही तरह करीमनगर के एसआरआर डिग्री कॉलेज से ग्रेजुएट हुआ और फिलहाल माओवादियों के सेंट्रल टेक्निकल कमिशन का प्रमुख है. उसी ने 2007 में छत्तीसगढ़ के रानीबोदली में एक पुलिस कैंप पर हमले का नेतृत्व किया था, जिसमें 55 पुलिसवाले मारे गए थे. गंगाधर बताते हैं, “उन्होंने (तिरुपति) मुझसे कहा था कि उनका कोई परिवार नहीं है. अब तो आंदोलन ही उनका परिवार है.”
बारूदी सुरंग
पहली बार गणपति के बीरपुर गांव में ही नक्सलियों ने अपने सबसे विनाशक हथियार यानी बारूदी सुरंगों का प्रयोग किया था. 1989 में पीडब्ल्यूजी ने एक जीप को यह सोच कर बारूदी सुरंग से उड़ा दिया था कि वह पुलिस की है. उस धमाके में जीप के चीथड़े उड़ गए और उसमें सवार 17 लोगों के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े पेड़ों पर जा लटके. पता चला कि वह बारात थी और उसमें गणपति के संयुक्त परिवार के सदस्य भी शामिल थे. माओवादियों ने इस घटना पर तुरंत माफीनामा जारी कर दिया, लेकिन राज्यसत्ता के खिलाफ उनकी जंग जारी रही.
गणपति ने 1992 में अपने संरक्षक सीतारमैया की जगह लेते हुए पीडब्ल्यूजी की कमान अपने हाथ में ले ली और अधिकतर जमींदारों को तेलंगाना के गांवों से बाहर खदेड़ दिया. गुदम गांव के कपास किसान, 36 वर्षीय सांदे रवि कहते हैं, ‘‘नक्सल ने डोरा काल (डोरा का राज) को खत्म कर दिया. हम उन्हें भगवान मानते हैं.” ऐसा कहते हुए वे एक तस्वीर की ओर उंगली से इशारा करते हैं जो उनके भाई सांदे राजमौलि की है. उसके हाथ में एके-47 है जिसे माओवादियों के बीच ऊंचे ओहदे की पहचान माना जाता है. 43 वर्षीय राजमौलि उर्फ कॉमरेड प्रसाद माओवादियों की सेंट्रल कमेटी में सबसे कम उम्र का नेता था. 2007 में एक मुठभेड़ में पुलिस ने उसे मार गिराया.
बीरपुर में गणपति का चार कमरों वाला बिना छत का घर आज खंडहर हो चुका है. चारों ओर उस पर झाड़ उग आई है. उसका परिवार बहुत पहले इस मकान को छोड़कर हैदराबाद में गुमनाम जिंदगी बिता रहा है. पास ही में एक मोबाइल फोन का टावर खड़ा है और खेतों में हरे-पीले जॉन डियर के ट्रैक्टर से तेलुगु फिल्मी गानों की तेज आवाज आ रही है.
गांव के बीचोबीच तेलंगाना अम्मा की एक मूर्ति स्थापित है जिसके हाथ में मक्के की एक बाली और धान का सूप है. इस मूर्ति को करीब एक दशक पहले तेलंगाना के राजनैतिक दलों ने इसी की समरूप एकीकृत आंध्र्र की प्रतीक मूर्ति तेलुगु तल्ली (तेलुगु मां) के बरक्स स्थापित किया था. जिस ओर तेलुगु अम्मा की निगाह है, वहां कुछ दूरी पर 15 फुट ऊंचा एक स्तंभ गड़ा है जिसके शीर्ष पर हंसिया-हथौड़ा लगा है और जिस पर पुलिस की गोली का शिकार हुए ‘इंकलाबी’ शहीदों के नाम लिखे हैं. इसे माओवादियों ने यहां स्थापित किया था. राज्य सरकार ने इसके जवाब में एक सफेद खंबा पास में तान दिया है जिस पर कबूतर लगा है और माओवादियों के हाथों मारे गए आम नागरिकों के नाम लिखे हैं. ऐसे में अलग तेलंगाना एक बार फिर से माओवादियों के गढ़ के रूप में तब्दील हो सकता है.
