जब चीन कोई ख्वाब देखता है तो बाकी दुनिया के लिए वह दु:स्वप्न बन जाता है. यहां के नए राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जो नया ख्वाब देखा है, उसकी चर्चा अब तक हजारों संपादकीय पन्नों को रंग चुकी है और चीन पर नजर रखने वाले उत्साही विश्लेषक अब भी इसके असल मायने निकालने में जुटे हुए हैं. 'अमेरिकी स्वप्न’ की प्रतिध्वनि का आभास देने वाला यह 'चीनी स्वप्न’ क्या पूंजीवाद की उस प्रवृत्ति से कोई ताल्लुक रखता है जिस पर आज तक चीन में बंदिश कायम है, यानी व्यक्तिगत आजादी? पांचवीं पीढ़ी के चीनी नेतृत्व के शब्दों में कहें तो क्या यह आधुनिकीकरण के पांचवें चरण यानी लोकतंत्र का आगाज होगा? या फिर चीन की स्वप्नजीवी जनता अपनी खुशियां और समृद्धि अब भी बाजार में ही तलाशेगी और पार्टी के अदृश्य सेंसर राज्य की जरूरत के हिसाब से उसके सपनों में काट-छांट करते रहेंगे? आखिरकार, क्रांति के मिथकों में बार-बार आने वाले नारे जनता की ही अभिव्यक्ति तो हैं और शौकिया कवि चेयरमैन माओ ने खुद सर्वहारा के महान भविष्य पर रचे गए साहित्य में अपना योगदान दिया है—चाहे वह 'बमबार्ड द हेडक्वार्टर्स’ हो या फिर 'लेट अ हंड्रेड फलार्स ब्लूम (सौ फूलों को खिलने दो)’ वाला नारा. यह बात अलग है कि माओ को संग्रहालय में ले जाकर बिठाने वाले आधुनिकता के पैरोकार डेंग शाओपिंग अपने नारों में कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक रहे, मसलन, ''बिल्ली जब तक चूहे का शिकार कर रही है, तब तक इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह काली है या सफेद!” डेंग के दौर में संपन्न होना चीन में प्रतिष्ठा की बात थी, लेकिन 1989 में न सिर्फ तिएनमन चौक पर, बल्कि सपनों की जमीन पर भी टैंक चला दिए गए. अब कम से कम नारों की भाषा में ही सही बदलाव तो आ रहा है, जब चीन का एक नेता सपने देखने के अधिकार की बात कर रहा है. क्या चीन नए राष्ट्रपति के बदलावों का गवाह बनने जा रहा है?
यह बदलाव अपरिहार्य है; मुक्त बाजार और कैद नागरिकता का विरोधाभास—इसे आप सामाजिक पूंजीवाद कहें या चीनी लक्षणों से युक्त पूंजीवाद—हमेशा के लिए नहीं ठहर सकता. चीन की सत्ता हमेशा यह सोचती रही है कि वह पैसे की चमक और शेंझेन और शंघाई जैसे महानगरों की दमक से पश्चिमी पूंजीवाद को टक्कर दे सकती है और साथ ही अपने राष्ट्रीय मानस को लोकतंत्र के क्रांतिकारी जीवाणुओं से बचाए भी रख सकती है.
शी कम्युनिस्ट पार्टी में चीनी क्रांति के बाद की पीढ़ी के शायद पहले ऐसे नेता हैं जो यह समझते हैं कि चेतना का वैश्वीकरण रोक पाना उस पार्टी के वश में नहीं है जो आज भी लेनिनवादी मशीन की तरह राज्य के शत्रुओं को छांटकर यातना शिविरों में भेजती है और यह काम वैश्विक बाजार के साथ सह-अस्तित्व में जारी रहता है. हालांकि शी का ख्वाब गोएबल्स (हिटलर के प्रॉपगैंडा मिनिस्टर) के दुष्प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं रह जाएगा अगर वह मल्टीमीडिया कलाकार आइ वेवे और आजादी के लिए बागियों का घोषणापत्र 'चार्टर 08’ लिखने वाले नोबेल विजेता लियू शिओबो जैसे बागियों के उन सपनों को नहीं पनपने देंगे, जिन्होंने चीनी सरकार को चेताते हुए यह दुस्साहसी सूत्र वाक्य लिखा है, ''सम्राटों और अधिपतियों का दौर अब जा रहा है.”
चीन एक ऐसा साम्राज्य है जो सराहना, अचरज, भय और विद्वेष के भाव समान रूप से पैदा करता है. यह साम्राज्य उलझन और उत्तेजना का शिकार है. यह भीतर और बाहर हर जगह एक सनातन जंग में उलझा हुआ है. अपने यहां सवाल खड़ा करने वाले नागरिकों की चेतना पर यह बंदिशें जड़ता है. असली दुनिया से लेकर आभासी दुनिया तक इसे हर जगह अपने दुश्मन नजर आते हैं. सीमापार अतिक्रमण की कार्रवाइयों से चीन ने अपने पड़ोसियों को पहले ही नाराज कर डाला है, चाहे वह जापान हो, विएतनाम या भारत. इसके अलावा यह प्योंगयांग की तानाशाह सत्ता से लेकर दमिश्क तक सारे खुराफाती देशों को चुपचाप मदद पहुंचाता रहता है. हो सकता है, इस सदी में दुनिया का केंद्र बनकर उभरना चीन के सर्वाधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय कार्यक्रमों में एक हो, लेकिन फिलहाल हम जिस चीन की बात कर रहे हैं वह अपनी तरक्की की रफ्तार और प्रभाव के विस्तार के बावजूद तीसरी दुनिया की मानसिकता वाली एक ताकत बना हुआ है. शी अगर चीन में पल रहे एक अरब सपनों की ताकत और संभावनाओं को सही-सही पकड़ पाए, तो बदलाव बहुत दूर नहीं होगा.
जहां तक भारत की बात है, जो लंबे समय से चीन को एक ग्रंथि की तरह अपने भीतर पोसता रहा है, वह फिलहाल चीन के दूसरे सबसे ताकतवर नेता के इंतजार में इस सवाल से रू-ब-रू है कि क्या उस बदलाव की कुछ झलक उसे भी मिल सकेगी? यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि ली केकियांग का स्वागत जिस शख्स को करना है, वह इस लोकतंत्र के टूट चुके सपनों की मिसाल बन बैठा है.