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कपड़ा उद्योग: बांग्लादेश से पिट रहा भारत

भारत का टेक्सटाइल सेक्टर वर्षों की उपेक्षा की कीमत चुका रहा है और दुनिया के बाजार में चीन से तो क्या बांग्लादेश और विएतनाम से भी पिछड़ गया है. सवाल यह कि क्या नए सरकारी उपाय इसमें कुछ जान डाल सकेंगे?

टेक्सटाइल सेक्टर
टेक्सटाइल सेक्टर
अपडेटेड 9 अप्रैल , 2013

अरविंद कुमार ऑप्टिमम सिल्क मिल्स में करघा चलाता है. मुंबई के पास भिवंडी में इस छोटे से पावरलूम में पोलिएस्टर से कपड़ा बनता है. कारखाने के शोरगुल के बीच बगल के लकड़ी के केबिन में हम से बात करते हुए वह कुछ घबराया हुआ था. बिहार के गया का रहने वाला 30 साल का अरविंद तीन साल पहले भिवंडी पहुंचा. इससे पहले दो साल तक उसने पड़ोस के तारापुर कस्बे में छोटे-मोटे काम किए.

दिन में 12 घंटे करघे के शोर के बीच काम करने के बाद उसे महीने में करीब 8,000 रु. मिलते हैं, जिसमें दो बच्चों का यह पिता मुश्किल से गुजारा कर पाता है. चेहरे पर मुस्कान लाकर और हाथों से ग्रीस के दाग पोंछते हुए अरविंद ने कहा, ‘‘जो भी मिलता है उसमें खुश रहने की कोशिश करता हूं. मुझे बस यही काम आता है.

अरविंद जैसे 15 लाख लोग भिवंडी के पावरलूम कारखानों में काम करते हैं, जहां भारत का 33 फीसदी पोलिएस्टर कपड़ा बनता है, जिससे कमीजें, साडिय़ां और सूटिंग्स तैयार होती हैं. यहां अधिकतर कारीगर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिसा के हैं. इनकी औसत दिहाड़ी 250 रु. है. कोई बचत खाता नहीं है और बीमा भी नहीं है. ये अकसर गांव जाने के लिए काम से छुट्टी लेते हैं और कुछ महीनों के लिए तो करघों पर 25 फीसदी मजदूर कम हो जाते हैं. कुछ कारीगर लौटते ही नहीं, क्योंकि उन्हें अपने राज्य में कोई नया काम मिल जाता है.

मुकाबले में टिकने की क्षमता नहीं
कारीगरों की कमी और काम की खराब परिस्थितियां उन अनगिनत समस्याओं में से सिर्फ दो हैं, जिनसे भारत का टेक्सटाइल और रेडीमेड वस्त्र उद्योग जूझ रहा है. यह 3.5 करोड़ लोगों को सीधे रोजगार देता है, भारत के जीडीपी में चार फीसदी योगदान करता है और देश के कुल निर्यात का 17 फीसदी कमाता है. मुंबई स्थित क्लोदिंग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीएमएआइ) के अध्यक्ष राहुल मेहता के अनुसार, भारत का टेक्सटाइल उद्योग प्रतिस्पर्धा की क्षमता खो रहा है. रेडीमेड कपड़े बनाने वाली 20,000 कंपनियां सीएमएआइ की सदस्य हैं. इस क्षेत्र में गिरावट का दौर 1980 के दशक में शुरू हुआ, जब मुंबई जैसे पुराने गढ़ों में एकीकृत या कंपोजिट कपड़ा मिलें बंद होने लगीं और अब यह गिरावट चिंताजनक हद तक पहुंच गई है. अप्रैल-सितंबर, 2012 में भारत का टेक्सटाइल निर्यात 5.9 प्रतिशत गिरकर सिर्फ 14.1 अरब डॉलर रह गया, जिसकी बड़ी वजह अमेरिका और यूरोप जैसे प्रमुख बाजारों में आई मंदी थी. 2011-12 में दुनियाभर में रेडीमेड वस्त्रों के निर्यात में भारत ने अपनी नंबर दो की हैसियत गंवा दी और उसकी जगह बांग्लादेश ने ले ली.