राज्यसत्ता का पलटवार
करीमनगर का पुलिस मुख्यालय एक किले की तरह है जिसके चारों ओर निगरानी टावरों पर सेल्फ-लोडिंग राइफलें लिए संतरी तैनात हैं. भीतर आंध्र्र पुलिस के चुस्त-दुरुस्त कमांडो जींस, डेनिम शर्ट और दौडऩे वाले जूते कसे बैठे हैं. उनकी गोद में रखी लोड की हुई एके-47 और उनकी सतर्क निगाहें आपको इस बात का पता देती हैं कि माओवादियों का खौफ अभी पूरी तरह गया नहीं है. करीमनगर के पुलिस अधीक्षक विश्वनाथ रविंदर कांच की मेज के सामने बैठे हैं जिस पर दो झ्ंडे आड़े खड़े हैं. एक पर लिखा है ‘हू डेयर्स विन्स’ (जुर्रत करने वाला जीतता है). वे विस्तार से बताते हैं कि राज्यसत्ता ने कैसे माओवादी की चुनौतियों को पीछे धकेल दिया है. वे बताते हैं, “सड़क निर्माण, सशस्त्र दलों का सफाया और आत्मसमर्पण कर चुके माओवादियों के पुनर्वास की तिहरी रणनीति.” वे कहते हैं कि इस आंध्र्र मॉडल ने माओवादियों को तोड़ दिया है.
पुलिस बल और इंटेलिजेंस नेटवर्क में भारी पूंजी निवेश के चलते नक्सलरोधी अत्याधुनिक ग्रेहाउंड्स कमांडो ने इंटेलिजेंस की मदद से यहां सटीक अभियान चलाए हैं. माओवादियों ने भी इसके बाद पुलिस अफसरों को निशाना बना शुरू कर दिया था और आइपीएस अफसर के.एस. व्यास की हत्या कर दी थी, जिन्होंने 1993 में ग्रेहाउंड्स की स्थापना की थी. सितंबर 2003 में माओवादियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु के काफिले पर भी बारूदी सुरंग से हमला किया था. लेकिन उसी साल से पासा पलटना शुरू हो चुका था. करीमनगर के माओवादी नेतृत्व ने इसके बाद अपनी ताकत को दंडकारण्य के जंगलों में झोंक दिया, जो आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिसा की सीमा से लगा 92,000 वर्ग किमी का जंगली इलाका है. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इसी संदर्भ में कहते हैं कि आंध्र्र प्रदेश ने न चाहते हुए भी नक्सलियों को दूसरे राज्यों में भेज दिया है.
नक्सली तेलुगु अफसर
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के मुरकिनार में 2007 में माओवादी एक सरकारी बस पर सवार होकर आए और एक पुलिस पोस्ट को उड़ा दिया. हमले में हल्की मशीनगनों का भी इस्तेमाल किया गया था. उसी हमले की हिलती हुई एक वीडियो रिकॉर्डिंग के अंत में तेलुगु में एक आवाज आती है, ‘वणक्क एमणन्न मिगिलरा?’ (कोई और बचा क्या?) आदिवासियों की गोंडी भाषा में किया गया वॉयस ओवर बताता है कि इस हमले में 11 पुलिसवाले मारे गए थे. हालांकि तेलुगु में दिए जाने वाले निर्देश से आपको अंदाजा लग जाता है कि इस अभियान में किसकी चल रही है. यह है आंध्र्र के नक्सली अफसरों की एक अत्याधुनिक कोर जिसके नियंत्रण में 10,000 आदिवासी छापामार लड़ाकों की एक फौज 2050 तक भारत सरकार को उखाड़ फेंकने का सपना पाले बैठी है.
दंडकारण्य के दुर्गम जंगलों में गणपति ने सितंबर 2004 में वह काम किया जो आजादी के बाद भारत में किसी भी छापामार लड़ाके समूह ने नहीं किया था. उसने पीडब्ल्यूजी और बिहार के माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का विलय कर दिया और सीपीआइ (माओवादी) नाम की पार्टी गठित की. 2005 आते-आते इस पार्टी को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ करार दे डाला.
गणपति भारत के नौ राज्यों के 83 जिलों में फैले इस लाल साम्राज्य का मुखिया है. एकीकरण की प्रक्रिया के बाद माओवादियों का पूर्वी राज्यों से संबंध मजबूत हुआ है, हालांकि अब भी रणनीति के स्तर पर अधिकतर काम करीमनगर से उपजा नेतृत्व ही करता है. इस साम्राज्य को गणपति अपने करीमनगर के सहयोगियों की मदद से ही चलाता है. वेणुगोपाल के हाथ में दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी है, मल्लाराजी रेड्डी संवेदनशील छत्तीसगढ़-ओडिसा स्टेट बॉर्डर कमेटी का काम देखता है, गोपालरावपल्ली के कादरी सत्यनारायण रेड्डी डीके जोनल कमेटी का सेक्रेटरी है और पुल्लुरी प्रसाद राव उत्तरी तेलंगाना जोनल कमेटी का मुखिया है. पुलिस को उम्मीद है कि यह नेतृत्व या तो आत्मसमर्पण कर देगा या परिजनों और दोस्तों के विश्वासघात का शिकार हो जाएगा. इनमें सबके ऊपर 44 लाख रु. का इनाम है. अब तक सेंट्रल कमेटी के सिर्फ एक नेता लंका पापी रेड्डी ने ही पांच साल पहले आत्मसमर्पण किया है.
गणपति पर भारी नरसिंह
गृह मंत्रालय के अफसर माओवादी नेतृत्व को बुढ़ाता और मरणासन्न मानते हैं. गणपति समेत अधिकतर नेता बाल रंगते हैं. बूढ़ा होता नेतृत्व एके-47 भी थाम ले तो अनुशासन पैदा नहीं कर पाता. बालों का नकली रंग बुढ़ाते विचारों को छुपाने में नाकाम होता है. गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “माओवादियों को नए रंगरूट पाने में काफी दिक्कत आ रही है. इसीलिए उनके यहां 60 फीसदी से ज्यादा सशस्त्र काडर आज महिलाएं हैं.
दूसरी कतार के नेताओं में गणपति और उनके सहयोगियों जैसी प्रतिबद्धता भी नहीं है.” वे नक्सली समस्या के अवसान की ओर इशारा कर रहे हैं. उनकी मानें तो आखिर में जीत करीमनगर के सबसे मशहूर बेटे की होगीः यानी पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव. वंगारा गांव के एक सामंती परिवार में जन्मे राव 1973 तक राज्य विधानसभा में तीन बार मंथनी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे. माओवादी उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे और एक जमींदार व पूंजीपति के रूप में देखते थे जिसने सत्ता हथिया ली थी. वंगारा गांव में राव के खेतों की सुरक्षा के लिए एक पुलिस पोस्ट लगाई गई थी और उसी की देखरेख में खेती आदि का काम होता था.
कांग्रेस पार्टी ने यहां राव की सियासी विरासत को बड़े कायदे से धो-पोंछकर साफ कर दिया है. न तो उनके गृह जिले में उनकी कोई प्रतिमा है, न ही कोई सरकारी योजना उनके नाम पर है. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि यहां जो कुछ भी है, उस पर राव की ही छाप है. उनके लाए आर्थिक सुधारों की चमक में शहर खूब फल-फूल रहा है. यहां नए-नए खुले एक मल्टीप्लेक्स में वल्र्ड वार जेड और मैन ऑफ स्टील के तेलुगु संस्करण दिखाए जा रहे हैं जबकि ये फिल्में इसी सप्ताह हॉलीवुड में भी रिलीज हुई हैं. काले दमकते स्टेट हाइवे से बसें और ट्रकें धड़धड़ाते हुए जिले में चले आ रहे हैं. इनके साथ ही यहां कारोबारी गतिविधियों का प्रसार जुड़ा है. इस जिले में ग्रेनाइट की खुदाई खूब होती है और इसका सबसे बड़ा खरीदार चीन है.
माओवाद इसके जन्मदाताओं की जन्मस्थली पर ही मर चुका है. माना जाता है कि आज गढ़चिरौली की सीमा से लगे महादेवपुर इलाके में ही माओवादियों का इकलौता सशस्त्र दस्ता इस जिले में रह गया है. आखिरी माओवादी हिंसा की घटना यहां पिछले साल मई में हुई थी जब एक कांग्रेसी कार्यकर्ता को गोली मार दी गई थी. करीमनगर के अतिरिक्त जिलाधिकारी अरुण कुमार कहते हैं कि यहां अतिवाद दोबारा अपनी जड़ें नहीं जमा सकेगा और इसे पुष्ट करने के लिए वे समाज कल्याण योजनाओं की लंबी सूची दिखाते हैं. वे कहते हैं, “पिछले कुछ दशकों में पैसे का बंटवारा पर्याप्त हुआ है. हम असंतोष के बुनियादी कारण से निपटने में कामयाब रहे हैं.” आज यहां के पढ़े-लिखे लड़के हैदराबाद व दूसरे जिलों के कॉल सेंटरों, शॉपिंग मॉल और टेक्नो-पार्कों में जा रहे हैं.
प्रतिमा रेजिडेंसी होटल के विज्ञापन का दावा है कि वहां करीमनगर का सबसे बड़ा बिना खंबों वाला बैंक्वेट हॉल है जहां 2,000 लोगों के बैठने की सुविधा है. कुछ चीजें हालांकि ऐसी हैं जिनके लिए विज्ञापन की जरूरत नहीं होती, मसलन तीन सितारा होटल श्वेता का बैंक्वेट हॉल जहां चीनी ग्रेनाइट व्यापारी इडली और डोसा खा रहे हैं. ऐसा लगता है, गोया देंग जियाओ पिंग की संतानें पेट भरने भर के इंकलाब में जुटी हैं.