चीन, बांग्लादेश और विएतनाम दुनिया के बाजार में भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरे हैं. ससमिरा पावरलूम सर्विस सेंटर के संयोजक बी. बसु कहते हैं, ‘‘चीन को कोई मात नहीं दे सकता. वहां बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाली इकाइयां भारत से 60-70 प्रतिशत तक सस्ता माल बनाती हैं.’’ केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला यह सर्विस सेंटर कारीगरों को नई टेक्नोलॉजी और सामान्य कौशल सिखाने में मदद करता है. चीन के आधुनिक जेट करघे एक दिन में 10,000 मीटर तक कपड़ा तैयार कर सकते हैं, जबकि भिवंडी के डॉबी करघे पर महज 40 मीटर  कपड़ा ही रोजाना बनता है.

राहुल मेहता कहते हैं, ‘‘चीन में मजदूरी महंगी होने के बावजूद उसकी कुल क्षमता और कार्यकुशलता की बदौलत खरीदार चीन की सप्लाई चेन से बाहर नहीं जा सकता.’’ इस वर्ग में बांग्लादेश का उदय भी आश्चर्यजनक है. एपेरल एक्सपोर्ट्स प्रमोशन काउंसिल (एईपीसी) के चेयरमैन और तिरपुर एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ए. शक्तिवल कहते हैं, ‘‘यूरोपीय संघ के लिए बांग्लादेश का निर्यात शून्य ड्यूटी पर होता है, जबकि भारत के लिए 10 प्रतिशत ड्यूटी है.’’ बांग्लादेश में उत्पादन लागत भारत से आधी है. बांग्लादेश अपने 55 प्रतिशत टेक्सटाइल प्रोडक्ट यूरोपीय संघ को, 43 प्रतिशत अमेरिका को और दो प्रतिशत भारत को निर्यात करता है.

बढ़ती उत्पादन लागत
कच्चे माल से लेकर मजदूरी और ढुलाई तक में उत्पादन की बढ़ती लागत भारत की स्पर्धा क्षमता को चोट पहुंचाने वाला प्रमुख कारक है. उदाहरण के लिए सूती धागे के दाम इस वर्ष 1 मार्च से 20 प्रतिशत बढ़कर 236 रु. प्रति किलो (धागे की किस्म 40 एस कॉम्ब्ड के लिए) हो गए, जबकि जून, 2011 में उसकी कीमत 198 रु. थी. कपास की स्थिति भी ऐसी ही है. मुंबई स्थित कॉटन टेक्सटाइल्स एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के चेयरमैन मणिकम रामास्वामी कहते हैं, ‘‘देश में कपास के दाम अंतरराष्ट्रीय मूल्यों की तुलना में 3-5 प्रतिशत ज्यादा हैं, जबकि भारत के पास कुल मिलाकर कपास सरप्लस है. खरीद एजेंसियों के पास नवंबर-दिसंबर, 2012 और जनवरी 2013 के बीच खरीदी गई कपास की 20 लाख से अधिक गांठें जमा होने के कारण कृत्रिम कमी पैदा हो गई है.’’ यह काउंसिल निर्यात बढ़ाने के लिए गठित सरकार प्रायोजित संस्था है. भारतीय कपास निगम और नैफेड जैसी सरकारी खरीद एजेंसियां कपास किसानों को दामों में उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए मंडी से कपास खरीदती हैं, लेकिन रामास्वामी के अनुसार इस मामले में पासा उलटा पड़ रहा है, क्योंकि निजी व्यापारी भी बड़ी मात्रा में कपास खरीदे बैठे हैं.

इस बीच मजदूरी की लागत अन्य उद्योगों की तुलना में कम होने के बावजूद पिछले 10 साल में दोगुनी हो गई है. सूती और सिंथेटिक धागे से कपड़ा बनाने वाले पावरलूम मालिकों को अनुभवी कारीगरों को रोकने के लिए जल्दी-जल्दी मजदूरी बढ़ानी पड़ती है. पावरलूम के तकनीशियन 30 साल के गजेंद्र प्रताप सिंह ने 10  साल पहले बतौर हेल्पर शुरुआत की थी, लेकिन आज उनकी कमाई 18,000 रु. महीना है. उनके मालिक मनोज शाह का कहना है कि इलाहाबाद के रहने वाले गजेंद्र प्रताप मेहनती हैं और एक अपवाद हैं. ‘‘ऐसे कारीगरों को रोके रखने के लिए अच्छा वेतन देना पड़ता है.’’

गारमेंट सेक्टर सरकार से घोषित मजदूरी देता है. इसलिए वेतन समय-समय पर बढ़ता रहता है. अरविंद लाइफ  स्टाइल ब्रांड्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक और सीईओ जे. सुरेश के अनुसार, ‘‘मुद्रास्फीति के हिसाब से मजदूरी की लागत हर साल 10 से 15 प्रतिशत बढ़ जाती है.’’ अरविंद के अपने 12 ब्रांड के अलावा 15 अंतरराष्ट्रीय रेडीमेड कपड़ों के ब्रांड भी हैं.