माओवादी नेता मल्लजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी का पार्थिव शरीर 27 नवंबर 2011 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर जिले स्थित पेडापल्ली गांव में उसके घर लाया गया था. माओवादियों के तीसरे सबसे बड़े नेता किशनजी दुर्दांत रणनीतिकार और छह भाषाओं में माहिर थे, जिनकी मौत पश्चिम बंगाल में सीआरपीएफ के साथ एक मुठभेड़ में हुई थी. गांव में लाश पहुंचते ही आसपास जो भीड़ जुटी, उसे सादे कपड़ों में वहां मौजूद पुलिसवालों ने फिल्माया ताकि सादे कपड़ों में ही मौजूद किसी माओवादी की पहचान की जा सके. किशनजी के बाद पोलित ब्यूरो में उसकी जगह उसके छोटे भाई 51 वर्षीय वेणुगोपाल ने तुरंत ले ली. उनकी मां 76 वर्षीया मधुरम्मा कहती हैं कि अपने जीते जी वे अपने बेटे को शायद अब नहीं देख पाएंगी. वे कहती हैं, “यह तो जंग है. वे पुलिस को मारते हैं... पुलिस उनको मारती है.” मधुरम्मा के पति स्वतंत्रता सेनानी थे.
छत्तीसगढ़ के जंगलों में मोर्चा बनाकर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान पर हमले करने वाले माओवादी नेतृत्व का बड़ा हिस्सा तेलंगाना से ताल्लुक रखता है. माओवादियों के छह बड़े नेता हैदराबाद से 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित करीमनगर जिले के अनजान गांवों-कस्बों के हैं. इनमें माओवादियों का मुखिया, 63 वर्षीय मुप्पल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति भी है.
आंध्र प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी बताते हैं, “ये लोग चारु मजूमदार की तरह स्वप्नदर्शी और बुद्धिजीवी किस्म के नक्सली नहीं हैं.” एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं, “इन माओवादी नेताओं की विचारधारा के पीछे ठोस सैन्य कौशल का आधार भी है.” इस जंग में पिछले 10 साल के दौरान 8,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और इस साल जनवरी में इस संघर्ष ने एक भयानक मोड़ ले लिया. झारखंड में एक सीआरपीएफ के जवान की हत्या करके माओवादियों ने उसके शरीर में विस्फोटक लगा दिया. छत्तीसगढ़ में 18 जनवरी को भारतीय वायु सेना के एमआइ-17 हेलिकॉप्टर को उड़ा दिया.
यह सब भारत के सशस्त्र अतिवाद के इतिहास में पहली बार हुआ था. इसके बाद 25 मई को माओवादियों ने एक झ्टके में 28 लोगों का सफाया कर डाला और इस तरह छत्तीसगढ़ के विपक्षी दल कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व का तकरीबन पूरी तरह पूरा सफाया कर डाला. नंद कुमार पटेल और महेंद्र कर्मा घटना स्थल पर ही मारे गए जबकि घायल विद्याचरण शुक्ल ने बाद में दम तोड़ दिया. इस हमले का मास्टरमाइंड और माओवादियों के सेंट्रल मिलिट्री कमिशन (सीएमसी) का वरिष्ठ सदस्य कटकम सुदर्शन खुद निजामाबाद के बेल्लमपल्ली गांव का निवासी है, जो करीमनगर से सटा हुआ है.
आंध्र प्रदेश पुलिस ने 2010 में 408 ‘वांटेड’ माओवादियों की सूची तैयार की थी जिनमें अकेले करीमगनर से 60 बड़े महत्वपूर्ण माओवादी हैं. इसमें सबसे ज्यादा 80 नाम वारंगल से हैं. ये दोनों जिले भारत के संभावित 29वें राज्य तेलंगाना में हैं. दिल्ली में कांग्रेस की कोर समिति के समक्ष एक पावर प्वाइंट प्रस्तुति में आंध्र्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने कहा था कि तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने से सांप्रदायिकता और नक्सलवाद को बढ़ावा मिलेगा. उन्होंने मिसाल के तौर पर झारखंड और छत्तीसगढ़ में पैदा हुई स्थिति का उदाहरण देते हुए कांग्रेस नेतृत्व को आगाह किया.
करीमनगर की संतानें
कुल 39 लाख की आबादी वाला करीमनगर उत्तर में गोदावरी, पूरब में छत्तीसगढ़ के बस्तर, पश्चिम में निजामाबाद और दक्षिण में वारंगल से घिरा हुआ है. यह आंध्र प्रदेश का सबसे गरम जिला है जहां इस बार गर्मी में पारा 49 डिग्री पर पहुंचने से 10 लोगों की मौत हो गई थी. निजाम खानदान के वारिस के नाम पर बने इस जिले में पनपी अतिवाद की नर्सरी का जवाब हालांकि अकेले यहां की भौगोलिक और मौसम संबंधी स्थितियों में नहीं है.
इसी साल 1 जून की सुबह उत्तरी करीमनगर में स्थित 3,651 लोगों की आबादी वाले बीरपुर गांव की नींद एक हरकारे की आवाज से खुली थी. मुगलों के जमाने से चली आ रही परंपरा के मुताबिक टिन का एक ड्रम पीटते हुए एक हरकारे ने मुनादी की कि सरकार बड़े माओवादी नेताओं की जमीनें जब्त करने जा रही है. उसके साथ गांव का तहसीलदार और नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए) का एक अधिकारी भी था. ध्यान रहे कि बीरपुर माओवादी नेता गणपति का जन्मस्थल है.
एनआइए 2010 में पश्चिम बंगाल में हथियारों की बरामदगी से जुड़े एक मामले की जांच कर रही है जिसमें गणपति और एक अन्य नेता तिरुपति सह-आरोपी हैं. एनआइए ने माओवादी नेता और गणपति के सहयोगी बालामुरी नारायण राव की 1.3 एकड़ जमीन जब्त कर ली थी. उन्होंने पाया कि गणपति के पास कोई जमीन नहीं है. पहली बार किसी केंद्रीय एजेंसी ने माओवादी नेता के खिलाफ कोई कदम उठाया. इससे पहले उन्हें हमेशा केंद्र और राज्य सरकारों के आपसी झगड़े का लाभ मिलता रहा है.
यहां जमीन का मुद्दा ही समस्या की जड़ रहा है. गणपति के पिता जमींदार और सवर्ण जाति वेलम्मा के किसान थे. गणपति आगे चलकर इसी वर्ग के खिलाफ हो गया. करीगमनगर के एसआरआर कॉलेज से 1970 में बीएससी ग्रेजुएट गणपति ने जिले के एक स्कूल में तीन साल तक पढ़ाने का काम किया. करीगमनर में सशस्त्र संघर्ष का इतिहास रहा है. यहीं से 1945 में सीपीआइ का सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ था और जो 1951 में समाप्त हुआ. इसे तेलंगाना विद्रोह के नाम से जाना जाता है. इसके निशाने पर निजाम की सत्ता थी, लेकिन निजामशाही खत्म होने के बाद भी ‘दोरालु’ जमींदारों की सामंती बर्बरता कायम रही. करीमनगर के सांसद पोन्नम प्रभाकर बताते हैं, “यहां बारिश नहीं होती थी, खेती बारिश पर निर्भर थी और सामंती उत्पीडऩ चरम पर था.” दोरालु जमींदारों के पास काफी जमीन थी और वे अकसर अपने यहां खेती करने वाले किसानों की बीवियों को प्रताड़ित किया करते थे. बगावत की जमीन यहां पहले से तैयार थी.
गणपति के चचेरे भाई, 75 वर्षीय राजेश्वर राव इसी गांव में रहते हैं और ठेकेदारी करते हैं. सड़क किनारे बैठे गरमी और उमस में तौलिए से पंखा झलते हुए वे बताते हैं, “वह शर्मीला और संकोची था... शराब आदि कोई बुराई उसमें नहीं थी. तीनों भाई कम्युनिस्ट थे और हमेशा विप्लव साहित्यम (क्रांतिकारी साहित्य) में डूबे रहते थे.”
करीमनगर में माओवाद की नींव एक माक्र्सवादी छात्र संगठन रेडिकल स्टुडेंट्स यूनियन (आरएसयू) से पड़ी, जिसके जरिए सारे माओवादी नेता मिलते थे. तेलंगाना से स्नातक किए गणपति और अन्य छात्र नेता भी धीरे-धीरे आरएसयू की ओर खिंचते चले गए. उनके साथ ही कुछ दूसरे माओवादी विचारक भी इसमें शामिल हुए, जैसे वारंगल के रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज से गोल्ड मेडलिस्ट चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद (जिसे आंध्र प्रदेश पुलिस ने 2010 में मार डाला) और किशनजी. देश में जब इमरजेंसी लगी थी, तो 1977 में हिंसा और लूट के मामले में गणपति को गिरफ्तार किया गया था. उसकी जमानत हुई और 1979 में वह भूमिगत हो गया और अगले ही साल अपने कुछ दूसरे साथियों के साथ कोंडापल्ली सीतारामैया के नेतृत्व वाले धड़े पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) में शामिल हो गया. यह संगठन माओत्से तुंग और उनकी लिखी लाल किताब का अनुयायी था जो मानता था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है और अपने चेयरमैन की तरह ही इसे पाने के लिए तीन चरणों की कल्पना करता थाः सुदूर गढ़ों से गांवों तक और फिर शहरों तक.