देश में पिछले दो साल में उपभोक्ता खर्च में कमी के कारण सिले हुए कपड़ों की मांग 20 प्रतिशत गिरी है. सुरेश का कहना है, ‘‘2012 की शुरुआत से ऊंची मुद्रास्फीति और खर्च में मंदी ने मांग कम कर दी है.’’ खराब बुनियादी सुविधाएं और टैक्स भी चिंता का विषय हैं. आदित्य बिरला ग्रुप की प्रमुख कंपनी ग्रासिम इंडस्ट्रीज के प्रबंध निदेशक के.के. महेश्वरी कहते हैं, ‘‘भारतीय कंपनियां बहुत सारे प्रत्यक्ष और परोक्ष टैक्सों के बोझ से दबी हैं.’’ ग्रासिम का 80 प्रतिशत कारोबार विस्कॉस स्टेपल फाइबर से आता है, जो कपड़ों के लिए कच्चा माल है. ढुलाई की लागत पिछले पांच वर्षों में 40 प्रतिशत तक बढ़ गई है. बी. बसु के अनुसार, ‘‘चीन में जो माल पहुंचने में पांच दिन लगते हैं, वही भारत में एक महीने में पहुंचता है.’’

वित्त मंत्री का बजट फॉर्मूला
ताजा केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने कुछ समस्याएं सुलझाने की कोशिश की है. उन्होंने 12वीं योजना में भी टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन फंड स्कीम जारी रखने का प्रस्ताव किया है, जिसमें पावरलूम सेक्टर पर जोर होगा और डेढ़ लाख करोड़ रु. का निवेश होगा. प्रोसेसिंग इकाइयों की स्थापना के लिए 500 करोड़ रु. आवंटित किए गए हैं. पावरलूम सेक्टर को आधुनिक बनाने के लिए 2,400 करोड़ रु. और एपेरल पार्क्स को बढ़ावा देने के लिए 50 करोड़ रु. देने का भी प्रस्ताव है. सरकार ने सूती कपड़ों के रेशे, धागे, कपड़े और गारमेंट पर उत्पाद शुल्क हटाने की भी घोषणा की है. अरविंद लाइफस्टाइल ब्रांड्स के सुरेश कहते हैं, ‘‘10 प्रतिशत उत्पाद शुल्क हटने से गारमेंट के दाम 5-7 फीसदी कम हो सकते हैं.’’

वित्त मंत्री ने पारंपरिक हथकरघा उद्योग के लिए भी कई रियायतें घोषित की हैं. इनमें 6 प्रतिशत की रियायती ब्याज दर पर कार्यशील पूंजी और सावधिक ऋण की सुविधा शामिल है. चिदंबरम ने कहा था कि हथकरघा क्षेत्र मुसीबत में है. बहुत बड़ी तादाद में हथकरघा बुनकर महिलाएं हैं और वे मुख्य रूप से पिछड़े वर्गों से आती हैं.

जमीनी जरूरतें
यह उद्योग अब लचीले श्रमिक कानूनों की मांग कर रहा है, जिससे आसानी से ठेके पर मजदूर रखे जा सकें और ओवरटाइम सीमा बढ़ाई जा सके. ग्रासिम के महेश्वरी के अनुसार श्रमिकों की कमी और बढ़ती मजदूरी को देखते हुए भारतीय कारखानों में मशीनरी को आधुनिक बनाना जरूरी है. रेडीमेड कपड़े बनाने वालों की निगाहें भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर टिकी हैं, जिससे दोनों को फायदा होगा. ए. शक्तिवल कहते हैं, ‘‘मुक्त व्यापार समझौते के अंतर्गत भारत की रेडीमेड कपड़े बनाने वाली कंपनियां वे कपड़े आयात कर सकेंगी, जो भारत में नहीं बनते और उसे मूल्य संवर्धन के बाद यूरोप वापस भेज देंगी. मूल्य संवर्धन 55 प्रतिशत तक हो सकता है, जिससे रोजगार बढ़ाने में भी मदद मिलेगी.’’

ग्रासिम के माहेश्वरी का कहना है, ‘‘सरकार और उद्योग, दोनों को बुनियादी हकीकत देखने की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो भारत जल्दी ही वस्त्र बनाने वाले देश से महज उसका इस्तेमाल करने वाला देश बन जाएगा.’’ यह सुझाव और चेतावनी, दोनों है.

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