ये नेता जैसे-जैसे संगठन के भीतर ऊंचे पायदानों पर पहुंचते गए, उन्होंने अपना उपनाम रख लिया और अपने घर-परिवार, बीवी-बच्चे और पुरानी यादों को पीछे छोड़ दिया. और रह गए तो सिर्फ दीवारों और प्लास्टिक की सीली एलबमों में आठवें दशक के घुंघराले बालों वाले उनके पोट्रेट. कभी पेड़ों से ताड़ी निकालने का काम करने वाले और आज रियल एस्टेट एजेंट बन चुके 40 साल के टिप्पिरी गंगाधर कहते हैं, “मैं पिछली बार 1980 में अपने भाई से जेल में मिला था.” तिरुपति उनके भाई हैं, जो किशनजी और गणपति की ही तरह करीमनगर के एसआरआर डिग्री कॉलेज से ग्रेजुएट हुआ और फिलहाल माओवादियों के सेंट्रल टेक्निकल कमिशन का प्रमुख है. उसी ने 2007 में छत्तीसगढ़ के रानीबोदली में एक पुलिस कैंप पर हमले का नेतृत्व किया था, जिसमें 55 पुलिसवाले मारे गए थे. गंगाधर बताते हैं, “उन्होंने (तिरुपति) मुझसे कहा था कि उनका कोई परिवार नहीं है. अब तो आंदोलन ही उनका परिवार है.”
बारूदी सुरंग
पहली बार गणपति के बीरपुर गांव में ही नक्सलियों ने अपने सबसे विनाशक हथियार यानी बारूदी सुरंगों का प्रयोग किया था. 1989 में पीडब्ल्यूजी ने एक जीप को यह सोच कर बारूदी सुरंग से उड़ा दिया था कि वह पुलिस की है. उस धमाके में जीप के चीथड़े उड़ गए और उसमें सवार 17 लोगों के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े पेड़ों पर जा लटके. पता चला कि वह बारात थी और उसमें गणपति के संयुक्त परिवार के सदस्य भी शामिल थे. माओवादियों ने इस घटना पर तुरंत माफीनामा जारी कर दिया, लेकिन राज्यसत्ता के खिलाफ उनकी जंग जारी रही.
गणपति ने 1992 में अपने संरक्षक सीतारमैया की जगह लेते हुए पीडब्ल्यूजी की कमान अपने हाथ में ले ली और अधिकतर जमींदारों को तेलंगाना के गांवों से बाहर खदेड़ दिया. गुदम गांव के कपास किसान, 36 वर्षीय सांदे रवि कहते हैं, ‘‘नक्सल ने डोरा काल (डोरा का राज) को खत्म कर दिया. हम उन्हें भगवान मानते हैं.” ऐसा कहते हुए वे एक तस्वीर की ओर उंगली से इशारा करते हैं जो उनके भाई सांदे राजमौलि की है. उसके हाथ में एके-47 है जिसे माओवादियों के बीच ऊंचे ओहदे की पहचान माना जाता है. 43 वर्षीय राजमौलि उर्फ कॉमरेड प्रसाद माओवादियों की सेंट्रल कमेटी में सबसे कम उम्र का नेता था. 2007 में एक मुठभेड़ में पुलिस ने उसे मार गिराया.
बीरपुर में गणपति का चार कमरों वाला बिना छत का घर आज खंडहर हो चुका है. चारों ओर उस पर झाड़ उग आई है. उसका परिवार बहुत पहले इस मकान को छोड़कर हैदराबाद में गुमनाम जिंदगी बिता रहा है. पास ही में एक मोबाइल फोन का टावर खड़ा है और खेतों में हरे-पीले जॉन डियर के ट्रैक्टर से तेलुगु फिल्मी गानों की तेज आवाज आ रही है.
गांव के बीचोबीच तेलंगाना अम्मा की एक मूर्ति स्थापित है जिसके हाथ में मक्के की एक बाली और धान का सूप है. इस मूर्ति को करीब एक दशक पहले तेलंगाना के राजनैतिक दलों ने इसी की समरूप एकीकृत आंध्र्र की प्रतीक मूर्ति तेलुगु तल्ली (तेलुगु मां) के बरक्स स्थापित किया था. जिस ओर तेलुगु अम्मा की निगाह है, वहां कुछ दूरी पर 15 फुट ऊंचा एक स्तंभ गड़ा है जिसके शीर्ष पर हंसिया-हथौड़ा लगा है और जिस पर पुलिस की गोली का शिकार हुए ‘इंकलाबी’ शहीदों के नाम लिखे हैं. इसे माओवादियों ने यहां स्थापित किया था. राज्य सरकार ने इसके जवाब में एक सफेद खंबा पास में तान दिया है जिस पर कबूतर लगा है और माओवादियों के हाथों मारे गए आम नागरिकों के नाम लिखे हैं. ऐसे में अलग तेलंगाना एक बार फिर से माओवादियों के गढ़ के रूप में तब्दील हो सकता है.
राज्यसत्ता का पलटवार
करीमनगर का पुलिस मुख्यालय एक किले की तरह है जिसके चारों ओर निगरानी टावरों पर सेल्फ-लोडिंग राइफलें लिए संतरी तैनात हैं. भीतर आंध्र्र पुलिस के चुस्त-दुरुस्त कमांडो जींस, डेनिम शर्ट और दौडऩे वाले जूते कसे बैठे हैं. उनकी गोद में रखी लोड की हुई एके-47 और उनकी सतर्क निगाहें आपको इस बात का पता देती हैं कि माओवादियों का खौफ अभी पूरी तरह गया नहीं है. करीमनगर के पुलिस अधीक्षक विश्वनाथ रविंदर कांच की मेज के सामने बैठे हैं जिस पर दो झ्ंडे आड़े खड़े हैं. एक पर लिखा है ‘हू डेयर्स विन्स’ (जुर्रत करने वाला जीतता है). वे विस्तार से बताते हैं कि राज्यसत्ता ने कैसे माओवादी की चुनौतियों को पीछे धकेल दिया है. वे बताते हैं, “सड़क निर्माण, सशस्त्र दलों का सफाया और आत्मसमर्पण कर चुके माओवादियों के पुनर्वास की तिहरी रणनीति.” वे कहते हैं कि इस आंध्र्र मॉडल ने माओवादियों को तोड़ दिया है.
पुलिस बल और इंटेलिजेंस नेटवर्क में भारी पूंजी निवेश के चलते नक्सलरोधी अत्याधुनिक ग्रेहाउंड्स कमांडो ने इंटेलिजेंस की मदद से यहां सटीक अभियान चलाए हैं. माओवादियों ने भी इसके बाद पुलिस अफसरों को निशाना बना शुरू कर दिया था और आइपीएस अफसर के.एस. व्यास की हत्या कर दी थी, जिन्होंने 1993 में ग्रेहाउंड्स की स्थापना की थी. सितंबर 2003 में माओवादियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु के काफिले पर भी बारूदी सुरंग से हमला किया था. लेकिन उसी साल से पासा पलटना शुरू हो चुका था. करीमनगर के माओवादी नेतृत्व ने इसके बाद अपनी ताकत को दंडकारण्य के जंगलों में झोंक दिया, जो आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिसा की सीमा से लगा 92,000 वर्ग किमी का जंगली इलाका है. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इसी संदर्भ में कहते हैं कि आंध्र्र प्रदेश ने न चाहते हुए भी नक्सलियों को दूसरे राज्यों में भेज दिया है.
नक्सली तेलुगु अफसर
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के मुरकिनार में 2007 में माओवादी एक सरकारी बस पर सवार होकर आए और एक पुलिस पोस्ट को उड़ा दिया. हमले में हल्की मशीनगनों का भी इस्तेमाल किया गया था. उसी हमले की हिलती हुई एक वीडियो रिकॉर्डिंग के अंत में तेलुगु में एक आवाज आती है, ‘वणक्क एमणन्न मिगिलरा?’ (कोई और बचा क्या?) आदिवासियों की गोंडी भाषा में किया गया वॉयस ओवर बताता है कि इस हमले में 11 पुलिसवाले मारे गए थे. हालांकि तेलुगु में दिए जाने वाले निर्देश से आपको अंदाजा लग जाता है कि इस अभियान में किसकी चल रही है. यह है आंध्र्र के नक्सली अफसरों की एक अत्याधुनिक कोर जिसके नियंत्रण में 10,000 आदिवासी छापामार लड़ाकों की एक फौज 2050 तक भारत सरकार को उखाड़ फेंकने का सपना पाले बैठी है.
दंडकारण्य के दुर्गम जंगलों में गणपति ने सितंबर 2004 में वह काम किया जो आजादी के बाद भारत में किसी भी छापामार लड़ाके समूह ने नहीं किया था. उसने पीडब्ल्यूजी और बिहार के माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का विलय कर दिया और सीपीआइ (माओवादी) नाम की पार्टी गठित की. 2005 आते-आते इस पार्टी को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ करार दे डाला.
गणपति भारत के नौ राज्यों के 83 जिलों में फैले इस लाल साम्राज्य का मुखिया है. एकीकरण की प्रक्रिया के बाद माओवादियों का पूर्वी राज्यों से संबंध मजबूत हुआ है, हालांकि अब भी रणनीति के स्तर पर अधिकतर काम करीमनगर से उपजा नेतृत्व ही करता है. इस साम्राज्य को गणपति अपने करीमनगर के सहयोगियों की मदद से ही चलाता है. वेणुगोपाल के हाथ में दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी है, मल्लाराजी रेड्डी संवेदनशील छत्तीसगढ़-ओडिसा स्टेट बॉर्डर कमेटी का काम देखता है, गोपालरावपल्ली के कादरी सत्यनारायण रेड्डी डीके जोनल कमेटी का सेक्रेटरी है और पुल्लुरी प्रसाद राव उत्तरी तेलंगाना जोनल कमेटी का मुखिया है. पुलिस को उम्मीद है कि यह नेतृत्व या तो आत्मसमर्पण कर देगा या परिजनों और दोस्तों के विश्वासघात का शिकार हो जाएगा. इनमें सबके ऊपर 44 लाख रु. का इनाम है. अब तक सेंट्रल कमेटी के सिर्फ एक नेता लंका पापी रेड्डी ने ही पांच साल पहले आत्मसमर्पण किया है.
गणपति पर भारी नरसिंह
गृह मंत्रालय के अफसर माओवादी नेतृत्व को बुढ़ाता और मरणासन्न मानते हैं. गणपति समेत अधिकतर नेता बाल रंगते हैं. बूढ़ा होता नेतृत्व एके-47 भी थाम ले तो अनुशासन पैदा नहीं कर पाता. बालों का नकली रंग बुढ़ाते विचारों को छुपाने में नाकाम होता है. गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “माओवादियों को नए रंगरूट पाने में काफी दिक्कत आ रही है. इसीलिए उनके यहां 60 फीसदी से ज्यादा सशस्त्र काडर आज महिलाएं हैं.
दूसरी कतार के नेताओं में गणपति और उनके सहयोगियों जैसी प्रतिबद्धता भी नहीं है.” वे नक्सली समस्या के अवसान की ओर इशारा कर रहे हैं. उनकी मानें तो आखिर में जीत करीमनगर के सबसे मशहूर बेटे की होगीः यानी पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव. वंगारा गांव के एक सामंती परिवार में जन्मे राव 1973 तक राज्य विधानसभा में तीन बार मंथनी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे. माओवादी उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे और एक जमींदार व पूंजीपति के रूप में देखते थे जिसने सत्ता हथिया ली थी. वंगारा गांव में राव के खेतों की सुरक्षा के लिए एक पुलिस पोस्ट लगाई गई थी और उसी की देखरेख में खेती आदि का काम होता था.
कांग्रेस पार्टी ने यहां राव की सियासी विरासत को बड़े कायदे से धो-पोंछकर साफ कर दिया है. न तो उनके गृह जिले में उनकी कोई प्रतिमा है, न ही कोई सरकारी योजना उनके नाम पर है. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि यहां जो कुछ भी है, उस पर राव की ही छाप है. उनके लाए आर्थिक सुधारों की चमक में शहर खूब फल-फूल रहा है. यहां नए-नए खुले एक मल्टीप्लेक्स में वल्र्ड वार जेड और मैन ऑफ स्टील के तेलुगु संस्करण दिखाए जा रहे हैं जबकि ये फिल्में इसी सप्ताह हॉलीवुड में भी रिलीज हुई हैं. काले दमकते स्टेट हाइवे से बसें और ट्रकें धड़धड़ाते हुए जिले में चले आ रहे हैं. इनके साथ ही यहां कारोबारी गतिविधियों का प्रसार जुड़ा है. इस जिले में ग्रेनाइट की खुदाई खूब होती है और इसका सबसे बड़ा खरीदार चीन है.
माओवाद इसके जन्मदाताओं की जन्मस्थली पर ही मर चुका है. माना जाता है कि आज गढ़चिरौली की सीमा से लगे महादेवपुर इलाके में ही माओवादियों का इकलौता सशस्त्र दस्ता इस जिले में रह गया है. आखिरी माओवादी हिंसा की घटना यहां पिछले साल मई में हुई थी जब एक कांग्रेसी कार्यकर्ता को गोली मार दी गई थी. करीमनगर के अतिरिक्त जिलाधिकारी अरुण कुमार कहते हैं कि यहां अतिवाद दोबारा अपनी जड़ें नहीं जमा सकेगा और इसे पुष्ट करने के लिए वे समाज कल्याण योजनाओं की लंबी सूची दिखाते हैं. वे कहते हैं, “पिछले कुछ दशकों में पैसे का बंटवारा पर्याप्त हुआ है. हम असंतोष के बुनियादी कारण से निपटने में कामयाब रहे हैं.” आज यहां के पढ़े-लिखे लड़के हैदराबाद व दूसरे जिलों के कॉल सेंटरों, शॉपिंग मॉल और टेक्नो-पार्कों में जा रहे हैं.
प्रतिमा रेजिडेंसी होटल के विज्ञापन का दावा है कि वहां करीमनगर का सबसे बड़ा बिना खंबों वाला बैंक्वेट हॉल है जहां 2,000 लोगों के बैठने की सुविधा है. कुछ चीजें हालांकि ऐसी हैं जिनके लिए विज्ञापन की जरूरत नहीं होती, मसलन तीन सितारा होटल श्वेता का बैंक्वेट हॉल जहां चीनी ग्रेनाइट व्यापारी इडली और डोसा खा रहे हैं. ऐसा लगता है, गोया देंग जियाओ पिंग की संतानें पेट भरने भर के इंकलाब में जुटी हैं.